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२९६] संक्षिप्त जैन इतिहास । दायोंके शास्त्रों में है। किंतु संप्रति का उल्लेख केवल एक संप्रदायके शास्त्रों में होना, संभवतः संघभेदका द्योतक है । वि० सं० १३९में दिगंबर और श्वेताम्बर भेद जैनसंघमें प्रगट हुआ था; तबतक दिग. म्बर जैन दृष्टिके अनुसार अर्घफालक नामक संप्रदाय का अस्तित्व जैनसंघमें रहा था। मथुराकी मूर्तियोंसे इस संप्रदायका होना सिद्ध है। अतएव यह उचित जंचता है कि श्वेतांबरोंके इस पूर्वरूप 'अर्धफालक' संप्रदायके नेता आर्य सुहस्तिसूरि थे और संप्रतिको भी उन्होंने इसी संप्रदायमें मुक्त किया था। यही कारण है कि मुहस्तिसूरि और संप्रतिके नाम तकका पता दिगम्बर जैन शास्त्रों में नहीं चलता । सम्राट चन्द्रगुप्त का जितना विशद वर्णन और उनका आदर दिगंबर जैन शास्त्रों में है, उतना ही वर्णन और भादर श्वेतांवरीय ग्रन्थों में संप्रतिका है।
हिंदुओंके वायु पुराणादिकी तरह बौद्धोंने भी संप्रतिका उल्लेख 'संपदी' नामसे किया है और अशोकके अंतिम जीवन में उसके द्वारा ही राज्य प्रबंध होते लिखा है। किंतु ऊपर जिस संघभेदका उल्लेख किया जाचुका है, उसके होते हुये भी मालूम होता है. कि मूल जैन मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं पड़ा था। श्री आर्य मुहस्तिमूरिके गुरुभाई श्री मार्य महागिरिने जिनकल्प ( दिगम्बर भेष )का आचरण किया था । जैनमूर्तियां ईसवीकी प्रथम शताब्दि तक और संभवतः उपरांत भी बिल्कुल नग्न (दिगम्बर भेष ) में बनाई जाती थीं। दिगम्बर जैनोंके मतानुसार भद्रबाहुनीके चाद वि.
१-जैहि. भा. १३ १० २६५ । २-भद्रबाहुचरित्र . ६६। ३-वीर वर्ष ४ पृ. ३०७-३०९। ४-अशोक, पृ० २६५। ५-परि० पृ० १२! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com