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२८६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । अपायविचय धर्मध्यानके आराधकके लिये आत्म-कल्याणको प्राप्त करनेवाले उपायों का ध्यान करना अथवा जीवोंके शुभाशुभ कर्मोका नाश और उनमें धर्मकी वृद्धि कैसे हो, ऐसा विचार करना आवश्यक होता है। अशोक इसी धर्मकी वृद्धि हुई स्वीकार करते हैं। उन्होंने इस धर्मध्यानका विशेष चितवन किया प्रतीत होता है । और उसीके बलपर वह अपनी धर्म-विजयमें सफलमनोरथ हुये थे। जिस धर्मप्रचारको उनके पूर्वन नहीं कर सके उसको उन्होंने सहज ही दिगन्तव्यापी बना दिया । अतः यह कहा जासक्ता है कि अशोक अपने अंतिम समय तक भावों की अपेक्षा बहुत करके जैन था। उसने राजनीतिका माश्रय लेकर अपने भाधीन प्रजाके विविध धर्मों की मान्यताओं का आदर किया था और उन्हें धर्मके उस रूपको माननेके लिये बाध्य कर दिया था, जिसपर वह स्वयं विश्वास रखता था।
लोगोंमें धर्मवृद्धि करनेके जिन उपायों को अशोकने अपने पचारका लंग ध्यान बलसे प्रतिष्ठित किया था, उनको वह
और क्रियात्मक रूप देकर शांत हुमा था । अशो. उसमें सफलता । कने अपने सब ही छोटे बड़े राज-कर्मचारियों को भाज्ञा दे रक्खी थी कि-"वे दौरा करते हुये 'धर्म' का प्रचार करें
और इस बातकी कड़ी देखभाल रक्खें कि लोग सरकारी आज्ञाभोंका यथोचित पालन करते हैं या नहीं। तृतीय शिलालेख इसी विषयके सम्बंध है। उसमें लिखा है कि-देवताओंके प्रिय प्रिय.
१-कल्याण पावगाओ पाओ विचिणोदि जिणमदमुविच्च । विचि. णादि वा अपाये जीवाणसुहे य असुहेय ॥४०॥-मलाचार । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com