Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOO @kkbilidk Ik Illlebic % દાદાસાહેબ, ભાવનગર. ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 5272008 पप्त जैन इतिहास। द्वितीय भाग। प्रथम खण्ड। SSSSSSSS6666000000000000er सौ० सविताबाई, स्वर्गवासी धर्मपत्रीमूलचद किसनास कापड़िया सरतके स्मरणार्थ “दिगम्बर जैन के २५ वें वर्षके माहकोको भेट। -बाबू कामताप्रसादजी जैन । - Hà Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------- H सौ० सविताबाई स्मारक प्रन्थमाला नं० २. ||||||||||||| MAHA-RAALI ૩ संक्षिप्त जैन इतिहास / द्वितीय भाग। ( प्रथम खंड ) लेखक: श्रीमान् बाबू कामताप्रसादजी जैन एम. आर. ए. एस., , ऑन० सम्पादक - 'वीर' और ' भगवान महावीर 'भगवान पार्श्वनाथ', 'सत्यमार्ग', 'लॉर्ड महावीर महाराणी चेलनी इत्यादि ग्रंथोंके रचयिता । प्रकाशकः मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कापड़ियाभवन- मूरत । ― स्व• सविताबाई, सौ० धर्मपत्नी मूलचन्द किसनदास कापडिया के स्मरणार्थ " दिगम्बर जैन " के २५ वे वर्षके ग्राहकों को भेंट | प्रथमावृत्ति ] वीर सं० २४५८ मूल्य - रु० १-१२ -०. ......................................................●||||||||||||||||||||||||||||||||||ō ●HININTH---------- [ प्रति १००० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तावना। . अधिक समय नहीं हुमा कि सरदार पटेलने एक भाषण में कहा था कि गर्हिसा वीरोंका धर्म है।' और उन्हीं के साथ काका कालेलकरने प्रगट किया था कि “जैनधर्म सर्वोत्तम रीतिसे जीवन वर्तनका उपाय बताता है । वह सच्चा साम्यवाद सिखाता है।" जैनधर्मके विषयमें राष्ट्रीय-नेताओंके यह उद्गार निःसंदेह ठीक हैं। किन्तु इन उद्दारों का महत्व तब ही स्पष्ट होसक्ता है कि जब जैनोंके गत जीवन व्यवहारसे अहिंसा धर्मका पालन करते हुये वीरत्वके प्रकाश और जीवनकी पूर्णताका चित्र साधारण जनताके हृदयपटलपर अंकित किया जातके । यह होना तब ही संभव है कि जब जैनों का इतिहास जनताके हाथों में पहुंचे। जैसे किसी मनुष्यका सन्मान उसके वंश, प्रतिष्ठा आदिका परिचय पानेसे होता है, उसीतरह किसी जातिका मादर उप्त जाति का इतिहास जाननेसे लोगोंकी दृष्टिमें बढ़ता है । भारत दिगम्बर जैन परिषदने इस आवश्यक्ताको बहत पहले अनुभव कर लिया था। और तदनुसार अपनी एक 'इतिहास कमेटी' भी नियुक्त की थी, जिसका एक सदस्य मैं भी था। उसीके अनुरूप मैंने "जैन इतिहास" को लिखनेका उद्योग चालू किया था और परिणामतः उसका पहला भाग, जिसमें ईस्वी पूर्व ६०० वर्षसे पहलेका पौराणिक इतिहास संकलित है, प्रगट होचुका है। प्रस्तुत पुस्तक उसी सिलसिले में दूसरे भागका पहला खण्ड है। दूसरे भागमें ईस्वी पूर्व छठी शताब्दिसे ईस्वी तेरहवीं शताब्दि तकका इतिहास एकत्र किया जाना निश्चित है। इस पहले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साडमें ईस्वी पूर्व छठी शताब्दिसे दूसरी शताब्दि तकका इतिहास प्रगट किया गया है। पाठक महोदय देखेंगे कि पहले नमानेमें हिंसा धर्मको पालते हुये नोंने केमा वीरत्व प्रगट किया था और जीवनको प्रत्येक दृष्टिसे उन्होंने सफल बनाया था। उनमें बड़े २ सम्राट थे जिन्होंने मारतकी प्रतिष्ठा विदेशोंमें कायम की वी-उनमें बड़े २ योडा थे, जिन्होंने शूरोंके दिल दहला दिये थेउनमें बड़े २ व्यापारी थे, जिन्होंने देशविदेशों में जाकर अपार धनसंचय किया था और उसे धर्म और सर्वहितके कार्यों में खर्च करके भारतका गौरव बढ़ाया था ! और उन नियों में वे प्रात:स्मरणीय महापुरुष थे जो दिगम्बर-प्राकृत वेष में रहकर ज्ञान-ध्यान द्वारा आत्मतेनके पुन थे और जो जीवमात्रा कल्याण करने में अग्रसर थे ! अब भला कहिये कि नैनधर्मका अहिंसातत्व क्यों न वीरत्वका प्रकाशक हो और उसके द्वारा मनुष्य जीवन कैसे सफल न हो ? जैनों का यह प्राचीन इतिहाम आन हम-मवको जीवितजागृत और कर्मठ होने की शिक्षा देता है। गत इतिहासको जानना तब ही सार्थक है जब उसके अनुमार वर्ताव करने का उद्योग किया नाय ! मान प्रत्येक नैनीको यह बात भूल न जाना चाहिये। यह संभव नहीं है कि प्रस्तुत पुस्तकमें वर्णित काल का संपूर्ण इतिहास आगया हो। हां उसको यथामंभव हर तरहसे पूर्ण बनाने का ख्याल अवश्य रखा गया है और आगामीके भागों में भी रक्खा नावेगा। दूसरे भागका दूसरा खंड भी लिखा नाचुन्न है और वह भी निकट भविष्यमै पाठकों के हाथ में पहुंच जावेगा। माशा, पाठक उनसे यथेष्ट लाम उठावेंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) इस खण्डको श्रद्धेय ब. सीतलप्रसादनीने देखकर हमें उचित परामर्श दिया है. इसके लिये उनको धन्यवाद है। इम्पीरियल मयबेरी कलाना हमे यथेष्ट साहित्य-सहायता मिली है; एतदर्ष उसका भाभार स्वीकृत है। साथ ही प्रिय मित्र कापड़ियानीका भी बामार स्वीकार कर लेना हम उचित समझते हैं जिन्होंने न केवल साहित्य प्रस्तुत करके इसका संकलन कार्य सुगम किया है, वरन् इसको प्रकाश में लाकर उन्होंने इसका प्रचार व्यापक और सुगम बना दिया है । इति शम् । विनीतअलीगंज (एस) कामताप्रसाद जैन, 11-२-१९३९। संपादक "वीर" ==- Sरर र धन्यवाद। प्रसिद्ध लेखक व इतिहासज्ञ श्री. बाबू कामताप्रसादजी जैनअलीगंजने अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ रचे है, उनमें "संक्षिप्त जैन इतिहास' भी एक है, जिसका प्रथम भाग हमने ६ वर्ष हुए प्रकट किया था और यह दृपग भाग प्रथम ) भी आज प्रकट किया जाता है । आपने इस ग्रन्थका कलन अंग्रेजी, हिंदी व संस्कृत भाषाकी छोटी बड़ी करीब १०० पुस्ताका वाचन व मनन करके किया है, जिसके लिये माप अनेक.: धन्यवादके पात्र है। ऐसे ऐतिहासिक प्रन्योका सुलभ प्रचार करने के लिये जिस प्रकार इसका प्रथम भाग " दिगम्बर जैन" के १९ वर्षके प्राहकोको भेट देनेके लिये प्रकट किया था उसी प्रकार यह दूसग भाग (प्र. खंड) भी 'दिगम्बर जैन' के २५वें वर्षके ग्राहकों को भेट देनेके लिये जो उसके ग्राहक नहीं हैं उनके लिये विक्रयार्थ भी निकाला गया है । भाशा है कि इसका अच्छा लाभ उठाया जाएगा । प्रकाशक। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .AAAAAAAAAAAAD | सौ. सविताबाई सारक। प्रन्थमाला नं० २. JIII स्वर्गीय लगाकTITIT सौ. श्रीमती सविताबाई कापड़िया, धर्मपत्रां, भी० मूलचंद किसनदासजी कापड़िया-सूरत । जन्म-सं० १९६४. स्वर्गवास-सं० १९८६. आपके स्मारकमें २०००) स्थायी शास्त्रानके लिये निकाले गये हैं जिनमेसे "ऐतिहासिक स्त्रियां" नामक प्रथम ग्रन्थ । गत वर्षमे प्रकट करके "दिगम्बर जैन" वि"जैन महिलादर्श" के ग्राहकों को भेट स्वरूप बांटा गया था और इस स्मारक | ग्रन्यमालाका यह दूपरा पुष्प " दिगम्बर । न" के २५ वर्षके ग्राहकों को भेटमें दिया जाता है। भाशा है कि ऐसे स्थायी सावरानका अनुकरण मन्य श्रीमान व श्रीमती भी करेंगे। - * Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = == = = sans समर्पण। Plessings মিলু ক্তা মাজুলী জ্ঞান্তে, रईखा, अलीगंज (एटा) = == = = = = = cds == = s = = Looglesleg पिताजी ! आपके अनुग्रहसे जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके फल-स्वरूप यह भेंट आपके करकमलों में सादर सविनय समर्पित है। आपका पुत्र कामताप्रसाद । === == == = res Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची । १ - प्राक्कथन - जैन धर्मका प्राकृत रूप, जैनधर्म की प्राचीनता, प्राचीन भारतका स्वरूप, तत्कालीन मुख्य राज्य .... १ १ - शिशुनाग वंश - उत्पत्ति, उपश्रेणिक, श्रेणिक बिम्बसार, अभयकुमार, अजातशत्रु, कुणिक, दर्शक, उदयन, नन्दिवर्धन, महानन्दिन आदि १- लिच्छिवि आदि गणराज - प्राचीन भारतमै प्रजातन्त्र, लिच्छिवि, राजा चेटक, शतानिक, दशरथ, उदयन, चेलनी, वैशाली, ज्येष्ठा, चन्दना, शाक्य, मल, गणराज्य २९ १ - ज्ञात्रिक क्षत्री और भ० महावीर - कोल्लाग, वज्जियन, सिद्धार्थ राजा, त्रिशला कुण्डग्राम, भ० महावीरका जीवनकाल, निर्ग्रन्थ जैनी, भवरुद्र, मत्रख लिगोशाल, पूर्णकाश्यप, आजीवक, गौतमबुद्ध, कौशलदेश, मिथिला, वैशाली, चंपा, धर्मघोष, सुदर्शन सेठ, मगध, पांचाल, कलिंग, बंग, मथुरा, दक्षिण भारत, राजपूताना, गुजरात, पंजाब, काश्मीर आदिमें घनंनचार, ज्ञतृवंश ४५ १ - वीर संघ और अन्य राजा बीर संघके गणधर, गौतम, अग्निमूर्ति, वायुभूति, सुत्रर्माचार्य, यमराजा, मण्ड पुत्र, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलवृत्त, प्रभाव, बारिषेम, चंदना आदि - Jee .... .... .... .... ११ ११९ ६- तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति उत्कालीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज अवस्था, सामाजिक दशा, महिला महिमा, पार्मिक स्थिति, मुनि व आर्यिकाओंका धर्म, श्रावकाचार आदि १३८ ७-भ० महावीरका निर्वाणकाल-वीर संवत, शुकः शालिवाहन, नहपान, विक्रम संवत् .... .... १५७ ८-अन्तिम केवली श्रीजम्बूस्वामी-बाल्यकाल, वीरता, वैराग्य, विवाह, मुनिजीवन, सर्वज्ञ दशा व धर्मप्रचार, श्वेताम्बर कथन .... .... .... १७१ ९-नन्द वंश-नवनन्द, नंदिवर्धन आदि.... .... १८. १.-सिकन्दर महानका आक्रमण और तत्कालीन जैन साधु भारतीय तत्ववेत्ता, दि० जैन साधु निम्नोसोफिस्ट, मुनि मन्दनीस और कलोनस आदि .... .... १८१ ११-श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य-जैन संघका दक्षिणमें प्रस्थान, श्वेतांबर पट्टावली, जैन संघ भेद, श्रुतज्ञानकी विक्षिप्ति, श्वे. स्थूलभद्र, आदि .... २०१ १२-मौर्य साम्राज्य-चन्द्रगुप्त मौर्य, सैल्यूकप्त, शासन प्रबंध, सामाजिक दशा, धार्मिक स्थिति, चन्द्रगुप्त जैन थे, चाणक्य, अशोक, कलिंग विजय, अशोककी शिक्षायें, अशोकके जैन धर्मानुसार पारिभाषिक शब्द और उनके दार्शनिक सिद्धांत, अशोकका जैनधर्म, प्रचार, शिलालेख व शिल्प कार्य, अंतिम जीवन, अशोकके उत्तराधिकारी, राजा साम्प्रति और जैनसंघ, सेठ सुकुमाल, मौर्य साम्राज्यका अन्त, उपरांत कालके मौर्यवंशज, शुंग वंश ... .... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर सूची। * मंपके संकलन में निम्न ग्रंथोंसे सधन्यवाद सहायता ग्रहण की गई है; जिनका उल्लेख निम्न संकेतरूपमें यथास्थान किया गया है:अध•=' अशोकके धर्मलेख '-लेखक श्री० जनार्दन भट्ट एम० ए० (काशी, सं० १९८० ) । • अहि०० भर्ती हिस्ट्री ऑफ इन्डिया '-ले० सर विन्सेन्ट स्मिक एम० ए० (चौथी आवृत्ति) । अशोक • = 'अशोक' - ले० सर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० । आक०='आराधना कथाकोष' -के० त्र० नेमिदत्त ( जैनमित्र ऑफिस, बंबई २४४० वी० सं० ) । ऑजी •-' ऑजीविक्स - भाग १-४० वेनीम'जव बारुआ० डी० लिट् (कलकत्ता १९२०) । आस्००' आवारात सूत्र' मूल (श्वेताम्बर आगमनंच ) । ऑहिइ०='ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ इन्डिया' - विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० । इंऐ०-इंडियन ऐन्टीक्केरी' (त्रैमासिक पत्रिका ) । इरिई० - 'इन्सायक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स' - हैस्टिन्ग्स | इंसेजे०० 'इंडियन सेक ऑफ दी जेन्स'- बुल्हर । इंहिक्वा० = 'इंडियन हिसटॉरीकल क्वार्टली' - सं० डॉ० नरेन्द्रनाथ लॉ कलकत्ता । उद०='उषासगदसाओ सुत' - डॉ० हाणले (Biblo. Indica ) । उपु० व उ० पु०८' उत्तरपुगणं' - मी गुणभद्राचार्य व पं० लाखागमजी । उस्०='उत्तराध्ययन सूत्र (श्वेताम्बरीय भगमय) जाई कार्पेन्टियर (उपसन्ना) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) एइ०= एपिप्रेफिया इन्डिका' । एइमे. या 'मेएइ.'-'एन्शियेन्ट इन्डिया एज डिस्काइन बाई मेगस्थनीज एण्ड ऐरियन'-(१८७७) । एइजै०= एन इपीटोम ऑफ जैनीज्म'-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम० ए०। एमिक्षट्रा०-'एन्शियेन्ट मिड-इंडियन क्षत्रिय ट्राइन्स'-डॉ. विमलाचरण लॉ (कलकत्ता)। __ ऐरि०='ऐशियाटिक रिसचेंज'-सर विलियम जोन्स ( सन् १७९९ * १८०९)। ऐइ० एन्शियेन्ट इन्डिया एज डिस्काइन्ड बाइ स्ट्रैबो, मैकक्रिन्डिल (१९०१)। - कजाई०-कनिंघम, जॉगरफी ऑफ एन्शियेन्ट ईन्डिया'-( कलकत्ता १९२४ )। । कलिल'ए हिस्ट्री ऑफ कनारीज़ लिट्रेचर'-ई० पी० राइस (H. LS. ) 1921. कसू०- कल्पसूत्र' मूल (श्वेताम्बरीय आगम ग्रंथ )। काले०= कारमाइकल लेक्चर्स-डॉ० डी० आर० भाण्डारकर । कैदि६० कैम्ब्रिज हि ट्रो अफ इन्डिया'-ऐन्शियेन्ट इंडिया, भा. १-पसन सा० (१९२२)। गुमापरि०=गुजराती साहित्य परिषद रिपोर्ट-सातवी । ( भावनगर #. १९८२ )। गौबु० गौतम दुब'-के. जे. सॉन्डर्स (H. I. S.) । चभम = चंद्रगज भंडारी कृत भगवान महावीर ।' जबिओसोc='जर्नल ऑफ दी विहार एण्ड ओडीसा रिसर्च सोसाइटी। अम्बू०जम्बृकुमारचरित (सूरत वीगद २४४०)। जमीसो०-जनल ऑफ दी मीथिक सोसाइटी-गलोर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) बराएको०-'जरनल मॉफ दो रॉयल ऐसियाटिक सोसाइटी अन्दन । बेका०जैन कानून'-श्री. चम्पतराय जन विद्यावा (बिजनौर १९९०) बैग. 'जैनगेजेट'-अंग्रेजी ( मद्रास )। अप्र:='नधर्म प्रकाश'-७० शीतलप्रमादजी (बिजनौर १९२०)। स्तू ='जैनस्तूप एण्ड अदर एप्टीक्वटीज ऑफ मथुग'-स्मिय । वैशासं०='जैन साहित्य संशोधक-मु. जिनविजयजी (पूना) । सिमा०='जनसिबान्त भास्कर'-श्री पद्मराज जैन (कलकत्ता)। शिसं०="जैन शिलालेख संग्रह-प्रॉ० होरालाल जैन ( माणिकचन अन्त्यमाला )। बेहि०- जैनहितषी'-०५०नाथूरामजी र पं.जुगलकिशोरजी (बबई) .. जैसू० (Js. )-जैन सूत्राज़ (S. B. E. Series, Vols. XII & XLV ). टॉग-टॉडमा० कृत राजस्थानका इतिहास (वेङ्कटेश्वर प्रेस) । रिजेवा = ए रिक्शनरी ऑफ जैन बायोप्रैफी '-श्री उमरावविह टॉक (मारा)। तक्ष='ए गाइड टू तक्षशिला-पर मॉन मारशठ (१९१८)। तत्वार्थ तत्वार्थाधिगम सूत्र'-श्री उमास्वाति (S. B.J. Vol. I) विप०= तिलोयपणत्ति'-श्री यतिवृषमाचार्य (जैनहितेषी भा०१३का२) दिजे = दिगम्बर जन '-मासिकपत्र-० श्री मूलचन्द किसनदास अपरिया (सूरत)। सनि०-दीघनिकार' ( P. T. S.) परि०- पशिट प'-प्री हेमचन्द्राचार्य । प्राजेले. प्राचीन जन लेखसंप्र-कामताप्रसाद जैन (वर्धा ) • बनिओनस्मा गाल, बिहार, ओड़ीसा जन स्मारक-श्रीमान् २० पीतमप्रसादजी । बजेस्मा सम्म प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक-ब. शीतलपसादधी। हबिट इन्डिया-प्रो. हीस डेविस । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भपा भगवान पार्श्वनाम-ले, कामताप्रसाद जैन (सूरत), भमभगवान महावीर-, , , (सूरत) भमबु०-भगवान महावीर और मा बुद्ध-कामताप्रसाद जैन (सूरत) भमी-मारक मीमांसा ( गुजराती.)-सुरत । भाइ०-भारतवर्षका इतिहास-डॉ०ईश्वरीप्रसाद डी.लिट् (प्रयाग १४९०) भाभयो 'अशोक'-डॉ० भाण्डारकर (कलकत्ता) । भातारा -भारतके प्राचीन राजवंश-श्री विश्वेश्वरनाथ रेउ (वंबई) । भाप्रासइ.०-भारतकी प्राचीन सभ्यताका इतिहास-सह रमेशच च। मह० मराठी जैन इतिहास। मनि०० मजियम निकाय P. T.S. मज्झिमममैप्रास्मा०मदास मैसुरके प्राचीन जैन स्मारक-त्र शीतलप्रसादजी महा.-महावग्ग ( S. B. E., Vol. XVMI ) मिलिन्द मिलिन्द पन्ह (S. B.E., Vol. XEKV). मुरा-मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू डामेटिक वर्कस, विलसन । मूला -मूलाचार-वस्करस्वामी (हिंदी भाषा सहित-बंबई)। मैअशो०-अशोक-मैकफैल कृत ( H. I. S.) मैबु०-मैन्युल ऑफ बुद्धिज्म-स्पेन हार्डी । रमालकरण्ड प्रावकाचार-सं० पं०. जुगलकिशोरजी (बाई) । राइक-राजपूतानेका इतिहास, भाग १-रा. ०. पं. गोकर हीराचंद ओझा । रिह० रिलीजन्स ऑफ दी इम्पायर-(लन्दन) । लाऑम०-लाइफ ऑफ महावीर-ला. माणिकचंदजी (इलाहाबार) । नामाइ० भारतवर्षका इतिहास-ला• लाजपतरायकृत (लाहो) । लाम लार्ड महावीर एण्ड अदर टीचर्स ऑफ हिज टाइम-पताप्रसाद (दिल्ली)। लावबुल लाइफ एण्ड बस मॉफ बुबघोष-डॉ. विमला ला (कलकत्ता)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) वृजेश नाद् बन ग्रन्दामंच-पं, बिहारीलालखी चैतन्य । विर० विद्वद्गलमाठा-पं. नाथूरामजी प्रेमी (बंबई)। अव०म्भवणबेलगोला, रा० ब० प्रो० नरसिंहाचार एम.ए. (मप्र)। अचलप्रेमिकचरित्र (सूरत)। सको सम्बक्त्व कौमुदी-(बम्बई)। सजे०-सनातन जैनधर्म-अनु० कामताप्रसाद (कलकत्ता) । मंजइसंक्षिप्त जैन इतिहास-प्रथम भाग-कामताप्रसाद (सूरत)। सडिौसम डिस्टिन्गुइड जन्म-उमरावसिंह टांक (आगरा)। संप्राजेस्मा० संयुक्त प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक-ब० शीतलप्रसादजी। मसाइजैकस्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म-प्रो. रामास्वामी बार्यगर । ससृ०-सम्राट अकबर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (आगरा)। सक्षट्राएङ्गम क्षत्री ट्राइव्स इन एन्शियन्ट इन्डिया डॉ. विमलाचरण लॉ। साम्स साम्स ऑफ दी ब्रदरेन । सुनि०-मुत्तनिपात (S. B. E.) । हरि०-हरिवंशपुराण-श्री जिनसेनाचार्य (कलकत्ता)। हॉजे०-हॉट ऑफ जैनीज्म-मिसेज स्टीवेन्सन (लंदन)। हिमाह. हिमा -हिस्ट्री ऑफ दी आर्यन रूल इन इन्डिया-हैवेल । हिग्ली०-हिस्टॉरीकल ग्लीनिन्ग्स-डॉ. विमलाचरण लॉ० (छकत्ता). हिटे-हिन्द टेल्स-जे. जे. मेयर्स । हिडाव०हिन्दू ड्रामेटिक बम-विलसन् । हिनीइफि० हिस्ट्री ऑफ दी प्री-बुबिस्टिक इंडियन फिलॉसफीसम्मा (कलकत्ता) हिलि०-हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ जैनीज्म-बारोदिया (१९०१)। हिवि०हिन्दी विश्वकोष-नगेन्द्रनाथ वसु (कलकत्ता)। पत्रीला कात्रीन्स इन बुबिस्ट इंडिया-डॉ.विमत्मचरण में। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धयशुद्धिपत्र । :: . . १४ :: : :: : : : AND पड पंकि अशुद्ध पहला खण्ड (६००-१८८ ई.पूर्व) सक्षद्राए इ. सक्षटाए इ. ५ १७ उपदेशका उस देशका. इन , २२ इत्यादि इत्यादि असन्ती अवन्ती अस्सके अस्सक कारमहकल कारमाइकिल १०१८ १९१८ २२ शताब्दिक शतानीक प्रसेनजी प्रसेनजीत धवं संबंध मज्झिम० स० मज्झिम. ७०२ १५ १४ २११-११ ૨૧ પૃ. ૨૧ पाटलि स्वप्नवासदत्ता स्वप्रवासवदत्ता - २३ ३-अहिह. ३-ऑहिह. ३१ २१ रखनेवाली थी रखनेवाले थे। ३२ २० थी। १३ १ संस्था संख्या भभ. भम. ५ परिधि में फैला बतलाया परिधिमें फैला बतलाता १८ कोग्लाग कोल्लाग द्वादशाक द्वादशाक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 255 पाटील ::::::::: थी। : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ पृष्ठ १५ पंकि अशुद्ध १३ गयगॉम __ १५ महापुरुष २२ सक्षदाए इ. उ० ६० १५ कोलिग्राम स्वर्मा 'ऐन्द्र' दशान सक्ष्यद्राए आईत निगडो महादीर थी। नन हुये थे। मतिज्ञानने Js. T. P. 193 महावीर ११८ बतलाई २३ १३५ Antri. १७ Tirthakar २६ roformer रामगाम यह महापुरुष सक्षटाएइ. उद० कोटिग्राम स्वर्ण भगवानने 'ऐन्द्र दशा सूत्र सक्षट्राएड. आईत निगंठो महावीर थी।" नाम नहीं हुये थे। मतिज्ञानके Js. I. P. 193 महावीर और ६८ जो बतलाई पृ० ३५ Anti. Tirthakas roformer . . ३३ प्रावणी २२ ६-० से। २१ Appendias मावस्ती देखो। रद• Appendix www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tr ७८ प्रतिघोषित समय वर्णन महावीर पड़ने मान्य होगई वीर था। और वे नग्न रहे थे। भा० ७ पृ. १ भम. आत्मपिपासा क्वाथतोय दीनि० ग्लैसेनाप्प (Der जबिमोसो तीर्थकरों २२ अशुद्ध प्रतिषोष्टित समझ ७६ ३ वर्णनन महावीर भी पड़ेने १ १९ होगई वर ८३ २ था । भा० १ पृ. ५ भमबु. आत्मपिपसा १०३ कायतोष दीति ग्लसेनाथ (Dev जैविओसो ११५ तीर्थकरी १२२ तुंगिकाव्य २२७ १४३ १४९ . रोहकनगर ___२४ ७-जैप्र. पृ. २२८ पोमडम गंगा नदियों अच (Pt. II ५५५ १५९ स्थिति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat .१२ १४ १२९ २ १९ तुंगिकाख्य २२ ७४ रौरुकनगर ७-जैप्र० पृ० २३४ पोपडम गंगा भादि नदियो श्रेच. (Js. Pt. II तिथि www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ १० हर्मा माप्रारा. माप्राए० कोई को ૧૧ ૨૨ अन्यत्र . . . . . . . . . अन्यथा पारस्थ पारस्थ १८५ ऐर १९१ १४ १९२ संस्था शासन स्वीकार करने अग्निचिता सभी उलट नियम आत्मविर्सन उपदेश पारस्य पारस्य ऐल संख्या भासन स्वीकार न करने अग्नि चितामे कभी उत्कट विनिमय आत्म विसर्जन देश २२ ०३ थी श्री . दशा लोक कटिव २.९ १३ अबुद्ध कि प्रथम " २२ भादी ११४ Gournal २२०४ शासन २२३ प्रामीक मा० पृ. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat .... . . . कटिवप्र प्रबुद्ध कि वे प्रथम भादि Journal शासक प्रामिक भा० १ पृ. www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य थे चोरी नहीं धन उनका भापारा. उपभोग स्पाइजै. पछ पंकि अशुद्ध मदस्थ चोरी नहीं नहीं २३१ २२ क्न २३५ १२ उनका ही 091110 उपयोग साइजै. ऐहि. एण्टिओकस डेओनीसे उसकी २५३ अशोकके इन २५९ पारलौकिकक २२ Js. Pts. Id II २६३ १४ पापकी २६४९ परायणके ऐप एण्टकसने डेओनीसी उसकी अशोक २५७ पारलौकिक Js. Pts I & II अशोककी पापकी परायण १८ " पृष्ठ २६९ के फुटनोटका पहला श्लोक यहां पढ़ें । कम्मिन रुक्मिन २८२ २८९ इन शिलालेख उजनी शिलालेख उनके राज्यके उजैनी २९७ . . . | "जैविजय" प्रिन्टिंग प्रेस, खपाटिया चकला-सूरत-में ___ मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया। . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05 : ... wmmmmsentertainment श्रीमान् बाबू कामताप्रसादजी जैन-अलीगंज । [इस ऐतिहासिक ग्रन्थके विद्वान लेखक ] जैनविय प्रेस-सरत. ... ............ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ श्रीमहावीराय नमः ॥ संक्षिप्त जैन इतिहास । दूसरा भाग । ई० सन् पूर्व ६०० से ई० सन १३०० तक । प्राक्कथन । जनधर्म मनातन है । उसका प्राकृत रूप सरल सत्य है । जैन धर्मका उसका नामकरण ही यह प्रगट करता है । 'जिन्' प्राकृत रूप । शब्दसे उसका निकास है; जिसका अर्थ होता है 'जीतनेवाला' अथवा 'विजयी' । दूसरे शब्दों में विजयी वीरोंका धर्म ही जन धर्म है और यह व्याख्या प्राकृत सुमंगत है । प्रकृति में यह बात पर्गिक रीतिमे दृष्टि पड़ रही है कि प्रत्येक प्राणी विनयाकांक्षा रखता है । वह जो वस्तु उसके सम्मुख आती है, उसपर अधिकार जमाना चाहता है और अपनी विजयपर आनन्द, नृत्य करने को उत्सुक है । अबोध बालक भयानक से भयानक वस्तुको अपने काबू में लाना चाहता है। निरीह वनस्पतिको ले लीजिये। एक घास अपने पासवाली घामको नष्ट करनेपर तुली हुई मिलती है । इस वनस्पति में भी अवश्य नीव है; परन्तु वह उस उत्कृष्ट दशा में नहीं है, जिसमें मनुष्य है । किंतु इतना होते हुये भी वह प्रकृतिके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । मटल नियमसे अपने नैसर्सिग स्वभाव-सदा विजयी रहनेकी भावनासे वंचित नहीं है। अतएव विनयी होनेका धर्म प्राकृत-अनादिनिधन और पूर्ण सत्य है। किन्तु प्रश्न यह है कि मनुष्यको किप्त प्रकार विजय पाना है ? क्या निस वस्तुको वह अपने माघीन करना चाहे, उसके लिये युद्ध ठान दे ? नहीं, मनुप्येतर प्राणियोंसे मनुप्यमें कुछ विशेषता है। उसके पास विवेकबुद्धि है; जिससे वह सत्यासत्यका निर्णय कर सक्ता है। यह विशेषता अन्य जीवोंको नसीब नहीं है । इस विवेकबुद्धिके अनुसार उसे विजय-मार्गमें अग्रसर होना समुचित है । और विवेक बतलाता है कि जो अन्याय है, दुर्गुण है, बुरी वासना है, उसको परास्त करनेके लिये कर्मक्षेत्रमें माना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है। ठीक, यही बात जैनधर्म सिखाता है । वह विजयी. वीरों का धर्म है। उसके चौबीस तीर्थकर वीरशिरोमणि क्षत्रीकुलके रत्न थे । उनने परमोत्कृष्ट ज्ञानको पाकर विनय-मार्ग निर्दिष्ट किया था-मनुष्यों को बतला दिया था कि अनादिकालसे नीव अजीवके फंदेमें पड़ा हुआ है । प्रकृतिने चेतन पदार्थको अपने माधीन बना लिया है। इस प्रकृतिको यदि परास्त कर दिया जाय तो पूर्ण विन. यका परमानन्द प्राप्त हो । उसके लिये किप्तीका आश्रय लेना और पराया मुंह ताकना वृथा है। मनुष्य अपने पैरों खड़ा होवे और बुरी वासनाओं एवं कषायों को तबाह करके विनयी वीर बन जावे ! फिर वह स्वाधीन है। उसके लिये मानन्द ही आनन्द है। यह प्राकृत शिक्षा जैनधर्मकी अभेद्य प्राचीनता पार न मिलने का प्रर्याप्त उत्तर है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन। 'मक्षिप्त जैन इतिहास के प्रथमभागने जैनधर्मके सैद्धान्तिक नवी प्राचीनता उल्लेखों एवं अन्य श्रोतोसे उसकी अज्ञात और बहु प्राचीनताका दिग्दर्शन कराया जाचुछ २४ तीर्थकर । है। मतः उनका यहांपर दुहराना वृथा है। जैनधर्म निस समय कर्मभूमिके इस कालके प्रारंभमें पुनः श्री ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित हुमा था, उस समय सभ्यताका अरुणोदय होरहा था। यह ऋषभदेव इश्वाक्वंशी क्षत्री राजकुमार थे और हिन्दु पुराणों के अनुपार वे स्वयंम् मनुसे पांचवी पीटीमें हुये बतलाये गये हैं। उन्हें हिन्दू एवं बौद्ध शास्त्रकार भी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और इस युगके प्रारम्भ में जैनधर्मका प्ररूपण करनेवाला लिखते हैं। हिन्दु अवतारों में वह आठवें माने गये हैं और संभवतः वेदों में भी उन्हींका उल्लेख मिलता है । चौदहवें वामन अवतारका उल्लेख निस्सन्देह वेदोंमें है । अतः वामन अवतारसे पहले हुये आठ अवतार ऋषभदेवका उल्लेख इन मनेन वेदों में होना युक्तियुक्त प्रतीत होता है । कुछ भी हो उनका इन वेदोंसे प्राचीन होना सिद्ध है । इन ऋषभदेवकी मूर्तियां मानसे ढाईहनार वर्ष पहले भी सम्मान और पृज्य दृष्टिसे इस भारतमहीपर मान्यता पाती थीं। इन्हीं ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र सम्राट मरतके नामसे यह देश भारतवर्ष कहलाता है। ऋषमदेवके उपरान्त दीर्घकालके अन्तरसे कपवार तेईस तीय. कर भगवान और हुये थे। उन्होंने परिवर्तित द्रव्य, क्षेत्र, काल, १-संक्षिप्त बन इतिहास प्रथम भागको प्रस्तावना पृट २६-३०। २-भागवन ५:४, ५, ६।३-न्यायविन्द अ. व सतशास्त्र-'वीर' वर्ष । पृ. ३५३ । ४-माग, भगवान महावीर १० । ५-वधिमोमो. मा. ३ पृ. ४.. । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । भावके अनुसार पुनः वही सत्य, वही निरापद विजयमार्ग तात्कालीन जनताको दर्शाया था । इन तीर्थंकरोंमेंसे वीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथनीके तीर्थकालमें श्री रामचन्द्रनी और लक्ष्मणनी हुये थे। बाईसवें तीकर नेमिनाथनीके समकालीन श्री कृष्णनी थे; जिनके साथ श्री नेमिनाथनीकी ऐतिहासिकताको विद्वान स्वीकार करने लगे हैं;" क्योंकि भगवान पार्श्वनाथजीसे पहले हुये तीर्थङ्करोंके आस त्वको प्रमाणित करनेके लिये स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलर नहीं हैं। किन्तु तो भी जैन पुराणोंके कथनसे एवं आजसे करीब ढ ई तीन हजार वर्ष पहले बने हुये पाषाण अवशेषों अथच शिल लेखों व बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेखोंसे शेष जैन तीर्थङ्करों की प्राचीन मान्यता और फलतः उनके अस्तित्वका पता चलता है । तेईसवें तीर्थङ्का भी पाश्वनाथनाको अब हरकोई एक ऐतिहासिक महापुरुष मानना है और अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरजी के जीवनकालसे नैनधर्म का एक प्रामाणिक इतिहास हमें मिल जाता है । यह मानी हुई बात है कि धर्मात्मा विना धर्मका मस्तत्व ___ नहीं रह सक्ता है। अतएव किसी धर्मका इति. जैन इतिहास। हास उसके माननेवालोंका पूर्व-परिचय मात्र कहा जा मक्ता है । जैनधर्मके प्रातिपालक लोग जैन कहलाते हैं; १-इपीग्रेफिया इन्डिका भा० १ पृ. ३८९ व सक्षद्राए इ० भूमिका पृ० ४ । २-मथुग कंकाली टीलेका प्राचीन जैन स्तूप आदि । ३-हाथी. गुफाका शिलालेख-जविओसो. भा० ३ पृ० ४२६-४९. । ४-भ. महावीर और म० बुद्ध पृ. ५१ व ला. म. पृ. ३० । ५-हमारा भगवान पार्श्वनाथ' की भूमिका। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन । [ ५ जिनमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र आदि सव हीका समावेश हुआ समझिये अर्थात जैन होते हुये भी प्रत्येक व्यक्तिकी जाति ज्योंकी त्यों रहती है, इसमें संशय नहीं है; यद्यपि किसी अजैन के जैनधर्म में दीक्षित होते समय उसकी आजीविका-वृत्ति और रहनसहनके अनुसार उसको उपयुक्त जातिमें सम्मिलित किया जा सकता है । ' अत: जैनधर्म विषयक इम संक्षिप्त इतिहास में जैन महापुरुषोंका और जैनधर्म सम्बन्धी विशेष घटनाओंका परिचय एवं उसका प्रभाव भिन्न कालोंमें उस समयकी परिस्थितिपर कैंसा पड़ा था, यह बतलाना इष्ट है । इसके प्रथम भाग में भगवान पार्श्वनाथमी तका सामान्य परिचय प्रकट किया जाचुका है । इस भागमें भगवान महावीरजी के समय से उपरान्त मध्यकालतक के जैन इतिहासको संक्षेपमें प्रकट किया जाता है । प्रथम भाग में जैन भूगोलमें भारतवर्षका स्थान और उसका प्राकृतरूप आदिका परिचय कराया नाचुका है । सचमुच किसी देशकी प्राकृतिक स्थितिका प्रभाव अपनी भारतकी प्राकृत स्वास विशेषता रखता है । उपदेशका इतिहास दशाका प्रभाव । ही उस प्रभावके ढंगपर ढल जाता है। भारतके विषय में कहा गया है कि उसकी प्राकृतिक स्थितिका सामाजिक संस्थाओं और मनुष्योंकी रहनसहन पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। धीरे‍ बड़ी बड़ी नदियोंकि किनारे सुरम्य नगर बस गये जो कालान्तर में व्यापार के प्रसिद्ध केन्द्र होगये । मूमिके उर्बरा होनेसे देश में धन १- आदिपुराण पर्व ३९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ संक्षिप्त जैन इतिहास । घान्यकी सदैव प्रचुरता रही ।* इससे सभ्यताके विकास में बड़ी सहायता मिली । जब मनुष्यका चित्त शान्त रहता है और जब किसी प्रकार उनका मन डाँवाडोल नहीं होता तभी ललितकला, विज्ञान और उच्च कोटिके साहित्यका प्रादुर्भाव होता है। प्राचीन भारतवासियों के जीवनको सुखमय बनानेवाले पदार्थ सुलभ थे ।* इसीलिए उसकी सभ्यता सदैव अग्रगण्य रही। चारों ओरसे सुरक्षित होने के कारण भारतका अन्य देशोंसे विशेष सम्पर्क नहीं हुआ, फलतः यहां सामानिक संस्थाएं ऐसी दृढ़ होगई कि उनके बन्धनोंका ढीला करना अब भी कठिन प्रतीत होता है। यहांके मूल निवासियोंपर बाहरी आक्रमणकारियों का कभी अधिक प्रभाव नहीं पड़ा । जो अन्य देशोंसे भी आये वे यहांकी जनतामें मिल गये और उन्होंने तत्कालीन प्रचलित धर्म और रीतिरिवाजोंको अपना * सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें भारतमें आए हुए यूनानी लेखकोंके निम्न वाक्य इस खूबियोको अच्छी तरह प्रकट कर देते हैं। मेगस्थनीज लिखता है:-"भारतमें बहुतसे बड़े पर्वत है, जिनपर हर प्रकारके फल-फूल देनेवाले वृक्ष बहुतायतसे है और कई लम्बे चौड़े उपजाऊ मैदान हैं; जिनमें नदियां बहती है। पृथिवीका बहुभाग जलसे सींचा हुआ मिलता है; जिससे फसल भी खूब होती है।...भारतवासियोंके जीवनको सुखमय बनानेवाली सामग्री सुलभ है, इस कारण उनका शरीर गठन भी उत्कृष्ट है और वह अपनी सम्मानयुक्त शिक्षा-दीक्षाके कारण सबमें अलग नजर पड़ते हैं । ललित कलाओं में भी वे विशेष पटु है । फलोके अतिरिक्त भूगर्भसे उन्हें सोना, चांदी, ताम्बा, लोहा, इत्यादि धातुएं भी बाहुल्यतासे प्राप्त है। इसीलिये कहते है कि भारतमें कभी अकाल नहीं • पड़ा और न यहां खाद्य पदार्थकी कठिनाई कभी अगाड़ी आई।" क्रिन्डल, ऐशियेन्ट इन्डिया, पृ. ३०-३२० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन । लिया। अपने देशमें सब प्रकारकी सुविधा होनेके कारण भारतवासियोंने सांसारिक विषयों को छोड़कर परमार्थकी ओर अधिक ध्यान दिया । यही कारण है कि प्राचीन कालमें आध्यात्मिक उन्नति मधिक हुई और हिन्दु समानमें अद्भुत तत्वज्ञानी हुए I+ इस स्थितिसे कतिपय विद्वान् भारतकी कुछ हानि हुई खयाल करते हैं । उनका अनुमान है कि देश की प्रचुर सम्पत्तिसे आकर्षित होकर मनेकवार विदेशियोंके भारतपर आक्रमण हुए और उसमें उनने खुब अंधाधुंधी मचाई । उपरोक्त स्थितिके कारण भारतवासी उनका मुकाबिला करने के लिये पर्याप्त बलवान न रहे; किन्तु उनके इस कथनमें, ऐतिहासिक दृष्टिसे, बहुत ही कम तथ्य है। तत्त्वज्ञानकी अद्भुत उन्नति भगवान महावीर और म० बुद्ध के समयमें खुब हुई थी। उससमय देशके एक छोरसे दुसरे छोरतक आध्यात्मिक भावोंकी लहर दौड़ रही थी; किन्तु उससे लोगोंमें भीरुताका समावेश नहीं हुआ था। वह जीवके अमरपनेमें दृढ़ विश्वास रखते थे और यही कारण था कि अन्तिम नन्दराजाके समयमें हुए सिकंदर महानके माक्रमणका भारतीयोंने बड़ी वीरताके साथ मुकाबला किया था। यहांतक कि भारतीय सेनाकी दृढ़ता और तत्परता देखकर युनानी सेनाके आसन पहलेसे भी और ढीले होगये थे। फलतः सिकन्दर अपने निश्चयको सफल नहीं बना सका था। इसके उपरान्त चन्द्रगुप्त मौयने उस ही माध्यात्मिक स्थितिके मध्य निस सत्साहसका परिचय दिया था, वह विद्वानोंके उपरोक कथनको सर्वथा निमूल कर देता है। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानि__ + भारतवर्षा इतिहास पृ. १.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ] संक्षिप्त इतिहास | योंको भारतवर्षकी सीमाओंसे बाहर निकाल दिया था और यूनानियोंसे अफगानिस्तान वर्ती एरियाना प्रदेश भी ले लिया था । यूनानी राजा सेल्यूकमने विनम्र हो अपनी कन्या भी चन्द्रगुप्तको भेंटकर दी थी । इस प्रकार जबतक तत्त्वज्ञानकी लहर विवेक भाव से भारतवसुंधरा पर बहती रही, तबतक इस देशकी कुछ भी हानि नहीं हुई, किन्तु ज्योंही तत्त्वज्ञानका स्थान साम्प्रदायिक मोह और विद्वेषको मिलगया, त्योंही इस देशका सर्वनाश होना प्रारंभ होगया । हूण अथवा शकलोगोंके आक्रमण, जो उपरान्त भारतपर हुये; उनमें उन विदेशियोंको सफलता परस्पर में फैले हुये इस साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण ही मिली। और फिर पिछले जमाने में मुसलमान, आक्रमणकारी राजपूतोंपर पारस्परिक एकता और संगठन के अभाव में विजयी हुये । वरन् कोई नहीं कह सक्ता है कि राजपूतों में वीरता नहीं थी । अतएव आध्यात्मिक तत्त्वके बहुप्रचार होने से इस देशकी हानि हुई ख्याल करना निरीह भूल है । आजसे करीब ढाईहजार वर्ष पहिले भी भारतकी आकृति प्राचीन भारतका और विस्तार प्रायः आजकल के समान था । स्वरूप । सौभाग्य से उस समय सिकन्दर महान् के साथ आये हुये यूनानी लेखकों की साक्षीसे उस समयके भारतका आकारविस्तार विदित होजाता है। मेगास्थनीज कहता है कि उस समयका भारत समचतुराकार (Quadrilateral ) था । पूर्वीय और दक्षिणीय सीमायें समुद्र से वेष्टित थीं; किन्तु उत्तरीयभाग हिमालय पर्वत (Mount Hemodos ) द्वारा शाक्यदेश ( Skythia ) से प्रथक कर दिया गया था । पश्चिममें भारत की सीमाको सिंधुनदी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक्कथन । [९ प्रकट करती थी, जो उस समय संसारभरमें नीलनदीके अतिरिक्त सबसे बड़ी मानी जाती थी। सारे देशका विस्तार अर्थात् पूर्वसे पश्चिमतक ११४९ मील और उत्तरसे दक्षिणतक १८३८ मील था। यह वर्णन भारतकी वर्तमान आकृतिसे प्रायः ठीक बैठता है। जिस प्रकार भारत मान एक महाद्वीप है, उसी प्रकार तब था । आन 'इस देशकी उत्तरी स्थलसीमा १६०० मील, पूर्वपश्चिमकी सीमा लगभग १२०० और पूर्वोत्तर सीमा लगभग ५०० मील है । समुद्रतटका विस्तार लगमग ३५०० मील है ।' कुल क्षेत्रफल १८,०२,६५७ वर्गमील है। हां, एक बात उस समय अवश्य विशेष थी और वह यह थी कि चन्द्रगुप्त मौर्यने यूनानी राना सेल्यूकसको परास्त करके अफगानिम्तान, कांधार मादि पश्चिम सीमावर्ती देश भी भारत में सम्मिलित कर लिये थे। भारतके विविध प्रान्तोंमें परस्पर एक दूसरेसे विभिन्नता पाई जाती है और यहां के निवासी मनुष्य भी सब भारतकी एकता। 'एक नसलके नहीं हैं। मेगस्थनीज भी बतलाता है कि भारतकी वृहत् मारुतिको एक ही देश लेते हुये, उसमें अनेक भौर भिन्न जातियोंके मनुष्य रहते मिलते हैं; किन्तु उनमेसे एक भी किसी विदेशी नसलके वंशन नहीं थे। उनके आचारविचार प्रायः एक दुसरेसे बहुत मिलते जुलते थे। इसी कारण चूनानी भी सारे देशको एक ही मानते थे और सिकन्दर महान्की बमिलापा भी समग्र देशपर अपमा सिक्का जमानेकी थी। भारतीय १-मेए ३. पृ. ३०।२-पूर्व पृ. १५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । राजा-महाराजा भी सारे देशपर अपना आधिपत्य फैलाना आवश्यक समझते थे। सारांशतः प्राचीनकालसे ही भौगोलिक दृष्टिसे सारा देश एक ही समझा जाता रहा है । अब भी यह बात ज्योंकी त्यों है। भारत एक देश है और उसकी मौलिक एकताका भाव यहांके निवासियोंमें सदा रहा है। किन्तु इस मौलिक एकताके होते हुये भी, जिस प्रकार वर्तमानमें भारत अनेक प्रान्तोंमें विभक्त है, उसी प्रकार भगवान महावीरजीके समयमें भी बंटा हुआ था। इस समय और उस समयके भारतकी राजनैतिक परिस्थितिमें बड़ा भारी अंतर यह था कि भाज समूचा भारत एक साम्राज्यके अन्तर्गत शासित है, किन्तु उस समय यह देश भिन्न२ राजाओंके आधीन अथवा प्रजातंत्र संघोंकी छत्रछायामें था। हां, अशोक मौर्यके समय भव. श्य ही प्रायः सारा भारत उसके आधीन होगया था । म. गौतमबुद्धके जन्मके पहिलेसे भारत सोलह राज्यों में तत्कालीन मख्य विभक्त था; किन्तु जैनशास्त्र बतलाते हैं कि राज्य। इन सोलह राज्योंके अस्तित्वमें आनेके जरा ही पहिले सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् ब्रह्मदत्तके समयमें भारत साम्राज्य एक था और उसकी राज्य व्यवस्था सम्राट ब्रह्मदत्तके आधीन थी। सम्राट् ब्रह्मदत्तका घोर पतन उसके अत्याचारोंके कारण हुआ और उसकी मृत्युके साथ ही भारत साम्राज्य तितर-वितर होकर निम्नलिखित सोलह राज्योंमें बंटगया:-- (१) मङ्ग-राजधानी चम्पा; (२) मगष-राजधानी राजगृह, (३) काशी-रा. पा. बनारस; (४) कौशल (माधुनिक नेपाल) रा. श्रावस्ती; (१) बज्जियन-रा. वैशाली; (६) मल्ल-रा. पावा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन । [११ और कुसीनारा; (७) चेतीयगण-उत्तरीय पर्वतोंमें अवस्थित था; (८) वन्स या वत्स-रा० कौशाम्बी; (९) कुरु-इन्द्रप्रस्थ; इसके पूर्वमें पाञ्चाल और दक्षिणमें मत्स्य था । रत्थपाल कुरुवंशी सरदार थे; (१०) पाञ्चाल-कुरुदेशके पूर्वमें पर्वतों और गंगाके मध्य अवस्थित था और दो विभागोंमें विभक्त था; रा० धा० कांपिल्य और कन्नौन थीं; (११) मत्स्य-कुरुके दक्षिणमें और जमनाके पश्चिममें या; (१२) मुरसेन-जमनाके पश्चिममें और मत्स्य के दक्षिण-पश्चिममें था; रा० मथुरा; (१३) अस्सक-असन्तीसे परे, रा० धा० पोतली या पोतन; (१४) अवन्ती-रा उज्जयनी; ईसाकी दूसरी शताब्दि तक अवन्ती कहलाई: किन्तु ७वीं, ८वीं शताब्दिके उपरान्त यह मालवा कहलाने लगी; (१५) गान्धार-माजकलका कान्धार है-रा. तक्षशिला, राजा प्राकुसाति और (१६) कम्बोन-उत्तरपश्चिमके टेठ छोरपर थी, राजधानी द्वारिका थी।' किन्तु उपरान्त म. गौतमबुद्ध के जीवनकालमें कौशलका मधिकार काशीपर होगया था; मङ्गपर मगधाधिपने अधिकार जमा लिया था और मस्सके लोग संभवतः भवन्तीके आधीन होगये थे। इसप्रकार उस समयके भारतकी दशा थी। इनमें मगधराज्य प्रमुख था और 'शिशुनागवंश के राजा वहां राज्य करते थे । उससमय जैन धर्मके अतिरिक्त वैदिक और बौद्धधर्म विशेष उल्लेखनीय थे । उससमय यहांके निवासियों की संख्या मानसे कम या ज्यादा थी, यह विदित नहीं होता; किन्तु भान भारतकी जनसंख्या तीसकरोड़से मषिक, मिसमें सिर्फ १२०५२३५ जेनी हैं। १-दुनिस्ट इंडिया पृ. २१। २-मप०, पृ. ६२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । शिशुनाग वंश। (ई० पूर्व ६४५ से ई० पूर्व ४८०) ईसासे पूर्व छठी शताब्दिमें भारतमें सर्व प्रमुख राज्य मगशिशनागवंशकी धका था और इसी राज्यके परिचयसे भारतका उत्पत्ति। एक विश्वसनीय इतिहास प्रारम्भ होता है। उससमय यहांका राज्यशासन शिशुनागवंशी क्षत्री राजाओंके अधिकारमें था। इस वंशकी उत्पत्तिके विषयमें कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में यहां चन्द्रवंशी क्षत्रियोंका शासनाधिकार था; किन्तु इस युद्ध में श्रीकृष्णके हाथसे जरासिन्धुके मारे जानेके उपरान्त नब जरासिन्धुका अंतिम वंशन रिपुंजय मगधका राना था, तब इसके मंत्री शुकनदेवने वि० सं० से ६७७ वर्ष पूर्व उसे मारडाला और अपने पुत्र प्रद्योतनको मगधका राजा बना दिया था। प्रद्योतनके वंशनोंमें वि० सं के ६७७ वर्ष पूर्वसे ५८५ वर्ष पूर्वतक पालक, विशाखयूप, जनक और नन्दिवर्द्धनने राज्य किया । इनके पश्चात् इस वंशके पांचवें राना शिशुनाग नामक हुये थे। यह राना बड़ा पराक्रमी, प्रतापी और ऐसा लोकप्रिय था कि भगाड़ी यह वंश इसीके नामपर 'शिशुनागवॅश' के नामसे प्रसिद्ध हुआ । जैनशास्त्रोंसे इस वंशका भी क्षत्री होना सिद्ध है। वि. सं० के ५८५ वर्ष पूर्वसे ४२३ वर्ष पूर्वतक (ई० पूर्व ६४२ से ४८०) तक राजा शिशुनागसे इस वंशमें निम्नप्रकार दश राना हुए थे:-(१) शिशुनाग, (२) काकवणं या शाकपर्ण, (३) धर्मक्षेपण, (४) क्षत्रौन (क्षेमनित, क्षेत्रज्ञ, या उपश्रेणि), (६) श्रेणिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश। [१३ विम्बसार (विन्ध्यमार, विन्दूपार या विधिमार ), (६) कुणिक या मजातशत्रु, (७) दरभक (दर्शक, हर्षक या वंशक); (८) उदयाश्व (उदासी, अनय, उदयी, उदयन् या उदयभद्रक); (९) नन्दिवर्द्धन (अनुरुद्धक या मुंड) और (१०) महानन्दि । राना क्षत्रौन अथवा उपश्रेणिक प्रसिद्ध मम्राट् श्रेणिक बिम्बभौजस अथवा सारके पिता थे : यह मगधके छोटेसे राज्यपर उपश्चणिक । शासन करते थे और इनकी राजधानी प्राचीन रामगृह थी। शिशुनाग वंशके यह चौथे गना थे और बड़े धर्मास्मा एवं शूरवीर थे । जैन शास्त्र कहते हैं कि इन्होंने आसपासके राजाओं को अपने आधीन बना लिया था। उस समय चन्द्रपुरका राना मोमशर्मा अपने पराक्रमके समक्ष अन्य सबको तुच्छ गिनता था, किन्तु महागन उपश्रेणकने उसे भी परास्त कर दिया था। चन्द्रपुर मगधके निकट ही बताया गया है। इस रानाने उपणिककी भेंटमें एक घोड़ा भेना था । वह घोड़ा एक दिवस उपश्रेणिकको भीलोंकी एक पल्लीमें ले पहुंचा था जहां भील राना यमदंडकी कन्या तिलकवतीके रूपलावण्यपर वह मुग्ध होगये थे और उसके पुत्रको राज्याधिकारी बनाने का वचन देकर उन्होंने उसे अपनी रानी बनाया था। इस तिलकावतीसे चिलातपुत्र नामक पुत्र हुमा था। -वृजेश, पृ० १६७ यह वर्णन संभवतः हिन्दू पुराणों के आधारसे है। जैनप्रन्यो में इस वंशका परिचय उपप्रेणिकसे मिलता है। २-प्रेणिक नरित्र पृ० २० । ३-भाराधना कथाकोष मा० ३ ० ३३। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | किन्तु राजा उपश्रेणिककी पट्टरानी इन्द्राणी नामक क्षत्री कन्या थी । उनके गर्भ से सम्राट् श्रेणिक बिम्ब श्रेणिक विम्बसार । सारका जन्म हुआ था । उपश्रेणिक के पश्चात् मगधराज्य के अधिकारी श्रेणिक महाराज ही हुए थे; यद्यपि महाराज उपश्रेणिकके देहांत होनेके पश्चात् नाम मात्रको कुछ दिनोंके लिये मगध के राज्य सिंहासन पर चिलात पुत्र भी आसीन हुआ था । किन्तु उसके अन्यायसे दुखी होकर प्रजाने श्रेणिक बिसारको राज्य सिंहासन पर बैठाया था । चिलातपुत्र प्राण लेकर भागा और मार्ग बैभार पर्वत पर मुनिसंघको देख वह वहां पहुंचकर दत्तमुनि नामक आचार्य से जैन साधुकी दीक्षा लेकर तपश्चरणमें लग गया था । वह शीघ्र ही इस नश्वर शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिद्धि नामक विमानमें देव हुआ । इधर सम्राट् श्रेणिक विम्बसार राज्याधिकारी हुए और नीति पूर्वक प्रजाका पालन करने लगे थे । भारतीय इतिहासमें यही पहिला राजा है, जिसके विषय में कुछ ऐतिहासिक वृत्तांत मालूम हुआ है । जिस समय चिलातपुत्रको उपश्रेणिकने राजा बनाया था, श्रेणिकका प्रारंभिक उस समय उन्होंने श्रेणिकको देश से निर्वासित जीवन ! कर दिया था | अनेक शास्त्रों और क्षत्रीधर्मकी प्रधान शस्त्र विद्यामें निपुण वीर श्रेणिक, पिताकी आज्ञाको ठीक रामचन्द्रजीकी तरह शिरोधार्य करके अपनी जन्मभूमिको छोड़कर चले गये थे । वह वेणपद्म नामक नगर में पहुंचकर सोमशर्मा नामक ब्राह्मणके यहां अतिथि रहे थे । सोमशर्माकी युवा पुत्री नन्दश्री १-आ० क० भा० ३ पृ० ३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ शिशुनाग वंश । [१५ इनके गुणोंपर मुग्ध होगई थी और अन्तमें उसका विवाह महाराज श्रेणिकके साथ होगया था। इसी नन्दश्रीसे श्रेणिकके ज्येष्ठ पुत्र मभयकुमारका जन्म हुआ था। श्रेणिकके रानसम्पन्न होनेके पश्चात् दक्षिण भारतके केरल नरेश मृगांकने अपनी कन्या विलासवतीका विवाह भी उनके साथ कर दिया था। बौद्धोंके तिव्बतीय दुल्वमें शायद इन्हीं का उल्लेख वासवीके नामसे हुआ है। जहां वह एक साधारण लिच्छविनायकी पुत्री और श्रेणिकके दुसरे पुत्र कुणिक अजातशत्रुकी माता प्रगट की गई है, किन्तु यह कथन बौद्धोंके पाली ग्रन्थों की मान्यतासे बाधित है। पाली ग्रन्थों में कहीं उन्हें शालीकी वेश्या भाम्रपालीके गर्भ और श्रेणिकके औरससे जन्मा बतलाया है और कहीं उन्हें उज्जैनीकी वेश्या पद्मावतीकी कोखसे जन्मा लिखा है। ऐसी दशामें उनके कथन विश्वास करने के योग्य नहीं हैं । मान्म ऐसा होता है कि कुणिक मनातशत्रु अपने प्रारंभिक और अंतिम जीवनमें जैनधर्मानुयायी था और वह बौद्ध संघके द्रोही देवदत्त नामक साधुके बहकावे में भागया था, इन्हीं कारणोंसे बौद्धोंने साम्प्रदायिक विद्वेषवश ऐसी निराधार व भर्सना पूर्ण बातें उनके सम्बंध लिख मारी हैं। वरन् स्वयं उन्हींके ग्रथोंसे प्रगट है कि मनातशत्रु १-प्रेणिक चरित्र (पृ. ६१) नंदनीको वैदय इन्द्रदत्त सेटोकी पुत्री लिखा है, किन्तु उससे प्राचीन 'उत्तरपुराण' में वह ब्रह्मण कन्या बताई गई है। उ० पु. पृ. ६२० । २-० च. पृ. १९।३-हमारा • भगवान महावीर' १० १३८ व क्षत्री स. पृ. १२५-१२८ । ४-ॉकहिल, लाइफ ऑफ दी बुद, पृ. ६४ । ५-दी साम्स ऑफ दी सिम्टस, पृ. ३० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। विदेहकी राजकुमारीका पुत्र था, जो वैदेही-चेलना अथवा श्रीभद्रा या भद्रा कहलाती थी। कुणिक भी अपनी माताकी अपेक्षा वैदेही पुत्र' के नामसे प्रख्यात था। जैन शास्त्र भी चेलनीको वैशालीके राजा चेटककी पुत्री बतलाते हैं। चेलनी भगवान् महावीरकी मौसी थी। जिस समय चेल. नीका विवाह सम्राट् श्रेणिकके साथ हुआ था, उससमय वह बौद्ध था; किन्तु उपरांत महाराणी चेलनीके प्रयत्नसे वह जैनधर्मानुयायी हुभा था। बौद्ध धर्मके लिये उन्होंने कुछ विशेष कार्य नहीं किया था और वह बहुत दिनों तक बौद्ध रहे भी नहीं थे; यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में उनका उल्लेख काठनतासे मिलता है । महा. राणी चेलनीके अतिरिक्त कौशलकी एक राजकुमारी भी मम्राट श्रेणिककी पत्नी थीं। किन्तु इन सबमें पटरानी (महादेवी )का पद चेलनीको ही प्राप्त था। चेलनी जैनधर्म की परम भक्त थी और जैनधर्मकी प्रभावनाके लिये इसने अनेक कार्य किये थे। इसके अनातशत्रुके अतिरिक्त छ पुत्र और हुये थे; अर्थात् (१) अनातशत्रु (कुणिक वा अक्रूर ), (.; वारिषेण, (३) हल्ल, (४) विदल, (५) जितशत्रु, (६) गजकुमार (दंतिकुमार) और (७) मेघकुमार । किंतु इनका मौसेरा भाई अभयकुमार इन सबसे बड़ा था और वह जैन मुनि होनेके पहले तक युवराज रहा था । __मनातशत्रुकी बहिन गुणवती नामकी थी और दूसरी मौसेरी १-भ० म० पृ० १४३ । २-३० पु०, पृ० ६३४ श्वे० निर्यावली सुत्रमें भी उन्हें राजा चेटककी पुत्री लिखा है। Gs., Vol xxII, Intro. pp. XIII. ३-भ० म० पृ० १३४-१५१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश । [ १७ बहिन महागणी विलासवती की पुत्री पद्मावती थी । गुणवतीका विवाह उजेनीके प्रसिद्ध और विशेष गुण संपन्न वैश्य पुत्र धन्यकुमार के साथ हुआ था । गुणवती स्वयं धन्यकुमारके गुणोंपर मुग्ध हुई थी और अन्ततः उसको उत्तम कुलका पाकर सम्राट् श्रेणिकने गुणवतीका पाणिग्रहण श्रेष्ठी पुत्रके साथ कर दिया था । श्वेतांबरानायके ग्रन्थों श्रेणिक की दश रानियां बताई गई हैं, जिन्होंने चन्दना आर्थिक के निकट शास्त्र अध्ययन किया था । ( ४ अ० ) इनके पुत्र पौत्र जैन मुनि हुये थे । ૨ जिस प्रकार सम्राट् श्रेणिकका कौटुंबिक जीवन आनन्दमय श्रेणिक विम्बसार और था, उसी प्रकार उनकी राजनीति कुशाग्रअन्य राज्य । ताके कारण उनका राजनैतिक जीवन भी गौरव पूर्ण था। महारान उपश्रेणिकने मगध राज्यके निकटवर्ती छोटे राजाओं को अपने अधीन कर लिया था । सम्राट् श्रेणिक ने उनसे अगाड़ी बढ़कर निकटके अंगदेशको जीत लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया । मगध राज्यकी उन्नतिका सूत्रपात इसी अंगदेशकी जीत से हुआ और इस कारण श्रेणिक बिम्बमारको यदि मगध साम्राज्यका सच्चा संस्थापक कहें तो अनुचित नहीं है । 3 अंगदेश उससमय आजकल के भागलपुर और मुंगेर जिलों के बराबर था और वहां का शासन कुणिक अजातशत्रु के सुपुर्द था । श्रेणिक बिम्बसारका एक अन्य युद्ध वैशालीके राजा चेटक से भी १- बृहद् जैन शब्दार्णव, भा० १० २५ व १६७ । २ - धन्यकुमारचरित पर्व ६ अ• इंऐ० भा० २० पृ० १८ । ३- अदि ६० पृ० ३३ / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | - हुआ था; किन्तु उसका अन्त परस्पर में सन्धि होकर होगया था । ' कहते हैं कि इसी सन्धिके उपरान्त श्रेणिकका विवाह कुमारी चेलनीके साथ हुआ था । सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार ने अपने बढ़ते हुए राज्यबलको देखकर ही शायद एक नई राजधानी - नवीन राजगृहकी नींव डाली थी । उनने अपने पड़ोसके दो महाशक्तिशाली राज्योंकौशल और वैशाली से सम्बन्ध स्थापित करके अपनी राजनीति कुशलताका परिचय दिया था इन सम्बन्धों से उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा अधिक बढ़ गई थी। 3 आधुनिक विद्वानों का मत है कि सम्राट् बिम्बसारने सन् ई० से पूर्व ५८२ से १५४ वर्ष तक कुल २८ वर्ष राज्य किया था । किन्तु बौद्ध ग्रन्थोंमें उन्हें पन्द्रह वर्ष की अवस्था में सिंहासनारूढ़ होकर ५२ वर्ष तक राज्य करते लिखा है । (दीपवंश ३ - १६ - १० ) वह म० बुद्ध से पांच वर्ष छोटे थे । * फारस (Persia) का बादशाह दारा (Darias) इन्हींका समकालीन था और उसने सिंधुनदीवर्ती प्रदेशको अपने राज्यमें मिला लिया था । किन्तु दाराके उपरांत चौथी शताब्दि ई० ५० के आरम्भमें जब फारसका साम्राज्य दुर्बल होगया, तब यह सब पुनः स्वाधीन होगये थे । इतनेपर भी इस विजयका प्रभाव भारतपर स्थायी रहा । यहां एक नई लिपि १-कार माइकल लेवचर्त, १०१८, पृ० ७४ । २ - अहि०, पृ० ३३ | ३- अव०, पृ० ४। ४- ऑहिइ०, पृ० ४५ । * मि० काशीप्रसाद जायसवालने श्रेणिकका राज्य कालं ५१ वर्ष ( ६०१-५५२ ई० पूर्व ) लिखा है। कौशांबीके परन्तप शताव्दिव आवस्तीके प्रसेनजी समकालीन राजा थे । जीव ओसो भा० १०४ ॥ L ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश । [ १९ जिसे खरोष्टी लिपि कहते हैं, प्रचलित हो गई और यहां के शिल्प पर भी फारमकी कलाका प्रभाव पड़ा था । सम्र श्रेणिक के राज्य घतंत्र में जैनों का कहना है कि 'उनके राज्य करते समय न तो राज्यमें किसी प्रकारकी अनीति थी और न किसी प्रकारका भय ही था, किन्तु प्रजा अच्छी तरह सुखानुभव करती थी । ' जैनघमंके इतिहास में श्रेणिक विम्वपारको प्रमुखस्थान प्राप्त है । श्रेणिक विध्वसार भगवान महावीर के समोशरण (भागृह) में वह जैन थे और उनका मुख्य श्रोता थे । जैनों की मान्यता है कि यदि धार्मिक जीवन । श्रेणिक महाराज भगवान महावीरजीसे साठ हजार प्रश्न नहीं करते, तो आज जैनधर्मका नाम भी सुनाई नहीं पड़ता ! किंतु अभाग्यवश इन इतने प्रश्नों में से आज हमें अनि अल्प संख्यक प्रश्नों का उत्तर मिलता है । प्रायः जितने भी पुराण ग्रन्थ मिलते हैं, वह सब भगवान महावीरके ममोशरण में श्रेणिक महाराज द्वारा किये गये प्रश्न के उत्तर में प्रतिपादित हुये मिलने हैं। जैनाचार्यों की इम परिपाटीसे महाराज श्रेणिककी धर्म जो प्रधानता है, वह स्पष्ट होजाती है। श्रेणिक महारानको बौद्ध अपने धर्मका अनुयायी बतलाते हैं; किंतु बौद्धों का यह दावा उनके प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्धमें ठोक है । अवशेष जीवनमें वह पके I जैनधर्मानुयायी थे । यही कारण है कि बौद्ध ग्रंथों में उनके अंतिम जीवन के विषय में घृणित और कटुक वर्णन मिलता है, जैसे कि हम अगाड़ी देखेंगे । जब श्रेणिक महारानको जैनधर्ममें दृढ़ अज्ञान होगया था, १- माइ० ५० ५४ । २-म० २० १० १३८-१४८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] संक्षिप्त जैन इतिहास । तब उन्होंने जैनधर्म प्रभावनाके लिये अनेक कार्य किये थे। जक जब भगवान महावीरका समोशरण राजगृह के निकट विपुलाचल पर्वत पर पहुंचा था, तब तब उन्होंने राजदुन्दुभि बनवाकर सपरिवार और प्रजा सहित भगवानकी वन्दना की थी। उन्होंने कई एक जैन मंदिर बनवाये थे। सम्मेदशिखर पर जो जन तीर्थंकरों के समाधि मंदिर और उनमें चरणचिह्न विरानमान हैं, उनको सबसे पहिले फिरसे सम्र ट् श्रेणिकने ही बनवाया था । इनके सिवायः जैनधर्मके लिये उन्हों। और क्या २ कार्य किये, इसको जाननेके लिये हमरे पास पर्याप्त साधन नहीं है । तो भी जैन शास्त्रोंके मध्ययनसे उनके विशेष कार्यों का पता खुब चलता है और यह स्पष्ट होनाता है कि इस राजवंशमें जैनधर्मकी गति विशेष थी। श्रेणिके पुत्रों से कई भगवान महावीरके निकट जैन मुनि होगये थे। स्म्र ट णक क्षायि सम्यग्दृष्टी थे परन्तु वह व्रतों का अभ्यास नहीं कर सके थे । इपया भी वह अपने धर्मप्रेमके अटूट पुण्य प्रतापसे आगामी पद्मनाम नामक प्रथम तीर्थकर होंगे। ऊपर कहा जाचुका है कि सम्राट् श्रेणिकके ज्येष्ठ पुत्र मभ यकुमार थे और वही युवराज पदपर रहकर युवराम अभयकुमार। बहुत दिनोंतक राज्यशासनमें अपने पिताका हाथ बटाते रहे थे । फलतः मगधका राज्य भी बहार दूरतक फैल गया थे। अपने पिताके समान अभयकुमार भी एक समय बौद्ध थे; किंतु उपगन्त वह भी जैनधर्मके परमभक्त हुये थे। बौडग्रन्यसे १-स्व० बिन्सेन्ट स्मिथ साहबने उन्हें एक जैन राजा प्रगट किया है। ऑहिइ. १० ४५। २-ऐशियाटिक सोसाइटी बर्नल, जनवरी १८२४ व भ. म. पृ. १४७। ३-भाइ, पृ० ५४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश। भी पता चलता है कि वह अवश्य ही भगवान महावीरजीके परमभक्त और श्रद्धालु थे; किंतु उनके इस कथनमें तथ्य नहीं दिखता कि वह बौद्ध भिक्षु होगये थे । हां, जैन ग्रंथोंसे यह प्रस्ट है कि अपने प्रारंभिक जीवनमें अभयकुमार अवश्य बौद्ध रहे थे । अभयकुमार आजन्म ब्रह्मचारी रहे थे । वह युवावस्थामें ही उदाप्तीन वृत्तिके थे । उनने इस बातकी कोशिश भी की थी कि वह जल्दी जैन मुनि होना; किन्तु वह सहमा पितृ आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सके थे। गृहस्थ दशामें उनने श्रावकोंके व्रतोंका अभ्यास किया था और फिर अपने माता-पिताको समझा बुझाकर वह जैन मुनि होगये थे। अपने पिताके साथ वह कई वार भगवान् महावीरजीके दर्शन कर चुके थे और उनके निकटसे अपने पूर्वभव सुनकर उन्हें मैनधर्म में श्रद्धा हुई थी। अभयकुमार अपनी बुद्धिमत्ता और चारित्र निष्ठाके लिये राजगृहमें प्रख्यात थे । श्वेतांबरीय शास्त्रोंका कथन है कि गृहस्थ दशामें अभयकुमारने अपने मित्र एक यवन राजकुमारको, जिसका नाम मद्रिक था, जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था। इस माईकने एक भारतीय १५-नजिमम० स० मा० १ पृ. ३५२। २-भमबु०, पृ० १९१-. १९४ । ३७-प्रेच०, पृ. १३७ । ४-हिंबा०, पृ० ११ व ९२ ० सूत्रकृतांगमें इनको लक्ष्य करके एक व्याख्यान लिखा गया है। (S. B. E., XLV., 400) यह यवन बताये गये है, जिससे भाव यूनानी अथवा ईरानी (Persian) के होते है । हमारे विचारसे इसका ईरानी होना ठीक; क्योंकि उस समय ईरान (फारस ) का ही धनिष्ठ सम्पर्क भारतमे पा और जैन मंत्री राक्षसके सहायकोमें भी फारसका नाम, पुरा. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] संक्षिप्त जैन इतिहास। नहिलाके साथ विवाह किया था और पश्चात वह भी जैन मुनि होगया था। अभयकुमारने भगवान महावीरके मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतमके निकट जैन मुनिकी दीक्षा ग्रहण की थी और अंतमें कर्मों का नाश करके विपुलाचल पर्वतपरसे वह अव्याबाध मोक्षमुखको प्राप्त हुये थे। अभयकुमारके जैन मुनि हो जानेके उपरान्त युवराज पद श्रेणिकका अन्तिम कुणिक अजातशत्रुको मिला था। किन्तु नीवन और अजातशत्रु वह इस पदपर अधिक दिन आसीन नहीं बौद्धसे फिर जैन। रह सका । श्रेणिक महाराज अपनो वृद्ध अवस्था देखकर आत्महित चिन्तनामें शीघ्र ही व्यस्त हुए थे। एक रोज उन्होंने अपने सामन्तोंको इकट्ठा किया और उनकी सम्मतिपूर्वक बड़े समारोहके साथ अपना विशाल राज्य युवराज कुणिक मजातशत्रुको देदिया। वे नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे थे। उधर सम्राट श्रेणिक एकान्तमें रहकर धर्मसाधन करने में संलग्न हुए थे । यह घटना ई० पू० सन् १५४ में घटित हुई अनुमान - की जाती है. और चूंकि भगवान महावीरका निर्वाण ई० पू० सन् १४५ में हुआ था, इसलिये भगवानके जीवनकाल में ही श्रेणिकका अन्तिम जीवन व्यतीत हुआ प्रगट होता है। कुणिक अजातशत्रुके राज्याधिकारी होनेके किंचित काल पश्चात ही उनका व्यवहार श्रेणिक महाराजके प्रति बुरा होने लगा था। अनगाल कहते हैं कि पूर्व वैर के कारण अजातशत्रुने उनको काठ पीजो में बंद कर दिया और वह उन्हें मनमाने दुःख देने लगा था। किन्तु 1 -प्र० पृ० २३० । २-महिइ., पृ. ३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश। [२३ बौद्ध ग्रंथोंसे पता चलता है कि उसने यह दुष्ट कार्य देवदत्त नामक एक बौद्धसंघद्रोही साधुके बहकानेसे किया था। कुणिक अजातशत्रुका सम्पर्क बौद्ध संघसे उस समयसे था, जब वह राजकुमार ही था। और ऐसा मालूम होता है कि इस समय वह बौद्धभक्त होगया था और अपने पिताको कष्ट देने लगा था क्योंकि वह जैनधर्मानुयायी थे । अपने जीवन के प्रारंभमें मजातशत्रु भी जैन था; यही कारण है कि उनको बौद्धग्रंथोंमें तब 'सब दुष्कर्मोका समर्थक और पोषक' लिखा है।' बौड ग्रंथोंमें जैनोंसे घोर स्पर्दा और उनको नीचा दिखाने का पद पदपर अविश्रान्त प्रयत्न किया हुआ मिलता है; ऐसी दशामें उनके कयनको यद्यपि साम्प्रदायिक मत पुष्टिके कथनसे अधिक महत्व नहीं दिया जासक्ता । तो भी उक्त प्रकार कुणिकका पितृ. द्रोही होना इसी कटु साम्प्रदायिकताका विषफल मानना ठीक नंचता है । यही कारण है कि बौद्धग्रंथ श्रेणिक महारानके विषय में मन्तिम परिणामका कुछ उल्लेख नहीं करते । किन्तु इस ऐतिहा. सि* घटनाका अन्तिम परिणाम यह हुमा था कि कुणिकको अपनी गस्ती सूझ गई थी और माताके समझानेसे वह पश्चात्ताप करता हुआ अपने पिताको बन्धन मुक्त करने पहुंचा किन्तु श्रेणिकने उसको और कुछ मषिक कष्ट देनेके लिये माता जानकर अपना १-भम०, पृ० १३५-१५२ । २-भमबु०, परिशिष्ट और केहि १. पृ. 11-1६३ । 4. प. १८४ श्वेताम्बरों के निर्यावलीसूत्र में इस घटनाका वर्णन है । ईए• मा० २०१० २१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] संक्षिप्त जैन इतिहास । मपघात कर लिया था। इस हृदयविदारक घटनासे वह बड़ा दुखी हुआ और बरवश अपने हृदयको शांति देकर राज्य करने लगा; किन्तु महाराणी चेलनी राजमहलोंमें अधिक न ठहर सकी थीं। उन्होंने भगवान महावीरनीके समोशरणमें जाकर मार्यिका चन्दनाके निकट दीक्षा ग्रहण करली थी।' उधर अनातशत्रुका भी चित्त बौद्धधर्मसे फिर चला था। और जब भगवान महावीरके निर्वाण हो जाने के उपरान्त, प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गौतम, श्री सुधर्मास्वामीके साथ विपुलाचलपर्वतपर आकर विराजमान हुये थे, तब उसने सपरिवार श्रावकके व्रत ग्रहण किये थे। । ऐसा मालूम होता है कि इसके थोड़े दिनों बाद ही वह संसारसे बिल्कुल विरक्त होगये, और अपने पुत्र लोकपाल (दर्शक), को छोटे भाई नितशत्रुके सुपुर्द करके स्वयं जैन मुनि होगये थे। उनका देहान्त ५२७ ई० पू०में हुआ प्रगट किया गया है और यह समय इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मास्वामीसे मिलकर उनके जैन धर्म धारण करने आदि घटनाओंसे ठीक बैठता है; क्योंकि इन्द्रभूति गौतमस्वामी भगवान महावीरके पश्चात् केवल बारह वर्ष और जीवित रहे थे। १-श्रेच०, पृ० ३६१ व वृजैश० पृ. २५ । २-उपु०, पृ. ७०६ व कैहिइ०, पृ० १६१ । ३-वृजेश०, पृ० २५ । ४-अहिह०, पृ. ३९-किन्तु मि• जायसवाल कुणिकका राज्यकाल ३४ वर्ष ( ५५२-५१८ ६० पू० ) बताते है; जो ठीक जंचता है । (जविओसो० मा० १ पृ. ११५) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश। [ २५ कुणिक अजातशत्रु अपने समयका एक बड़ा राना था। इसके कुणिक अजातशत्रके राज्यकालकी मुख्य घटनायें यह बतलाई राजकालको मुख्य जाती हैं कि-(१) कौशलदेशके रानाके घटनाए। साथ अजातशत्रा युद्ध हुमा था; कौशलनरेशने अपनी बहिनका विवाह करके मगधातिपतिसे मैत्री कर ली थी। किन्तु मालूम ऐसा होता है कि इस मैत्रीके होते हुए भी कौशलपर मगधका सिक्का जम गया था; (२) अनातशत्रुने वैशाली (तिरहुत ) परं भी आक्रमण किया था और उसे अपने राज्यमें मिलाकर वह गंग और हिमालयके बीचवाले प्रदेशका सम्राट बन गया था । मि० जायसवाल वैशाचीकी विजय ई० पूर्व ५४० में निर्दिष्ट करते हैं । (नविओमो० भा० १४० ११५) श्वेतांबर शास्त्र कहते हैं कि इस संग्राममें वैशालीकी ओरसे ९ मल्ल, ९ लिच्छवि और ४८ काशी कौशल के गणराजाओंने भाग लिया था। (इंऐ. भा. २११-२१) (३) उसने सोन और गंगा नदियोंक संगमपर पाटीलग्रामके समीप एक किला भी बनवाया था; निससे उपरान्तके प्रसिद्ध नगर पाटलिपुत्रके जन्मका सुत्रपात होगया था; और (४) यह भी कहा जाता है कि उसके समयमें शाक्य क्षत्रिबोका, जो महात्मा गौतमबुद्धके वंशन थे, बुरी तरह नाश हुमा यो । मथच उसने जैनधर्मको विशेष रीतिसे अपनाया था, यह पहले ही बतलाया माचुका है। बौद्ध न होकर वह खासकर एक -गदि. ३७-१८. खेताम्बर प्रथ काते है कि कुणिकके भाई रिच्छवियोने उसे नही दिया था इस कारण युद्ध हुमा था। इऐ• मा. २१ . १।२-साहिह. पृ. ३६ और केहि१० पृ. १६३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । जैन राजा था। उसके राज्यमें जैनधर्म का खूब विस्तार हुआ था।'x कुणिककी एक मूर्ति भी मिली है और विद्वानों का अनुमान है कि उसकी एक बांह टूटी थी। यही कारण है कि वह 'कुणिक' कहलाता था ( नविओसो० भा० १ पृष्ठ ८४ ) कुणिकके राज्यकालमें सबसे मुख्य घटना भगवान महावीरजीके निर्वाण लाभकी घटित हुई थी। इसी समय अर्थात् १४५ ई० पूर्वमें अवन्तीमें पालक नामक राजा सिंहासनपर आसीन हुमा था । म० बुद्धका स्वर्गवास भी लगभग इसी समय हुआ था। ( नविओसो० भाग १ पृष्ठ ११५) कुणिक अजातशत्रुके पश्चात् मगधके राज्य सिंहासनपर उसका दर्शक और पुत्र दर्शक अथवा लोकपाल अधिकारी हुआ था। उदयन्। किन्तु इसके विषय में बहुत कम परिचय मिलता है। 'स्वप्नवासदत्ता' नामक नाटकसे यह वत्सराज उदयन् और उजनीपति प्रद्योतनके समकालीन प्रगट होते हैं। प्रद्योतनने इनकी कन्याका पाणिग्रहण अपने पुत्रसे करना चाहा था। दर्शकके बाद ई० पू० सन् ५०३में अजातशत्रुका पोता उदय अथवा उदयन् मगधका राजा हुआ था। उसके विषयमें कहा जाता है कि उसने पाटलिपुत्र अथवा कुसुमपुर नामक नगर बसाया था। इस नगरमें उसने एक सुंदर जैन मंदिर भी बनवाया था, क्योंकि उदयन् भी अपने पितामहकी भांति जैनधर्मानुयायी था। कहते हैं कि जैनधर्मके x-हिह पृ. १६१ अजातशत्रुने अपने बोलवत नामक भाईको भी बौनधर्मविमुख बनानेके प्रयल किये थे । (साम्प, १६९) २-भरपृ. ३१ । ३-कहि पृ०४८।४ मिलि ३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश । [२७. प्रति उसका विशेष अनुराग ही उसकी मृत्युका कारण हुआ था। एक राजकुमार निसके पिताको उदयनने राजभ्रष्ट कर दिया था, राजमहल में एक मैनमुनिका वेष भरकर पहुंचा था और उसने इसको मार डाला था। यह घटना भगवान महावीरके निर्वाणसे साठ वर्ष बाद घटित हुई अनुमान की गई है। भगवान महावीरका निर्वाण ई० पूर्व ५४५ में माननेसे, दर्शकका राज्य ई• पृ० ५१८ से ४८३ तक और उदयन् का ४८३ से ४६७ तक प्रमाणित होता है । ( नविओसो० भाग १ पृष्ठ ११६) हिन्दु पुराणों के अनुसार उदयन के उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धन नन्दिवर्जन और और महानन्दिन थे; किन्तु उनके विषयमें महानन्दिन्। विशेष परिचय नन्दवंशके इतिहासमें है । उनके नामों में 'नन्दि' शब्दको पाकर, कोई २ विद्वान उन्हें नन्दवंशका अनुमान करता है। उपरान्तके श्वेताम्मर ग्रंथ भी इस बातका समर्थन करते हुए मिलते हैं। उनमें लिखा है कि उदयन्के कोई पुत्र नहीं था; इसलिये एक नन्द नामक व्यक्तिको नो एक नाईके सम्पन्धसे वेश्या पुत्र था, लोगोंने राजा नियत किया था। इसका रानमंत्री कल्पक नामक मैनधर्मका दृढ़ श्रद्धानी था। किन्तु इस कथाको सत्य मान लेना कठिन है। मालम ऐसा होता है कि हिन्द पुराणों में महानन्दिनकी शूद्र वर्णकी ( संभवतः नाइन ) एक रानीके गर्भसे महापद्मनन्दका जन्म हुमा लिखा है। उसी भाषारसे शिशुनागवंशका अंत उदयन्से करके उपरोक क्यानरने नन्द नामक व्यक्तिको वेश्यापुत्र लिख मारा। किन्तु उदयगिरिके हाथी1-4हिए. पृ. १६४ । १-भलि. पृ. ४१।३-हलि ० ४३। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] संक्षिप्त जैन इतिहास । गुफावाले शिलालेखमें निस नन्दका उल्लेख आया है, उसे श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवालने नन्दिवर्धन ही बतलाया है। इसलिये वे नन्दराजाओंको दो भागोंमें (१) प्राचीन (२) और नवीन नन्द रूपमें स्थापित करते हैं। नन्दिवर्द्धन भी जैनधर्म भक्त प्रतीत होते हैं क्योंकि कलिङ्ग विजय करके वहांसे वह एक जैन मूर्ति भी लाये थे और उसे उनने सुरक्षित रक्खा था। कलिङ्गमें उनने एक नहर भी बनवाई थी। अजातशत्रु, उदयन और नन्दिवईनकी मूर्तियां भी मिली हैं, जो कलकत्ते और मथुगके मनायबघरमें रक्खी हुई हैं। इससे इन रानाओंका विशेष प्रभावशाली होना प्रकट है । नन्दिवर्द्धनके द्वारा मगधराज्यकी उन्नति विशेष हुई दृष्टि पड़ती है, कि उसका आधिपत्य कलिङ्ग देशतक व्याप्त होगया था। महानन्दिनके सम्बन्धमें कुछ अधिक ज्ञात नहीं होता। यद्यपि यह प्रकट है कि उसकी शूद्रा रानीसे महापद्मनन्दका जन्म हुआ था, जिससे नंदवंशकी उत्पत्ति हुई थी और वह मगधराज्यका अधिकारी हुमा था। . १-जविमोसो, भा० ४ पृ० ४३५ । २-जबिओसो०, भाग ४ पृ० ४६३ । ३-जविमोसो०, भाग १ पृ. ८८-१६५ मा. ६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । लिच्छिकि आदि गणराज्य । ई० पू० ६ वीं शताब्दि । उस समय जिस प्रकार उत्तरीय भारतमें मगधपाम्राज्य अपने प्राचीन भारत में स्वाधीन और पराक्रमी राजाओं के लिये प्रसिद्ध प्रजातंत्र राज्य। था, उसी प्रकार गणराज्यों अथवा प्रजातंत्र राज्यों में वैशालीका लिच्छवि वंश प्रधान था। यह बात तो आन स्पष्ट ही है कि प्राचीन भारतमें प्रजातंत्र राज्य थे। हिंदुओंके महाभारतमें ऐसे कई राज्यों का उल्लेख पाया है। बौहों की जात कथाओं में भी उससमय ऐपी राज संस्थाओं की झलक मिलती है।' नैनोंके शास्त्र भी इस बातका ममर्थन करते हैं । इन प्रजातंत्र राज्योंकी राज्य व्यवस्था नागरिक लोगों को एक सभा द्वारा होती थी; निसका निर्णय वोटों द्वारा होता था। तिनके डालकर सब सभासद वोट देते थे और बहुमत सर्वमान्य होता था। वृद्ध और अनुभवी पुरुषों को राज्य प्रबंधके कार्य सौंपे जाते थे और उन्हीं मेसे एक प्रभावशाली व्यक्ति सभापति चुन लिया जाता था। यह सब गना कहलाते थे। वैशालीके लिच्छिवि क्षत्रियों का राज्य ऐसा ही था । उसवैशालीके लच्छिाव समय इनके प्रनातंत्र राज्यमें आठ जातियां क्षत्रियोंको प्रजातंत्र सम्मिलित थीं। विदेहके क्षत्री लोग भी राज्य । इस प्रजातंत्र राज्यमें शामिल थे, जिसकी रानधानी मिथिला थी। लिच्छिवि और विदेह राज्यों का संयुक्त १-माइ०, पृ. ५८-५९ । २-श्वे. कल्पसूत्र (१२८) में काशीकौशल, लिच्छवि और मलिक गणराज्योका उल्लेख है। दि.ब्रन शाचोसे भी यह सिद्ध है। भमबु. पृ० ६५-६६। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । गणराज्य 'वृज अथवा वन्जि' नामसे भी प्रसिद्ध था। इस राज्यमें सम्मिलित हुई सब जातियां आपसमें बड़े प्रेम और स्नेहसे रहती थी, जिसके कारण उनकी आर्थिक दशा समुन्नत होनेके साथ २ एकता ऐसी थी कि जिसने उन्हें एक बड़ा प्रभावशाली राज्य बना दिया था। मगधके बलवान राना इनपर बहुत दिनोंसे आंख लगाये हुये बैठे थे; किन्तु इनकी एकताको देखकर उनकी हिम्मत पस्त होजाती थी। अंतमें मगधके राना अजातशत्रुने इन लोगोंमें आपसी फूट पैदा करा दी थी और तब वह इनको सहज ही परास्त कर सका था । ऐक्य अवस्थामें उनका राज्य अवश्य ही एक आदर्श राज्य था वह प्रायः आनकलके प्रजातंत्र ( Republic) राज्योंके समान था। जहांवर लिच्छिवि-गण दरबार करते थे, वहांपर उनने 'टाउनहाल' बना लिये थे; जिन्हें वे 'सान्यागार' कहते थे । वृजि-रानसंघ जो जातियां सम्मिलित थीं, उनमें से सदस्य चुने जाकर वहां भेजे जाते थे और वहां बहुमतसे प्रत्येक आवश्यक कार्यका निर्णय होता था । बौद्ध ग्रन्थ इस विषयमें बतलाते हैं कि पहिले उनमें एक ‘ासन पञ्चाप' (मासन-प्रज्ञापक) नामक अधिकारी चुना जाता था, जो अवस्थानुपार आगन्तुकोंको आसन बतलाता था। उपस्थिति पर्याप्त हो जानेपर कोई भी आव. श्यक प्रस्ताव संघके सम्मुख लाया जाता था। इस क्रियाको 'नात्ति' (ज्ञाप्ति ) कहते थे। नात्तिके पश्चात प्रस्तावकी मंजूरों लीनाती थी, अर्थात उसपर विचार किया जावे या नहीं। यह प्रश्न एक दफेसे तीन दफें तो पुछा माता था। यदि १-मांद० पृ० ५९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । [३१ ~~~~~~~~~~~~~~~~~ उसपर विचार करके सब सहमत होते थे, तो वह पास होनाता था; किन्तु विरोधके होनेपर वोट लेकर निर्णय किया जाता था । अनुपस्थित सदस्यका वोट भी गिना जाता था। इन दरवारोंकी कारवाई चार-चार सदस्य (राना) अंकित करते जाते थे। इनमें नायक अथवा चीफ मजिस्ट्रेट होते थे, जो राज्यसत्ता सम्पन्न कुलोंद्वारा चुने जाते थे। इन्हीं के द्वारा दरबार में निश्चित हुए प्रस्तावों को कार्यरूपमें परिणत किया जाता था। इनमें मुख्य राना (सभापति), उपराना, भण्डारी, सेनापति आदि भी थे । इनका न्यायालय भी विनकुल भादर्श ढंगका था; नहां दृघका दुध और पानी का पानी करने के लिये कुछ उठा न रक्खा जाता था। वृजि संघमें सर्व प्रमुख लिच्छिविक्षत्री थे। यह वशिष्ट गोत्रके लिच्छिविक्षत्रियोंका इक्ष्वाकुवंशी क्षत्री थे । इनका लिच्छिवि सामान्य परिचय। नाम कहांसे और कैसे किस काल में पड़ा, इसके जानने के लिये विश्वास योग्य साधन प्राप्त नहीं हैं; किंतु इतना स्पष्ट है कि निससमय भगवान महावीर इस संसारमें विद्यमान थे और धर्मका प्रचार कर रहे थे, उस समय वे एक उच्चवंशीय क्षत्री माने जाते थे। अन्यान्य क्षत्री उनसे विवाहसम्बन्ध करने में अपना बड़ा गौरव समझने थे। भगवान महावीरके पिता भी इन्हींके गणराज्य अर्थात 'वनिरानसंघ' में सम्मिलित थे। लिच्छिवि एक परिश्रमी, पराक्रमी और समृदिशाली नाति होने के साथ ही साथ पार्मिक रुचि और मावको रखनेवाली थी। यह लोग बड़े दयालु और परोपकारी थे । इनकी शग भाकृति मी सुडौल और सुन्दर १-मम०, पृ. ५०-६३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२) संक्षिप्त जैन इतिहास । थी। यह लोग अलग२ रंगके कपड़े और सुन्दर बहुमूल्य आभूषण पहिनते थे। उनकी घोड़ेगाड़ियां सोनेकी थीं। हाथीकी अम्बारी सोनेकी थीं और पालकी भी सोनेकी थीं। इससे उनके विशेष समृद्धिशाली और पूर्ण सुख सम्पन्न होने का पता चलता है । किन्तु ऐसी उच्च ऐहिक अवस्था होते हुये भी वे विलासिताप्रिय नहीं थे। उनमें व्यभिचार छूतक भी नहीं गया था। उन्हें स्वाधीनता बड़ी प्रिय थी। किसी प्रकारकी भी पराधीनता स्वीकार करना, उनके लिये सहन कार्य नहीं था। भगवान महावीर उनके साथी और नागरिक ही थे जिन्होंने प्राणी मात्रकी स्नाधीनताका उच्च घोष किया था । भला जब उनके मध्यसे एक महान् युगप्रधान और अनुपम तीर्थङ्करका जन्म हुआ था, तब उनके दिव्य चारित्र और अद्भुत उन्नतिके विषयमें कुछ अधिक कहना व्यर्थ है । हिंसा, झूठ चोरी आदि पापोंका उनमें निशान नहीं था। वे ललितकला और शिल्पको खूब अपनाते थे। उनके महल और देवमंदिर अपूर्व शिल्पकार्यके दो दो और तीन तीन मंनिलके बने हुये थे । वे तक्षशिलाके विश्वविद्यालयमें विद्याध्ययन करनेके लिये जाते थे ।' यद्यपि लिच्छिवि लोगोंमें यक्षादिकी पूजा पहलेसे प्रचलित निवि की थी; परन्तु जैनधर्म और बौद्ध धर्मकी गति भी जैनधर्मके परम उनके मध्य कम न थी । जैनधर्मका अस्तित्व उपासक थे। उनके मध्य भगवान महावीरके बहुत पहलेसे था। भगवान महावीरके पिता राना सिद्धार्थ और उनके मामा राजा १-भम पृ० ५७-६३ । २-पर रमेशचंद्र दत्तका "भारत वंशकी सभ्यताका इतिहास"-भम. पृ० ६५ क्षत्री कैलन्न, पृ० ८२ व केहि पृ०१५७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । [३३ चेटक भैनधर्मानुयायी थे और भगवान महावीरसे पहले हुये तीर्थङ्करोंकी उपासना करते थे, इनके अतिरिक्त और लोग भी नैनी थे; किन्तु भगवान महावीरके धर्म प्रचार करनेपर उनमें जैनधर्मको प्रधानता प्राप्त हुई थी। बड़े२ रानकर्मचारी भी मैनधर्मानुयायी थे। वजियन संघके प्रमुख राना चेटकके अतिरिक्त सेनापति सिंह, लिच्छिवि अभयकुमार और आनन्द आदि प्रसिद्ध व्यक्ति जनधर्मके परमभक्त थे । सेनापति सिंह संभवतः राजा चेटकके पुत्रोंमेंसे एक थे । यह भगवान महावीरके अनन्य उपासक थे। बौद्ध धर्मकी अपेक्षा जनधर्मकी प्रधानता लिच्छवियोंमें अधिक थी। लिच्छिवि रानवानी वैशालीमें जैनधर्मके अनुयायी एक विशाल संस्थामें थे। म. गौतमबुद्धके वहां कईवार अपने धर्म प्रचार करनेवर भी नोंकी संख्या अधिक रही थी। यह बात चौडोंके 'महाग' नामक ग्रंथमे सेनापति सिंहके कथानकसे विदित है।' वज गन संघकी गनपानी वैशाली, उम समय एक बड़ा लिच्छिवि राजधानी प्रसिद्ध और वैभवशाली नगर था। कहते वैशाली अथवा हैं कि वह तीन भागों में विभक्त था अर्थात् विशाला। (१) वैशाली, (२) वणियग्राम और (३) कुण्डग्राम | कुण्डग्राम भगवान महावीरका जन्मस्थान था और उसमें ज्ञात्रिक क्षत्रियों की मुख्यता थी। वैशालीकी विशालनाके 1-भमबु• पृ. २३१-२३६ । २-भभ०, पृ. ६५ व वीर, भा० ४ पृ. २७६. श्वेताम्बर अनायके ग्रन्थों में स्पष्टतः भगवान महावीरका जन्म सम्पन्य शालीसे प्रस्ट किया हुआ मिलता है। जैसे मुत्रकृताङ्ग (१, २, ३, २२), उत्तराधायन मूत्र (६७) व भगवती सूत्र ( २१ १२.२) में भगवानका उल्लेख वैशालीय या वैशालिक रूपमें हुभा है; - ---- - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | कारण ही उसका नामकरण ' विशाला ' हुआ था | चीनी यात्री ह्युन्सांग वैशालीको २० मीलकी लम्बाई-चौड़ाई में बसा बतला गया था । उसने उसके तीन कोटों और भागों का भी उल्लेख किया है । वह सारे वृज्जि देशको ५००० ली ( करीब १६०० मील) की परिधिमेंमें फैला बतलाया है और कहता है कि यह देश बड़ा सरसन्न था । आम, केले आदि मेवोंके वृक्षोंसे भरपूर था । मनुष्य ईमानदार, शुभ कार्यों के प्रेमी, विद्या पारिखी और विश्वास में कभी कट्टर और कभी उदार थे ।' वर्तमान के मुजफ्फरपुर जिलेका बसाढ़ ग्राम ही प्राचीन वैशाली है । उपरान्तके जैन ग्रंथों में विशाला अथवा वैशाली को सिंधु देशमें जिससे भगवानका वैशालीके नागरिक होना प्रकट है । अभयदेवने भगवतीसूत्र की टीका में 'विशाला' को महावीर जननी लिखा है । दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में यद्यपि ऐसा कोई प्रकट उल्लेख नहीं है, जिससे भगवानका सम्बन्ध वैशालीसे प्रकट होसके; परंतु उनमें जिन स्थानोंके जैसे कुण्डग्राम, कुलग्राम, वनषण्ड आदि के नाम आए हैं, वे सब वैशालीके निकट ही मिलते हैं । वनदण्ड श्वेताम्बरोंका 'दुइपलाश उज्जान' अथवा 'नायषण्डवन उज्जान' या 'नायपण्ड' है । कुलग्रामसे भाव अपने कुलके ग्रामके होसते हैं अथवा कोव्लागके होंगे, जिसमें नाथवंशी क्षत्री अधिक थे और जिसके पास ही वनपण्ड उद्यान था, जहां भगवान महावीरने दीक्षा ग्रहण की थी । अतः दिगम्बर सम्प्रदाय के उल्लेखोंसे भगवान का जन्मस्थान कुण्डग्राम वैशालीके निकट प्रमाणित होता है और चूंकि राजा सिद्धार्थ ( भगवान महावीरके पिता ) वैशाली के राज संघ में शामिल थे, जैसे कि हम प्रगट करेंगे, तब वैशालीको उनका जन्मस्थान कहना अत्युक्ति नहीं रखता। कुण्ड प्राम वैशालीका एक भाग अथवा सन्निवेश हो था । १- क्षत्री क्लेन्स० पृ० ४२ व ५४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य | १ 2 ३५ अवस्थित बतलाया है; किन्तु यह भ्रामक उल्लेख कवि कालिदासके " श्री विशालमविशालम् " वाक्यके कारण हुआ प्रतीत होता है: क्योंकि कालिदासजी ने यह वाक्य उज्जैनीके लिये व्यवहृत किया था और वह अवश्य ही सिंधु नद-वर्ती प्रदेशमें अवस्थित थी । जैन कवियोंने अपने समय में बहुप्रसिद्ध इस विशाला (उज्जैनी) को ही महाराज चेटककी राजधानी मानकर उसे सिंधु देशमें लिख दिया है । वैसे वह विदेह देशके निकट ही घी: जैसे कि आज I उसके व्वंसावशेष वहां मिल रहे हैं । वैशालीके राजा चेटक थे, यह बात जैन शास्त्र प्रकट करते राजा चेटक और हैं। इसके अर्थ यही हैं कि वह वज्जि प्रजाउनका परिवार | तंत्र राज्य के प्रमुख राजा थे । यह इक्ष्वाकुवंशी व शिष्टगोत्री क्षत्री थे । उत्तरपुगण में (१० ६४० ) इनको सोमवंशी लिखा है, जो इक्ष्वाकुवंशका एक भेद है । इनकी रानीका नाम भद्रा था जो अपने पति के सर्वथा उपयुक्त थी । राजा चेटक बड़े पराक्रमी, वीर योद्धा और विनयो तथा अरहंत देव के अनुयायी थे । १- प्रेच० पृ० १५० उ० पु० ० ६३४, इत्यादि । २ - भवभूति के मालतीमाधव नामक नाटक में उजनी के पास में सिन्धुनदी और उसके किनारे अवस्थित नावाका उल्लेख है। जैन कवि धनपालने इस प्रदेश के लोगों का उल्लेख 'संघव' नाममे किया है अर्थात् सिंधुदेशके वासी । अतएव उपरोक सिन्धु नदोकी अपेक्षा ही यह प्रदेश 'सिन्धु देश' के नामसे उल्लिखित हुआ प्रतीत होता है। पश्चिमीय विधु प्रदेश इसे अलग था। चूंकि उजनी, जिनका उल्लेख कवि कालिदास 'मेघदूत' में विशाल रूपने करते है, उपरोक्त निधुनदीके समीर थी, वह जैन लेखकों द्वारा सिंधुप्रदेश में बनाई जाने लगी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] संक्षिप्त जैन इतिहास । बह राजनीतिमें कितने निपुण थे और उनकी प्रतिष्ठा आसपासके राज्योंमें कितनी थी, यह इसी बातसे अंदानी जासक्ती है कि वह वजियन प्रजातंत्र राज्यके प्रमुख राजा चुने गये थे। पराक्रम और वीरतामें भी वह बड़े चढ़े थे। उस समयके बलवान राना श्रेणिक बिम्बसारसे संग्राम ठानने में वह पीछे नहीं हटे थे और गांधार देशके सत्यक नामक रानासे भी उनकी रणांगण में भेंट हुई थी और वह विजयी होकर लौटे थे। इसी तरह वह धार्मिक निष्ठामें भी सुदृढ़ थे । मिनेन्द्र भगवान की पूजा-अर्चा करना वह रणक्षेत्र में भी नहीं भूलते थे। राजा चेटकके दश पुत्र थे, जो (१) धन, (२) दत्तभद्र, (३) उपेन्द्र, (४) सुदत्त, (५) सिंहभद्र; (६) सुकुंभोज, (७) अकंपन, (८) सुपतंग, (९) प्रभंजन और (१०) प्रभापके नामसे प्रसिद्ध थे। इन दश भाइयोंकी सात बहिनें थीं। इनमें सबमें बड़ी त्रिशला प्रियकारिणी भगवान महावीरकी माता थीं। अवशेष मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलिनी, ज्येष्ठा और चंदना नामक थीं। मृगावतीका विवाह वत्सदेशके कौशाम्बीनगरके स्वामी चंद्रराजा शतानीक और वंशी राजा शतानीक के साथ हुआ था। वत्सराज उदयन् । इनके पुत्र वत्सराज उदयन् उप समयके राजाओंने विशेष प्रसिद्ध थे । उज्जैनीके राजा चंडपद्योतन्की राजकुमारीसे इन्होंने बड़ी होशियारीसे विवाह कर पाया था । वत्सराजकी इस प्रेमकथाको लेकर 'स्वप्न वासवदत्त' नाटक मादि ग्रंथ रचे गए हैं । शतानीक परम जैनधर्म भक्त थे। जिस समय भगवान १-उ० पु०, पृ० ६३४-६३५ । २-उ• पु. पृ० ६३५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छि वे आदि गणराज्य । [३७ महावीर धर्मप्रचार करते हुये कौशाम्बी पहुंचे थे, उस समय इस रानाने उनका धर्मोपदेश अच्छे भावों और बड़े ध्यानसे सुना था। भगवानकी वन्दना और उपासना बड़ो विनयसे की थी। और अन्तमें वह भगवान के संघ संमिलित होगया था। पर पहले मृगावतीकी बहिन चन्दनाके यहां नो कौशाम्बीमें एक सेठ के यहां पुत्रीके रुपमें रही थी, भगवानका आहार हुआ था । कौशाम्बी प्राचीन कालसे नैनों का मुख्य केन्द्र रहा है और मान भी उसकी मान्यता भनोंके निकट विशेष है । यहांपर प्राचीन जैन कीर्तियां विशेष मिलती हैं । कनिंघम साहबने वत्सरान उदयन्को यहां ई० पूर्व ५७० से ५४० तक राज्य करते लिखा है । वह 'विदेहपुत्र' अपनी माताकी अपेक्षा कहलाते थे। राना चेटककी तीसरी कन्या सुप्रभा दशाण (दशासन) देशमें राजा दशरथ और हेरकच्छपुर (कमैठपुर) के स्वामी सुर्यवंशी राना परम सम्यकी दशरथसे विवाही गई थी। यह दशार्ण देश राजा उदयन् । मंदसोरके निकट प्राचीन मत्सदेशके दक्षिणमें भनुमान किया गया है । यह राना भी न था। चौथी पुत्री प्रमावती कच्छदेशके सुरक नगरके राजा उदयनकी पट्टरानी हुई थी। यह राजा उदयन् अपने सम्यक्तबके लिये जैनशास्त्रों में बहुत प्रसिद्ध हैं। किन्हीं शास्त्रों में इनकी रानपानीका नाम वीतशोका लिखा हुमा मिलता है । श्वे. माम्नायकी 'उत्तराध्ययन सुत्र' सम्बन्धी कथाओमें इन्हें पहले वैदिक धर्म भुक्त बतलाया है। १-उ० पु. पृ. ६३६ व मम• पृ. १०८ । २-३० पु. पृ. ६१६ । ३-एमिक्ष टा. पृ. ७२ । ४-३० पु. पृ. ६३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] संक्षिप्त जैन इतिहास। उपरान्त वह जैनधर्मके दृढ़ श्रद्धानी हुये थे और दिगंबर मुनिके वेषमें सर्वत्र विचरे थे । श्वेताम्बर कथाकार उनकी राजधानी वीतभय नगरीको सिंधुसौवीर देशमें बतलाते हैं और कहते हैं कि वह १६ देशोंपर राज्य करते थे, जिनमें वीतभयादि ३६३ मुख्य नगर थे । संभवतः इच्छ देश भी इसमें संमिलित था; इसी कारण उनकी राजधानी कच्छ देशमें अवस्थित भी बताई गई है। उक्त कथामें प्रभावतीके संसर्गसे राना उदयनको जैनधर्मासक्त होते लिखा है । राजाने राज्य प्रासादमें एक सुंदर मंदिर बनवाया था और उसमें गोशीषचन्दनकी सुन्दर मूर्ति विराजमान की थी। कहते हैं कि एक गांधार देशवासी जैन व्यापारीकी कपासे मंत्र पाकर उस मूर्तिकी पूजा करके एक दासी पुत्री स्वर्ण देहकी हुई थी। उसने उज्जैनीके राजा चन्द्रप्रद्योतनसे जाकर विवाह कर लिया। और उस गोशीर्ष चन्दनकी मूर्तिको भी वह अपने साथ लेगई। उदायन्ने प्रद्योतनसे लड़ाई ठान दी और उसे गिरफ्तार कर लिया; किन्तु मार्गमें पर्युषण पर्वके अवसरपर उसे मुक्त कर दिया था। प्रद्योतन्ने उस समय श्रावकके व्रत ग्रहण किये और वह उज्जैनी वापस चला गया था । उदायन भगवानकी मूर्ति लेकर वीतभय नगरको पहुंच गए। यह नगर समुद्र तटपर था और यहांसे खूब व्यापार अन्य देशोंसे हुमा करता था । उक्त श्वेताम्बर कथाका निम्न अंश कल्पित प्रतीत होता है। संभव है कि वत्सराज उदायन्का जो युद्ध प्रयोतनसे हुभा था, उसीको लक्ष्यकर यह अंश रच दिया गया हो। मंगाड़ी इस कथा हैं कि उदायन्की भावना थी कि भगवान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । महावीरजीका शुभागमन बीतशोका नगरीमें होनावे । कदाचित समागम ही ऐसा लगा कि भगवानका समोशरण वहांके 'मृगवन' नामक उद्यानमें आकर विराजमान हुमा । उदायनने बड़ी भक्तिसे भगवानकी वंदना की और अन्तमें वह अपने भानजे वेशीको राज्य सौंपकर नग्न श्रमण होगये। दिगम्बर जैनशास्त्रोंमें यह राना अपने निर्विचिकित्सा अंग' का पालन करने के लिये प्रसिद्ध हैं। यह बड़े दानी और विचारशील राजा थे। सारी प्रजाका उनपर बहुत प्रेम था । दिगम्बर मान्यताके अनुसार उनने अपने पुत्रको राज्यसिंहासन पर बैठाया था और स्वयं वीर भगवान के समोशरणमें जाकर मुनि होगए थे। अन्तमें घातिया कर्मोका नाशकर वह मोक्ष-लक्ष्मीके वल्लभ बने थे। रानी प्रभावती निनदीक्षा ग्रहण करके समाधिमरण प्राप्त करके ब्रह्मस्वर्गमे देव हुई थी। राना चेटककी अबशेष तीन कन्यायोंमेंसे चेकनीका विवाह . मगघदेशके राजा श्रेणिक बिम्बसारसे हुमा चेलिनी और ज्येष्ठा। 'था, यह पहले लिखा जा चुका है । चेलनोकी बहिन ज्येष्ठाका भी प्रेम मगधनरेश पर था; किंतु उसका मनोरथ सिद्ध नहीं हो सका था। गांधार देशस्थ महीपुरके राना सात्यकने उसके साथ विवाह करना चाहा था; किंतु राजा चेटकने बह सम्बंध स्वीकार नहीं किया था और उसे रणक्षेत्र में परास्त करके भगा दिया था। सात्यक जैन संघमें जाकर दिगम्बर जैन मुनि होगया था और कालांतर ज्येष्ठाने भी अपनी मामी यशस्वती १-टे. पृ. ९८-११६ । २-भाक., भा० १ पृ. ८८ । ३-१० पु., पृ. ६३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । आर्यिकासे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कदाचित् सात्यक मुनिका प्रेम ज्येष्ठासे हटा नहीं था और हठात एक दिवस उन्होंने अपने शीलरूपी रत्नको ज्येष्ठाके संसर्गसे खो दिया था। इस दुक्रियाका उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ था और प्रायश्चित्त लेकर वह फिरसे मुनि होगये थे । ज्येष्ठा गर्भवती हुई थी, सो उपको दया करके चेलनीने अपने यहां रक्खा था । पुत्र प्रसव करके वह भी प्रायश्चित्त लेकर पुनः आर्यिका हो गई थी और अपने कृतपापके लिये घोर तपश्चरण करने लगी थी। इनका पुत्र द्वादशाङ्कका पाठी रुद्र नामक मुनि हुआ था। चंदना इन सब बहिनोंमें छोटी थी और उसका विवाह _ नहीं हुआ था। वह मानन्म कुमारी रही थी। सती चंदना । " ' वह सर्वगुण सम्पन्न परम सुन्दरी थीं। एक दिन जब वह राज्योद्यान में वायुसेवन कर रही थीं, उस समय एक विद्याधर उन्हें उठाकर विमानमें ले उड़ा। किंतु अपनी स्त्रीके भयके कारण वह उनको अपने घर नहीं ले गया, बलिक मार्ग में ही एक वनमें छोड़ गया । शोकातुर चन्दनाको उस समय एक भीलने ले नाकर अपने राजाके सुपुर्द कर दिया । इस दुष्ट भीलने चन्दनाको बहुत त्रास दिये; किन्तु वह सती अपने धर्मसे चलित न हुई । हठात् उसने एक व्यापारीके हाथ उनको वेव दिया; निसने भी निराश होकर कौशाम्बी में उन्हें कुछ रुपये लेकर वृषभसेन नामक धनिक सेठके हवाले कर दिया। दयालु सेठने चंदनाको बड़े प्रेमसे घरमें रहने दिया। चंदना १-आ., भा• २ पृ. ९६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । [४१ सेठानीके गृहकार्यमें पूरी सहायता देती थी; किंतु उसके अपूर्व झप लावण्यने सेठानीके हृदय में डाह उत्पन्न कर दिया और वह चन्दनाको मनमाने कष्ट देने लगी। उधर चन्दनाके भी कष्टोंका अन्त आगया । भगवान महावीरका शुभागमन कौशाम्बी में हुआ । दुखिया चन्दनाने उनको आहारदान देने की हिम्मत की। पतितपावन प्रमूका आहार चन्दनाके यहां होगया । लोग बड़े माश्चर्यमें पड़ गये । चन्दनाका नाम चारों ओर प्रसिद्ध होगया । कौशाम्बी नरेशकी पट्टरानीने जब यह समाचार सुने तो वह अपनी छोटी बहिनको बड़े मादर और प्रेमसे राजमहल में ले गई; किन्तु वह वहां अधिक दिन न ठहर सकी । भगवान महावीरके दिव्य एवं पवित्र चारित्रका प्रभाव उसके हृदयपर अंकित होगया। वैराग्यकी अटूट धारामें वह गोते लगाने लगी और शीघ्र ही वीरनाथके पास पहुंचकर उनने निनदीक्षा ले ली। आर्यिका चंदना खूब ही दुद्धर तप तपती थीं और उनका ज्ञान भी बड़ा चढ़ा था । उस समय उनके समान अन्य कोई साध्वी नहीं थी। मात्मज्ञानका पावन प्रकाश वह चहुंओर फैलाने लगी। फलतः शीघ्र ही उनको भगवानके आर्यिकासंघमें प्रमुखपद प्राप्त होगया था। वह ३६००० विदुषी साध्वीयोंक चारित्रकी देखभाल और उनको ज्ञानवान बनाने में संलग्न रहती थी। इसपकार स्वयं अपना भात्मकल्याण करते हुये एवं अन्योंको सन्मार्ग पर लगाते हुये, वह आयुके अंतमें स्वर्गसुखकी अधिकारी हुई थी। 1-3. पु., पृ. ६३७-६४.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । राजा चेटकका यह पारवारिक परिचय बड़े महत्वका है। उपरान्तमें लिच्छिवि इससे प्रगट होता है कि उससमयके प्रायः वंश। मुख्य राज्योंसे उनका सम्पर्क विशेष था। जैनधर्मका विस्तार भी उससमय खूब होरहा था। लिच्छिवि प्रजातंत्र राज्य भी उनकी प्रमुखतामें खूब उन्नति कर रहा था। किन्तु उनकी यह उन्नति मगध नरेश अजातशत्रुको असह्य हुई थी और उसने इनपर आक्रमण किया था, यह लिखा जाचुका है। किन्हीं विद्वानोंका कहना है कि अभयकुमार, जिसका सम्बन्ध लिच्छिवियोंसे था, उससे डरकर अजातशत्रुने वैशालीसे युद्ध छेड़ दिया था; किंतु जैन शास्त्रोंके अनुसार यह संभव नहीं है। क्योंकि अभयकुमारके मुनिदीक्षा ले लेनेके पश्चात् अजातशत्रुको मगधका राजसिंहासन मिला था । अतः अभयकुमारसे उसे डरनेके लिये कोई कारण शेष नहीं था। यह संभव है कि अजातशत्रुके बौद्धधर्मकी ओर आकर्षित होकर अपने पिता श्रेणिक महाराजको कष्ट देनेके कारण, लिच्छिवियोंने कुछ रुष्टता धारण की हो और उसीसे चौकन्ना होकर अजातशत्रुने उनको अपने भाधीन कर लेना उचित समझा हो। कुछ भी हो, इस युद्धके साथ ही लिच्छिवियोंकी स्वाधीनता जाती रही थी और वे मगध साम्राज्यके आधीन रहे थे। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें भी वह प्रजातंत्रात्मक रूपमें राज्य कर रहे थे; निसका अनुकरण करनेकी सलाह कौटिल्यने दी थी। किन्तु जो स्वतंत्रता उनको चन्द्रगुप्तके राज्यमें प्राप्त थी, वह अशोकके समय १-क्षत्री क्लैन्स०, पृ. १३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य | [ ४३ नहीं रही और उनने अशोककी आधीनता स्वीकार कर ली थी । गुप्तकाल तक इनके अस्तित्वका पता चलता है । वजियन प्रजातंत्र के उपरान्त दूसरा स्थान शाक्यवंशी क्षत्रिशाक्य और मल्ल शत्रि योंके प्रजातंत्र को प्राप्त था। उनकी राजधानी योंके गणराज्य | कपिलवस्तु थी, जो वर्तमान के गोरखपुर जिले में स्थित है । नृप शुद्धोदन उस समय इस राज्य के प्रमुख थे । म० गौतमबुद्धका जन्म इन्हींके गृहमें हुआ था । शाक्योंकी भी सत्ता उस समय अच्छी थी; किन्तु उपरान्त कुणिक अजातशत्रुके समय में विद्दाम द्वारा उनका सर्व नाश हुआ था । शाक्यों के बाद मल्ल गणराज्य प्रसिद्ध था, जिसमें मल्लवंशी क्षत्रियोंकी प्रधानता थी । बौद्ध ग्रन्थोंसे यह राज्य दो भागों में विभक्त प्रगट होता है । कुसीनारा जिस भागकी राजधानी थी, उससे म० बुद्धका संबंध विशेष रहा था । दूसरे भागकी राजधानी पावा थी । उससमय राजा हस्तिपाल इस राज्यके प्रमुख थे । भगवान महावीर जिस समय यहां पहुंचे थे, तब इस राजाने उनकी खूब विनय और भक्ति की थी। भगवानने निर्वाण-लाभ भी यहीं से किया था । उस समय अन्य राजाओकि साथ यहांके नौ राजाओंने दीपोत्सव मनाया था। जैनधर्मकी मान्यता इन लोगों में विशेष रही थी। शाक्य प्रजातंत्र भी जैन धर्मके संसर्गसे अछूता नहीं बचा था । ऐसा मालूम होता है कि राजा शुद्धोदनकी श्रद्धा प्राचीन जैनधर्म में थी । * लिच्छिवियोंकी तरह मछोंको भी अजातशत्रुने अपने माघीन कर किया था। 3 ४ १ - पूर्व, पृ० १३६ । २६० पृ० ३७-३८ । ३ क्षत्रीलेन्स ०, पृ० १६३ व १७५ । ४-भमनु० पृ० ३७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । विदेह देशवासी क्षत्रियों का गणराज्य भी उस समय उल्ले. खनीय था। यह लिच्छिवियोंके साथ वृजि-प्रजातंत्र राज्यसंघ सम्मिलित थे, यह लिखा जाचुका है । दिगम्बर जैनशास्त्रों में भगवान महावीरकी जन्मनगरीको विदेह देशमें स्थित बतलाया है।' और श्वेताम्बरी शास्त्र महावीरजीको विदेहका निवासी अथवा विदेहके राजकुमार लिखते हैं। इन उल्लेखोंसे भी विदेह गणराज्यका वृनि-रान-संघमें सम्मिलित होना सिद्ध है । यदि विदेहका सम्पर्क इस राजसंघसे न होता तो वैशालीके निकट स्थित कुण्डग्रामको विदेह देशमें न लिखा जाता । अस्तु; विदेहमें जैनधर्मकी गति विशेष थी। भगवान महावीरने तीस वर्ष इसी देशमें बिताये थे। विदेहकी राजधानी मिथिला वैशालीसे उत्तर पश्चिमकी ओर ३९ मील थी और वह व्यापारके लिये बहु प्रख्यात थी। इनके अतिरिक्त रायगामका कोल्यिगणराज्य, सुन्समार पर्वतका अग्ग राजसंघ, मल्लकप्पका बुलि प्रजातंत्र राज्य, पिप्पलिवनका मोरीयगणराज्य आदि अन्य कई छोटे मोटे प्रजातंत्रात्मक राज्य थे; जिनका कुछ विशेष हाल मालम नहीं होता है। १-उ० पु०, पृ. ६०५ । २-Js. I, 256. ३-क्षत्री क्लैन्स, पृ० १४६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ४५ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । ई० पूर्व० ३२० ई० पूर्व ५४५ । लिच्छिवियोंके साथ वज्जि प्रदेश के प्रजातंत्रात्मक राजसंघ में ज्ञात्रिक वंशी क्षत्री भी सम्मिलित थे । इन ज्ञात्रिक क्षत्री | क्षत्रियों को 'नाय' अथवा 'नाथ' वंशी भी कहते हैं ।" दिगम्बर जैन शास्त्रों में इनका 'हरिवंशी' रूपमें भी उल्लेख हुआ है । मनुने मल, भल्ल, लिच्छिवि, करण, खस व द्राविड़ क्षत्रियों के साथ नाट अथवा नात (ज्ञात्रिक) क्षत्रियों को व्रात्य लिखा है । (मनु० स० १०/२२ ) यह इसी कारण है कि इन लोगों में जैनधर्मकी प्रधानता थी । व्रात्य अथवा व्रतिन् नामसे जैनियों का उल्लेख पहले हुआ मिलता है । (भ० पा० प्रस्तावना, ष्ट० ३२) भारतके धार्मिक इतिहास में नाथ अथवा ज्ञात्रिक क्षत्रियोंका नाम अमर है । इनका महत्व इमं से प्रकट है कि यही वह महत्वशाली जाति है जिसने भारतको एक बड़े भारी सुधारक और महापुरुषको समर्पित क्रिया था । महापुरुष जैनियों के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे। आधुनिक साहित्यान्वेषणसे प्रगट हुआ है कि ज्ञात्रिक क्षत्रिशात्रिक क्षत्रियोंका यों का निवासस्थान मुख्यतः वैशाली (बाढ़), निवासस्थान । कुण्डग्राम और वणिय ग्राममें था । कुण्डग्रामसे उत्तर-पूर्वीय दिशा में सन्निवेश कोल्लाग था । कहते हैं कि यहां ज्ञात्रिक अथवा नाथवंशी क्षत्री सबसे अधिक संख्या में रहते थे |* वैशाली के बाहिर पास ही में कुण्डग्राम स्थित था; जो संभ ३०, पृ० ११५-११६ । २- वृजेश०, पृ० ७ १- सक्षाए ३-उ० ६०, १-२ फुटनोट । ४-उ६० २।४ फुट० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । वतः भाजकलका 'वसुकुण्ड' गांव है। कोई २ विद्वान कोल्लागको ही भगवान महावीरका जन्मस्थान बतलाते हैं; किन्तु यह बात दिगम्बर और श्वेतांबर-दोनों जैन संप्रदायोंकी मान्यताके विरुद्ध है। श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता चलता है कि कोल्लागके निकट एक चैत्यमंदिर था, निसको 'दुइपलाश', 'दुइपलाश उन्जान' अथवा 'नायषण्डवन' कहते थे। इस उद्यानमें एक बगीचा था; जिसमें एक भव्य मंदिर बना हुआ था । दिगम्बर जैन शास्त्रोंमें 'वनषण्ड' में अथवा नायषण्ड या ज्ञातृखंड वनमें जाकर भगवानको दीक्षा लेते लिखा है। यह वनषण्ड उपरोक्त नायषण्डवन ही है क्योंकि वह भगवानके जन्मस्थानके निकट था और वहांसे उठकर भगवान कुलपुर अथवा कुलग्राममें प्रथम पारणाके लिये गये थे। यह कुलपुर कोल्लाग ही प्रतीत होता है, जो नायषण्डवनके बिल्कुल समीप और नाथवंशी क्षत्रियों के पूर्ण अधिकारमें था। कोल्लागका अपर नाम 'नायकुल' भी मिलता है। इस दशामें कोल्लागका कुलपुर अथवा कुलग्राम होना चाहिये । दिगम्बर.म्नायके ग्रन्थोंम कुलग्रामका राना कुलनृप लिखा है.' अर्थात् राना और नगरका नाम एक ही है । और ज्ञात्रिक क्षत्री इससे भी कोल्लागका कुलपुर या कुलग्राम होने वजियन प्रजातंत्रमें और वहांके निवासी नाथवंशी क्षत्रियों का लत था वृनि प्रनातंत्र-संघमें समिष्ट होनेका परिचय मिलता है। कुलका व्यवहार उससमय साधारणतः वंशको लक्ष्य १-कैहिइ. पृ. १५७ । २-उद० २१४, कसू• ११५ व मासू० २॥५-२२।३-३० पु. १०६०९।४-३६० ६६ । ५-3-पु०.६.१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । ૧ [ ४७ करके होता था । किन्तु 'कुल' शब्दसे भाव केवल इतना ही नहीं था कि उस वंशके प्रमुख व्यक्तिका अधिकार मात्र उप कुलके लोगों पर ही रहे प्रत्युत उसकी मुख्यता और अधिकार उस कुलके माधिपत्य में रहे समस्त देशपर व्याप्त होता था ।' कोल्छागके नाथ कुलवाले क्षत्री अवश्य ही वृद्धि प्रजातंत्र राज्य में सम्मिलित थे । इसीलिये उनमें प्रमुख नेता, उनकी ओरसे उस संघ प्रतिनिधित्वका अधिकार रखते थे । यही कारण है कि उनका उल्लेख 'कुलनृप' रूपमें हुआ है । यह नाम कुल अपेक्षा ही है-व्यक्तिगत नाम यह नहीं है । इस उल्लेख से यह भी विदित होता है कि राजा सिद्धार्थका विशेष सम्पर्क कोलागसे न होकर कुण्डग्राम से था । यही कारण है कि वहांका नेता कोई अन्य व्यक्ति प्रगट किया गया है। इससे जातृवंशी अथवा नाथकुलके क्षत्रियोंके निवासस्थानकी स्पष्टता और उनका वृजि-प्रजातंत्र में शामिल होना प्रगट है । प्रजातंत्र रामसंघ इन क्षत्री कुलोंके मुखियायोंकी कपिल मुख्य कार्यकर्ती थी । इन सदस्यों का नामोल्लेख 'गा' रूपमें होता था, यह बात - कौटिल्य अर्थशास्त्रमे स्पष्ट है । ' ર ज्ञानृवंशी क्षत्री मुख्यतः जनोंके २३ वें तीर्थंकर भगवान शांत्रिक क्षत्रियोंका पार्श्वनाथनी के धर्मशासन के भक्त थे । उपरान्त धम । जब भगवान महावीरजीका धर्मप्रचार होगया था, तब वे नियमानुसार बीर संघके उशपक होगये थे । जैनधर्म१- काभ्रे ० १९१८, पृ० १६२-१६४ । २-अर्थशास्त्र, शाम शास्त्री, 3 ३० ४५५। ३०० १० ३१.५ उद० २६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | भुक्त होनेके कारण यह लोग बड़े धर्मात्मा और पुण्यशाली थे । वे पापकर्मों से दूर रहते थे और पापसे भयभीत थे । वे हिंसाजनक बुरे काम नहीं करते थे । किसी प्राणीको कष्ट नहीं देते थे । और मांस भोजन भी नहीं करते थे ।' उनकी ऐहिक दशा भी खूब समृद्धिशाली थी और उनका प्रभाव तथा महत्व भी विशेष था । उनका सम्बन्ध उनके प्रमुख द्वारा उस समय करीब २ सब ही प्रतिष्ठित राज्योंसे था । जैनियोंके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरका जन्म भी इस वंश में हुआ था, यह लिखा जाचुका है । । • i । भगवान महावीर के पिता नृप सिद्धार्थ थे । यह राजा सर्वार्थ राजा सिद्धार्थ और रानी श्रीमती धर्मात्मा, न्यायी और और ज्ञानवान वी - पुत्र थे । इनको श्रेयांस और रामी त्रिशला जवंश भी कहते थे । यह काश्यपगोत्री इक्ष्वाकू अथवा नाथ या ज्ञतःशी क्षत्री थे । इनका विवाह वैशाली के लिच्छिवि क्षत्रियोंके प्रमुख नेता राजा चेटककी पुत्री प्रियकारिणी अथवा त्रिशला से हुआ था । त्रिशलाको विदेहदत्ता भी कहते थे। यह परम विदुषी महिलारत्न थीं । श्वेताम्बर शास्त्रों में नृप सिद्धार्थको केवल क्षत्रिय सिद्धार्थं लिखा है । इसकारण कतिपय विद्वान् उन्हें साधारण सरदार समझते हैं, किंतु दिगम्बराम्नायके ग्रंथों में उन्हें स्पष्टतः राजा लिखा है । राजा चेटक के समान प्रसिद्ध राजवंश से उनका सम्बंध होना, उनकी प्रतिष्ठा और यादरका विशेष प्रमाण है । वह नाथवंशके मुकुटमणि थे। ऐसा १-Js. XLV. 416. २ - आसू० ११।१५/१५. Js. XXII. 193. ३-उ० पु० पृ० ६०५ । ४-Js. XXII. 193. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [४९ मालूम होता है कि उनके आधीन उनके कुलके अन्य राना थे; जसे कि एक कुलनृपका उल्लेख ऊपर होचुका है। जैन शास्त्र कहते हैं कि राना सिद्धार्थने मात्ममति और विक्रनके द्वारा अर्थ-प्रयोजनको सिद्ध कर लिया था। वे विद्यामें पारगामी और उसके अनन्य प्रसारक थे। सचमुच 'मापने (विद्या. ओंक) फलसे समस्त लोकको संयोजित करनेवाले उस निर्मल रानाको पाकर रानविद्याएँ प्रकाशित होने लगी थीं।' फलतः यह प्रकट है कि भगवान महावीरनी एक बुद्धिमान, धर्मज्ञ, परिश्रमी और प्रभावशाली गनाके पुत्र थे । गना सिद्धार्थका मुख्य निवासस्थान कुण्डग्राम अथवा कुण्डपुर था। वह कोल्लागसे भिन्न और वैशाली के सन्निकट कुण्डग्राम । था, यह पहले बताया नाचु का है । बौद्ध ग्रन्थ 'महावग्ग' के उल्लेखसे भी कुण्डग्राममें नाथ अथवा ज्ञातृवंशो क्षत्रियों का होना प्रकट है । वहां लिखा है कि एक मरतबा म० गौतम बुद्ध कोलिग्राममें ठहरे थे, जहां नाथिक लोग रहते थे। बुद्ध निप्स भवनमें ठहरे थे उसका नाम 'नाथिक-इटिका भवन ' (निन्नावप्तय) था । कोटिग्रामसे वह वैशाली गये थे । सर रमेशचंद्र दत्त इस कोटिग्रामको कुण्डग्राम ही बतलाते हैं और लिखते हैं कि “ यह कोटिग्राम वही है जो कि नियों का कुण्डग्राम है और बौर ग्रंथों में निन नातिकोंका वर्णन है, वे ही ज्ञात्रिक क्षत्री थे।" __ यह कोटिग्राम अथवा कुण्डग्राम वैशालीका समीपवर्ती नगर १-महावग्ग ६।३०-११ (SBE. XVII) पृ० १०८ । २-भम. पृ. ६८। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । था, इसलिये बड़ा वैभवशाली थी । जैनशास्त्रोंमें इसकी शोभाका अपूर्व वर्णन मिलता है । फिर जिस समय भगवान महावीरका जन्म होनेको हुआ था, उस समय तो, वह कहते हैं, कि स्वयं कुबेरने आकर इस नगरका ऐमा दिव्यरूप बना दिया था कि उसे देखकर मलकापुरी भी लज्जित होती थी । भगवानके जन्म पर्यंत वहां स्वा-और रत्नों की वर्षा हुई बतलाई गई है। राजा सिद्धार्थका राजमहल सात मंजिलका था और उसे 'सुनंदावत्तं' प्रासाद कहते थे। स्वर्गलोकके पुष्पोत्तर विमानसे चयकर वहांके देवका जीव भगवान महावीर. आषाढ़ शुक्ला षष्ठीके उत्तगफाल्गुणी नक्षत्र में का जन्म और रानी त्रिशलाके गर्भमें आया था। उससमय बाल्यजीवन । उनको १६ शभ स्वप्न दृष्टि पड़े थे* और देवोंने आकर मानन्द उत्सव मनाया था। जैन शास्त्रोंके अनुपार प्रत्येक तीर्थकरके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष अवसरपर देव. गण आकर मानन्दोत्सव मनाते हैं । यह उत्सव भगवानके 'पंचकल्याणक' उत्सव कहलाते हैं । योग्य समयपर चैत्र शुक्ला त्रयोदशोको, जब चन्द्रमा उत्तगफल्गुणी पर था, गनी त्रिशलादेवीने जिनेन्द्र भगवान महावीरका प्रसव किया था । उप्त समय समस्त लोकमें अल्पकालके लिये एक आनन्द लहर दौड़ गई थी। भगवानका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार और हो शयारीसे होता था। शैशवहालसे ही वे बड़े पराक्रमी थे । १-कैहिइ. पृ० १०७ । २-उ, पु० पृ. ६०५ । ३-उ० पु० प. ६०४ । * श्वेताम्बर १४ स्वप्न बताए है। ४-उ० पु. १. ६०५ व Js. L. 266. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [५१ एक दफे उनने एक मत्त हाथीको देखते ही देखते वश कर लिया था और दूसरी बार जब वे राज्योद्यानमें बाल सहचरों समेत खेल रहे थे, तब उनने एक विकराल सर्पको बातकी बातमें कोल दिया था । वह महापुरुष थे । उन्होंने अपने पूर्वभवों इतना विशिष्ट पुण्य मंचय कर लिया था कि उनके जन्मसे ही अनेक असाधारण लक्षण और गुण विद्यमान थे । वे जन्ममे ही मति, अति और भवधिज्ञानसे विभूषित थे । इमलिये उनका ज्ञान अना. यात बड़ा चढ़ा था। रानमहलमें वे काव्य, पुराण आदि ग्रन्थों का वृद्ध पठन पाठन करते थे । इस छोटी उनासे ही उनका स्वभाव न्यागवृत्तिको लिये हुये था । जब वह अट वर्ष के थे, तब उनने श्रावकोंके व्रतोंको ग्रहण कर लिया था । अहिंसा, मन्य, गोल, अचौर्य और परिग्रह प्रमाण नियमों का वह समुचित पालन करते थे । मंनयविनय नामक चारण मुनि उनके दर्शन पार सन्मतिको प्राप्त हुये थे |x --- - - - ,-भम० पृ. ६९-८२ । वतांव के अर्थाचीन ग्रंथों में लिखा है। कि 'गेन्द्र' नामका एक व्याकरण ग्रंय बनाया था, किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता । (जन हि. भा. १८ पृ. ३४५) । म० बुबके समकालीन मतप्रर्वतकोम एक संजय अथवा संजय वात्योपुत्र नामक भी था । बौद्ध करने है कि इनके शिष्य मोडल यन और सारीपुत्र थे; जो बौद्ध होगये थे । 'जैन शास्त्रों में मौद्र यायनको पहले जैन मुनि लिखा है । अत: अजय वायोपुत्र का भी जन होना सुसंगत है। हम समझते है, संजय चारण मुनि और यह एक ही व्यक्ति थे । विशेषके लिये देखो 'भगवान महावीर और म. बुद्ध' पृ. २२-२३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । राजा सिद्धार्थने महान पुत्रके जन्मके उपलक्षमें बड़ा आनंद भगवान महावीरके मनाया था। कुण्डग्रामकी उस समय खूब नाम । अभिवृद्धि हुई थी। इसलिये उन्होंने भगवान का नाम 'वईमान' रक्खा था। वैसे साधारणतः वह ज्ञात त्रिय रूपमें प्रख्यात थे। उन्हें "महावीर" "वीर" "मतिवीर" "सन्मात” और “ नाथकुलनन्दन" भी कहते थे । दक्षिण भारतके एक कनड़ी भाषाके ग्रन्थमें भगवानका एक अन्य नाम "वसुकबान्धव” लिखा है । हिन्दूशास्त्रों में उनका नामोल्लेख 'मत महिमन् या महामान्य' रूपमें हुआ है। श्वेताम्बरोंके 'उपासक दशास्त्र' में उनको महामाहने' अथवा 'नायमुनि' लिखा है । यह नाम उनकी साधु अवस्थाके प्रतीत होते हैं। मिसेज स्टीवेन्सम कहती हैं कि वे ज्ञातपुत्र, नामपुत्र, शासननायक और बुद्ध नामोंसे भी परिचित हैं । यह नाम विशेषण रूपमें हैं और इस तरह के विशेषण जैनशास्त्रोंमें १००८ बतलाये गये हैं। ' वैशालिय ' वे इस कारण कहलाते थे कि उनका सम्बन्ध वैशालीसे विशेष था। किन्तु बौद्धोंके पाली साहित्यमें उनका उल्लेख 'निगन्थ नाथपुत्त' के नामसे हुमा है । वह नाथवंशके राजर्षि थे, इसलिये बौद्धोंने उन्हें इस नामसे सम्बोधित किया है। जैनशास्त्रोंमें भी उनका उल्लेख इस रूपमें हुभा मिलता है।" -सक्ष्यद्राए ३०७ । २-लाभ० पृ० ६ । ३-जैग०, भा० २४ पृ. ३२ । ४-भ० पा०, पृ. ९६-१९। ५-उद० ७ । ६-उद० १९ । ७-हॉज०, पृ. २७। ८-जिन सहस्रनाम स्तोत्र देखो। ९-Js. II, 261. १०-भमबु. पृ० १८८-२७० वJs. II.Intro. ११-Js. Pt. II. Intro. महावीर चरित पृ०, व उ० पु० पृ. ६०५......। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [५३ निग्रन्थ (निगन्थ) के भाव 'बन्धनोंसे मुक्त' के हैं, यह बात बौद्ध शास्त्रोंसे भी प्रकट है। उस समय जैनों का उल्लेख 'निर्ग्रन्थ' नामसे होता था; जैसे कि वे उपगन्त, 'आईत' नाम से प्रख्यात 'निर्ग्रन्य' जैनी हैं। - हुये थे। किन्हीं लोगों का विश्वास है कि जैन तीर्थंकरों की शिक्षा उस समय लिपिबद्ध नहीं थी, इसलिये उनको लोग 'निग्रन्थ' कहते थे किन्तु जैन शास्त्रों में निग्रन्थ का अर्थ 'ग्रंथियोंसे रहित' किया गया है और इस शब्दका प्रयोग प्रायः जैन मुनियों के लिये ही हुआ है; यद्यपि बौद्ध शास्त्रोम कहा गृहस्थ और मुनि सबके लिये समान रूपमें व्यवहृत हुआ मिलता है। बौद्धोंके 'चुल्ल नहेम' में निग्रन्थ श्रावकोंका देवता निग्रन्थ लिखा है। यहांपर निर्ग्रन्थ शब्द दि जैन मुनिके लिये प्रयुक्त हुआ है किन्तु 'महावग्ग' के सीह नामक कथानक और 'मज्झिमनिकाय' के 'सच्च निगन्यपुत्त' के माख्यानमें 'निम्रन्थ' शब्द जैन गृहस्थ के लिये व्यवहृत हुमा है । अतएव उस समय नैनसंघ मात्र निर्ग्रन्थ' नामसे परिचित था। इस कारण भगवान महावीर ज्ञातृपुत्र भी 'निर्ग्रन्थ ' कहे गये हैं। बौड कहते हैं कि महावीरनी सर्व विद्याओंके पारगामी थे, इस कारण 'निगन्य' कहलाते थे। १-डायोलॉग्स ऑफ दी बुद, मा० २ पृ. ७४-७५ । २-वीर, मा. ५ पृ. २३९-२४० । ३-मूला० ३० । ४-भमनु० पृ. २३५ । ५-निगन्ट सावकानाम् निगडो देवता पृ० १७१।६-महा० पृ० ११६॥ -मनि. मा. १ पृ. २२५ । ८-ॐबु. पृ० ३.२ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवान महावीर गृहस्थ दशा में तीस वर्षकी अवस्था तक भगवान महावीर रहे थे । उस समय शीलधर्मके प्रचारकी विशेष बालब्रह्मचारी थे । आवश्यक्ता जानकर उन्होंने विवाह करना स्वीकार नहीं किया था । वलिंगदेशके राजा जितशत्रु अपनी यशोदरा नामकी कन्या उनको भेंट करनेके लिए कुण्डपुर लाये भी थे; किंतु भगवान अपने निश्चय में दृढ़ रहे थे । वह बालब्रह्मचारी थे । किन्तु श्वेताम्बराम्नायकी मान्यता इसके विरुद्ध है । वह कहते हैं कि भगवान ने यशोदरासे विवाह कर लिया था और इस सम्बंध से उनके प्रियदर्शना नामकी एक पुत्री हुई थी । प्रियदर्शनाका विवाह जमालि नामक किसी राजकुमारसे हुआ था; जो उपरांत वीर संघमें संमिलित हो मुनि होगया था और जिसने महावीर स्वामी के विपरीत असफल विद्रोह भी किया था । विवाह आदि विषयक यह व्याख्या श्वेतांबरों के प्राचीन ग्रन्थ 'आचाराङ्गसूत्र' और 'कल्पसूत्र' में नहीं मिलती है और इसकी सादृश्यता बौद्धोंके म० बुद्ध के जीवनसे बहुत कुछ है । ऐसी दशा में उससमय में शीलधर्मकी आवश्यक्ताको देखते हुए भगवानका बालब्रह्मचारी होना ही उचित जंचता है । १- भमबु० पृ० ४२-४४ । ३- श्वताम्बर शास्त्रों में भगवान महावीरका यशोदाके साथ विवाह करना और उनके पुत्री होना संभवतः सिद्धान्तभेदको स्पष्ट करने के लिये लिखा गया है; क्योंकि दिगम्बर जैन सिद्धान्तके अनुसार तीर्थकर भगवानकी पुण्यप्रकृतिकी विशेषता के कारण उनके पुत्रीका जन्म होना असम्भव है । ऋषभदेवजीके काटदोषसे दो पुत्रियां हुई थीं। इसी सिद्धान्तभेदको स्पष्ट करनेके लिये श्वेताम्बरोंने शायद भगवानका विवाह व पुत्री होना लिख दिया है; वरन् कोई कारण नहीं कि यदि भगवानका विवाह हुआ होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर | [ ५५ ब्रह्मचर्य अवस्था में राजसुखका उपभोग करके भगवान महाभगवान महावीरका वीरने गृहत्याग किया था। इससमय इनकी गृहत्याग । अवस्था करीब तीन वर्षकी थी। उन्होंने उससमयके राजोन्मत्त राजकुमारों और आजीविकों एवं ब्राह्मण ऋषियों जैसे साधुओं को मानो पूर्ण ब्रह्मचर्यका महत्त्व हृदयंगम तो दिगम्बरान्नायके शास्त्र उसका उल्लेख न करते जब व अन्य तीर्थकरोंका विवाह हुआ लिखते है । बौद्ध ग्रन्थों में भी भगवानकी पुत्री आदिका कुछ उल्लेख नहीं मिलता है। श्वेताम्बर शास्त्रों में भगवानकी जीवनीका चित्रण बहुत कुछ म० बुद्ध के जीवनचरित्र के ढंगपर हुआ है । ऐसा विदित होता है कि पाली पिटकों को सामने रखकर वे० ग्रंथोकी रचना ई० की टी श० में हुई है । इसका सप्रमाण वर्णन हम अगाड़ी करेंगे । यहां इतना बतला देना पर्याप्त है भी इस वातको स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बरीने वृतान्त म० बुद्ध के जीवनचरित्र के अनुसार और उसीके आधारसे लिखा है । ( इन्डियन से ऑफ दी जेन्स, पृ० ४५ ) ' ललितविस्तर' और 'निदानकथा' नामक बौद्धग्रन्थोंमें जैसा चरित्र गौतम बुद्धका दिया हुआ है: उससे ताम्गे द्वारा वर्णित भ० महावीर के चरित्रमें कई बातों में सादृश्यता है | (केहि० १० १५६) उदाहरण के तौरपर देखिये, यह सादृश्य जन्म से ही प्रारम्भ होजाता है । म० वृद्धके विषयमें कहा गया है कि उनको मालूम था, वह स्वर्गसे चय होकर के अमुक रीतिसे जन्म धारण करेंगे। भ० महावीर के सम्बन्धमें भी श्वेताम्बर ग्रन्थ यही कहते हैं कि उनको अपने आगमनका ज्ञान तीन प्रकार से था । युवावस्थाको लीजिये तो जैसे बौद्ध कहते हैं कि बुद्धका विवाह यशोदा नामक राजकन्या से हुआ था, वैसे ही इंवेताम्बर भी बतलाते है कि महावीरजी का विवाह मशोदरा नामक राजकुमारीसे हुआ था । वेताम्बर शास्त्र कहने है कि भगवानके माता पिताने उनको दीक्षा ग्रहण करनेसे रोका था; कि पाश्चात्य विद्वान् महावीरजीका जीवन ' · युद्धके सम्बन्धमे यही कहा जाता है। वेताम्बरोका मत है कि भगवाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | कराने के लिये तबतक ब्रह्मचारी रहकर कठिन इन्द्रियनिग्रह और परीषद जय करनेके मार्ग में पग बढ़ानेका निश्चय कर लिया था । अपने पिता के राजकार्य में सहायता देते हुए और गृहस्थकी रंगरलियों में रहते हुए भी भगवान संयमका विशेष रीति से अभ्यास कर रहे थे | उनके हृदयपर वैराग्यका गाढा रंग पहले से ही चढ़ा हुआ था | सहसा एक रोज उनको आत्मज्ञान प्रकट हुआ और वह उठकर ' वनषण्ड ' नामक उद्यानमें पहुंच गए। माता-पिता आदिने उनको बहुत कुछ रोकना चाहा; किन्तु वह उन सबको मीठी वाणी से प्रसन्न कर विदा ले आये ! मार्गशीर्ष शुक्ला की दशमीको वह अपनी 'चन्द्राभा' नामक पालखी में आरूढ़ हो नायखंड नकी गृहस्थदशामें ही उनके माता पिताका स्वर्गवास होगया था और उनके ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्द्धन राज्याधिकारी हुए थे । बौद्ध ग्रन्थोंनें भी म बुद्धकी माताका जन्मते ही परलोकवासी होना लिखा है तथा उनमें उनके भाई नन्द बताये गये हैं । ( साम्स० पृ० १२६ ) म० बुद्ध 'सम्बोधि' प्राप्त कर लेनेके पश्चात् भी कवलाहार करते थे । ( महावग्ग SBE पृ० ८२) भगवान महादीरके विषय में भी श्वेताम्बर शास्त्र यही कहते हैं । म० बुद्धके जीवन में उनके भिक्षु संघ में मतमेद खड़ा हुआ था ( महावग्ग ८ ); श्वेताम्बर भी कहते हैं कि भगवानके जमाई जमाठीने उनके विरुद्ध एक असफल आवाज़ उठाई थी । बौद्ध कहते हैं कि परिनियान के समय भी म० बुद्धने उपदेश दिया था । और उनके शरीरान्तपर लिच्छिवि, मल्ल आदि राजा आये थे ( Beal's Life of Buddha, 101 - 131 ) श्वेताम्बर भी कहते है कि भगवान महावीरने पावामें पहुंचकर निर्वाण समय में कुछ पहले तक उपदेश दिया था और उनके निर्वाणपर लिच्छिवि, मल आदि राजगण आये थे । बुद्धकी मृत्यु उपरान्त उनका संघ वैशाली में एकत्रित हुआ था और उसने पिटक ग्रंथोंको व्यवस्थित किया था। इसके बाद अशोक के समय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [५७ अथवा वनखंड उद्यान में पहुंचकर उत्तराभिमुख हो अशोकवृक्षके नीचे रत्नमई शिलापर विराजमान होगए थे। उन्होंने सब वस्त्राभूषण इससमय त्याग दिये थे और सिद्धोंको नमस्कार करके पंचमुष्टि लोंच किया था। इसप्रकार निग्रन्थ श्रमण हो वह ध्यानमग्न होगए और उनको शीघ्र ही सात लब्धियां एवं मनःपर्यय ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। श्वेताम्बर आम्नायके शास्त्रोंमें लिखा है कि भगवान दीक्षा भगवान महावीरकी समय नग्न हुये थे । इन्द्रने दीक्षा समयसे दिगम्बर दीक्षा । एक वर्ष और एक महीना उपरान्त ' देवदुप्य वस्त्र धारण कराया था। इसके पश्चात् वे नग्न होगये थे। भी वह एकत्रित हुआ था। इसीतरह श्वेताम्बर कहते है कि भगवान महावीरके उपरान्त जैनसंघ पाटलीपुत्रमें एकत्रित हुआ था। और उसने सिद्धान्तको मुव्यवस्थित किया था। फिर वल्लभीमें भी वह एकत्र हुआ था। सारांशतः भगवान महावीरके जीवन सम्बन्धमें जो घटनाएं केवल श्वेताम्बर प्रन्यों में लिखी हुई है। उनका मादृश्य म० बुद्धके जीवनसे खुब है और श्वे. आगम प्रन्यों का संकलन भी प्रायः बौबोके पिटक प्रन्योंके समान मिलता है। अतः यह जंचता है कि उनने बौद्धोके आधारसे उक्त जीवन घटनाए लिखी है। इस अवस्थामें उनपर विश्वास करना ज़रा कठिन है। __ -जैनशानों में ज्ञान पांच प्रकारका बतलाया है:-(१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यय, (५) केवटज्ञान । मतिज्ञान संसारके दृश्य पदार्थोका ज्ञान है, जो इन्द्रियों व मनद्वारा जाना जासक्ता है। मतिज्ञानने साप२ शाम्रो स्वाध्याय और अध्ययनसे प्राप्त पहायोंके ज्ञानको श्रुतमान कहते है। उन सब बातोका ज्ञान जो वर्त रही हो विना वहां जाएही ठे बेटे जान लेनेको अवधि कहते है। दूसरोंके मनोभावको जान लेना मनःपर्यय है और बगतके भूत भविष्य वर्तमानके समस्त पदार्थोको युगपत जान लेना केवलज्ञान है। २-Js. I. P. 79. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] संक्षिप्त जैन इतिहास । 'देवदृष्य वस्त्र' से क्या भाव है, यह श्वेताम्बर शास्त्रोंमें नहीं बतकाया गया है । वह कहते हैं कि देवदूप्य वस्त्र पहिने हुये भी भगवान नग्न दिखते थे | इसका साफ अर्थ यही है कि वे नग्न थे । एक निप्पक्ष व्यक्ति उनके कथनसे इसके अतिरिक्त और कोई मतलब निकाल ही नहीं सक्ता है? | फलतः श्वेताम्बरीय शास्त्रों में भी भगवानका नग्न दिगम्बर मुनि होना प्रगट है। अचेलक अथवा नग्न दशाको उनके 'आचारांग सूत्र' में सर्वोत्कृष्ट अवस्था बतलाई ६२ । अचेलकसे भाव यथाजात नग्न स्वरूपके अतिरिक्त यहांपर और कुछ नहीं होसक्त; यह बात बौद्ध शास्त्रोंके कथनसे स्पष्ट है। बौद्ध शास्त्रोंमें जैन मुनियों अथवा निग्रन्थ श्रमणोंको सर्वत्र नग्न साधु लिखा है और यह साधु केवल भगवान महावीरके तीर्थके ही नहीं है, प्रत्युत उनसे पहले भगवान पार्श्वनाथनीके तीर्थके भी हैं । अतएव भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य तीर्थकरोंका पूर्ण नग्न दशाको साधु अवस्थामें धारण करना प्रमाणित है। श्वेताम्बरीय आचारांग सुत्रमें भी शायद इसी अपेक्षा लिखा है कि 'तीर्थङ्करोंने भी इस नग्न वेशको धारण किया था।' इससे प्रत्यक्ष प्रगट है कि भगवान महावीरजीके अतिरिक्त अवशेष तीर्थङ्करोंने १-कसू० स्टीवेन्सन, पृ० ८५ फुटनोट । २-J8. Pt. I. pp. 55-56. ३-दीनि० पाटिकसुत्त; वीर वर्ष ४ पृ० ३५३ । ४-भमबु० पृ० ६०-६१ और २४९-२५५, जैसे दिव्यावदान पृ० १८५, जातकमाला ( S. B. B. Vol. I.) पृ० १४५, महावग्ग ८, १५, ३,१, ३८, १६, डायोलॉग्स ऑफ दी बुद्ध भा० ३ पृ० १४ इत्यादि । ५-ममबु० पृ० २३६-२४०। ६-J. S. I pp:57-58.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 8. Pt. 1. और गत वीर वर्ष ५. जातकमाला Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जात्रेक क्षत्री और भगवान महावीर। [५९ भी इस दिगम्बर दीक्षाको ग्रहण किया था। बौद्धाचार्य बुद्धघोष अचेलक शब्दक अर्थ नग्न ही करते हैं । जन मुनियों का उल्लेख स्वयं जन ग्रन्थों एवं बौद्धोंके पाली और चीनी भाषाओंके ग्रन्थों में भी अचेलक रूपसे हुआ मिलता है । हिन्दुओं के प्राचीनसे प्राचीन शास्त्रोंमें भी जैन मुनियोंको 'नग्न' 'विवसन' आदि लिखा है। अचेलक अर्थात् नग्न दशा ही कल्याणकारी है और यही मोक्ष प्राप्त कराने का सनातन लिंग है, यह बात जनमतमें प्राचीनकालसे स्वीकृत है। अतएव जैन मुनियोंके यथानात दिगम्बर वेषमें शंका करना वृथा है । वास्तवमें सांसारिक बंधनोंसे मुक्ति उसी हालतमें मिल सक्ती है, जब मनुष्य वाह्य पदार्थोसे रंचमात्र भी सम्बन्ध अथवा संसर्ग नहीं रखता है । इसी कारण एक जैन मुनिको अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओंपर सर्वथा विनयी होना परमावश्यक होता है । इस विनयमें उसे सर्वोपरि 'लज्जा' को परास्त करना पड़ता है । यह प्राकृत सुसंगत है । संयमी पुरुषको असली हालतअपने प्रारत स्वरूपमें पहुंचना है । अतएव यह यथानात रूप उसके लिये परमावश्यक है। उस व्यक्तिकी निस्टहता और इंद्रियनिग्रहका प्रत्यक्ष प्रमाण है । नग्नदशामें वह सांसारिक संसर्गसे छूट जाता है। कपड़ोंकी झंझटसे छूटनेपर मनुष्य अनेक झंझटोसे छुट १-कचेलको ति निच्चेलो नग्गो-पापश्च सूदन, Siamese Ed. II, p. 67. २-भमबु० पृ० २५५-दीनि. पाटिक सुत्त। ३-वार, मा. ४ पृ. ३५४ । ४-ऋग्वेद १०-१३५; वराहमिहिर संहिता १९-११ व ४५-५० महामारत ३२६-२७, विष्णुपुराण ॥१८; मागवत १३, बेदान्तमृत्र २।२।३३-३६: दशकुमार चरित २ इत्यादि। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ ~ संक्षिप्त जैन इतिहास । कर पूर्ण स्वतंत्र होजाता है । जैनोंके निकट विशेष आवश्यक जो जल है, सो इम भेषमें कपड़ोंके न होने के कारण उसकी भी जरूरत नहीं पड़ती। ___ वस्तुतः हमारी बुगई भलाईकी जानकारी ही हमारे मुक्त होनेमें बाधक है । मुक्तिलाम करनेके लिए हमें यह भूल जाना चाहिये कि हम नग्न हैं। जैन साधु इस वातको भूल गये हैं। इसीलिये उनको कपड़ोंकी आवश्यक्ता नहीं है। वह परमोत्कृष्ट और उपादेय दशाको पहुंच चुके हैं । इस दिगम्बर भेषको केवल जैनोंने ही नहीं प्रत्युत हिन्दुओं ईसाइयों और मुसलमानोंने भी साधुपनका एक चिन्ह माना है। सारांशतः यह प्रगट है कि अगवान महावीरने गृह त्याग करके इसी दिगंबर भेषको धारण किया था । श्वेताम्बर जैन आचार्य अन्ततः कहते हैं कि “ उन ( भगवान महावीर ) के तीन नाम इसप्रकार ज्ञात हैं कि उनके माता-पिताने उनका नाम वर्द्धमान रक्खा था, क्योंकि वे रागद्वेषसे रहित थे; वे 'श्रमण' इसलिये कहे जाते थे कि उन्होंने भयानक उपसर्ग और कठिन कष्ट सहन किये थे, उत्तम नग्न अवस्थाका अभ्यास किया था और सांसारिक दुःखोंको सहन किया था; और पूज्यनीय 'श्रमण महावीर', वे देवों द्वारा कहे गये थे।" दीक्षा ग्रहण कर लेनेके उपरान्त भगवान महावीरने ढाई भगवानका प्रथम दिनका उपवास किया और उसके पूर्ण होनेपर पारणा। जब वह मुनि अवस्थामें सर्व प्रथम माहार ग्रहण करनेके लिये निकले तो कुलनगरके कुलनृपने उनको १-भमबु० पृ. ५९-६० । २-Js. T. P. 193. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर | [ ६२ पड़गाहकर भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था' । राजा और नगरका एक ही नाम, गणराज्यका द्योतक है और यह ऊपर कहा ही जाचुका है कि यह कुलपुर नाथवंशी क्षत्रियोंकी विशेष वस्ती 'कोलग' ही थी और कुलनृप वहांके क्षत्रियोंके प्रमुख नेता थे । भगवानका पारणा उन्हींके यहां हुआ था | कुलपुरसे भगवान दशरथपुरको गये थे । वहां भी इसी कुलनग्ने जाकर भगवानको दुष और चांवलका आहार दिया था । इसप्रकार परम पात्रको आहारदान देकर इस राजाने विशिष्ट पुण्य संचय किया था । उसके यहां देवोंने रत्नवृष्टि आदि पंचश्चर्य किये थे । इसके उपरान्त भगवान महावीर वनको वापस चले गये और ध्यानमग्न होगये थे । फिर वहांसे वे भवनामक रुद्रका उपसर्ग 1 अन्यत्र विहार कर गये थे । कितने ही स्थानोनें विचरते हुये वे उज्जयनी पहुंचे थे । अभी वे अलज्ञ थे और इस कारण मौनसे रहने हुये, केवल आत्मस्वरूपमें लीन रहते थे । उज्जयनी पहुंचकर वह ' अतिमुक्तक' नामक स्मशानभूमिमें रात्रि के समय प्रतिमायोग धारण करके, ध्यानलीन खड़े थे । उस समय भव नामक रुद्रने उनपर अनेक प्रकारके उपसर्ग किये थे; किन्तु वह उन 'विभव' अर्थात् संसार रहितको जीव न सका था । मन्तमें उसने उन मिननाथको नमस्कार किया और उनका नाम अनिवीर रक्खा था | I ६११-६१२ / २-मम० १० १ - उ पु० ६१२-६१३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ९८ । ३- पु० www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] संक्षिप्त जैन इतिहास । श्वेताम्बर शास्त्रोंमें इसके अतिरिक्त भगवानपर अन्य बहु तसे उपसर्ग होने का वर्णन मिलता है; किन्तु अन्य उपसर्ग। - उनमें ऐतिहासिक तत्त्व बहुत कम होने और उनमें मात्र भगवानके कठोर तपश्चरण और महान् सहनशीलताको प्रगट करने का मूल उद्देश्य रहने के कारण उनको यहांपर लिखना अनावश्यक है । सचमुच भगवान् महावीरके जीवन का महत्व उनकी इस कष्टसहिष्णुतामें नहीं है, प्रत्युत उस आत्मबल और देह विरक्तिमें है, जहांसे इस गुणका और इसके साथ २ और भी कई गुणोंका उद्गम हुआ था । एकवार अपने अनुपम सौन्दर्यसे विश्वको विमोहित करनेवाली अनेक सुन्दर सलोनी देवरमणियां महावीरजीके यास आकर रास रचने लगी और नानाप्रकारके हावभाव, कटाक्ष और मोहक अंग विशेषसे वे अपनी केलि-कामना प्रगट करने लगी, कि जिसे देखकर किसी साधारण युवा तपस्वीका स्खलित होजाना बहुत सम्भव था; किन्तु भगवान् महावीरपर इस कामसन्यका भी कुछ असर न हुआ। महावीर भजेय थे । फलतः देव. रमणियां अपनाता मुँह लेकर चली गई। यह घटना उनके आत्मबल और इंद्रिय निग्रहकी पूर्णताकी द्योतक है। श्वेताम्बरोंके 'भगवतीसूत्र' में कथन है कि गृह त्यागकर दुसरे वर्ष जब भगवान् छद्मस्थ दशामें राजगृह के मक्खलि गोशाल। निकट नालन्दा नामक गांवमें विराजमान थे; तब मक्खलिपुत्र गोशाल नामक एक भिक्षु भी भगवानके अतिशयको और राजगृहके श्रेष्ठी विनय द्वारा उनका विशेष भादर होता १-चमम० पृ. १५४-१५५ । ६-भगवती १५-उद० Appendix. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [६३ देखकर उनका शिष्य होनेको तत्पर था। किन्तु इस समय भावानने उसको अपना शिष्य नहीं बनाया। नालन्दासे भगवान् कोल्लाग पहुंच गये, जहां ब्राह्मण बाहुलने उनको माहार दिया था। गोशाल भगवानको ढूंढ़ता हुआ बहां ठीक उसी समय पहुंचा जब बहुतसे लोग बाहुनके उक्त आहारदानकी प्रशंप्ता कर रहे थे। यहांपर गोशालकी प्रार्थनाको महावीरनीने स्वीकार कर लिया लिखा है : अर्थात उन्होंने गोशालको अपना शिष्य बना लिया। फिर गोशाल और महावीरजी दोनों नने साथ साथ छै वर्ष तक पणियमूमिमें रहे । 'भगवतीसूत्र' का यह कथन श्वेताम्बरोंके दूसरे ग्रन्थ 'कमसुत्र' ( १२२ ) से ठीक नहीं बैठना । वहां भगवानको पणियभूमिमें केवल एक वर्ष ही व्यतीत किया लिखा है। इसके अतिरिक्त यह भी ठीक नहीं है कि भगवान जब स्वयं छद्मथ थे तब उन्होंने गोशालको अपना शिष्य बनाया हो । उनके भाचाराङ्गमूत्र में स्पष्ट लिखा है कि भगवान छद्मथ दशामें बोलते नहीं थे-मौनका अभ्यास करते थे। अतएव 'भगवती' का उपरोक्त कथन स्वयं उनके ही ग्रंथसे बाधित है एवं अन्य विद्वान भी अन्य प्रकार इमी निरूपंपर पहुंचे हैं कि मक्खलिगोशाल भगवान महावीरका शिष्य नहीं था।' उपरान्त 'भगवतीमत्र' में बतलाया है कि भगवान महावीर गोशाल नब सिद्धस्थगामसे कुम्भगामको जारहे थे, तो मार्गमे एक फल फूली लता विशेषको देखकर गोशालने जिज्ञासा की कि 'लताश नाश होगा या नहीं और फिर उसके बोन कहां प्रकट १-आमू. Ja. I P. 50-5.. २-माजी पृ० ११८, हिग्ली. पृ. २६ व Js. II Intro. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास होंगे ।' महावीरजीने उत्तर में कहा कि 'लताका नाश होगा, किंतु उसके बीजोंसे फिर उसकी उत्पत्ति होगी ।' गोशालने इसपर विश्वास नहीं किया । उसने लौटकर लताको नौंचकर फैंक दिया | होनी के सिर इसी समय पानी भी बरस गया; जिससे उसकी जड़ हरी होगई और उसमें बीज लग आये । जब गोशाल और महावीरजी वहांसे फिर निकले तो गोशालने महावीरजीको उनके कथनकी याद दिलाई और कहा कि लता नष्ट नहीं हुई है । महावीरजीने लतापर तबतक जो हालत गुजरी थी, वह ज्योंकी त्यों सब बात बता दी। इस घटना से गोशालने यह विश्वास कर लिया कि केवल वृक्षलता ही नष्ट होनेपर फिर उसी शरीर में जीवित होते हों, केवल यही बात नहीं है; बल्कि प्रत्येक जीवित प्राणी इसी प्रकार पुनः मृतशरीर में जीवित ( Reanimate ) होक्ता है ! भगवान महावीर गोशालकी इस मान्यतासे सहमत नहीं हुये । इसपर गोशालने अपनी रास्ता ली और तपश्चरणका अभ्यास करके उसने मंत्रवादमें कुछ योग्यता पाली । फलतः वह अपनेको 'जिन' घोषित करने लगा और श्रावस्ती में जाकर आजीविक संप्रदायका नेता बन गया । इसी समय अपनी संप्रदाय के सिद्धांतोंको उसने निश्चित किया था; जिनको उसने ' पूर्वी 'के 'महानिमित्त' नामक एक भागसे लिया था । S . भगवान ने उसके जिनत्वको स्वीकार नहीं किया था । गोशालने जैन संप्रदायको कष्ट पहुंचानेके बहु प्रयत्न किये थे और मन्ततः उसकी मृत्यु बुरी तरह श्रावस्ती में एक कुम्मारके घर हुई थी। १ - ऑजी पृ० ४१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और मनवान महावीर । [६५ श्वेताम्बराचार्यने इस कथामें गोशालको खूब हीनाचारी प्रगट करनेका प्रयत्न किया है। निममें वह सिद्धान्त विरोधको भी भूल गये हैं । अतः उनके कथन में ऐतिहासिक तत्व प्रायः नहीं के बराबर है। नव छद्मस्थ दशामें गोशालका भगवानका शिष्य होना ही बाधित है, तब शेष कथाको महत्व देना जरा कठिन है । दिगम्बर जैन संपदायके शस्त्र ‘भगवती' के उपरोक्त दिगम्बर शालों में कथनसे महमत नहीं हैं। उनमें लिखा है गोशाल का उल्लेख । कि मक्स्वलोगोशाल भगवान पाश्वनाथनीकी शिष्यपरंपराके एक मुनि थे; परन्तु निम समय भगवान महावीरके ममवशरणमें उनकी नियुक्ति गणघरपद पर नहीं हुई, तो वह रुष्ट होकर श्रावस्ती में आकर आनीविक संप्रदायके नेता बन गए थे। और अपने को तीर्थकर प्रतिघोषित करके यह उपदेश देने लगे थे कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता; अज्ञानसे हो मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं। इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान ही करना चाहिये। देवसेनाचार्यके ( १०वीं शताब्दी ) दर्शनसार' और 'भावअन्यथोलोंसे गिर संग्रह ' नामक ग्रन्थों में यह वर्णन विशेष शास्त्रोंका समर्थन, रीतिसे है। श्री नेमिचन्द्राचार्यके 'गोमट्टगोशाल पार्श्वनाथको मा' में भी गोशालकी गणना अज्ञानमतमें परंपराका शिष्य । की गई है। यही बात श्वेताम्बरोंके सुत्र. रुतांग' ग्रंथमें लिखी हुई है। बौद्धोंके 'समा फलसूत्त' में भी गोशालकी इस अज्ञानमतरूप मान्यताका उल्लेख मिलता है। वहां गोशा. लको यह मत प्रगट करते हुए लिखा है कि 'अज्ञानी और ज्ञानी १-मम•० २० । ५-सूत्रहतांग २ ०५ ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । संसारमें भ्रमण करते हुये समान रीतिसे दुःखका अन्त करते हैं।' (संघावित्वा संसरित्वा दुःखस्सान्तम् करिस्सन्ति), पातंजलिने भी अपने पाणनिसूत्रके भाष्यमें गोशालके सम्बंध कुछ ऐसा ही सिद्धांत निर्दिष्ट किया है । उसने लिखा है कि वह 'मस्करि' केवल वांसकी छड़ी हाथमें लेनेके कारण नहीं कहलाता था; प्रत्युत इसलिये कि वह कहता था-"कर्म मत करो, कर्म मत करो, केवल शांति ही वांछनीय है।" ( मा कृत कर्माणि, मा कत कर्माणि इत्यादि)। अतएव दिगम्बर जैनाचार्यने मक्खलिगोशालको जो अज्ञान मतका प्रचारक लिखा है, वह ठोक प्रतीत होता है। और अन्य श्रोतोंसे यह भी प्रगट है कि वह विधिकी रेखको भमिट मानता था। कहता था कि जो बात होनी है, वह अवश्य होगी; और उममें पाप-पुण्य कुछ नहीं है । इस अवस्थामें उसके निकट ईश्वरका अस्तित्व न होना स्वाभाविक है । इस प्रकार दि. शास्त्रोंका उपरोक्त कथन ठीक जंचता है । और यह मानना पड़ता है कि मक्खलि गोशाल भगवान पार्श्वनाथनी के तीर्थका एक मुनि था और बहुश्रुती होते हुये भी जा उसे श्री वीर भगवान के समवशरणमें प्रमुख स्थान न मिला, तो वह उनसे रुष्ट होकर स्वतंत्र रीतिसे अज्ञानमतका प्रचार करने लगा। किन्तु देवसेनाचार्य नीने मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मस्कमक्खलिगोशाल और रिपुरण' रूपमे किया है। संभव है. इससे पूरण कस्तप । पूरण उसका भाव गोशालसे न समझा जाय और जैन मुनि था। उपरोक्त कथनको असंगत माना जाय किंतु १-दीनि भा०२.५३-५४।२-आजी० पृ. १२।३-भावसंग्रहगा. १७६i Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ६७ वास्तव में बात यह है कि मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मक्खलि गोशाल' के अतिरिक्त ' मंखलिपुत्र गोशाल' और 'मस्करि' रूपमें भी हुआ मिलता है । देवसेनाचार्यने नस्करि रूपमें उन्हीं का उल्लेख किया है । उन्होंने मस्करिकी शिक्षायें बतलाई हैं उनका सामंजस्य मक्खल गोशाळकी शिक्षाओंसे बैठ जाना, इस बातकी पर्याप्त साक्षी है कि उनका भाव मक्खलि गोशालसे ही है । पूरणसे देवसेनाचाका अभिप्राय उस समयके एक अन्य प्रख्यात् साधुसे है । बौद्ध लोग - (१) पुरण कलप, (२) मक्खलि गोशाल, (३) अजित केसकम्बली, (४) पकुढकच्चायन, (५) संजय वैरत्थी पुत्र और (६) निगन्ठ नाथ पुत्तकी गणना उस समयकी प्रख्यात ऋषियों में करते हैं' | निगन्ठ नाथपुत्त अर्थात् भगवान् महावीर के अतिरिक्त अवशेपकी म० बुद्धने तीव्र आलोचना भी की है । 1 यह सब ही ऋषिगण भगवान् महावीरसे वयमें अविक और उनसे पहले के थे । निप पूरणका उल्लेख देवसेनाचार्यने किया है, वह पूग्ण कपप ही प्रतीत होता है । इसका सम्बंध गोशाळसे विशेष था, इस कारण इन दोनों का उल्लेख साथ साथ किया जाना सुमंगत है । बौद्धोंके 'अंगुत्तर निकाय' में पुरणको गोशालका शिष्य 1 प्रगट करने जैसा उल्लेख है तथा गोशाळके छै अभिजाति सिद्धांत को पुरणका बतलाया गया है। यहां गलती होना अशक्य है; बल्कि इस सिद्धांत मिश्रणसे उनका पारस्परिक घनिष्ट सम्बंध ही प्रगट होता है; जिसे डॉ० ज के चारपेन्टियर सा० भी स्वीकार करते है । १- दोनि० मा० २ पृ० १५० । २- हिग्ली ० १० २७-२८ । ३- दिग्ली • पृ० २५-२६ । ४-अंगु० भा० ३ पृ० ३८३ । ५३० भा० ४३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । दोनों ही साधु पुण्य-पापको भी नहीं मानते थे । अतः गोशाल और पुरणका एक ही मतके अनुयायी होना सिद्ध है और बहुत करके वह गुरु शिष्यवत् थे । इस दशा में जैनाचार्यने उन दोनों का नामोल्लेख एक साथ प्रकट करके, यह स्पष्ट कर दिया है कि उनका सम्बंध अवश्य एक ही मतसे था; जिसको आजीविक कहते थे । कुछ विद्वान् गोशालको आजीविक मतका नेता और पूरणको अचेलक मतका मुखिया समझते हैं; किंतु यह यथार्थता के विपरीत है । ' ૧ ર वास्तव में उप समय अचेलक नामका कोई स्वतंत्र संप्रदाय 'अचेलक' नियंणोंका नहीं था । अंगुत्तर निकाय में उस समय के द्योतक है । तब इस प्रख्यात मतोंकी जो सूची दी हैं, उसमें नामका के!ई अलग अचेलक नामका कोई संप्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय नहीं था | मलून तो ऐसा होता है कि अचेलक शब्द उस समय श्रमण शब्दकी तरह नग्न साधुओंके लिये व्यवहृत होता था औ' मुख्यतः उसका प्रयोग जैन संप्रदाय और उसके साधुओंके लिये होता थे । निर्ग्रथ श्रावकका पुत्र सच्चक अचेलक लोगों की ।।। जिन क्रियायों का उल्लेख करता है, वह ठीक जैन मुनियोंकी क्रियायोंके समान है । इसके अतिरिक्त और भी कई स्थलोंपर बौद्धोंने 'अचेलक' शब्दका प्रयोग जैनोंके लिये किया है । अतएव आजी 7- Js. II. Intro XXVIII ff. २- भमबु० पृ० २०८ । ३- वीर भा० ३ पृ० ३१९-३२१ व भा० ४ पृ० ३५३ | ४-चीनी त्रिपिटकमें भी 'अचेलका व्यवहार जैनोंके लिये हुआ है (वीर ४।३५३), दीनि० उ० पृ० २३ व आजी० १३५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर | ६९ विक संप्रदाय के समान अचेल को भी एक संरदाय मानना उचित नहीं है और न वह आजीविकोंका ही अपर नाम था । किन्हीं विद्वानोंका यह भी अनुमान है कि भगवान महावीभगवान महावीरपर रनीने अपने धर्म निर्माण में बहुतसी बातोंकी गोशालका प्रभाव सहायता आजीविक संप्रदाय से ली थी !' नहीं पड़ा था। खासकर वह कहते हैं कि नग्नताको भगवान महावीरने गोशालसे ग्रहण किया था; किंतु उनके इस कथन में बहुत कम तथ्य है । जिस समय श्वेतांबरोंके अनुसार गोशाल महा1 । वीरजीको मिला था, उस समय वह सवस्त्र था | भगवान के साथ रहकर उसने वस्त्रोंका त्याग किया था और तब उसको भगवानने अपना शिष्य बनाया था, यह प्रगट है । अथ च यह भी ज्ञात है कि भगवान महावीरजीने साधु दीक्षा ग्रहण करनेके समयसे ही नग्नभेष धारण किया था; जैसे कि ऊपर लिखा जाचुका है । अतएव यह बिल्कुल असंभव है कि गोशाल द्वारा प्रभावित होकर महावीरजीने नग्नमेष धारण किया हो। इसी प्रकार आजीविक्रोंके कतिपय सिद्धांतों की सदृशता म० महावीरके सिद्धांतों से होती देखकर, यह कहना कि महावीरजीने अपने सिद्धांत गठन में गोशालसे सहायता ली, कुछ महत्व नहीं रखता; क्योंकि आजीविक संप्रदायकी उत्पत्ति जिस समय हुई थी, उस समय भगवान पार्श्वनाम द्वारा नैनधर्मका पुनः प्रचार होचुका था । Js, II, Intros. XXIX; आजी०, हिली० पृ० ३८-०१ व हिमोफि० १० ३१६-३९९ । २ - उद० हाणके, Appendix १०२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास । अतः मैनधर्म में वह नियम आजीविकोंके पहलेसे ही स्वीकृत थे। आजीविकोले भगवान महावीरने भी उन्हींका प्रतिपादन किया अपने सिद्धान्त था । आधुनिक विद्वानोंको भी यह मान्य है' लिये थे। कि आजीविक नेता मक्खलिगोशाल, पूरणकस्सप आदिपर जैनधर्मका विशेष प्रभाव पड़ा था और उनने जैनधमसे बहुत कुछ सीखा था । आजीविक सम्प्रदायका निकास ही जैन धर्मसे हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं। जैनधर्मके आधारसे आजी १-स्व. जेम्स डी० एल्विस सा० लिखते हैं कि 'दिगम्बर' एक प्राचीन संप्रदाय समझा जाता था और उपरोक्त साधुओंके सिद्धांतोपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा था । (" In James d • Alwis' paper (Ind. Anti. VIII ) on the six Tirthakas the “ Digamberas" appear to have been regarded as an old order of ascetics and all of these heretical teachers betray the influence of Jainism in their doctrines. "-Ind, Antri. Vol. IX. P. 161). डॉ हमन बैकोबी भी यही बात प्रकट करते हैं, यथाः " The preceding four Tirthakar appear all to have adopted some or other doctrines or practices of the Jaina system, probably from the Jains themselves...... It appears from the preceding remarks that .Jain ideas & practices must bave been corrent at the time of Mahavira and independently of bim. This combined with other arguments, leads as to the opinion that the Nirgranthas (Jainas ) were really in existence long before Mahavira, who was the roformer of the already existing sect. "-Ind. Anti Ix. 162. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ७१ विकोंने अपने सिद्धान्त निश्चित किये थे, यह एक मान्य विषय हैं।" तथापि निम्न विशेषताओं को ध्यान में रखने से यह स्पष्ट दृष्टि पड़ता है कि आजीविक मतका विकास जैनमतसे हुआ था: (१) आजीविक संप्रदायका नामकरण ' आजीविक ' रूपमें इसी कारण हुआ प्रतीत होना है कि आजीविक साधु, जिनकी बाह्य क्रियायें प्रायः जैन साधुओंके अनुरूप थीं, किसी प्रकारकी आजीविका करने लगे थे । जैन शास्त्रों ने साधुओं को ' आजीवो ' नामक दोष अर्थात् किसी प्रकारकी आजीविका करनेसे विलग रहनेका उपदेश है। वस्तुतः आजीविक साधुगण प्रायः ज्योतिषियोंके रूपमें उस समय आजीविका करने लगे थे, यह प्रकट है । अतः उनका नामकरण ही उनका निकास जैनघमंसे हुआ प्रगट करता है। (२) आजीविक साधुओंका नग्नमेष और कठिन परीषह सहन करनेसे भी उनका उद्गम जैन श्रोतसे हुआ प्रतिभाषित होता है । (३) आजीविक साधु प्रायः जैन तीर्थकरोंके भी भक्त मिलते थे; जैसे उपक नामक आनीविक साधु अनंतनिन नामक चौदहवें जैन तीर्थकरका उपापक थे । (४) सैद्धान्तिक विषय में आजीविक जैनोंके समान ही आत्माका मस्तित्व मानते थे और उसको 'अरोगी' अर्थात् सांसारिक मलसे रहित स्वीकार करते थे तथा संसार परिभ्रमण सिद्धान्त भी उन्हें मान्य थी । १ केहि ०, पृ० १६२ व इरिइ० भाग १ पृ० २६१ । २–मूलाचार - 'घादीदनिमित्ते भाजोवो वणिवगेद्रयादि । ३ - आजी० पृ० ६७-६८ । ४-आजी ० ० पृ० ५५ व ६२ । ५-ठाम० पृ० ३०, आरिय-परियेसणासुक्त, इहिक्का० भा० ३ १० २४७ | ६–Js. I. Intro. XXIX. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । (५) जैनोंकी विशेषता अणुवाद (Atomic Thoery ) में है और भारतीय दर्शनमें उन्हींके यहां इसका सर्व प्राचीन रूप मिलता है । आनीविक संप्रदायको भी यह नियम प्रायः जैनधर्मके अनुसार ही स्वीकृत था। (६) नैनोंके द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानमें 'पूर्व' नामक भी १२ ग्रंथ थे। उन्हीं में से अष्टाङ्ग महानिमित्तज्ञानको आजीविकोंने ग्रहण किया था। (७) मक्खलिगोशालने आजीविक संप्रदायमें 'चत्तारि पाणगायं चत्तारि पाणगायं' नियम नियत किया था; जो जैनोंके सल्लेखनाव्रतके समान था। (८) आनीविक संप्रदायने नैनोंके कतिपय खास शब्दों (Terms) को ग्रहण कर लिया था; यथा 'ब्बे सत्ता, सव्वे पाणा, सब्बे भूता, सब्बे जीवा, 'संज्ञी', 'असंज्ञो', 'अधिकम्म' इत्यादि। (९) गोशालका छै अभिजाति सिद्धान्त नैनोंके षट्लेश्या सिद्धान्तके सदृश है।" (१०) गोशाल अपनेको 'तीर्थकर' प्रगट करता था। तीयकर-मान्यता सिवाय जैनधर्मके और किसी संप्रदायमें नहीं है। (११) जीवोंके एक इन्द्री, द्वेन्द्रिय मादि भेद भी नैनोंके समान मानीविकोंको स्वीकृत थे। _ इन बातोंक देखनेसे आजीविकों का निकास भगवान पार्श्व १-दरिई. भा० २० १९९। २-आजी. भा. १ पृ. ४१ प भम० पृ० १७७-१७८ । ३-भाजी० पृ. ५१-५४ । ४-चीर भा० ३ पृ. ३१८ । ५-Js. II. Intro. ६-Js. II. Intra Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [७३ नाथके तीर्थमें जैनधर्मसे हुआ मानना कुछ अनुचित नहीं जंचम है। गोशाल और पुरण इस संप्रदायके मुख्य नेता थे । गोशालने इस धर्मका प्रचार २४ वर्षतक करके श्रावणी में हालाहलाकी कुंभारशालामें महावीरनीके निर्वाणसे सोलह वर्ष पहले मरण किया था। इस समय उसने अपने कृतदोषोंका प्रायश्चित्त भी लेलिया था और प्रगट कर दिया था कि वह सर्वज्ञ नहीं है ।' आजीविक साधु अच्युत अथवा सहस्रार स्वर्गतक गमन करते हैं। गोशालके मृत्यु उपरान्त भी भाजीविकमतका प्रचार रहा था । संभवतःमहापद्म नन्द मानीविक था और अशोकने नागार्जुनी पर्वतपर इनके लिये गुफायें बनवाई थीं। उपरोक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरकी छद्मस्थ गोशाल भगवानके दशामें मक्खलि गोशाल उनके साथ अवश्य साथ रहा था, परन्तु रहा था । श्वेताम्बर शास्त्र तो यह स्पष्टतः उनका शिष्य नहीं था। प्रगट करते ही हैं, किन्तु दिगम्बर शास्त्रके इस कथनसे कि भगवान महावीरजीके समोशरणमें उसे अग्रस्थान न मिलनेके कारण वह उनसे रुष्ट होकर प्रथक होगया था, यह प्रगट है कि वह भगवान महावीरजी केवलज्ञान प्राप्त करने के समय अवश्य उनके निकट था। अतः वह भगवान महावीर द्वारा उपदेश प्रारम्भ होनेके ना पहले हीसे अपने पजानमतका.प्रचार करने लगा था। डॉ. हार्णले मा० भगवान महावीरके केवलज्ञान १-विशेषके किये 'आजी.', 'भम', 'वीर' वर्ष ३ अंक ११-१३ व दिसम्बर जैन, भा० १९ अंक १-२ ६-७ से। २-त्रिलोकसार ५४५ व भाचारबार १२०.६ । ३१५-आजी• • ६७-८९ । . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । प्राप्त करनेके समयसे दो वर्ष पहिले गोशालने स्वधर्म प्रचार प्रारम्भ किया, बतलाते हैं। भगवान महावीर उज्जैनीसे विहार करके कौशांबी पहुंचे थे। महावीरको केवल- यहांपर उनका आहार दलित अवस्थामें ही ज्ञानकी प्राप्ति। रहती हुई राजकुमारी चन्दनाके यहां हुमा था; जिससे भगवानका पतितोद्धारक स्वरूप स्पष्ट होकर मन मोह लेता है । कौशांबीसे भगवान पुनः एकांतवासमें निश्चल ध्यानारूढ़ रहे थे। उन्होंने एक टक बारह वर्ष तक दुद्धर तपश्चरण करनेका कठिन परन्तु दृढ़तम आत्मबल प्रगट करनेवाला नियम ग्रहण किया था। इस बारह वर्षके तपश्चरणके उपरांत उनको पूर्णज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों ही संप्रदायोंके शास्त्र जीवनकी इस मुख्य घटनाके समय महावीरनीकी अवस्था ब्यालीप्स वर्षकी बतलाते हैं। श्वेतांबर शास्त्र कहते हैं कि उपरोक्त बारह वर्षकी घोर तपस्याका अभ्यास उनने लाढ़ देशके दो भागों-वजभूमि और सुब्मभूमिके मध्य जाकर किया था और उनको वहीं केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। महावीरकी महान विजयके ही कारण लादका उक्त प्रदेश 'विनयभूमि' के नामसे प्रख्यात् हुआ था। भगवानने 'विजय मुहूर्त में ही सर्वज्ञपद पाया था। उस समय यह बाढ़ देश बड़ा दुश्चर था और भगवानको यहांपर बड़ी गहन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा था। किन्तु -Appendiss. २-हरि० पृ. ५७५ व Js. I. p. 269. ३-Js. I, p, 263. ४-इहिक्क.. भा० ४ पृ. ४४ । ५-केहिह. पृ. १५८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [७५ वे उन सबपर विजयी हुये थे और उन्होंने सर्वज्ञ होकर 'विजयधर्म' प्रतिषोषित करने का उच्च निनाद किया था। केवलज्ञान प्राप्तिकी महत्वपूर्ण घटनाके विषय में कहा गया है कि एक 'सुव्रत' नामक दिनको ऋजुकूला अथवा ऋजुपालिका नदीके वामतटपर जृम्भक नामक ग्रामके निकट पहुंच कर, अपराह्नके समझ अच्छी तरह से षष्ठोपवामको धारण करके मालवृक्षके नीचे एक चट्टानपर आप्तन जमाकर महावीरजीने वैशाष शुक्ला दशमीके तिथिमें सर्वज्ञपदको प्राप्त किया था । इप्त समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और विनयमुहर्त था। जिस स्थानपर भगवानने केवलज्ञानकी विभूति पाई थी, वह स्थान सामाग नामक कृषकके खेतमें था और एक प्राचीन मंदिरसे उत्तर पूर्वकी ओर था । वहां महावीरजी सर्वज्ञ हुये और परम वंदनीय परमात्मा होगये थे। वह शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप सशरीर ईश्वर अथवा पूज्य अहंत या तीर्थकर हुये थे। समस्त लोकमें आनंद छागया और देवोंने भाकर उस समय पानंदोत्सव मनाया था। मान स्पष्टरूपमें यह विदित नहीं है कि भगवान महावीरका भगवान महावीरको केवलज्ञान स्थान कहांपर है ? मगवानके केवलहान-स्थान । जन्म व निर्वाणस्थानोंके समान जैन समानमें किसी भी ऐसे स्थानकी मान्यता नहीं है कि वह केवलज्ञान प्राप्तिका पवित्र स्थान कहा नासके। जयपुर रियासतके चांदनगांवमें एक नदीके निकटसे भगवान महावीरजीकी एक बहुप्राचीन मूर्ति मूगर्भसे उपलब्ध हुई थी। वह मूर्ति वहींपर एक विशाल मंदिर १-उपु. पृ. ६४ व Js. I, 201. २-आचाराr Js. I. pp. 20/57. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | बनवाकर विराजमान करदी गई थी और वहीं निकटमें भगवान के चरणचिह्न भी हैं।' इस प्रकार जाहिरा शास्त्रों में बताये हुये केवलज्ञान स्थानके वर्णननसे इस स्थानकी आकृति ठीक एकसी बैठती है और इससे यह भ्रम होसक्ता है कि यही स्थान भगवान महावीरजीके केवलज्ञान प्राप्त करनेका दिव्यस्थान होगा; किंतु जैन समाजमें यह स्थान केवल एक अतिशय तीर्थरूप में 'महावीरजी' के नामसे मान्य है । तिसपर शास्त्रोंमें बताया हुआ केवलज्ञान स्थान कौसाम्बीसे अगाड़ी कहीं होना उचित है; क्योंकि उज्जयनीसे कौसम्बीको जाते हुये उपरोक्त अतिशयक्षेत्र पीछे मार्गमें रह जाता है । और श्वेतांबर शास्त्र जृम्भक ग्राम आदिको काढ देशमें स्थित 1 बतलाते हैं । ' अतः यह केवलज्ञान स्थान मगधदेशमें कहीं होना युक्तिसंगत है । किन्हीं दिगम्बर जैन शास्त्रोंमें उसे मगवदेशमें बतलाया भी है। लाढदेशका विजयभूमि प्रान्त आजकलके बिहार ओड़ीसा प्रांतस्थ छोटा नागपुर डिवीजन के मानभूम और सिंहभूम जिलों इतना माना गया है । स्व० नंदूलाल डे महाशय ने सम्मेद शिखर पर्वतसे २५-३० मीलकी दूरीपर स्थित झरिया को जृम्भक ग्राम प्रगट किया है; जो अपनी कोयलोंकी खानोंके लिये प्रसिद्ध है और बराकर नदीको ऋजुकूला नदी सिद्ध की है। * १- वीर मा० ३ पृ० ३१७ पर हमने भ्रमसे उसी स्थानको केव लज्ञान स्थान अनुमान किया था। २-कसू० Ja. I, p. 263. रे दुवै ५० ६१ । ४ इरिकता मा ४ पू० ४४-४६ व वीर भा० ५ पृ० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [७७ rrrmwwwwwwwwww यह स्थान मानभूम जिलेमें है और प्राचीन मगध का राज्याघिकार यहां था । अतएव यह बहुत संभव है कि उक्त स्थान ही महावीरजीका केवलज्ञान स्थान हो। इसके लिये झिरियाके निकटवर्ती वंशावशेषोंकी जांच पड़ताल होना जरूरी है । इतना तो विदित ही है कि इन जिलोंमें 'सरा' नामक प्राचीन जैनी बहुत मिलते हैं और इनमें एक समय नैनों का राज्य भी था। किंतु कालदोष एवं अन्य संप्रदायों के उपद्रवोंसे यहांके नैनियों का हास इतना बेढव हुमा कि वे अपने धर्म और सांप्रदायिक संस्थाओं के बारेमें कुछ भी याद न रख सके । यही कारण है कि इस प्रांतमें स्थित भग. वान महावीरजीके केवलज्ञान स्थान का पता आन नहीं चलता है। डा० स्टीन सा० ने पंजाब प्रांतसे रावलपिंडी निलेमें कोटेरा नामक ग्रामके सन्निकट ' मूर्ति' नामक पहाड़ी पर एक प्राचीन जीर्ण जैन मंदिरके विषयमें लिखा है कि यहींपर भगवान महावीरनीने ज्ञान लाभ किया था। किंतु कौशाम्बीसे इतनी दुरीपर और सो भी नदीके सन्निकट न होकर पहाड़ीके ऊपर भगवानका केवलज्ञान स्थान होना ठीक नहीं जंचता । केवलज्ञान स्थान तो मगवदेश में ही कहीं और बहुत करके झिरियाके सन्निकट ही था । उपरोक्त म्थान भगवान के समोशरणको वहां भाया हुआ व्यक्त करनेवाला अतिशयक्षेत्र होगा; क्योंकि यह तो विदित है कि भगवान महावीर विहार करते हुये तक्षशिला आये थे और मूर्तिपर्वत उसके निकट था। १-बविओजस्मा० पृ. ४२-७७ । २-कजाइ० पृ. ६८३ । ३-हॉ० पृ. ८० • नो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] संक्षिप्त जैन इतिहास। भगवान महावीरने जिस अपूर्व त्यागवृत्ति और अमोघ आत्म. भगवान महावीर शक्तिका अवलंबन किया था, उसीका फल था सर्वज्ञ थे। अजैन कि वह एक सामान्य मनुष्यसे मात्मोन्नति ग्रंथोंकी साक्षी। करते२ परमात्मपद जैसे परमोत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त हुये थे । वह सर्वज्ञ हो गये थे। जैन शास्त्र कहते हैं कि ज्ञात्रिक महावीर भी अनंतज्ञान और अनंतदर्शनके घारी थे। प्रत्येक पदार्थको उनने प्रत्यक्ष देख लिया था और वे सर्व प्रकारके पापमलसे निर्मूल थे । वह समस्त विश्वमें सर्वोच्च और महाविद्वान थे। उन्हें सर्वोत्कृष्ट, प्रभावशाली, दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे परिपूर्ण और निर्वाण सिद्धान्त प्रचारकों में सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है।' यह मान्यता केवल जैनोंकी ही नहीं है । ब्राह्मण और बौद्ध ग्रन्थ भी भगवान महावीरजीकी सर्वज्ञताको स्वीकार करते हैं। बौद्धोंके अंगुत्तरनिकायमें लिखा है कि भगवान महावीरजी सर्वज्ञाता और सर्वदर्शी थे। उनकी सर्वज्ञता अनंत थी। वह हमारे चलते, बैठते, सोते, जागते हर समय सर्वज्ञ थे। वह जानते थे कि किसने किस प्रकारका पाप किया है और किसने नहीं किया है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि महावीर संघके आचार्य, दर्शन शास्त्र के प्रणेता, बहुप्रख्यात, तत्ववेत्ता रूपमें प्रसिद्ध, जनता द्वारा सम्मानित, अनुभवशील वय प्राप्त माधु और आयुमें अधिक थे। ( डायोलॉग्स १-उपु• पृ० ६१४ । २-Js. II, pp. 287-270. ३-मझिमनिकाय १।२३८ व ९२-९३, अंगुत्तरनिकाय ३१७४, न्यायविन्दु अ० ३, चुल्वग्ग SBE. XX 78, Ind, Anti. VIII. 313. पंचतंत्र (Keilhorn, V I.) इत्यादि । ४-अं. नि. भाग १ १० २२० । ५-ममि० भाग २ पृ. २१४-२२८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [७९ माफ दी बुद्ध ए० ६६) वे चातुर्याम संवरसे स्वरक्षित, देखी और मुनी बातोंको ज्योंका त्यों प्रगट करनेवाले साधु थे (संयुत्त० भा० १४० ९१) जनतामें उनकी विशेष मान्यता थी। (पूर्व ४० ९)। मचमुच तीर्थकर भगवानके दिव्य जीवन में केवलज्ञानप्राप्तिकी भगवानका विध्य एक ऐसी बड़ो और मुख्य घटना है कि उसका प्रभाव। महत्व लगाना सामान्य व्यक्तिके लिये जरा टेडी खीर है। हां : जिसको आत्माके अनन्तज्ञान और अनन्त शक्तिमें विश्वास है, वह सहनमें ही इस घटनाका मूल्य समझ सक्ता हैं। केवलज्ञान प्राप्त करना अथवा सर्वज्ञ होनाना, मनुष्य जीवन में एक अनुपम और अद्वितीय अवसर है । भगवान महावीर जब सर्वज्ञ होगये, तो उनकी मान्यता जनसाधारणमें विशेष होगई । उस समयके प्रख्यात राजाओंने भक्तिपूर्वक उनका स्वागत किया। प्रत्येक प्राणी तीर्थकर भगवानको पाकर परमानन्दमें मग्न होगया । बौद्ध शास्त्र भी महावीरजीके इस विशेष प्रभावको स्पष्ट स्वीकार करते हैं। मालूम तो ऐसा होता है कि भगवान महावीर के कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होनेसे उस समयके प्रायः सब ही मतप्रवर्तकोंक मामन ढीले होगये थे और भावान की प्राणी मात्रके लिये हितकर शिक्षाको प्रमुखस्थान मिल गया था। उस समयके प्रख्यात मतपत्र' म. गौतम बुद्ध के विषयमें म. गौतम बद्धके तो स्पष्ट है कि उनके जीवनपर भगवान जीपनपर भगवान महावीरकी मर्वज्ञ अवस्थाका ऐसा प्रबल महावीरका प्रमाव। प्रभाव पड़ा था कि भगवान महावीरके धर्म १-संयुक्तनिकाय भा० १ पृ. ९४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । ૧ प्रचार अन्तराल काल तक उनके दर्शन ही मुश्किल से होते हैं । म० बुद्धके ५० से ७० वर्षके मध्यवर्ती जीवन घटनाओं का उल्लेख नहीं बराबर मिलता है । रेबरेन्ड बिशप बिगन्डेट सा० तो कहते हैं कि यह काल प्रायः घटनाओंके उल्लेख से कोरा है । ( AD almost blank ) म० बुद्ध के उपरोक्त जीवनकाल की घटनाओंके न मिलनेका कारण सचमुच भगवान महावीरके धर्मप्रचारका प्रभाव है; क्योंकि यह अन्यत्र प्रमाणित किया जाचुका है कि जिस समय भगवान महावीरजी ने अपना धर्मप्रचार प्रारम्भ किया था, उस समय म० बुद्ध अपने ' मध्य मार्ग' का प्रचार प्रारम्भ कर चुके थे और अनुमान से ४५ या ४८ वर्षकी अवस्था में थे । अतः यह बिलकुल सम्भव है कि महावीरजीका उपदेश इस अन्तराल कालमें इतना प्रभावशाली अवश्य होगया था कि म० बुद्धके जीवन के ५० वें वर्ष से उनकी जीवन घटनायें प्रायः नहीं मिलती हैं । 'सामगाम सुतन्त' में भगवान महावीरजीके निर्वाण प्राप्तिकी खबर पाकर म० बुद्धके प्रमुख शिष्य आनन्द बड़े हर्षित हुये थे और बड़ी उत्सुकतासे यह समाचार म० बुद्धको सुनानेके लिये दौड़े गये थे, इससे भी साफ प्रगट है कि म० गौतमबुद्धको महावीरजी के धर्मप्रचारके समक्ष अवश्य ही हानि उठानी पड़ी थी; क्योंकि यदि ऐसा न होता तो महावीरजीके निर्वाण पालेनेकी घटनाको बौद्ध बड़ी उत्कण्ठा और हर्षभाव से नहीं देखते | भगवान महावीर के समक्ष म० बुद्धका प्रभाव क्षीण पड़ेने में एक और कारण २-भमबु० पृ० १००-११० । २ - सॉन्डर्स, गौतमबुद्ध १० ५४ । ३-भमबु० पृ० १०१ । ४-डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध भा० ३ पृ० ११२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ८१ दोनों मत प्रवर्तकोंका विभिन्न मात्राका ज्ञान भी था। महावीरनी पूर्ण सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी थे, यह बात स्वयं बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं; जैसे कि ऊपर व्यक्त किया गया है । किन्तु म० बुद्धको बौद्ध शास्त्र सर्वज्ञ बतलाते हैं; परन्तु यह बात वह स्पष्ट स्वीकार करते हैं कि म० बुद्धकी सर्वज्ञता हरसमय उनके निकट नहीं रहती थी । वेह जब जिस बातको जानना चाहते थे, उस बात को ध्यानसे जान लेते थे । अतः म० बुद्धका ज्ञान पूर्ण सर्वज्ञता न होकर एक प्रकारका अवविज्ञान प्रगट होता है । ર गौतम बुद्धका ज्ञान ! ज्ञानके इम तारमम्य को समझकर ही शायद म ० बुद्धने कभी भी जैन तीर्थंकर से मिलने का प्रयास नहीं किया था और न उनने महावीरजीकी वैसी तीव्र आलोचना की है, जैसे कि उन्होंने उस समय के अन्य मतप्रवर्तकों की की थी। किन्तु इस कथनसे यहां हमारा भाव म० बुद्ध के गौरवपूर्ण व्यक्तित्वकी अवज्ञा करनेका नहीं है । हमारा उद्देश्य मात्र भगवान महावीरके दिव्य प्रभावको प्रगट करनेका है; जिसका विशिष्ट रूप स्वयं बौद्ध शस्त्र प्रगट करते हैं । बौद्धों के कथन से यह भी प्रगट होता है कि उस समयके विदेशी लोगों यवनों (Indc - Greeka) में भी भगवान महावीरजीकी मान्यता विशेष होगई थी । सर्वज्ञ प्रभुका महत्व किसको अछूता छोड़ सक्ता है ? भगवान के केवली होते ही जनता उनके अनुपम महान् व्यक्तित्वपर एकदम मोहित होगई प्रगट होती है। इस दिव्य घटनाके 1 - १ - मिलिन्दपन्ह (SBE.) भा० ३५ पृ० १५४ । २-भमवु० पृ० ७२-७५ । ३-हिग्ली० पृ० ७८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | 9 उपलक्ष में ही उन स्थानोंके नाम भगवान महावीरजीकी अपेक्षा उल्लिखित हुये जिनका सम्पर्क महावीरजी से था । कहते हैं मानभूमि जिला, मान्यभूमि रूपमें भगवान के अपरनाम "मान्य श्रमण " की अपेक्षा कहलाया था | सिंघभूम जिलाका शुद्ध नाम 'सिंहभूमि बताया गया है और कहा गया है कि वीर प्रभुकी सिंहवृत्ति थी और उनका चिन्ह 'सिंह' था; इसलिये यह जिला उन्हीं की अपेक्षा इस नाम से प्रख्यात हुआ था । इनके अतिरिक्त विजयभूमि, वर्द्धमान ( वर्देवान ), वीरभूमि आदि स्थान भी भगवान महावीरजी के पवित्र नाम और उनके सम्बन्धको प्रगट करनेवाले हैं । सचमुच बंगाल व बिहार में उपसमय जैनधर्मकी गति विशेष थी और जनता भगवान महावीरको पाकर फूले अंग नहीं समाई थी । 3 म० गौतम बुद्ध बौद्धधर्म के प्रणेता थे और वह भगवान म० बुद्ध एक समय महावीरके समकालीन थे । जैन शास्त्रों जैन मुनि थे 1 उनको भगवान पार्श्वनाथजीके तीर्थके मुनि पिहिताश्रवका शिष्य बतलाया है। लिखा है कि दिगम्बर जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर रक्ताम्बर पहिनकर बुद्धने क्षणिकवादका प्रचार किया और मृत मांस ग्रहण करनेमें कुछ संकोच नहीं किया था । जैन शास्त्र के इस कथन की पुष्टि स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होती है । उनमें एक स्थानपर स्वयं गौतम बुद्ध इम बात को स्वीकार करते हैं १ - इहिका० भा० ४ १०४५। २- पूर्व प्रमाण । ३-धर भा० ३ १० ३७० व बषिओ जैस्मा० पृ० १०९ । ४ भमबु० पृ० ४८-४९. म० बुद्धको अनात्मवाद सहसा मान्य नहीं था । उनने स्पष्टतः आत्माके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया था । यह उनकी जैन दशाका प्रभाव कहा जासकता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ८३ कि उनने दाढ़ी और सिरके बाल नोंचने की परीषद्को सहन किया था । यह परीषद जैन मुनियोंका खास चिन्ह है । तिज़पर गया शीर्षपर उन्होंने पांच भिक्षुओं के साथ जो साधु जीवन व्यतीत किया था, वह ठीक जैन साधुके जीवन के समान था । पांच भिक्षुओं के नाम भी जैन साधुओं के अनुरूप थे । कहा गया है कि 'भिक्षु ' शब्दका व्यवहार सर्व प्रथम केवल जैनों अथवा बौद्धों द्वारा हुआ था; किन्तु जिस समय म० बुद्ध उन पांच भिक्षुओं के माथ थे उनसमय उन्होंने बौद्धवर्म का नीवारोपण नहीं किया था । अतः निःसंदेह उक्त भिक्षुगण जैन थे और उनके साथ ही म० वुइने जैन साधुका जीवन व्यतीत किया था; जैसे कि वह स्वयं स्वीकार करते हैं। सर भण्डारकर भी म० बुद्धको एक समय जैन मुनि हुआ बतला चुके हैं । किन्तु जैन मुनिकी काठेन परीषहों को सहन करनेपर भी म० बुद्धको शीघ्र ही केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई तो वह हताश होगये और उन्होंने मध्यका मार्ग ढूंढ निकाला; जो जैनधर्मकी कठिन तपस्या और हिन्दु धर्मके क्रियाकाण्डके बीच एक राजीनामा मात्र था । किन्हीं लोगों का यह ख़याल है कि म० गौतमबुद्ध और भगवान महावोर और भगवान महावीर एक व्यक्ति थे और जैनम० गौतमबुद्ध एक धर्म बौद्धधर्मकी एक शाखा है, किंतु इस व्यक्ति नहीं थे और जैनधर्म बौद्धधर्मकी मान्यतामै कुछ भी तथ्य नहीं है ।" स्वयं शाखा नहीं है। बौद्ध ग्रंथोंसे भगवान महावीरजीका स्वतंत्र १ - डिस्कोर्सस ऑफ गोतम १।९०-९९ । २-ममनु० १० ४७ । 3 - डायोलग्स ऑफ बुद्ध (SBB) Intro, ४ - जेहि ० १ १०५ । -Js. IL Intro. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । व्यक्तित्व प्रमाणित है; जैसे कि पहले बौद्धग्रंथोंके उद्धरण दिये जा चुके हैं । इन दोनों महापुरुषोंकी कतिपय जीवन घटनायें अवश्य मिलती जुलती हैं; किंतु उनमें विभिन्नतायें भी इतनी बेढब हैं कि उनको एक व्यक्ति नहीं कहा जासक्ता है । म गौतमबुद्ध के पिताका नाम जहां शाक्यवंशी शुद्धोदन था, वहां भगवान महावीरजीके पिता ज्ञ तृकुलके रत्न नृप सिद्धार्थ थे । म० बुद्धके जन्मके साथ ही उनकी माताका देहांत होगया था; किंतु भगवान महावीरकी माता रानी त्रिशला अपने पुत्रके गृह त्याग करनेके समय तक जीवित थीं । भगवान महावीर बालब्रह्मचारी थे; पर म० बुद्धका विवाह यशोदा नामक राजकुमारीसे हुआ था; जिससे उन्हें राहुल नामक पुत्ररत्नकी प्राप्ति भी हुई थी। भगवान महावीरने गृहत्याग कर जैन मुनिके एक नियमित जीवन क्रमका अभ्यास किया था । म बुद्धको ठीक इसके विपरीत एकसे अधिक संप्रदायके साधुओं के पास ज्ञान लाभकी निज्ञामासे जाना पड़ा था। म बुद्धने पूर्ण सर्वज्ञ हुये विना ही ३५ वर्षकी अवस्थामें बौद्धधर्मको जन्म देकर उसका प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था। किंतु भगवान महावीरजीने किसी नवीन धर्मकी स्थापना नहीं की थी। उन्होंने सर्वज्ञ होकर ४२ वर्षकी अवस्थासे जैनधर्मका पुनः प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था। दोनों धर्मनेताओंके धर्मप्रचार प्रणाली में भी जमीन आस्मानका अन्तर था। म० बुद्धको अपने धर्मप्रचारमें सफलता उनकी मीठी वाणी और प्रभावशाली मुखाकृतिके कारण मिली थी। बोग मंत्रमुग्धकी तरह उनके उपदेशको ग्रहण करते थे। उसकी १-सान्डर्स गौतम बुद्ध पृ० ७५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [८६ सार्थकता अथवा औचित्यकी ओर ध्यान ही नहीं देते थे। भगवान महावीरका धर्मप्रचार ठीक वैज्ञानिक ढंगपर होता था। उनके निकट निज्ञासुकी शंकाओं का अन्त एकदम हो जाता था। इसका कारण यही था कि वह त्रिकाल और त्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ थे। उन्होंने आत्मा और लोकके मस्तित्व एवं कर्मवादको पूर्णतः स्पष्ट प्रतिपादित करके सैद्धांतिक निज्ञासुओं की पूरी मनः संतुष्टि कर दी थी। उनने वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि वायु आदि स्थावर पदार्थो में भी जीव प्रमाणित किया था और कर्मवर्गणाओंका अस्तित्व और उनका सुक्ष्मरूप प्रकट करके अणुवादका प्राचीन रूप स्पष्ट कर दिया था। इसके विपरीत म० बुद्धने यह भी नहीं बतलाया था कि आत्मा है या नहीं। उनने भात्मा, लोक, कर्मफल मादि सैद्धांतिक बातोंको अधुरी छोड़ दिया था। इस अपेक्षा विहजन म० बुद्धके धर्मको प्रारम्भमें एक सैद्धांतिक मत न मानकर सामाजिक क्रांति ही मानते हैं। दोनों ही धर्मनेताओंने यद्यपि अहिंसातत्त्वको स्वीकार किया है। परन्तु जो विशेषता इस तत्त्वको भगवान महावीरके निकट प्राप्त हुई, वह विशेषरूप उसे म बुद्ध के हाथोंसे नसीब नहीं हुमा । ___म. बुद्धने अहिंसा तत्वको मानते हुये भी मृत पशुओंक मांसको ग्रहण करना विधेय रक्खा था और इपी शिथिलताका आम यह परिणाम है कि प्रायः सर्व ही बौद्ध धर्मानुयायी मांसमक्षक मिळते है। किन्तु जैनधर्मके विशिष्ट महिंसा तत्त्वसे प्रभावित १-ममबु० पृ. ११८-१२० । २-कीय, बिस्ट फिलासफी पृ. ६२ । ३-लामाइ. पृ० १३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास। होकर प्रत्येक जैनी पूर्ण शाकाहारी है और उनका हृदय हर समय दयासे भीजा रहता है। जिससे वे प्राणीमात्रकी हितचिन्तना करनेमें अग्रसर है । जैन संघमें गृहस्थों अर्थात श्रावक और श्रावि. काओंको भी मुनियों और आर्यिकाओंके साथ स्थान मिला रहा है। किन्तु बौद्ध संघमें केवल भिक्षु और भिक्षुणी-यही दो अंग प्रारंभसे हैं । विद्वानोंका मत है कि जैन संघकी उपरोक्त विशेपताके कारण ही नोंका अस्तित्व आज भी भारतमें है और उसके अभावमें बौद्ध धर्म अपने जन्मस्थान में ढूंढ़नेपर भी मुश्किलसे मिलता है । बौद्ध और जैनधर्मके शास्त्र भी विभिन्न हैं । जैन शास्त्र 'अंग और पूर्व' कहलाते हैं; बौद्धोंके ग्रन्थ समूह रूपमें 'त्रिपिटक' नामसे प्रख्यात हैं । जैन साधु नग्न रहते और कठिन तपस्या एवं व्रतोंका अभ्यास करना आवश्यक समझते हैं, किन्तु बौद्धोंको यह बातें पसन्द नहीं हैं । वह इन्हें धार्मिक चिन्ह नहीं मानते । बौद्ध साधु 'भिक्षु' अथवा 'श्रावक' कहलाते हैं, जैन साधु 'श्रमण' 'अचेलक' अथवा 'भार्य' या 'मुनि' नामसे परिचित हैं । जैनधर्ममें श्रावक गृहस्थको कहते हैं। जैन अपने तीर्थकरोंको मानते हैं और बौद्ध केवल म ० बुद्धकी पूजा करते हैं। इन एवं ऐसी ही अन्य विभिन्नताओंके होते हुये भी जैनधर्म और बौद्ध. धर्ममें बहुत सादृश्य भी है । 'आश्रव' 'संवर' आदि कितने ही खास शब्दों और सिद्धान्तोंको बौद्धोंने स्वयं जनोंसे ग्रहण किया है और स्वयं म० बुद्ध पहले जैनधर्मके बहुश्रुती साधु थे; ऐसी १-रि. ६० पृ० २३० । २-कैहि इ० पृ० १६९। ३-परि इ. भा० ७ पृ० ४७२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [८७ दशामें उक्त दोनों धर्मों में सादृश्य होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। दोनों धर्मों में न वेदोंकी ही मान्यता है और न बह्मणोंका आदर है । वे यज्ञोंमें होनेवाली हिंसाका घोर विरोध रखते हैं। जाति और कुलके घमंडको दोनों ही धर्मों में पाखण्ड बतलाया गया हैं और उनका द्वार प्रत्येक प्राणीके लिये सदासे खुला रहा है । बौद्ध और जैनोंके निकट रत्नत्रय अथवा त्रिरत्न मुख्य हैं और आदरणीय हैं; परन्तु दोनों के निकट इनका अभिप्राय भिन्न भिन्न है । बौद्धधर्मके अनुसार त्रिरत्न (१) बुद्ध (२) धर्म और (३) संघ हैं। जैनधर्ममें रत्नत्रय (१) सम्यग्दर्शन (Right Beliet) (२) सम्यग्ज्ञान (Right Knowledge) और (३) सम्यग्चारित्र (Right Conduct) को कहते हैं । बौद्ध और जैन जगतको रचनेवाले ईश्वरका अस्तित्व नहीं मानते हैं; यद्यपि जैनधर्ममें ईश्वरवाद स्वीकृत है। वे मोक्ष व निर्वाण प्राप्ति अपना उद्देश्य समझते हैं; किन्तु इसका भाव दोनोंके निकट भिन्न है । बौद्ध निर्वाणसे मतलब पूर्ण क्षय होनेका समझते हैं; किन्तु मैनोंके निकट निर्वाण दशासे भाव अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनंतसुख पूर्ण अवस्थासे है। इस प्रकार जैनधर्म और बौद्धधर्ममें मौलिक भेद स्पष्ट है और यह भी प्रगट है कि भगवान महावीर एक स्वाधीन और म० बुद्धसे विभिन्न महापुरुष थे, जिन्हें बौद्ध लोग निगन्ठ १-ममवु• पृ० ११७-१७८ । x बौवधर्भमें यही तीन शरण माने गये है। जैनधर्भ में (1)-अर. हन्त, (२) पित, (1) साधु, (४) व केवली भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म-यह चार शरण माने है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । नातपुत्त कहते हैं। जैनधर्म का उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में एक पूर्व निश्चित और म० बुद्धके पहिलेसे प्रचलित धर्मके रूपमें हुआ मिलता है। अतएव जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा नहीं कहा जासक्ता । हां! इसके विपरीत यह कह सक्ते हैं कि म. गौतम बुद्धने मैनधर्मसे अपने धर्म निर्माणमें बहुत कुछ सहायता ली थी। भगवान महावीरके पवित्र जीवनका उनपर काफी प्रभाव पड़ा था। जिस समय भगवान महावीर सर्वज्ञ होगये तो नियमानुमार भगवान महावीरका उनकी वाणी नहीं खिरी । नियम यह है प्रारंभिक उपदेश। कि जिस समय तीर्थकर केवली होजाते हैं, उस समयसे उनकी आयुपर्यंत नियमित रूपसे प्रतिदिन तीन समय मेघ गर्जनाके समान अनायास ही वाणी खिरती रहती है। जिसे प्रत्येक जीव अपनी२ भाषामें समझ लेते हैं । यह वाणी अर्धमागधी भाषामय परिणत होती है, जो सात प्रकारकी प्राकृत भाषाओंसे एक है। किन्तु भगवान महावीरजीके सर्वज्ञ होनानेपर भी यह प्रसंग सहन ही उपस्थित न हुआ । जैन शास्त्र कहते हैं कि उस समय भगवानके निकट ऐसा कोई योग्य पुरुष नहीं था, जो उनकी वाणीको ग्रहण करता । इसी कारण भगवानकी वाणी नहीं खिरी थी । देवलोकका इन्द्र अपने देवपरिकर सहित भगवानका 'केवलज्ञान कल्याणक' उत्सव मनाने आया था। वहां भी वह उपस्थित था। उसने अपने ज्ञानबलसे जान लिया था कि वेदपारां. गत प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान् इन्द्रभूति गौतम भगवानकी दिव्यध्वनिको अब धारण करनेकी योग्यता रखता है। इन्द्रकी माज्ञासे भगवानके १-चरचा समाधान पृ० ३९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८९ उपदेश निमित्त मभागृह पहले ही बन गया था जिनमें अनेक कोट, वापी, तड़ाग, निन मंदिर, चैत्य, स्तूप, मानस्तम्भ आदिके अतिरिक्त भगवानकी मनमोहक 'गन्धकुटी' और बारह कोठे थे। इन कोठोंमें साधु-साध्वी, देव-देवांगना, नर-नारी और तिर्यंच-पशु भो समान भावसे बैठकर भगवानका अव्यावाष सुख-संदेश सुनते थे । इंद्र सभाननोंको भगवान की वाणी रूपी अमृतके लिये तृषातुर देखकर शीघ्र ही बड़ी कुशलता पूर्वक इन्द्रभूति गौतम और उनके भाई वायुभूति व अग्निमृतिको वहां ले आया। ___ वे भगवानका दिव्य उपदेश सुनकर जैनधर्ममें दीक्षित होगये और भगवानकी वाणीको ग्रहण करके उसकी अंग-पूर्वमय रचना इन्द्रमृतिने उसी रोज कर डाली थी। मनःपर्यय ज्ञानकी निघि उनको तत्क्षण मिल गई थी और वह भगवानके प्रमुख गणधर पदपर माप्तीन हुये थे । वायुमृति और अग्निमृति भी अन्य दो गणधर हुये थे। इनके अतिरिक्त भगवानके गणघर व अन्य शिष्य थे, उनका वर्णन अगाड़ीकी पंक्तियों में है । श्वे. शास्त्र कहते हैं कि भगवानका यह प्रथम समवशरण पाया नामक नगरीके बाहर रचा गया था; किन्तु दिगम्बर शास्त्र उसे रामगृहके निकट जम्भक ग्राममें बतलाते हैं। भब भगवान महावीरने उस सत्य संदेशको, मिसे उन्होंने भगवानके उपदेशका ढंग अत्यन्त कठिन तपश्श्यों के बाद प्राप्त किया मौर गपचार। था, प्राकृत रूपमें सारे विश्वको देना १-ममबु• पृ० ११०, व वीर भा. ५ पृ. २३०-२३४ । २-उ. पु. १५ । ३ नम• पृ. २१९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रारम्भ कर दिया था। उनका उपदेश हितमित पूर्ण शब्दोंमें समस्त जगतके जीवोंके लिये कल्याणकारी था । उस आदर्श रूप उपदेशको सुनकर किसीका हृदय जरा भी मलिन या दुखित नहीं होता था। बल्कि उसका प्रभाव यह होता था कि प्रकृत जाति विरोधी जीव भी अपने पारस्परिक वैरभावको छोड़ देते थे। सिंह और भेड़, कुत्ता और बिल्ली बड़े आनंदसे एक दूसरेके समीप बैठे हुये भगवानके दिव्य संदेशको ग्रहण करते थे। पशुओंपर भगवानका ऐसा प्रभाव पड़ा हो, इस बातको चुपचाप ग्रहण कर लेना इस जमाने में जरा कठिन कार्य है। किंतु जो पशु विज्ञानसे परिचित हैं और पशुओंके मनोबल एवं शिक्षाओंको ग्रहण करनेकी सुक्ष्म शक्तिकी ओर जिनका ध्यान गया है, वह उक्त प्रकार भगवान महावीरके उपदेशका प्रभाव उन पर पड़ा मानने में कुछ अचरज नहीं करेंगे। सचमुच वीतराग सर्व हितैषी अथवा सत्य एवं प्रेमकी साक्षात जीती जागती प्रतिमाके निकट विश्वप्रेमका आश्चर्यकारी किंतु अपूर्व वातावरण उपस्थित होना, कुछ भी अप्राकृत दृष्टि नहीं पड़ता ! विश्वका उत्कृष्ट कल्याण करनेके निमित्त ही भगवानके तीर्थङ्कर पदका निर्माण हुआ था ! 'लेकिन उन्होंने अपना निर्माण सिद्ध करनेके निमित्त कभी किसी प्रकारका मनुचित प्रभाव डालनेकी कोशिश नहीं की और न कभी उन्होंने किसीको भाचार विचार छोड़कर अपने दलमें आने के लिए प्रलोभित ही किया। उनकी उपदेश पद्धति शांत, रुचिकर, दुश्मनोंके दिलों में भी अपना असर पैदा करनेवाली, मर्मस्पर्शी और सरल थी।' 'सबसे पहिले उन्होंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । ९१. इस बात की घोषणाकी कि जगत का प्रत्येक प्राणी जो अशांति, अज्ञान और अत्यन्त दुःखकी मालामें जल रहा है, मेरे उपदेशसे लाभ उठा सक्ता है । अज्ञानके चक्र में छटपटाता हुमा प्रत्येक नीव चाहे वह तियच हो चाहे मनुष्य, आर्य हो चाहे म्लेच्छ, ब्राह्मण हो या शूद, पुरुष हो या स्त्री, मेरे धर्मके उदार झण्डे के नीचे आ सक्ता है । सत्य का प्रत्येक इच्छुक मेरे पाप्त माकर अपनी आत्मपिपसाको बुझा सक्ता है। इस घोषणाके प्रचारित होते ही हनारों सत्यके मुखे प्राणी महावीरकी शरणमें आने लगे। महावीरजीकी महान् उदार आत्माके निकट सबको स्थान मिल गया। कवि सम्राट् सर रविन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि 'महावीरस्वामीने गंभीरनादसे मोक्षमार्गका ऐसा संदेश भारतवर्ष में फैलाया कि धर्म मात्र सामाजिक रूढ़ियों में नहीं है, किन्तु वह वास्तविक सत्य है। संप्रदाय विशेषके बाहिरी क्रियाकाण्डका अभ्यास करनेसे मोक्ष प्राप्त नहीं होसक्ती; किन्तु वह सत्य धर्मके स्वरूपमें आश्रय लेनेसे प्राप्त होती है । धर्ममें मनुष्य और मनुष्यका भेद स्थाई नहीं रह सक्ता । कहते हुये आश्चर्य होता है कि महावीरनीकी इस शिक्षाने समाजके हृदयमें बैठी हुई भेदभावनाको शीघ्र नष्ट कर दिया और सारे देशको अपने वश कर लिया !"२ ।। इसप्रकार भगवानका ४३ वर्षसे ७२ वर्ष तकका दीर्घ जीवन देवल लोक कल्याणके हितार्थ व्यतीत हुमा था। इस उपदेशका परिणाम यह निकला था कि (१) जाति-पांतिका जरा भी भेद रक्खे बिना मनता हरएक मनुष्यको-चाहे वह शूद्र अथवा घोर १-चमम• पृ. १७३ । २-भम• पृ० २७१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] संक्षिप्त जैन इतिहास । म्लेच्छ हो-धर्मप्ताधन करने देने का पाठ सीख गई ! उसे विश्वास होगया कि 'श्रेष्ठताका आधार जन्म नहीं बलिक गुण हैं, और गुणोंमें भी पवित्र जीवनकी महत्ता स्थापित करना । (२) पुरुषोंके ही समान स्त्रियों के विकास के लिये भी विद्या और चार मार्गके द्वार खुल गये थे । जनता महिला-महिमासे भली भांति परिचित होगई थी। (३) भगवान के दिव्य उपदेशका संकलन लोकभाषा अर्थात अर्धमागधी प्राकृत में हुआ था, जिससे सामान्य जनतामें तत्वज्ञानकी बढ़वारी और विश्वप्रेमकी पुण्य भावनाका उद्गम हुआ था। (४) ऐहिक और पारलौकिक सुखके लिये होनेवाले यज्ञ आदि कर्मकांडोंकी अपेक्षा संयम तथा तपस्याके स्वावलम्बी तथा पुरुषार्थप्रधान मार्गकी महत्ता स्थापित होगई थी' और जनता अहिंसाधर्मसे प्रीति करने लगी थी; (५) और 'त्याग एवं तपस्याके नामरूप शिथिलाचारके स्थानपर सच्चे त्याग और सच्ची तपस्याकी प्रतिष्ठा करके भोगकी जगह योगके महत्वका वायुमंडल चारों ओर उत्पन्न होगया था। इस विशिष्ट वायुमंडलमें रहती हुई जनता 'अनेकान्त' और 'स्थाहाद' सिद्धान्तको पाकर साम्प्रदायिक द्वेष और मतभेदको बहुत कुछ भूल गई थी। ऐसे ही और भी अनेक सुयोग्य सुधार उससमय साधारण जनतामें होगये थे । जनता आनन्दमग्न थी! भगवान महावीरने ज़म्भक ग्रामके निकटसे अपना दिव्योपदेश भगवानका विद्या प्रारंम किया था और फिर समग्र आर्यखंडमें और धर्मप्रचार । उनका धर्मप्रचार और विहार हुआ था। सर्व १-चंभम० पृ. १७७-१७८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ ९३ [ प्रथम उनका शुभागमन मगधमें राजगृहके निकट विपुलाचल पर्वतपर हुआ था | यहां पर सम्राट् श्रेणिक और उनके अन्य पुत्रने भगवान की विशेष भक्ति की थी। यहांपर भगवानका आगमन कई दफे हुआ था । राजगृहमें अभिनवश्रेष्ठोने उनका विशेष आदर किया था | अर्जुन नामक एक माली भी यहां भगवानकी शरण में आया था | अर्जुन अपनी पत्नीके दुश्चरित्रसे बड़ा क्रुद्ध होगया था और उसने कई एक मनुष्यों के प्राण भी ले लिये थे; किन्तु भगवान महावीरजीके उपदेशको सुनकर वह बिलकुल शांत होगया और साधु दशा में उसने समताभावसे अनेक उपसर्ग सहे थे; यह श्वेतांबर शास्त्र प्रगट करते हैं । जिन समय राजा श्रेणिक वोर प्रभूकी बंदनाके लिये समस्त पुरवासियों समेत जारहे थे, उस समय एक मेंढक उनके हाथी के पैर से दबकर प्राणांत कर गया था । दिगम्बर शास्त्र कहते हैं कि वह वीर प्रभुकी भक्ति के प्रभावसे मरकर देव हुआ धौ 1 राजगृह से भगवान श्रावस्ती गये थे । यह आजीविक संपकौशल में वोर प्रभूका दायका मुख्य केन्द्र था, किन्तु तौभी भगप्रभाव । वानका यहां पर भी काफी प्रभाव पड़ा था । उस समय यहांपर राजा प्रसेननित अथवा अग्निदत्त राज्य करते थे | उन्होंने भगवानका स्वागत किया था। जैनों की मान्यता उनके निकट थी और उनकी रानी मछिकाने एक सभागृह बनवाया था; जिसमें ब्राह्मण, जैनी आदि परस्पर तत्त्वचर्चा किया करते थे । १ - डिजेबा० पृ० १६ । २- अंतगतदमाओ, डिजेबा० पृ० ९६ । ३- भाक० मा० ३ पृ० २८८-२९३ । ४- लाबद्दु० पृ० ११६ । ५- काब०, पृ० १०९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | २ यह इक्ष्वाकुवंशी क्षत्री थे । प्रसेनजितका पुत्र विदुरथ था और इसके साथ ही इस वंशका अन्त होगया था । कौशल उस समय मगधके आधीन था । श्रावस्ती से भगवानने कौशलके देषष्ठी आदि नगरों में विहार करके ज्ञानामृतकी वर्षा की थी । और इस प्रकार हिमालयकी तलहटीतक वे दिव्यध्वनिको प्रध्वनित करते विचरे थे' । मिथिलामें भगवानने अपने सदुपदेशसे जनताको कृतार्थ किया था । वैशाली में उनका शुभागमन कईमिथिला, वैशाली, व चंपा आदिमें जिनेन्द्र वार हुआ था । राजा चेटक आदि प्रधान देवका धर्मघोष | पुरुष उनकी भक्ति और विनय करनेमें अग्रसर रहे थे । वहां आनंद नामक श्रेष्टी और उसकी पत्नी शिवनंदा गृहस्थ धर्म पालने में प्रसिद्ध थे । इनने महावीरजी के सन्न कट श्रावक के बारहव्रत ग्रहण किये थे । पोलाशपुरमें भगवानका स्वागत राजा विजयसेनने बड़े आदरसे किया था । ऐमत्ता नामक उनका पुत्र भगवान के चरणों में मुनि हुआ था । अंगदेशके अधिपति कुणिक ने भी चंपा में भगवान के शुभागमनपर अपने अहोभाग्य समझे थे । और वह भगवान के साथ२ कौशांबीतक गया था । । • चम्पाके राजा दधिवाहन, श्वेतवाहन, अथवा घाड़ीवाहन, जो विमलवाहन मुनिराजके निकट पहले ही सेठ सुदर्शन | मुनि होगये थे, भगवान महावीरके संघमें संमिलित हुये थे । इनकी अभया नामक रानीने चम्पाके प्रसिद्ध राजसेठ सुदर्शनको मिथ्या दोष लगाया था । किन्तु सुदर्शन निर्दोष १-भम० पृ० १०८। २ - हॉजै० पृ० ३९... । ३-उद० १-९० और डिजैब ( ० पृ० ७५।४ - डिजैबा० पृ० २७ । ५- भन० पृ० १०८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर | [ ९५ सिद्ध हुये थे । * अन्ततः सुदर्शन सेठके साथ ही यह राजा भी जैन मुनि हुये थे । सुदर्शन सेठ अपने शीलधर्म के लिये बहु प्रख्यात हैं । इन्होंने मुक्तिलाभ किया था । राजा दधिवाहन मुनि दशामें जब वीर संघमें शामिल होगये, तब एकदा वह विपुलाचल पर्वत पर समोशरणके बाहरी परकोटेर्ने ध्यानमग्न थे। उस समय लोगोंके मुखसे यह सुनकर उनके परिणाम क्रुद्ध हो चले थे । और उनके कारण उनकी आकृति बिगड़ी दिखाई पड़ती थी, कि उनके मंत्रिमंडलने उनके बालपुत्र को धोखा दिया है। श्रेणिक महाराजने वीर प्रभुसे यह हाल जानकर उनको सन्मार्ग सुझाया था और इसके बाद शीघ्र ही वह मुक्त हुए थे । इस घटना के बाद ही शायद मगधका आधिपत्य अंगदेश पर होगया था | चम्पा में जैनों का 'पुण्यभद्द' (पुण्यभद्र) चैत्य (मंदिर) प्रसिद्ध था। यहांपर एक प्रसिद्ध सेठ कामदेवने भगवानसे श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये थे । इसी विहार के मध्य एक समय भगवान महावीरनीका समोबनारसमें भगवान शरण बनारस पहुंचा था। वहां पर राजा जित महावीर । शत्रुने उनका विशेष आदर किया था। यहांपर चूस्तीपिया और सुगदेव नानक गृहम्थोंने अपनी अपनी पत्नियों सहित श्रावक व्रत ग्रहण किये थे। यहां जितारि नामक राजाकी पुत्री मुण्डाको वृपमश्री आर्थिकाने जैनी बनाया था । * राजा दधिवाहनका समय भ० महावीर के लगभग होनेके कारण ही सुदर्शन सेठको उनका समकालीन लिखा है । १ - सुदर्शन चरित, पृ० १-१०५ व डिजेब ० १०२ । २ - उपु० पृ० ६९९ । ३-३६० ०ग्रा० २ । ४-३१० ६५० ३ । ५० पृ० ९४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] संक्षिप्त जैन इतिहास । बनारससे अन्यत्र विहार करते हुए वे कलिंगदेशमें पहुंचे वीर समोशरण कलिङथे। वहांपर राजा सिद्धार्थके बहनोई जित व बङ्ग आदिमें। शत्रुने भगवानका खूब स्वागत किया था और अन्तमें वह दिगम्बर मुनि हो मोक्ष गये थे। उस ओरके पुण्डू , बंग, तम्रलिप्त आदि देशोंमें विहार करते हुए भगवान कौशांबी पहुंचे थे। कौशांबीके नृप शतानीकने भगवानके उपदेशको विशेष भाव और ध्यानसे सुना था, भगवानकी वंदना उपासना बड़ी विनयसे की थी और अन्त दह भगवान के संघ संमिलित होगया था । उनका पुत्र उदयन् वत्सराज राज्याधिकारी हुआ था। इस प्रकार राजगृह, कौशांबी मादिकी ओर धर्मचक्रकी प्रगति पर आदिमें विशेष रूपसे हुई थी । बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि धर्म प्रचार। उस समय भगवान महावीर मगघ व अंग आदि देशोंमें खूब ही तत्त्वज्ञानकी उन्नति कर रहे थे। एकदा विहार करते हुए भगवानका समोशरण पाञ्चालदेशकी पाञ्चालमें भगवानका राजधानी और पूर्व तीर्थंकर श्री विमलना प्रचार । थनीके चार कल्याणकोंके पवित्र स्थान कांपिल्यमें पहुंचा था और वहां फिर एकवार धर्मकी अमोघवर्षा होने लगी थी। उप्त समय कुन्दकोलिय नामक एक शास्त्रज्ञ और धर्मात्मा श्रावक यहांपर था । यहीं पड़ोसमें संकाश्य ( संकसा ) ग्राम भी विशेष प्रख्यात् था। भगवान विमलनाथजीका केवलज्ञान स्थान संभवतः वही 'मघहतिया' (अघहतग्राम ) में था। वहांपर भाज १-हरि० पू० १८ । २-हरि० प्र० ६२३ । ३-वीर वर्ष ३ १० ३७०। ४-मम०, पृ० १०८ व उप्र० पृ. ६३४ । ५-मनि. भा० १ पृ. २ -उद० व्या० ६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [९७ भी नैनों की प्राचीन कीर्तियां विशेष मिलती हैं। बौद्ध और जेनों में इस स्थानकी मालिकी पर पहिले झगड़ा भी हुआ था* | उप्त समयके लगभग कांपिल्यके राजा हिमुख अथवा जय प्रख्यात् थे । उनके पास एक ऐसा त न था कि उसको सिरपर धारण करनेसे राजाके दो मुख दृष्टि पड़ते थे ! इस तानको उनके राजा प्रद्योतने मांगा था । जयने इसके बदले में प्रद्योतसे नलगिरि हाथी, स्थ, व रानी और लोहनंघ लेखक चाहा था । हठात् दोनों राजाओंमें युद्ध छिड़ा; जिसका अन्त पारस्परिक प्रेममें हुआ था । प्रद्योतने मदनमंजरी नामक एक कन्या जय राजासे ग्रहण की थी और वह उनको वापस चला गया था । राजा जय जैन मुनि हुये थे। श्वेताम्बर शास्त्रों में उनको प्रत्येकबुद्ध लिखा है । कांपिल्यसे अगाडी बढ़कर भगवान का समोशरण उस समयको उत्तरमथरामें भगवानका एक प्रख्यात नगरी सौरदेशकी राजधानी शुभागमन । उत्तर मथुरामें पहुंचा था। उस समय भी वहांपर जैनधर्मकी गति थी। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ नीके समय का बना हुआ एक सुन्दर स्तूप और चैत्यमंदिर वहां मौजूद था । भगवान के धर्मोपदेशसे वहां ' सत्य ' ग्यच प्रकाशमान हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि उस समय मथुरा पमोदय रानाके पुत्र उदितोदय राज्यःविकारी थे । बौडशास्त्रों में यहांक नृपको "अवन्तिपुत्र" लिखा है। संभव है कि दोनों रानकुलोंमें परस्पर सम्बंध हो । उदितोदयका रानसेठ अईदास अपने सम्यक्त्वके लिये ____* वीर वर्ष 1 १० ३३६ । १-हिटे० पृ० १४० । २-पकौ• पृ० ।। ३-हिइ०, पृ० १८५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रख्यात था । उसीके संसर्गसे राजा को भी जैनधर्म में प्रतीत हुईं थी । अईदास सेठने भगवान महावीरजीके निकटसे व्रत नियम ग्रहण किये थे । उत्तर मथुरा के समान ही दक्षिण मथुग़में भी जैनधर्मका अस्तित्व उस समय विद्यमान था । भगवानके निर्वाणोपरांत यहांपर गुप्ताचार्य के आधीन एक बड़ा जैनसंघ होने का उल्लेख मिलता है । भगवान महावीरजीका बिहार दक्षिण भारतमें भी हुआ था । दक्षिण भारत में कांचीपुरका राजा वसुपाल था और वह संभवतः वीर प्रभू । भगवानका भक्त था । (आक० भा० ३८० १८१) जिस समय भगवान हेनांगदेश में पहुंचे थे, उस समय राजा सत्यंघरके पुत्र जीवंधर राज्याधिकारी थे । हेमांगदेश आजकलका मडीसूर (Mysore ) प्रांतवर्ती देश अनुमान किया गया है; क्योंकि यहीं पर सोनेकी खाने हैं, मलय पर्वतवर्ती वन है और समुद्र निकट है । हेमांगदेशके विषय में यह सब बातें विशेषण रूप में लिखीं हैं । हेमांग देशकी राजधानी शहपुर थी; जिसके निकट ' सुरमलय ' नामक उद्यान था | भगवानका समोशरण इसी उद्यानमें अवतरित हुआ था | राजा जीवंधर भगवान महावीरको अपनी राजधानी में पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ था । अन्त में वह अपने पुत्रको राजा बनाकर सुनि होगया था । सुन डोकर वह वीर संघके साथ रहा था । जब बीरसंघ विहार करता हुआ उत्तरापथकी ओर पहुंचा था, त जीवंधर मुनिराजने अग्रड के बलीरूपमै राजगृह के विपुलाचल पर्वतसे १ - कौ० पृ० ६ । २ - वीर वर्ष ३ पृ० ३५४ । ३- आक० भा० १ पृ० ९३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [९९ ठीक उस समय निर्वाणलाम किया था, जिस समय भगवान महावीर पाव' में मुक्त हुए थे। नैनशास्त्रोंमें इन्हें एक बड़ा प्रतापी राना लिखा है । इनने दक्षिणके पल्ला मादि देशों के रानाओं एवं उत्तरा पथके राजाओंसे भी युद्ध किया था। (उपु० प्र० ६५१-६९७) जैन कवियोंने इनके विषयमें अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। दक्षिण भारतमें विचरते हुए भगवानका समोशरण उज्जैन के निकट स्थित सुरम्य देशकी पोदनपुर नामक राजधानीमें पहुंचा था। उस समय यहांका राजा विद्रदान जैनधर्म भक्त था। पोदनपुरसे वीर प्रमूका समोशरण मालवा और राजसतानाही राजपूतानामें श्रीमहा- ओर माया था। जयपुर राज्यान्तर्गत महा वीरका बिहार । वीर ( पटौंदा ) स्थान भगवानकी पुनीति पावन स्मृतिका वहां आज भी प्रगट चिन्ह है। उज्जैन में उस समय राना चन्द्रप्रद्योत राज्याधिकारी थे और वह जैनधर्मके प्रेमी थे।' उनने कालमंदीव नामक उपाध्यायसे म्लेच्छ भाषा सीखी थी। कालसंदीव जैन मुनि हुए थे और अपने शिष्य स्वेतमंदीव सहित वीरसंघ मंमिलित होगये थे । ( माक० मा० ३ पृ० ११० ) भगवान महावीरके निर्वाण समय चन्द्रपद्योतका पुत्र " पालक" राज्य सिंहामनपर बैठा था । राना प्रघोतन जैन मनि टोगये थे । उज्जैन के समीप ही दशार्ण देश था। इस समय वहां के रामा दशरथ भगवान के निकट सम्बन्यो थे; यह पहले ग्वा न चुका है। उनके गज्यके निकट नब वीरप्रभ पहुंचे थे, तो यह सम्भव नहीं कि १-प्र• पृ० २२१ । २-आक. भ. ३ पृ. ५। ३-हरि. पृ० १२ (भूमिका)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनधर्मके प्रेमी यह राजा भगवानका विशेष स्वागत करनेमे पीछे रहे हों। उससमय मेवाड़ प्रांतमें स्थित मन्झिमिका नगरी भी बहु प्रख्यात् थी। वीर निर्वाण संवत ८४ के एक शिलालेखमें इस नगरीका उल्लेख है; उससे प्रगट होता है कि भगवान महावीरजीका मादर इस नगरके निवासियोंमें खूब था। सारांशतः जैनधर्मकी गति इस प्रांत में अत्यन्त प्राचीनकालसे है । उनैन तो नेनों का मुख्य ही केन्द्र था। राजपूतानेकी तरह गुजरातमें भी जैनधर्मका अस्तित्व प्राचीन गुजरात और सिधदे- कालसे है। भगवान महावीरजीका समोशमें वीर प्रभूका शरण दक्षिण प्रांतकी ओर होता हुमा यहां पवित्र विहार । भी अवश्य पहुंचा था; इस व्याख्याको पुष्ट करनेवाले उल्लेख मिलते हैं । बावीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथनीका निर्वाणस्थान इसी प्रांतमें है । गिरिनगर (जूनागढ़) के राजा जैन थे, यह जैन शास्त्रोंसे प्रगट है। कच्छदेश और सिन्धुसौवीरके राजा उदायन जैनधर्मके परमभक्त थे; यह पहले लिखा जा चुका है। उनकी राजधानी रोरुकनगरमें भगवानका समोशरण पहुंचा था। रोरुक उस समय एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था । लाटदेशमें उससमय जैनधर्मका खूब प्रचार था । भृगुकच्छमें राजा वसुपाल थे। यहां १-राइ० भा० १ पृ० ३५८-स्वयं मध्यमिकासे प्राप्त वि० सं० पूर्वकी तीसरी शताब्दिके आसपासकी लिपिमें अंकित लेखों से एकमें पढ़ा गया है कि "सर्व भूतों (जीवों)की दयाके निमित्त......बनवाया ।" यह उल्लेख स्पटतः जैनोंसे सम्बन्ध रखता है, बौद्धोंसे नहीं । क्योंकि बौखोने सब भूतों (पृथ्वी जलादि)में जीव नहीं माना है। देखो केहिह. पृ० १६१ । २-हरि० पृ० ४९६ । ३-कैहिइ० पृ. २१२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [१०१ जैनधर्मकी महिमा अधिक थी। (आक० भा० २ ४० ४४) सिंधुदेश विहार और धर्मप्रचार करते हुये भगवान का शुभापंजाब और काश्मीरमें गमन पंजाब और काश्मीरमें भी हुआ था। वीर-सन्देशका गांधारदेशको राजधानी तक्षशिलामें भगवा प्रतिघोष । नका समोशरण खूब ही शोभा पाता था। आज भी वहांपर कई भग्न नैन स्तृप मौजूद हैं। (तक्ष०, पृ. ७२) वहीं निकटमें कोटेरा ग्रामके पास भगवानके शुभागमनको मुचित करनेवाला एक वंश जैन मंदिर अब भी विद्यमान है । जैनधर्मकी बाहुल्यता यहां खुब होगई थी। यही कारण है कि सिकन्दर महानको यहांपर दिगंबर जैन मुनि एक बड़ी संख्या मिले थे। फलतः भगवान महावीरजीका विहार समग्र भारतमें हुमा समग्र भारतमें वीरप्रमका था । ई०से पूर्व चौथी शताब्दी में जैन धर्मचक्र प्रवर्तन। धर्म लंकामे भी पहुंच गया था।' अतएव इस समयसे पहिले जैनधर्म दक्षिण भारतमें भा गया था, यह प्रगट होता है । जैनशास्त्र कहते हैं कि भगवान महावीरका समोशरण दक्षिण प्रान्तके विविध स्थानों में पहुंचा था। आन भी तिने ही अतिशयक्षेत्र इस व्याख्याका प्रकट समर्थन करते हैं। श्री जिनमेनाचार्यनीके कथनसे भगवान का समय भारत किंवा भन्य आर्य देशोंमें विहार करना प्रगट है। वह लिखते हैं कि " निसप्रकार भव्यक्त्सक भगवान ऋषभदेवने पहिले अनेक देशोंमें विहार कर उन्हें धर्मात्मा बनाया था, उसीपकार भगवान महावीरने भी मध्यके (काशी, कौशल, कौशल्य, कुसंध्य, अश्वष्ट, साल्व, त्रिगत १- जा. पृ. ६८२-६८३ । २-लाम' पृ. २० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । पांचाल, भद्रकार, पाटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सौरसेन एवं वृकार्थक) समुद्रतटके (कलिंग, कुरुनांगल, कैकेय, आत्रेय, कांबोज, वाल्हीक, यवनश्रुति, सिंधु, गांधार, सौवीर, सुरभीरु, दशेरुक, वाडवान, भारद्वाज और क्वाथतोय) और उत्तर दिशाके (तार्ण, कार्ण, प्रच्छाल आदि) देशोंमें विहारकर उन्हें धर्मकी ओर ऋजु किया था।" श्वेताम्बराम्नायके 'कल्पसूत्र' ग्रंथमें भगवान के विहारका उल्लेख श्वेताम्बर शास्त्रों में चातुमासोंके रूपमें किया है । वहां लिखा है चातुर्मास वर्णन। कि चार चतुर्माप्त तो भगवानने वैशाली और वणियग्राममें विताए थे; चौदह राजगृह और नालन्दाके निकटवर्तमें, छै मिथिलामें; दो भद्रिकामें; एक अलभीकमें; एक पाण्डभूमिमें; एक श्रावस्तीमें और अंतिम पावापुरमें पूर्ण किया था। किन्तु दिगम्बरानायके शास्त्र इस कथनसे सहमत नहीं हैं। उनका कथन है कि एक सर्वज्ञ तीर्थकरके लिये 'चतुर्मास' नियमको पालन करना मावश्यक नहीं है । उधर श्वेताम्बर शास्त्रों में परस्पर इस वर्णनमें मतभेद है। उपरोक्त वर्णनसे शायद यह ख्याल हो कि भगवानका विहार भगवान महावीरजीका केवल भारतवर्षमें हुआ था; किन्तु यह सुखदविहार और विदे. मानना ठीक नहीं होगा। जैन शास्त्र शोंमें धर्मप्रचार । स्पष्ट कहते हैं कि भगवानका विहार और धर्मप्रचार समस्त मार्यखंडमें हुआ था। भरतक्षेत्रके अन्तर्गत मार्यखंडका जो विस्तृत क्षेत्रफल जैन शास्त्रोंमें बतलाया गया है, - उसको देखते हुये वर्तमानका उपलब्ध जगत उसीके अन्तर्गत सिद्ध १-हरि० पृ० १८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [ १०३ होता है' | श्रवणबेलगोला के मान्य पंडिताचार्य श्री चारुकीर्तिनी महाराज एवं स्व० पं० गोपालदासनी बरैया प्रभृति विद्वान् भी इस ही मतका पोषण कर चुके हैं । उक्त पंडिताचार्य महाराजका तो कहना था कि दक्षिण भारतमें करीब एक वा डेढ़ हजार वर्ष पहिले बहुत से जैनी अरबदेश से आकर बसे थे । अब यदि वहांपर जैन धर्मका प्रचार न हुआ होता तो वहांपर जैनियों का एक बड़ी संख्या में होना असंभव था । श्री जिनसेनाचर्यजी महाराजने जिन देशों में भगवानका विहार हुआ लिखा है, उनमें से यवनश्रुति, क्वाथतोर्ये, सुरभी, तार्ण, काण आदि देश अवश्य ही भारत के बाहर स्थित प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन ग्रीक यूनानी) विद्वान् भगवान महावीरजीके समय के लगभग जैन मुनियोंका अस्तित्व वैक्ट्रिया और अवीसिनियामें बतलाते हैं । विलफर्ड सा०ने 'शंकर प्रादुर्भव' 1 १- भवा०, पृ० १५६ । २- ऐरि०, भा० ९० २८३ । 3- ववन श्रुति पारस्य अथवा यूनानका बोधक प्रतीत होता है । ४- क्वाथतोष अर्थात् उम्र समुद्र तटका देश जिसका जल क्वाथके समान था । अतः इस प्रदेशका 'रेडी' ( Red Sea ) के निकट होना उचित हैं । उस समुद्र के किनारे वाले देशों जैसे अवीसिनिया, अरब आदिमें जैन धर्मका अस्तित्व मिलता है। देखो लाम० १० १८-१९ व भा० पृ० १७३-२०२ । ५-सुग्भीरु देश संभवतः 'सुरभि' नामक देशका बोधक है, वो मध्य ऐशिया में क्षीरमागर ( Caspian Sea ) के निकट अक्षम ( Oxus ) नदीसे उत्तरकी ओर स्थित था । यह आज कलके तीव (Khiva ) प्रान्तका खनन अथवा स्वरिम प्रदेश है । देखो इहिक्का ० मा० २ १० २९ । ६-एइमे० पृ० १०४ "Sarmanaeanswere the philosopers of the Baktrians." व मंयो० १० १०३ ( श्रमण जैन मुनिको कहते है ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | नामक वैदिक ग्रन्थके आधारसे जैनोंका उल्लेख किया है । उसमें भगवान पार्श्वनाथ और महावीरजी इन अंतिम दो तीर्थकरों का उल्लेख ''जिन' 'अईन् ' अथवा 'महिमन् ' ( महामान्य ) रूपमें हुआ है। उक्त सा०ने लिखा है कि 'अर्हन' ने चारों ओर विहार किया था और उनके चरणचिह्न दूर दूर देशों में मिलते हैं । लंका, श्याम, आदिमें इन चरणचिन्होंकी पूजा भी होती है । पारस्य सिरिया (Syria) और ऐशिया मध्य में 'महिमन् ' ( महामान्य = महावीरजी ) के स्मारक मिलते हैं। मिश्र में 'मेमनन' ( Memnon) की प्रसिद्ध मूर्ति 'महिमन् ' ( महामान्य ) की पवित्र स्मृति और आदर के लिये निर्मित हुई थी। अतः इन उल्लेखों से भी भगवान महावीरका भाग्नेवर देशों में बिहार और धर्म प्रचार करना सिद्ध है। जैन 3 शास्त्रों में कितने ही विदेशी पुरुषों का वर्णन मिलता है, जिन्होंने जैनधर्म धारण किया था। आर्द्रक नामक यवन अथवा पारस्यदेशवासी राजकुमारका उल्लेख ऊपर होचुका है । उसी तरह यूनानी लोगों (यङ्काओं का भगवान महावीरजीका भक्त होना प्रकट है । फणिक अथवा पणिक (Phonecia ) देशके प्रसिद्ध व्यापारियोंमें जैनधर्म की प्रवृत्ति होनेके चिह्न मिलते हैं। * भगवानका समोशरण जिस समय वहां पहुंचा था, उस समय एक 'पणिक ' व्यापारी उनके दर्शनों को गया था । भगवानका उपदेश सुनकर वह प्रतिबुद्ध हुआ था और जैन मुनि होकर वीर संघके साथ भारत माया था । जिस समय वह गंगानदीको नावपर बैठे हुये पार कर रहा • १ - ऐरि० भा० ३, पृ० १९३-१९४ । २-भपा० पृ० ९७-९९० ३- ऐरि० भा० ३, १९६-१९९ । ४ - भपा० पृ० २०१ - २०२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [१०५ था, उमी समय बड़े नोरों का आंधी-पानी आया था और नांवके डूबते २ उनने अपने ध्यानबलसे केवलज्ञान विभूतिको प्राप्त करके मोक्ष सुम्ब पाया था। इनके अतिरिक्त भगवानके भक्त विद्याधर लोग अवश्य ही विदेशोंके निवामी थे । अतः यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरजीका उपदेश संपूर्ण आर्यखण्डमें हुमा था, जो वर्तमानकी उपलब्ध दुनियासे कहीं ज्यादा विस्तृत है। ज्ञातृपुत्र महावीरने ठीक तीस वर्षतक चारोंओर विहार करके भगवान महावीरका पतितपावन सत्यधर्मका संदेश फैलाया था। उपदेश अर्थात् मत्य मदासे है और वैसा ही रहेगा। भगवान महावीरने भी उसी सनातन सत्यका प्रतिपादन अपने समयके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार किया था। उन्होंने स्पष्ट प्रकट कर दिया था कि केवल थोथे क्रियाकाण्डद्वारा अथवा वनवासी नीवनमें मात्र ज्ञानका आराधन करके कोई भी सच्चे सुखको नहीं पासक्ता है। और यह प्राकृत सिद्धान्त है कि प्रत्येक प्राणी मुखका मुखा है । सांसारिक भोगोपभोगकी सलौनी सामग्रीको भोगते चले नाइए किन्तु तृप्ति नहीं होती है । वासना और तृष्णा शान्त नहीं होती, मनुष्य अतृप्त और दुखी ही रहता है। फलतः भोगोपभोगकी मामग्री द्वारा सच्चा सुख पालेना पसं. भव है । उसको पालेने के लिये त्यागमय जीवन अथवा निवृत्तिमार्गका अनुपरण करना मावश्यक है। भगवानने उच्च स्वरसे यही कहा कि मुख भोगसे नहीं योगसे मिल सका है। वासनाका क्षय हुये बिना मनुष्यको पूर्ण और अक्षयसुख नहीं होसक्ता । त्यागमई १-भा. मा. २ पृ. २४३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] संक्षिप्त जैन इतिहास । सन्याप्त जीवनमें भी यदि वासना-तृप्तिके साधन जुटाये रक्खे जाये और केवलज्ञानकी आराधनासे अविनाशी सुख पालेनेका प्रयत्न किया जाय तो उसमें असफलताका मिलना ही संभव है । त्यागी हुये घर छोड़ा-स्त्री पुत्रसे नाता तोड़ा और फिर भी निर्लिप्तभावकी आड़ लेकर वासना वर्द्धन सामग्रीको इकट्ठा कर लिया, वासनाको तृप्त करने का सामान जुटालिया, तो फिर वास्तविक सत्यमें विश्वास ही कहां रहा ? यह निश्चय ही शिथिल होगया कि भोगसे नहीं, योगसे पूर्ण और अक्षय सुख मिलता है। और यह हरकोई जानता है कि किसी कार्यको सफल बनानेके लिये तद्वत विश्वास ही मूल कारण है। दृढ़ निश्चय अथवा अटल विश्वास फलका देनेवाला है। भगवान महावीरने इन आवश्यक्ताओंको देखकर ही और उनका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर 'सम्यग्दर्शन' अथवा यथार्थ श्रद्धाको सच्चे सुखके मार्ग में प्रमुख स्थान दिया था । किन्तु वह यह भी जानते थे कि निस प्रकार कोरा कर्मकांड और निरा ज्ञान इच्छित फल पानेके लिये कार्यकारी नहीं है, उसी प्रकार मात्र श्रद्धानसे भी काम नहीं चल सक्ता। इसीलिये इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका युगपत होना अक्षय और पूर्ण सुख पानेके. लिये आवश्यक बतलाया था। सम्यग्दर्शनको पाकर मनुष्योंको निवृत्ति मार्गमें दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। वह जान गये थे कि यह जगत अनादि निधन है। जीव और मजीवका लीला क्षेत्र है। यह दोनों द्रव्य अक्रत्रिम अनंत और अविनाशी हैं । अनीवने जीवको अपने प्रभावमें दवा रक्खा है। जीव शरीर बन्धनमें पड़ा हुआ है। वह इच्छामों और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [१०७ वासनाओं का गुलाम बन रहा है। ज्यों ज्यों वह भोगवासनाओंको तृप्त करने का प्रयत्न करता है, वैसे ही इसके दुःख और कष्ट अधिक बढ़ते हैं। एक मुक्ष्म अनीव पदार्थ, जिसको कर्मवर्गणा' (Karnic Molecules) कहते हैं, उसके इस भोगप्रयासमें कषायोद्रेकसे आकर्षित होकर उसमें एक काल विशेषके लिये सम्बद्ध हो जाता है और फिर अपना सुख दुख रूप फल दिख कर वह अलग होता है । इस आगमन क्रियाको भगवानने 'आस्रव' तत्व बतलाया और बन्धन तथा रुकने व विलग होनेके प्रयोगको क्रमशः "बंध", "संवर" और "निरा" तत्त्वके नामसे उल्लेख किया था। कर्मो के भावागमनका यह तारतम्य उस समय तक बराबर जारी रहता है, जबतक कि जीवात्मा इच्छाओं और वासनाओंसे अपना पिंड छुड़ा नहीं लेता है। निप्त समय वह भोगके स्थानपर योगका महत्व समझ नाता है, उस समय उसका जीवन एक नये ढंगका होजाता है । पहले जहां वह भोगवार्ताओंको प्रमुखस्थान देता था, वहां अब वह पद पद पर संयमी जीवन वितानेकी कोशिश करता है। वह सचे सुखके सनातन मार्गपर आनाता है और क्रमशः इच्छाओं और वासनाओं का पूर्ण निरोध करके कर्मोसे अपना पीछा छुड़ा लेता है। बस, वह मुक्त होनाता है और सदाके वास्ते पूर्ण एवं अक्षय मुखका मोक्ता बन जाता है। लोग उसे पूर्णताका भादर्श मानकर उसकी उपासना और विनय करते हैं। वह जगतपूज्य बन जाता है। और सिर-बुद्ध, सच्चिदानन्द परमात्मा कहलाता है। भगवान महावीरने इस सनातन मार्गका पूरा २ अनुसरण अपने जीवनमें किया था और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] संक्षिप्त जैन इतिहास। वह सफल हुये थे । त्रिलोक वंदनीय परमात्मा कहकर आज जगत उनको नमस्कार करता है । इसप्रकार भगवान महावीरने मोक्षमार्गको निर्दिष्ट करते हुये मनुष्योंकी स्वाधीनताका पाठ पढ़ाया था। उन्होंने बतला दिया कि अपने आप पर विश्वास करो। और सच्ची श्रद्धाके साथ अपने आपका और अपने चहुंओरके पदार्थो का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करो । निस समय मनुष्यको सच्चे ज्ञानका भान हो जायगा, वह कभी भी असदप्रवृत्ति में लीन नहीं होगा। भोगविलास उसे नीरस जैचेंगे और त्यागके कार्य बड़े मीठे और सुहावने । बस उसका चारित्र यथार्थ और निर्मल होगा। भगवान यह अच्छी तरह जानते थे कि मनुष्यमात्रके लिये यह संभव नहीं है कि वह उनके समान ही एकदम रसीली रमणी और राजसी भोगसामग्रीको पैरोंसे ठुकरा कर नीरसयोग और महान त्यागके बीहड़ मगका पथचर बन जावे। और वह यह भी समझते थे कि गृहस्थजीवनमें निरे योगकी शिक्षासे भी काम नहीं चल सक्ता है । इसीलिये भगवानने दो प्रकारके धर्म मार्गका निरूपण किया था। पहला मार्ग तो उन निस्टही साधु ओंके लिये बतलाया था, जो उसी भवसे मोक्षसुख पानेके लालसी हों और दूसरा उसीका अपर्याप्तरूप गृहस्थों के लिये निर्दिष्ट किया था। दोनों मार्गवालोंके लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और मपरिग्रह व्रतोंका पालना मावश्यक बतलाया था। साधुलोग इन व्रतोंको पूर्णरूपसे पालते हैं; किन्तु एक गृहस्थ इनको एक देश अर्थात् मांशिकरूपमें व्यवहारमें लाता है। ___एक मुनि प्रत्येक दशा मन वचन काय पूर्वक पूर्ण अहिंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर | [ १०९ सक रहेगा । वह अपनी क्षुवा और तृषाकी निवृ त्तके लिये अन्नजल भी स्वतः ग्रहण नहीं करेगा । यथाजात नग्नरूपमें रहकर शेष व्रतोंका एवं अन्य नियमों और तप ध्यानका अभ्यास करेगा । किन्तु इसके प्रतिकूल एक गृहस्थ केवल जानबूझकर कषायके वश होकर किसीके प्राणोंको पीड़ा नहीं पहुंचायेगा । वह गृहस्थी जीवनको सुविधा पूर्वक व्यतीत करनेके लिये आजीविका भी करेगारोटी पानी भी लायगा और बनायेगा । अधर्मी और अत्याचारीके अन्यायका प्रतीकार करनेके लिये शस्त्र - प्रयोग भी करेगा। सारांशतः उसके लिये हर हालत में पूर्ण अहिंसक रहना असंभव है । इसलिये ही वह इन व्रतों को आंशिकरूपमें ही पाल सक्ता है; यद्यपि वह अपने विसात पूर्ण अहिंसक बननेकी ही कोशिश करेगा । यही नहीं कि स्वयं जीवित रहे और अन्य प्राणियोंको जीवित रहने दे, किन्तु वह अन्य प्राणियोंको जीवित रहने देने में अपनी जान भरसक प्रयत्न करेगा, स्वयं स्वाधीन रहेगा और दूसरोंको भी स्वतंत्रताका सौना स्वाद लेने देगा | - मतलब यह है कि वह संसार में शांति और प्रेमका साम्राज्य फैलाने में अग्रसर होगा । अहिंसा के साथ अन्य व्रतों का भी यथाशक्ति अभ्यास करेगा । अपनी इच्छाओं और आवश्यक्ताओं को नियंत्रित और कमती करता हुआ, वह अत्मोन्नति के मार्ग में अगाड़ी बढ़ जायगा और एक रोन अवश्य ही पूर्ण योग का अभ्यास करनेमें दत्तचित्त हुआ मिलेगा । इसका परिणाम यह होगा कि वह कर्मोंको परास्त कर विजय काम करेगा और पूर्ण सुखका अधिकारी बनेगा । उसके अभ्युत्थान और मानंदकी कुंभी उसकी मुट्ठी में है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ ११०] संक्षिप्त जैन इतिहास । उसको संभाले और काममें ले । बम, आनंद ही आनंद है। ___ यह स्वावलम्बी जीवन का संदेश भगवान महावीरने उस सम. यके लोगोंको बताया था और इसको सुनकर उनमें नवस्फूर्ति और नवजीवन का संचार हुआ था । यही विजयमार्ग जैनधर्म है । इसमें कायरता और भीरुताको तनिक भी स्थान नहीं है । भगवानने स्पष्ट कहा था कि यदि तुम मेरे धर्ममें श्रद्धा लाना चाहते हो तो पहले निशङ्क होने का अभ्यास करलो। यदि तुम निशङ्क नहीं हो, तो विजयमार्गपर तुम नहीं चल सक्ते । जैनधर्म तुम्हारे लिये नहीं है । वह निशङ्क वीरों का ही धर्म है। भगवान महावीरका यह उपदेश जैनधर्मके पुरातन रूपरेखासे भगवान महावीर और कुछ भी विरोध नहीं रखता था। ऐसा ही अवशेष तीर्थङ्कर । उपदेश महावीरजीसे पहले हुये तेईस तीर्थकर एक दूसरेसे बिलकुल स्वाधीनरूप वैज्ञानिक ढंगपर अपने समयकी आवश्यक्तानुपार करते हैं। तीर्थकर स्वयंबुद्ध होते हैं और वह सर्वज्ञ दशामें सत्य धर्ममा प्ररूपण करते हैं । इसलिये उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म में परस्पर कुछ भी विरोध नहीं होता । वह मूलमें सर्वथा एक समान होता है और उनका विवेचित सैद्धांतिक अंश तो पूर्णतः कुछ भी पर पर बिपरीतता नहीं रखता है । व्यवहार कारिग्बन्धी नियमों में वह अवश्य है कि प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने ममनुका उसको निर्दिष्ट करता है। इसी कारण जैन शास्त्रोंमें कहा गया कि- "अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थकरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने 'छेदोपस्थापना संयमका उपदेश दिया है।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [१२१ भाव यह है कि ऋषभदेव और महावीर भगवानने सामायिकादि पांच प्रकारके चारित्रका प्रतिपादन किया है, जिसमें छेदोपस्थापनाकी यहां प्रधानता है । शेष बाईस तीर्थकरोंने केवल ही केवल सामायिक चारित्रका प्रतिपादन किया है। इस शासन भेदका कारण आचायने बतलाया है कि "पांच महाव्रतों (छेदोपस्थापना) का कथन इम बनहसे किया गया है कि इनके द्वारा सामायिकका दूसरों को उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना, पृथक् २ रूपसे भावनामें लाना सुगम होनाता है । आदि तीर्थमें शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये जाते हैं; क्योंकि वे अतिशय सरल स्वभाव होते हैं। और अंतिम तीर्थमें शिष्य नन कठिनतासे निर्वाह करते हैं; क्योंकि वे अतिशय वक स्वभाव होते हैं । साथ ही इन दोनों समयों के शिष्य स्पष्ट रूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं। इसलिये आदि और अन्तके तीर्थों में इस छेदोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पदा हुई है।" इसी प्रकार ऋषभ और महावीरजीके तीर्थ के लोगों के लिये अपराधके होने और न होने की अपेक्षा न करके प्रतिक्रमण करना मनिवार्य होता; किन्तु मध्यके चाईम तीर्थकरों का धर्म अपराधके होने पर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है । इस त' नीथरोंका यह झा 'भेद द्रव्य, क्षेत्र, कर, भावके अनुपा है और मूलभावमें परम्पर कुछ भी विरोव नही खता । सब हो या महान् व्यक्तित्व और उनका धर्म प्रायः एक समान होता है। १-मूला० ७-३२ । २-मूला. 1.4-१२९ विशेषके लिये देखो बेन हितैषी मा. १२ अंक ७.८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] संक्षिप्त जैन इतिहास । तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ भगवान महावीरजीसे श्रीज्ञातपत्र महावीर ढाई सौ वर्ष पहिले हुये थे । उनका वैय. और क्तिक और पारस्परिक सम्बंध उपरोक्त भगवान पार्श्वनाथ । उल्लेखई अतिरिक्त और कुछ भी अधिक दृष्टि नहीं पड़ता । किंतु श्वेतांबर शास्त्रों में उनके और महावीरनीके धर्ममें कुछ विशेष अन्तर बतलाया है । श्वेतांबर कहते हैं कि पार्श्वनाथनीने केवल चार व्रतों का ही निरूपण किया था और उनके तीर्थके साधु सवस्त्र रहते थे। भगवान महावीरने उन चार व्रतों में गर्भित शीलव्रतको प्रथकरूप देकर पांच व्रतोंका उपदेश दिया और उन्होंने साधु जीवनको कठिन तपस्यासे परिपूर्ण बनाने के लिये नग्नताका विधान किया था। श्वेतांबरोंका यह कथन उनके विशेष प्रमाणिक और मुल आचारांगादि ग्रन्थों में नहीं है । और यह भन्यथा भी बाधित है। बौद्ध ग्रन्थों में अवश्य भगवान महावीरको 'चातुर्याम संवर' से वेष्टित बतलाया है किन्तु वह श्वेतांबरोंके चार व्रतोंके समान नहीं है। वह ठीक वैसी ही चार क्रियायें हैं जैसी कि जैन साधुओंके लिये दि० जैन ग्रन्थों में मिलती हैं। किन्तु हमारा अनुमान है कि उपरांत ईसवीकी छठी शताव्दिमें जब श्वेतांबर ग्रन्थों का संकलन हुआ था, तब बौद्ध ग्रन्थों में जैनोंके लिये 'चातुर्याम संवर' नियमका प्रयोग देखकर श्वेतांबरोंने उसका सम्बंध पार्श्वनाथनीसे बैठा दिया; क्योंकि यह तो विदित ही है कि श्वेतांबर भागम १-उसू० पृ० १६९-१७५ । २-दीति० भा० १ पृ. ५७-५८ । ३-भयबु. पृ. २२२-२२७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [११३ अन्योंमें बहुत कुछ बौद्धोंके पिटत्रयके ही समान और सम्भवतः उनका उद्धरण है। डॉ० जैकोबीने भो बौडोंके उपर्युक्त चातुर्याम संवर नियमको भगवान पार्श्वनाथ का चातुव्रत नियम प्रगट किया है : जैसे कि श्वेतांबर बतलाते हैं; किन्तु उनकी यह मान्यता निराधार है। मतएव यह उचित नंचता है कि भगवान पार्धनाथनी और महावीरनीके धर्मो में सामायिक और छेदोपस्थापना (पंच महाव्रत) रूप प्रधानताको पाकर, श्वेतांबरोंने पार्श्वनाथनीके धर्ममें चार व्रत और महावीर भगवान के धर्ममें पंचमहाव्रतों का होना प्रगट कर दिया । वैसे यथार्थमें दोनों ही तीर्थकरोंके धर्मों में व्रत पांच ही माने गये थे। यही हाल नग्नताके विषय में है। भगवान पार्श्वनाथ जीको अथवा उनके तीर्थके मुनियों को वस्त्र धारण करते हुए बतलाना निराधार है। बौद्ध ग्रन्थोंसे यह सिद्ध है कि पार्श्वनाथ नीके तीर्थके साधु नग्न रहने थे। और मुनि भेषका नग्न होना प्राकृत समुचित है; जैसे कि पहिले प्रगट किया नाचुका है और निमसे श्वेतांवर शस्त्र भी सहमत हैं। अतएव यह कहना कि भगवान महावीरने नग्नताका प्रचार किया, कुछ भी महत्व नहीं रखता । किन्हीं विद्वानों । यह स्वयाल है कि पार्श्वनाथनी के धर्ममें तात्विक सिद्धांत पूर्णतः निर्दिष्ट नहीं थे। किन्तु यह खयाल मैन मान्यताके विरुद्ध है। जैन स्पष्ट कहते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के धर्ममें भी वैसे ही तत्त्व १-Js. Pt., Intro. p. 23. २-भमत्रु• पृ. २२४ । ३-भमवु. १० २३६-२३० । -हिप्रिहफि० पृ. ३९६...... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] संक्षिप्त जैन इतिहास । और सिद्धांत थे, जैसे कि अन्य तीर्थंकरोंके धर्मों में थे और नैनोंकी इस मान्यताको अब कई विद्वान् सत्य स्वीकार कर चुके हैं. । किन्हीं विद्वानोंका यह मत है कि भगवान महावीरनी जैन श्री महावीर जैन धर्मके संस्थापक हैं और उन्होंने ही संस्थापक थे और न जैन जैनधर्मका नीवारोपण वैदिक धर्मके धर्म हिन्दू धर्मको विरोधमें किया था; किंतु उनका यह मत शाखा है। निर्मल है। आजसे करीब दो हजार वर्ष पहलेके लोग भी भगवान ऋषभनाथ नीकी विनय करते थे। और उन लोगोंने अन्य तेईस तीर्थंकरों की मूर्तियां निर्मित की थी। अब यदि जैनधर्मरे माध्यापक भगवान महावीरजी माने जावें, तो कोई कारण नहीं दिखता कि इतने प्राचीन जमाने में लोग भगवान ऋषभनाथको जैनधर्म का प्रमुख समझते और उनकी एवं उनके बाद हुये तीर्थंकरोंकी मूर्तियां बनाते और उपासना करते । तिसपर स्वयं वैदिक एवं बौद्धग्रन्थों में इस युग जैनधर्मके प्रथम प्रचारक श्री ऋषभदेव ही बताये गये हैं। अथच नोंके सूक्ष्म सिद्धान्त, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदिमें जीव बतलाना, अणु और परमाणुओं का अति प्राचीन पर मौलिक एवं पूर्ण वर्णन करना, भादर्श पुना आदि ऐसे नियम हैं जो जैनधर्मका अस्तित्व एक बहुत ही प्राचीनकाल तकमें सिद्ध कर १-भपा० प्र० ३८५-३८८ । -डॉ० ग्लैंसेनाथ (Dev Jainusmus). और डॉ. जालकोन्टियर यह स्वीकार करते हैं (केहिइ. पृ० १५४के उसू० भूमिका पृ० २१) ३-जैविओसो भा० ३ पृ. ४४७ व जैस्तू० पृ० २४...... ४-बेबिओजैस्मा० पृ. ८८-१००। ५-भागवत ४-५ .भार भूमिका ६-पतशाच वीर वर्ष ४ पृ. ३५२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [११५ नेको पर्याप्त हैं । अतः उसकी स्थापना आजसे केवल ढाईहजार वर्ष पहले भगवान महावीरजी द्वारा हुई मानना बिलकुल निराधार है। यही बात उसे वैदिक धर्मके विरोधरूप प्रगट हुआ बताने में है। किसी भी वैदिकग्रंथमें यह लिखा हुआ नहीं मिलता कि जैनधर्मका निकास वैदिक धर्मसे हुआ था । प्रत्युत दोनों धर्मोके सिद्धान्तोंकी परस्पर तुलना करनेसे जैनधर्मकी प्राचीनता वैदिक धर्मसे अधिक प्रमाणित होती है। हिन्दुओंके 'भागवत' में ऋषभदेवनीको माठवां अवतार माना है और बारहवें अवतार वामन का उल्लेख वेदों में है। अतः ऋषभदेवनी, नोकि नैनों के प्रथम तीर्थकर हैं, का समय वेदोंसे भी पहले ठहरता है । ऋषभदेवनीको वृषभ और आदिनाथ भी कहते हैं। ऋग्वेद आदि में वृषभ अथवा ऋषभ नामक महापुरुषका उल्लेख आया है। यह ऋषभ अवश्य ही जैन तीर्थकर होना चाहिये, क्योंकि हिन्दु पुगणकारोंके वर्णनसे यह स्पष्ट है कि हिन्दुओंको निन ऋषभदेवका परिचय था, वह जैन तीर्थकर थे। अतएव नैनधर्मको वैदिक धमकी शाखा कहना कुछ ठीक नहीं नंचता । कतिपय हिन्दू विद्वानोंका भी यही मत है। इस प्रकार भगवान महावीर का सम्बन्ध अन्य तीर्थकरी और भगवान महावीरका धर्मोसे देखकर हम अपने प्रकन विषयपर निर्वाण । आनाते हैं । पहिले लिखा नाचुका है कि भगवान महावीरका विहार ममम आयखंड में होगया था। भगवा १-विशेषके लिये · भगवान पार्श्वनाथ ' नामक हमारी पुस्तककी भूमिका देखिये । २-सजे० पृ० ७-८७. ३-भागवत ५। ४-५-६. १०; हिवि. मा० ३ पृ. ४४४. (-हिग्ली• पृ. ७५ व मपा• प्रस्तावना १.२०२१. ५-वीरप५पृ. २३५५० भपा• प्रत्तापमा पृ० २२० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] संक्षिप्त जैन इतिहास । नने अपनी ४२ वर्षकी अवस्थासे यह धर्म प्रचार कार्यप्रारम्भ करके ७२ वर्षकी अवस्था तक बड़ी सफलतासे किया था । जिप्त समय भगवान ७२ वर्षके हुये, उस समय उन्हें निर्वाण लाभ हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि भगवान विहार करते हुये पावापुर नगरमें पहुंचे और वहां के 'मनोहर' नामक वनमें सरोवरके मध्य महामणियोंकी शिलापर विराजमान हुये थे । ___ पाबानगर धन सम्पदामें भरपुर मल्लराजाओंकी राजधानी थी। उस समय यहांके राजा हस्तिपाल थे और वह भगवान महावीरके शुभागमनकी वाट जोह रहे थे । अपने नगरमें त्रैलोक्य पूज्य प्रभुको पाकर वह बड़े प्रसन्न हुये और उनने खूब उत्सव मनाया। कहते हैं कि भगवानका यहां ही अन्तिम उपदेश हुआ था। अन्ततः "विहार छोड़कर अर्थात् योग निरोधकर निर्जराको बढ़ाते हुये वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और फिर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिके अंतिम समयमें स्वाति नक्षत्रमें तीसरे शुक्लध्यानमें तत्पर हुये। तदनन्तर तीनों योगोंको निरोधकर समुच्छिन्न क्रिया नामके चौथे शुक्लध्यानका आश्रय उन्होंने लिया और चारों अघातिया कर्मोको नाश कर शरीर रहित केवल गुणरूप होकर सबके द्वारा वाञ्छनीय ऐसा मोक्षपद प्राप्त किया।" इस प्रकार मोक्षपद पाकर वे अनन्त सुखका उपभोग उसी क्षणसे करने लगे। इस समय भी इन्द्रों और देवोंने मानन्द उत्सव मनाया था। सारे संसारमें अलौकिक आनन्द छा गया था। अंधेरी रात थी, तो भी एक अपूर्व प्रकाश चहुं ओर फैल गया था। १-उपु० पृ० ०४४ व सुनि० १०-८८..२-उपु० पृ० ७४४-७४५, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [११७ भगवानको निर्वाण लाभ हुआ सुनकर आसपास के प्रसिद्ध राजा लोग भी पावापुर के उद्यानमें पहुंचे थे और वहांपर दीपोत्सव मनाया था। 'कश्मूत्र में लिखा है कि " उस पवित्र दिवस जब पूज्यनीय श्रमण महावीर सर्व सांसारिक दुःखोंसे मुक्त होगए तो काशी और कौशलके १८ रानाओंने, ९ मल्लरानाओंने और ९ लिच्छिवि राजाओं ने दीपोत्सव मनाया था। यह प्रोषधका दिन था और उन्होंने कहा-ज्ञानमय प्रकाश तो लुप्त होचुका है, आओ भौतिक प्रकाशसे जगतको दैदीप्यमान बनावें । "" भगवान महावीरनीका निर्वाण होगया। भारतमेसे ज्ञानका भगवान महावीरके साक्षात् प्रकाश विलुप्त होगया। तत्कालीन पवित्र स्मारक। जनताने इस दिव्य अवमरकी पवित्र स्मृतिको चिस्थाई बनाने में कुछ उठा न रक्खा । उसने भगवान के निर्वाणस्थानपर एक भव्य मंदिर और स्तुप भी बनाया था, जहां आन भी भगवानके चरण-चिन्ह विरानमान हैं। साथ ही भक्तवत्सल प्रनाने एक राष्ट्रीय त्यौहार दीपोत्सव' अथवा दिवालीकी सृष्टि इन महापुरुषके पावन स्मारकरूप की थी। इस त्यौहारको भान भी समस्त भारतीय पारस्परिक भेद-भावनाको मृलकर एक-मेक होनाते हैं और प्रेममई दिवाली मनाते हैं। इसके अतिरिक्त तत्कालीन जनताने भगवान के निर्वाणकालसे एक भब्द प्रारम्भ किया था; जैसे कि बार्लीग्रामसे प्राप्त और मनमेर अनायबघरमें रक्खे हुये वीर निर्वाण सं० ८५ के प्राचीन शिलालेखसे प्रगट है। जनताकी 1-Js. I,d. 266. २-मम० पृ० १९० । ३-हगि• १९-१३ व २१-१६ । ४-मम. प्र. २४-२४५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | अटल भक्ति इतने में ही समाप्त नहीं हुई थी । उसने भगवान के दिव्य संदेशको और उनके महान् व्यक्तित्व के महत्वको चहुंओर फैलाने के लिये इन बातोंको चित्रबद्ध ( Pictographic ) भाषा में प्रकट करनेवाले सिक्के ढाले थे। किन्हीं विद्वानोंको संशय है कि सिक्कोंका सम्बन्ध शायद ही धार्मिक बातोंसे हो; किन्तु यह बात नहीं है। आज भी हम किन्हीं राजाओंके प्रचलित सिक्कोंपर त्रिशूल व गायका चिन्ह देखते हैं; जो उनकी साम्प्रदायिकता प्रकट करनेके लिये पर्याप्त हैं। प्राचीनकालके राजाओंके भी ऐसे सिक्के मिले हैं; जिनमें लक्ष्मी, त्रिशूल आदि धार्मिक और साम्प्रदायिक भेदको प्रकट करनेवाले चिन्ह हैं। फिर उस समय शास्त्रार्थका चैलेञ्ज देनेके लिये अपनी मुद्रायें आदि रखनेका रिवाज था । इस दशा में उनपर साम्प्रदायिक चिन्ह होना अनिवार्य था । और यह भी रिवाज उस समय था कि व्यापारी आदि लोग अपने निजी सिक्के ढालते थे; + जिनपर उनके वंशगत मान्यताओंके चिह्न होना उचित ही हैं । सचमुच भारतमें अज्ञात कालसे साम्प्रदायिक महत्व दिया जाता रहा है । जैन तीर्थंकरोंके चिन्ह खास मूर्तियों से भी अधिक महत्व रखते हैं और उनमें से एकाध तो इतिहासातीतकालके पुरातत्त्व में मिलते हैं। ऐसी दशा में ऐसा कोई कारण नहीं, जिससे कहा जासके कि वीरप्रभुके उपदेशको प्रकट करनेवाले सिक्के नहीं ढले : १- भ्रम० पृ० २४५ - २४६ व वीर वर्ष ३ पृ० ४४२ व ४६७ ॥ - २ - आप्रारा० भा० २- सिक्का नं० २५ । * उद० ६ । + रेपसन, इंडियन क्कायन्स, पृ० ३ । ३ ऐ० भा० ९ पृ० १३८ । ४ - प्री० हिस्टोरीकल इंडिया पृ० १९२-१९३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [११९ ये। कितने ही उपलब्ध सिक्कों से, जो भगवानके समयसे लेकर मान्ध्र कालतकके हैं, भगवान महावीरजीके धर्मका सम्बन्ध प्रगट होता है। अतः इन सब बातों को देखते हुये, यह अन्दान सहन ही लगाया जाता है कि भगवान के निर्वाण उपरान्त उनका आदर जनतामें विशेष था। इस प्रकार ज्ञ तृवंश क्षत्रियों का परिचय है । भारतीय इतिउपरान्तके झोत अथवा हासमें इनका महत्व किम विशिष्टको लिये नाथ क्षत्री। हुये है, यह बताना वृथा है । किन्तु भगवान महावीरजीके उपरान्त इस वंशका और कुछ विशेष परि. चय हमें नहीं मिलता है । हां, अब भी पूर्वीय भारतकी ओर एक नायवंशका उल्लेख मिलता है। किंतु मालूम नहीं कि उनका संबंध किस वंशसे है। श्री करि-संघ और अन्य राजा। (ई० पू० ५७४-५२०) निप्त समय इस कल्पकालके आरम्भमें भोगमूमिका अन्त जैनधर्ममें “ संघ " होगया और लोगोंको जीवनके कर्तव्यपथ संस्थाकी प्राचीनता। पर मारूद होना पड़ा अर्थात् कर्मभूमिका प्रादुर्भाव हुमा, तो भगवान ऋषमदेवने तत्कालीन प्रनाको मध्यताकी पायमिक शिक्षा दी थी। उसी समय गृहत्याग करके दिगम्बर मेष घोर तपश्चरण करने के उपरान्त ऋषमदेवको केवलज्ञानकी विमृति प्राप्त ईथी। और नेपामस्त कार्यक्रम मेन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | धर्मका प्रचार किया था । उनकी शरणमें अनेक भव्य प्राणी माये थे । कोई मुनि हुआ था, कोई उदासीन श्रावक के व्रत लेकर भगवान के साथ रहने लगा था और कोई मात्र असंयत सम्यग्दृष्टी होगया था। भारतीय महिलायें अपनी धार्मिकता के लिये प्रसिद्ध हैं । वह भी एक बड़ी संख्या में भगवानकी शरण में आकर आत्मकल्याणके पथपर लगीं थीं। इसी समय भगवानके तीर्थ में प्रथम जैन संघका नीवारोपण हुआ था। भगवान ऋषभदेवकी प्राचीनता इतिहासातीत कालमें है; जिसका पता लगाना कठिन है । अतः जैनों में संघ व्यवस्था भी कुछ कम प्राचीन नहीं है । श्री वीर अथवा उसके उद्गमका सहज पता पालेना एक कठिन महावीर संघ में कार्य है । तो भी भगवान ऋषभदेवके द्वारा चार अङ्ग थे । उसका प्रथम संगठन हुआ था । उसके चार अंग थे; अर्थात् (१) मुनि, (२) आर्यिका (३) श्रावक और (४) श्राविका । इस प्रकारकी संघव्यवस्था प्रत्येक तीर्थंकरके समवशरणमें रही थी और भगवान महावीरजीका संघ भी ऐसा ही था । वह 'वीर - संघ' अथवा 'महावीर संघ' के नामसे प्रख्यात था। उसके भी चार अङ्ग थे । यद्यपि श्वेताम्बर आम्नायकी मान्यता ऐसी प्रगट होती है कि भगवानके संघमें केवल मुनि और आर्थिका साथ रहते थे । श्रावक-श्राविका तो वह धर्मवत्सल महानुभाव थे, जो घरमें रहकर धर्मान करते थे । ( गिहिणो गिडिमज्झ वसन्ता ) किन्तु यह १ - संजैइ० तृतीय परिच्छेद । २-उद० २1११९ व दिजै० वर्ष २१ पृ० ३८ किन्तु उनके कल्पसूत्र में वीर संघमें चारों अंग गिनाये गये हैं ( Js. pt. I. ) ऐसे ही श्री हेमचन्द्राचार्य भी प्रगट करते हैं । (निषसाद यथास्थान सङ्घस्त्रचतुर्विधः । परि० १० १) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-संघ और अन्य राना। [१११ मान्यना बौड ग्रंथोंसे बाधित है। उनसे यह स्पष्ट पता चलता है कि वीरसंघमें मुनि-आर्यिकाओं के साथ २ श्रावक-श्राविका भी थे। यह अवश्य ही गृहत्यागी उदासीन श्रावक थे; यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में इन्हें 'गिही ओदात वसना' 'मुण्ड सावक' और 'एकशाटक निगन्थ' कहा है । दिगम्बर जैन शास्त्रोंके अनुसार गृहत्यागी श्रावकको श्वेत वस्त्र धारण करने, सिर मुंडा रखने और उत्कृष्ट दशामें मात्र एक वस्त्र धारण करने का विधान मिलता है। दिग. जैन शास्त्र भी उत्कृष्ट श्रावक निग्रन्थका उल्लेख 'एकशाटक' नामसे करते हैं। अतएव वीर संघमें साधु-माध्वियोंके साथ२ श्रावक श्राविकाओंका संमिलित होना प्रमाणित है। बौद्ध ग्रन्थोंसे यह भी प्रगट है कि भगवान महावीरनीका वीर संघले गण संघ उप समय था और उपमें गणरूप मेद और गणधर । भी विद्यमान थे; क्योंकि बौद्ध लोग भगवान महावीरको संघ और गणका आचार्य (निगन्ठो नातपुत्तो संघी चेव गणी च गणाचार्यों च.... ) बतलाते हैं। जैन ग्रन्थोंसे भी भग १-दीनि० मा० ३ पृ० ११७-१८ यहां भगवान के निर्वाण उपगन्त निग्रंथ मुनियोंके परस्पर विवाद करनेका उल्लेख है; जिसे देखकर संघके श्रावक (निगन्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना ) दुखी हुये थे। २-भमबु० परिशिष्ट १० २०८-२10 'एक्शाटक' का व्यवहार उत्कृष्ट प्रावकके लिये हुआ है । बुवघोष इन्हें एक वनधारी, लंगोटी या खंडचेलधारी कहते है:-"एकशाटक ति एकेस पिलोतिक खन्डेन पुरतो पतिच्छादानका ।'-मनोरथपूरिणी ३ १० १५ । "पुस्ताल लम्बते दसादिव्यावदन पृ. ३७० (With hanging cloth). ३-सागारधर्मामृत ३८-४८ । ४-आदिपुगण ३८१५८ ३९७७ । ५-दीनि० माग १५. ४८-४९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | वानके संघ में गण भेदका पता चलता है। वीर संघमें कुल ग्यारह गणधर थे; जिनमें प्रमुख इन्द्रभूति गौतम थे । श्वेतांवर शास्त्रों के अनुसार यद्यपि गणधर ग्यारह थे; परन्तु गण कुरु नौ थे । यह नौ वृन्द अथवा गण इस प्रकार बनाये गये हैं: (१) प्रथम मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम, गौतम गोत्रके थे और उनके गण में ५०० भ्रमण थे । (२) दुसरे गणवर अग्निभूति भी गौतम गोत्रके थे । इनके गण में भी ५०० मुनि थे । (३) तीसरे गणधर वायुभूति, इन्द्रभूति और अग्निभूतिके भाई थे और गौतम गोत्रके थे। इनके आधीन गणमें भी ५०० मुनि थे । (४) आर्य व्यक्त चौथे गणधर भारद्वाज गोत्रके थे। इनके गणमें भी ५०० भ्रमण थे । (५) अग्नि वैश्यायन गोत्रके पांचवें गणधर सुधर्माचार्य ये, जिनके आधीन १०० श्रमण थे । (६) मण्डिकपुत्र अथवा मण्डितपुत्र वशिष्ट गोत्रके थे और २५० श्रमणोंको धर्म शिक्षा देते थे । (७) मौर्ध्य पुत्र काश्यप गोत्री भी २९० मुनियों के गणधर थे । (८) अकंपित गौतम गोत्री और हरितायन गोत्रके अचल बस दोनों ही साथर तीनसौ श्रमणों को धर्मज्ञान अर्पण करते थे । (९) मैत्रेय और प्रभात कौंडिन्य गोत्रके थे। दोनोंके संयुक्त गण में १०० मुनि थे' । १- लाभम० पृ० ५६ व कसु० Js. I. 265. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१२३ 'इसप्रकार महावीरजीके ग्यारह गणघर, नौ वृन्द और ४२०० वीरसंघके मनि- श्रमण मुख्य थे । इसके सिवाय और बहुतसे यों की संख्या । श्रमण और आर्निकाएं थीं, जिनकी संख्या क्रमसे चौदहहनार और छत्तीतहनार थी। श्रावकों की संख्या १५००० थीं और श्राविकाओं की संख्या ३१८००० थी।" दिगम्बर आम्नायके ग्रंथों में भगवानके इन्द्रभृति, अग्निभूति वायुभूति, शुचिदत्त, सुबर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचक, मेदार्य और प्रभास, ये ग्यारह गणधर बताये गए हैं। ये समस्त ही सात प्रकारकी ऋद्धियों से संपन्न और द्वादशाके वेत्ता थे । गौतम आदि पांच गणघरोंके मिलकर सब शिष्य दशहजार छैसो पचास और प्रत्येकके दोहजार एकसौ तीस २ थे। छठे और सातवें गणघरों के मिलकर सब शिष्य माठौ पचाप्त और प्रत्येकके चारसौ पच्चीस २ थे। शेष चार गणघरों से प्रत्येकके छैपो पच्चीत २ और सब मिलकर ढाईहनार थे । सब मिलकर चौदहहमार थे। गणों के अतिरिक्त आत्मोन्नतिके लिहानसे यह गणना इसप्रकार थी, अर्थात ९९०० साधारण मुनिः ३०. अंगपूर्वधारी मुनिः १३०. भवविज्ञानधारी मुनि, ९०० ऋद्धिविक्रिया युक्त श्रमण, ५०. चार ज्ञानके धारी; ७०० केवलज्ञानी; ९.. अनुत्तरवादी । इस तरह भी सब मिलकर १४०.. मुनि थे।' १-चमम० पृ. १८१ । २-हरि० पृ० २० (बर्ग ३ श्लो० ४०४६) ३-1रि० पृ. २०। । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । इन्द्रभूति गौतम वीर संघ में प्रमुख गणधर थे। श्री गौतम प्रमुख गणधर इन्द्रभूति अथवा गौतम स्वामीके नामसे भी इनकी गौतम और अग्निभूति प्रसिद्धि है । म० गौतम बुद्ध और गणधर व वायुभूति । इन्द्रभूतिके गोत्र नाम 'गौतम' की अपेक्षा कितने ही विद्वानोंने भ्रम में पड़कर दोनों व्यक्तियोंको एक माना है और बौद्ध धर्मको जैनधर्मसे निकला हुआ बताया है । किन्तु वास्तव में भगवान महावीरजीके समय में म० गौतम बुद्ध, इन्द्रभूति गौतम और न्याय सूत्रोंके कर्ता अक्षयपाद गौतम तीन स्वतंत्र व्यक्ति थे । उनका एक दूसरेसे कोई सम्बंध नहीं था । इन्द्रमृति गौतमका जन्म मगधदेश के 'गौर्वरग्राम' में हुआ था । इनका पिता गौतम गोत्री ब्राह्मण वसुभूति अथवा शांडिल्य था; जो एक सुप्रसिद्ध धनाढ्य प्रतिष्ठित विद्वान और अपने गांवका मुखिया था । और सुलक्षणा स्त्रीके उदरसे इन्द्रभूतिका जन्म हुआ था । इंद्रभूतिके लघु भ्राता अग्निभूति भी पृथ्वी के गर्भ से जन्मे थे; इन दोनों भाइयोंका जन्म सन् ई०के प्रारम्भसे क्रमशः ६२९ वर्ष और १९८ वर्ष पहले हुआ था । इनका तीसरा छोटा भाई वायुभूति था जिसका जन्म वसुभूतिकी दूसरी विदुषी स्त्री केशरीके उदरसे ३ वर्ष पश्चात अर्थात् सन् ई० से १९५ वर्ष पूर्व हुआ था । यह तीनों ही भाई सबसे पहले जैनधर्ममें दीक्षित होकर वीर संघ सर्व प्रथम मुनि हुए थे और तीनों ही गणधर पदको सुशोभित करते थे | गौर्वरग्राममें उस समय प्रायः ब्राह्मण लोग ही बसते थे और उनका ही वहांपर प्राबल्य था । किन्तु उनमें गौतमी ब्राह्मण ही बल, वैभव, ऐश्वर्य और विद्वत्ता आदिके कारण अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर संघ और अन्य राजा । | १२५ प्रतिष्ठित गिने जाते थे । इसीलिये इम ग्रामका नाम 'ब्राह्मण' 'ब्राह्मपुरी' अथवा 'गौतमपुरी' भी प्रसिद्ध होगया था । यह तीनों ही माई विद्याके अगाध पंडित थे । यह कोष, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, तर्क, ज्योतिष, सामुद्रिक, वैद्यक और वेदवेदांगादि पढ़कर विद्यानि - पुण होगए थे । इनकी विद्वत्ता और बुद्धिमताकी घाक ख़ूब जम गई थी और इनके गुणों की लोक-प्रसिद्धि ऐसी हुई कि दूर दूर तक के विद्यार्थी विद्याध्ययन करनेके लिये इनके पास आते थे । 'सन ई० से ५७५ वर्ष पूर्व मिती श्रावण कृष्ण २ को इन्द्रमृति गौतम अपनी लगभग ५० वर्षकी अवस्था में, देवेन्द्रके कौशल द्वारा भगवान महावीरसे शास्त्रार्थ करनेके विचारसे उनके निकट पहुंचे; जब कि वीर प्रभृको उक्त मितीसे ६६ दिन पूर्व मिती वैशाख शुक्ल १० को कैवल्यपद प्राप्त होचुका था; तो भगवानके तप, तेन और ज्ञानशक्ति से प्रभावित होकर तुरन्त गृहस्थ दशाको त्याग कर मुनि होगये । अग्निभूति और वायुभूति भी इनके साथ गये थे । वे भी मुनि होगये' । अपने गुरुओं को भगवानकी शरण में पहुंचा देखकर इन तीनों भाइयों के पांचसौसे अधिक शिष्य भी वीरसंघ में सम्मिलित होगये थे । I इन्द्रभूति गौतमने जिनदीक्षा के माथ ही उसी दिन पूर्वाह्न निर्मल परिणामों द्वारा सात ऋद्धियों और मन:पर्यय ज्ञानको पा लिया था तथा रात्रि में उन्होंने जिनपत्रिके मुख से निकले हुये, पदार्थोंका है विस्तार जिसमें ऐसे उपाङ्ग महित द्वादशाङ्ग श्रुतकी पद रचना कर ली थी। इनकी कुल आयु ९२ वर्षकी थी; १- नेश० पृ० ६०-६१ । २-३० पु० पृ० ६१६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । जिसमें लगभग ४५ वर्षतक वह मुनिदशामें रहे थे। वीर संघके प्रमुख गणाधीश रूपमें इनके द्वारा जैनधर्मका विशेष विकाश हुआ था। जिससमय भगवान महावीरको निर्वाण लाभ हुआ था, उस समय इन्हें केवलज्ञान लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई थी। इसी कारण दिवालीके रोज गणेश पूजाका रिवाज चला है । वीर प्रभूके उपरान्त यही संघके नायक रहे थे और वीरनिर्वाणसे बारहवर्ष बाद भग. वानके अनुगामी हुये थे । ई० पूर्व ५३३ में इनको विपुलाचल पर्वतपर (राजगृही)से मोक्ष सुख प्राप्त हुआ था। चीन यात्री हुइनत्सांगने भी इनका उल्लेख भगवानके गणधर रूपमें किया है। अग्निभूति और वायुभूति भी द्वादशांगके वेत्ता थे और इनकी भायु क्रमशः २४ और ७० वर्षकी थी। यह भी केवली थे और इन्हें भगवानके जीवन में ही मोक्षसुख मिला था । इसप्रकार भगवानके प्रारंभिक शिष्य अथवा अनुयायी जन्मके जैनी नहीं थे; प्रत्युत वे वदिकधर्मसे जैनधर्ममें दीक्षित हुये थे। चौथे गणधर व्यक्त थे । इनको भव्यक्त और शुचिदत्त भी नौर मर कहते थे । यह भारद्वाज गोत्री ब्रह्मण थे और व्यक्त । जैनधर्ममें दीक्षित हुये थे। कुण्डग्रामके पार्श्वमें स्थित कोल्लाग सन्निवेशमें एक धनमित्र नामक ब्राह्मग था। उसकी बाहणी नामक स्त्रीकी कोखसे इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु ८० वर्षकी थी और इन्होंने भगवान महावीरजीके जीवनकालमें ही निर्वाणपद पाया था। १-वृजैश० पृ. ७ । २-उपु० पृ. ७४४ । ३-भम० पृ० ११५ । ४-वृजैश. पृ० ६१। ५-वृजेश• पृ. ७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vaNAN श्री वीर संघ और अन्य राजा । [१२७ श्री सुधर्माचार्य पांचवे गणधर थे। इन्द्रभूति गौतमके पश्चात श्री सुधर्माचार्य और इन्होंने ही वीरसंघका नेतृत्व बारह वर्ष. जैनधर्म प्रचार । तक ग्रहण किया था। इनके द्वारा जैन धर्मका प्रभाव खुब ही दिगन्तव्यापी हुआ था । जिस समय इन्द्रमृति गौतमको निर्वाणलाभ हुआ था, उस समय इनको केवलज्ञानकी विमूति मिली थी और जम्बृकुमार (अन्तिम केवली) श्रुतकेवलज्ञान प्राप्त हुआ था। सुधर्म स्वामी भी ब्राह्मण वर्णके थे। इनका गोत्र अग्निवैश्यायन था। इनके गोत्रकी अपेक्षा ही बौड़ोंने महावीरनीका उल्लेख 'मग्निवश्यायन' रूपमें किया है । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि वीर संघमें यह एक बड़े प्रभावशाली और प्रसिद्ध नेता थे । यह 'लोहार्य' नामसे भी विख्यात थे ।* इनका जन्म स्थान कोल्लाग सन्निवेश था और इनके माता-पिताका नाम क्रमशः धम्मिल और भद्रिला था। इनकी आयु मौ वर्षकी थी । मुनि जीवनमें इन्होंने सारे भारतवर्ष विहार किया था। पुंडूवर्द्धनमें (बङ्गालमें) इनका विहार और धर्मप्रचार विशेष रूपमें हुआ था। उदेशके धर्मनगरमें उप ममय गना यम राज्य करता था। उरलेशका राजा यम उपकी धनवती नामक रानीके उदरसे मुनि हुआ था। कोणिका नामकी एक कन्या और गढम नामक एक पुत्र था । अन्य रानियोंमे इस रानाके ५०० पुत्र और ये। श्री सुधर्माचार्यका संघ इस जाकी गनवानी में पहुंचा। पहले तो इमने मुनिमंघकी अवज्ञा के'; किंतु हठात यह प्रतिबुद्ध हो १-पु. पृ. ४। २-भम• पृ. २३ । * हा • मा० . १ .१ .३ पृ...७। ४-बीर वर्ष ५ पृ.१०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । जैन मुनि होगया। ५०० पुत्र भी अपने पिताके साथ मुनि होगये। गर्दभने श्रावकके व्रत ग्रहण किये और वह उडूदेशका राजा हुआ। इसी प्रकार कितने ही अन्य देशोंके रानाओं और भव्य पुरुषोंको सन्मार्गपर लाकर सुधर्मास्वामीने भी मोक्ष प्राप्त किया था। इससमय श्रुतकेवली जम्बूकुमार केवलज्ञानी हुए थे। छठे गणधर मंडिकपुत्र भी ब्राह्मण वर्णी थे। इनको मंडितठे गणधर पुत्र मौण्ड अथवा मांडव्य भी कहते थे । इनका मण्डिकपुत्र। गोत्र वशिष्ट था और यह मौर्याख्य नामक देशमें जन्मे थे । इनके पिता ब्राह्मण धनदेव और माता विजया थी। इनकी आयु ८३ वर्षकी थी और इन्होंने भगवान महावीरके जीवनकालमें ही मोक्षलाभ किया था। मौर्यपुत्र सातवें गणधर काश्यप गोत्री थे। इनका जन्म स्थान HT भी मौर्याख्य देशमें था और इनके पिताका नाम मौर्यपुत्र । मौर्यक था। जैन शास्त्र इनको भी ब्राह्मण बतलाते हैं। किन्तु इनकी जन्मभूमि, इनके पिता और इनका नाम 'मौर्यवाची है; जो कुल प्रत्यय नाम प्रगट होता है। उधर मौर्यदेशकी अपेक्षा सम्राट् चन्द्रगुप्तका मौर्यक्षत्री होना प्रगट है । अतः संभव है यह मौर्य पुत्र भी क्षत्री हों। इनका काश्यपगोत्र भी, इसी बातका द्योतक है; क्योंकि उपरान्त के जैन लेखकोंने मौर्योको सूर्यवंशी लिखा है; जिसमें काश्यपगोत्र मिलता है। जो हो, मौर्यपुत्र गणधर एक प्रतिष्ठित पुरुष थे । उनकी मायु ९५ वर्षकी थी और उनका निर्वाण भगवानकी जीवनावस्थामें हुआ था। १-आक० मा० १ पृ. १८९ । २८-वृजैश० पृ. ७ । ३-वृजेश प्र०।४-क्षत्रीक्लैन्स० २०५। ५-राइ० भा० १ पृ. ६०।-जैश९ पृ. ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर संघ और अन्य राजा। [१२९ अकम्पित आठवें गणधर थे; जिन्हें अकम्पन भी कहते हैं। अमित पाठवें यह गौतमगोत्री ब्राह्मण थे। मिथिलापुरी निवासी गणधर थे। विप्रदेव इनके पिता थे और जयन्ती इनकी माता थी। इनकी आयु ७८ वर्षकी थी और यह भगवानके गमनके पहले ही निर्वाण कर गये थे। किन्हीं लोगों का अनुमान है कि राजा चेटकके पुत्र अकम्पन ही, यह गणधर थे। नवें गणधर अचलवृन थे। यह धवल और अचलभ्रात नामसे HT भी परिचित हैं । यह भी ब्राह्मण थे और हरिताअचलवृत्त। पनगोत्रके रत्न थे । इनका जन्म कौशलापुरीमें बसु नामक ब्राह्मणके घर उसकी नन्दा नामक स्त्रीके उदरसे हुआ था। इनकी मायु ७२ वर्षकी थी। जिस प्रकार इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मास्वामीके अतिरिक्त अवशेष गणधर वीरप्रभृके जीवनकालमें ही मुक्त होगये थे; वैसे ही यह भी वीरप्रभृके समक्ष मोक्ष पागए थे। यह अकम्पन गणघरके साथ२ छपौपच्चीप शिष्यों के नायक थे। दशवें मैत्रेय और अन्तिमप्रभास कौन्डिन्यगोत्रके ब्राह्मण थे। मैत्रेय और प्रभास मैत्रेयको मेतार्य अथवा मेदार्य भी कहते थे। ___ गणधर । यह वत्सदेशमै तुंगिकाव्य ग्रामके निवासी दत्त और उसकी भार्या करुणाके सुपुत्र थे। प्रभास राजगृहके निवासी ब्राह्मण बलके गृहमें उसकी स्त्री मद्राकी कोखसे जन्मे थे। यह दोनों ही गणधर एक संयुक्त गणके नायक थे और इनकी आयु १-वृमेश. पृ० ७ । २-जेप्र० पृ० २२७ । ३-वृजेश• पृ० ७॥ ४-पेश. पृ. ७॥ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | क्रमशः साठ और चालीस वर्षकी थी । इनकी भी भगवान महावीरके निर्वाणलाभ से पहिले ही मुक्ति होगई थी । भगवान महावीरजीके इन प्रमुख साधु शिष्योंके अतिरिक्त और भी अनेक विद्वान् और तेजस्वी मुनिपुंगव वारिषेण मुनि । थे; जिनके पवित्र चारित्र से जैन शास्त्र अलंकृत हैं । इनमें सम्राट् श्रेणिक के पुत्र वारिषेण विशेष प्रख्यात हैं । वारिषेणनी युवावस्था से ही उदासीनवृत्ति के थे । श्रावक दशामें वह नियमितरूपसे अष्टमी व चतुर्दशीके पर्वदिनोंको उपवास किया करते थे और रात्रि के समय न्य- प्रतिमायोग में स्मशान आदि एकान्त स्थानमें ध्यान किया करते थे । इसी तरह एक रोज आप ध्यानलीन थे कि एक चोर चुराया हुआ डार इनके पैरोंमें डालकर भाग गया । पीछा करते हुये कोतवालने इनको गिरफ्तार कर लिया । राजा श्रेणिकने भी पुत्रमोहकी परवा न करके उनको प्राणदण्डका हुक्म सुना दिया; किन्तु अपने पुण्यप्रतापसे वह बच गये और संसार से वैराग्यवान् होकर झट दिगम्बर मुनि होगये । वह खूब तपश्चरण करते थे और यत्रतत्र विहार करते हुये अपने उपदेश द्वारा लोगों को धर्ममें दृढ़ करते थे । इस स्थितिकरण धर्म पालन करनेकी अपेक्षा ही इनकी प्रसिद्धि विशेष है। एकदा यह पलाशकूट नगर में पहुंचे । वहां इनके उपदेश से श्रेणिक के मंत्री का पुत्र पुष्पडाल मुनि होगया । पुष्पडाल मुनि तो होगया; किन्तु उसके हृदय में अपनी पत्नीका प्रेम बना रहा। कहते हैं, एक रोज निमित्त पाकर वह उसको देखनेके लिये चल पड़ा था; किन्तु वारिषेण मुनिने उसे धर्ममें पुनः स्थिर कर दिया था । पुष्पडालने प्रायश्चितपूर्वक घोर तपश्चरण किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-संघ और अन्य राना। [१३१ mmmmmmmmmmmmmmmmm और वह मुक्त हो गया। मुनि वारिषेणका पवित्र जीवन धर्मसे शिथिल होते हुये मनुष्यों को पुनः उनके पूर्वपद और धर्मपर ले मानेके लिये आदर्शरूप है । श्रेणिक महारानका एक अन्य पुत्र मेघकुमार भी जैन मुनि होगया था ।* बौद्ध शास्त्रोंमें भी कतिपय जैन मुनियों का उल्लेख आया है; अन्य प्रसिद्ध किन्तु उनका पता मैनप्साहित्य में प्रायः नहीं मिलता जैन मुनि। है । ौडग्रंथ 'मज्झिमनिकाय' में एक चूलतकलो. दायो नामक जेन मुनिको पंच व्रतों का प्रतिपादन करते हुये लिखा है। उसी ग्रन्थमें अन्यत्र निग्रंथ श्रमण दीवतपस्सी (दीर्वतपस्वी) का उल्लेख है। इन्होंने म० गौतमबुद्धसे तीन दन्डों ( मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड ) पर वार्तालाप किया था। इससे इनका एक प्रभावशाली मुनि होना प्रकट है । सुणक्खत्त नामक एक लिच्छविराजपुत्र भी प्रसिद्ध जैन मुनि थे। पहले यह बौद्ध थे; किन्तु उनसे सम्बन्ध त्यागकर यह नैन मुनि होगये थे । संभवतः जैन मुनिके कठिन जीवनसे भयभीत होकर वह फिर म • बुद्ध के पास पहुंच गये थे; विन्तु म० बुद्धके निकट उनकी मनस्तुष्ट नहीं हुई थी; इसलिये उनने फिर पाटिकपुत्र नामक जैन मुनिके निकट जैन दीक्षा ले ली थी। श्रावस्तीके कुल पुत्र (Councillor's Son) अर्जुन भी एक समय जैन मुनि थे और अभयराजकुमारका जैन मुनि होना, जन *-भम० पृ० १२४-१२६ । १-मनि० भा० २ पृ. ३५-३६ । २-नि० भा० १ पृ. ३७१-३८ । ३-अंजी० पृ० ३५ । ४-ममबु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । शास्त्रोंसे भी प्रकट है । किन्तु इन दोनों मुनियोंके सम्बन्धमें कहा गया है कि वह बौद्ध होगये थे, सो ठीक नहीं है । यह जैन मान्यता के विरुद्ध है। सचमुच भगवान महावीरजीका प्रभाव म० बुद्ध और उनके शिष्योंपर वेढब पड़ा था। यहांतक कि वह जैन मुनियोंकी देखादेखी अपनी प्रतिष्ठा के रहने लगे थे; क्योंकि उस समय नम्रता ( दिगम्बर भेष ) की मान्यता विशेष थी । लिये नम्र भी वीरसंघका दूसरा अंग साध्वियों अथवा आर्यिकाओंका था । चन्दना आदि दिगम्बर जैन शास्त्रोंमें इनकी संख्या छत्तीसहजार आर्यिकायें । बताई गई है । यह विदुषी महिलायें केवल एक सफेद साड़ीको ग्रहण किये गर्मी और जाड़ेकी घोर परीषद सहन करती हुई अपना आत्मकल्याण करतीं थीं और लोगोंको सन्मार्गपर लगाती थीं । वह भी मुनियों के समान ही कठिन व्रत, संयम और आत्मसमाधिका अभ्यास करतीं थीं । सांसारिक प्रलोभन उनके लिये तुच्छ थे। उनके संसर्गसे वे अलग रहती थीं । इन आर्यिकाओंमें सर्वप्रमुख राजा चेटककी पुत्री राजकुमारी चंदना थी; जिसका परिचय पहिले लिखा जाचुका है । चन्दनाकी मामी यशस्वती आर्यिका भी विशेष प्रख्यात् थी। चंदनाकी बहिन ज्येष्ठाने इन्हींसे जिन दीक्षा ग्रहण की थी । इन आर्यिकाओंका त्यागमई जीवन पूर्ण पवित्रताका आदर्श था। वे बड़ी ज्ञानवान और शास्त्रोंकी १ - इंसेजै० पृ० ३६ । २ - इंऐ० भा० ९ पृ० १६२ । ३-भम० पृ० १२० व हरि० १० ५७९ में २४००० बताई हैं । उपु० पृ० ६१६ में ३६००० हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१३३ पंडिता थीं। बौद्धशास्त्रोंमें भी कई जैन साध्वीयोंका उल्लेख मिलता है। उनके वर्णनसे पता चलता है कि उस समय यह जैन साध्वीयां देशमें चारों ओर विहार करके धर्मप्रचार करती थी और लोगोंमें ज्ञानका प्रकाश फैलाती थीं। राजगृहके राजकोठारीकी पुत्री भद्र। कुन्दलकेसाका जीवन इस व्याख्यानका साक्षी है । वह अपने गृहस्थ जीवनसे निराश होकर मार्यिका होगई थी। उसने केशलोंच किया और एक सादड़ी ग्रहण करली थी फिर वह चहुंओर विहार करने लगी थी। बड़े लोग उसके उपदेशसे प्रभावित होते थे और वह बड़े२ धर्माचार्योसे वाद भी करती थी। श्रावस्तीमें उसने प्रसिद्ध बौद्धाचार्य सारीपुत्तसे वाद किया था । अतः उस समय भारतीय महिलासमानकी महत्वशाली दशाका सहन ही अनुमान लगाया जासक्ता है । भारतीय महिला ओंको यह गौरव भगवान महावीरके दिव्यसंदेशसे प्राप्त हुआ था; निसको सुनकर लोग स्त्रियोंको हेय दृष्टिसे देखना भूल गये थे । भगवानने व्यक्तिविशेष अथवा जातिविशेषको आदरका पात्र नहीं बताया था। उन्होंने गुणवानको ही पूजनीय ठहराया था। फिर चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष ! जैनधर्म में प्रत्येक मात्माको एक समान कहा गया है। महावीरजीका यह व्यक्ति स्वातंत्र्यवाला संदेश उस समय खुब ही जनकल्याणका कारण हुमा था। वीरसंघमें जितना दर्ना एक मुनिका माना जाता था, मार्यिकाका भी उपचासे उतना ही था। वह भी 'महाविती' कही गई है। वैसे मार्यिकायें पांचवें गुणस्थानवर्ती ही होती हैं। १-भमबु० पृ. २५९-२६१ । २-अष्टपाहु पृ. ७३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवान महावीरके संघका तीसरा अंग उदासीनव्रती श्रावव्रती श्रावक और कोंसे अलंकृत था । इनकी संख्या दिगम्बर श्राविका संघ । जैन शास्त्रोंमें एक लाख बताई गई है और यह श्वेत वस्त्र धारण करते थे। इन श्रावकोंमें मुख्य सांखस्तक थे। इनके विषयमें कुछ विशेष विवरण प्राप्त नहीं है । वैशाल के सेनापति सिंह भी उनमें प्रख्यात् हैं। वह संभवतः सम्राट् चेटकके पुत्र थे । उनको जैनधर्ममें दृढ़ श्रद्धान था। मुनियोंको आहारदान व उनकी विनय वह खूब किया करते थे। (भमबु० प्र० २३१) संघके अन्तिम अंगमें तीनलाख श्राविकायें थी। यह भी व्रती और उदासीन थीं। इनमें मुख्य मुल्सा और रेवती थीं। बौद्धशास्त्रोंमें नंदोत्तरा नामक एक जैन श्राविकाका उल्लेख है। जिससे यह स्पष्ट है कि जैन संघमें जो श्राविका थीं, वह अव्रती गृहस्थ श्राविकाओंके अतिरिक्त उदासीन गृहत्यागी ब्रह्मचारिणी थीं। जैन संघमें स्त्रियोंके लिये मार्यिका और उदासीन श्राविकाके दर्ने नियुक्त थे; जिनमें सर्वोच्च भायिका पद था, यह भी बौद्धशास्त्रोंसे सिद्ध है। उपरोक्त उदासीन श्राविका नन्दोत्तराका जन्म कौरवोंके राज्य में स्थित कम्मासदम्म ग्रामके एक ब्राह्मण कुलमें हुमा था। उसने जैनसंघमें रहकर शिक्षा ग्रहण की थी और मन्ततः वह उन्हींके. संघमें सम्मिलित होगई थी। वह अपनी वादशक्तिके लिये प्रख्यात् थी और सर्वत्र संघसहित विहार करके वाद करती थी। बौद्धाचार्य महामौद्गलायनसे भी उसने शास्त्रार्थ किया था। इसी प्रकार और १-मम० पृ० १२० । २-हरि० पृ० ५७९ । ३-भमबु० पृ. । २५९-२६१ । ४-ममबु० पृ. २५०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-संघ और अन्य राजा। [१३५] भी विदुषी श्राविकायें जैनधर्मका प्रभाव दिगन्तव्यापी बनाती और प्राणीमात्रके हितकार्यमें संलग्न रहती थीं। ___ इन व्रती श्रावक और श्राविकाओंके अतिरिक्त भगवान महाभगवान महावीरके वीरक और भी अनेक भक्त थे, जिनमें अन्य भक्तजन देव बड़े बड़े राजा और सेठ-साहूकार एवं देव और राजा आदि। देवेन्द्र सम्मिलित थे। सम्राट् श्रेणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे; किन्तु वे व्रती श्रावक नहीं थे। यही कारण है कि उनकी गणना श्रावकसंघके प्रमुखरूपमें नहीं की गई है। जैनधर्ममें श्रद्धा रखते हुये और उसकी प्रभावनाके कार्य करनेवाले अनेक राना थे। कुणिक अजातशत्रुके राज्यकालमें इसी कारण जैन धर्मका विशेष विकाश हुआ था । विदेहदेशस्थ विदेहनगरका राना गोपेन्द्र जैनधर्म प्रभावक था। ऐसे ही पल्लवदेशका राजा धनपति, निसकी राजधानी चन्द्राभा नगरी थी; दक्षिणकी क्षेमपुरीका राजा नरपतिदेव, मध्यदेशमें स्थित हेमाभानगरीका राजा दृढ़मित्र, वेणुपद्मनगरका राना वसुपाल और हंसडीपका राजा रत्नचूल जैनधर्मके उत्कर्षका सदा ही ध्यान रखते थे। कलिङ्गदेशके दन्तपुरके राजा धर्मघोष थे और अन्तमें वह दिगम्बर जैन मुनि होगये थे। मणिवतदेशमें दारानगरके राना मणिमाली भी जैन मुनि होकर धर्मका जयघोष करते हुये विचरे थे। श्वेतपुरके राजा अमलकल्प हिमालयके उत्तरमें स्थित एटच. १-प्रेच. पृ. १२७ । २-कैरिह पृ० १६३ । ३-उपु० पृ. ६९३ । ४-प्र. पृ. २१२-२२३ । ५-श्रेच. पृ. २३३-२३५ । ६-प्रेच. पृ. २४०-१५४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। म्पाके शालमहाशाल, हस्तिशीर्षके मदिनशत्रु; ऋषभपुरके धनबाह; चीरपुरके वीर कृष्णमित्र; विजयपुरके राजा वासवदत्त; कनकपुरके प्रियचंद्र; साकेतपुरके मित्रनंदि; और महापुरके बल राना भगवान महावीरके मित्र थे। पोदनपुरके प्रसन्नचंद्र भगवान महावीरके समोशरणमें दीक्षा ले राजर्षि हुये थे', मोरियगण राज्यके प्रख्यात् पुरुष जैनधर्मके पोषक थे । भगवानके दो गणधर इसी देशके थे । इनके अतिरिक्त अनेक विदेशी राजा भी भगवानके भक्त थे जिनका उल्लेख विद्याधररूपमें हुआ है। जिस समय भगवान महावीरजीका समोशरण सम्मेदशिखिरपर बिराजमान थ ; उस समय भूतिलकनगरका विद्याधर राना हिरण्यवर्मा भगवानकी शरणमें आया था। इसके पिता हरिबलने विपुलमति नामक चारण मुनिसे दिगम्बरीय दीक्षा ग्रहण की थी। इसी प्रकार अन्य कितने ही विदेशी लोगोंने जैनधर्ममे विश्वास रखकर आत्मकल्याण किया था । राजाओंके अतिरिक्त बहुतसे श्रावक धनसम्पदामें भरपुर अवती गृहस्थ श्रावक प्रख्यात सेठ थे। इनमें उज्जैनीके धन्यऔर श्राविकायें वीर कुमार सेठका उल्लेख पहिले किया जाचुका प्रभूके अनन्य है। उनके विशिष्टगुणोंको देखकर श्रेणिक भक्त थे। महाराजने उन्हें अपना जमाई बनाया था। इसी तरह राजगृहके सेठ शालिभद्र थे जिन्होंने विदेशोंसे व्यापार करके खूब धन संचय किया था और खूब धर्मप्रभावना की थी। उस समय विदेहदेश अपने व्यापारके लिये प्रसिद्ध था। वहांके १-एइने० पृ० ६५० । २-गुमापरि० पृ० ४० । ३-उपु० पृ. २७३ । ४-उपु. पृ. २७२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर संघ और अन्य राजा। [१३७ सुप्रतिष्ठनगरमें राजा जयसेनका राज्य था और कुवेरदत्त प्रख्यात् मैन सेठ था । इसकी पत्नी धनमित्रा सुशीला और विदुषी थी। सुपतिष्ठ नगरमें इसने खूब चैत्य-चैत्यालय बनवाये थे । सागरसेन मुनिराजके मुखसे यह जानकर कि उनके एक चरमशरीरी पुत्र होगा, वह बड़े प्रसन्न हुये थे । उनने पुत्र का नाम प्रीतंकर रक्खा था। प्रीतंकरको उनने सागरसेन मुनिरानके सुपुर्द शिक्षा पानेके लिये क्षुल्लकरूपमें कर दिया था। मुनिरान उसको धान्यपुरके निकट अवस्थित शिखिमृघर पर्वतपरके जैन मुनियोंके माश्रममें लेगये थे और वहां दश वर्षमें उसे समस्त शास्त्रोंका पंडित बना दिया था। प्रीतकर अपने घर वापस भाया और अवसर पाकर अपने भाई सहित समुद्रयात्रा द्वारा धन कमाने गया था। भूतिलक नगरकी विद्याधर राजकुमारीकी इसने रक्षा की थी और अन्तमें उसके साथ इसका विवाह हुआ था। बहुत दिनोंतक सुख भोगकर प्रीतंकरने अपने पुत्र प्रियंकरको धन संपदा सुपुर्द की थी और वह रामगृहमें भगवान महावीरनीके समीप जैन मुनि होगया था। उस समय भारतके बंदरगाहोंमें भृगुकच्छ (भडौंच) खूब प्रख्यात था । दूर दूर देशोसे यहां नहान माया और जाया करते थे। तब यहांपर वसुपाल नामक राना राज्य करता था और मिनदत्त नामक एक प्रसिद्ध जैन सेठ रहता था। यह प्रेमधर्म का परमभक्त था। इसकी स्त्री मिनदत्तासे इसके नीली नामक एक सुन्दर कन्या थी। वहकि एक बौद्ध सेंठने छकसे नीलीक साथ विवाह कर लिया था। इस कारण पिता और पुत्रीको पनि १-उ० पु० पृ० ७२०-०३५ । २-३हिंद० पृ. २२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । सिक दुःख हुआ था । सारांशतः उस समय भारत एवं विदेशोंमें भगवान महावीरके भक्त अनन्य राना और श्रेष्ठीपुत्र विद्यमान थे; जिनके द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना विशेष होती थी। जैन संघमें श्रावक और श्राविकाओं को भी फिर चाहे वे व्रती हों या अवती, जो मुख्य स्थान मिला हुआ था; उसीके कारण जैनधर्मको नींव भारतमें दृढ़ रही और घोरतम अत्याचारोंके सहते हुये भी वह सजीव है। =PEAFAT तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। (ई० पू० ६००-७००) कोई भी देश हो, यदि उसके किसी विशेष कालकी सभ्यता भारतकी तत्कालीन राज. और स्थितिका ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट नैतिक अवस्था। हो, तो प्राकृत उस देशकी उस समयकी राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितिको जान लेना आवश्यक होता है। जहां उस देशकी इन सब दशाओंका सजीव चित्र हमारे नेत्रोंके अगाड़ी खिंच गया; फिर ऐसी कौनसी बात बाकी रही कही जासक्ती है; जिससे तत्कालीन परिस्थितिका परिचय प्राप्त न हो ? भारतकी दशा भगवानके समय क्या थी ? उसकी सम्यता उस समय किस अवस्था पर थी ? इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर पानेके लिये श्रेष्ठ और निरापद मार्ग यही है कि -जैस्मा० पृ० २१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति । उस समय के भारतकी राजनैतिक सामाजिक और धार्मिक परिस्थितिका पर्ययलोचन कर लिया जावे। बस भारतकी तब जो दशा थी वह स्पष्ट हो जायगी और उसके साथ जैनधर्म और जैन समाजका जो स्वरूप उस समय था, वह भी प्रकट हो जायगा । अतः राजनैतिक विषय में तो उपरोक्त वर्णनसे पर्याप्त प्रकाश पड़ चुका है । उस समयका भारत राजनैतिक रूपमें आजसे कहीं अधिक स्वाधीन और बलवान था । उसकी राष्ट्रीय दशा विशेष उन्नतशील और समृद्धिशाली थी । उस समय यहां एक समूचा राज्य नहीं था । भारत छोटे२ राज्यों में विभक्त था; जिनकी संख्या सोलह थी । इनमें कोई तो परम्परीण सत्ताधिकारी राजाओंके अधिकार में थे और किन्हींका शासन प्रजातंत्र प्रणालीके ढंगपर होता था । प्रजातंत्र प्रणाली ऐसी उत्कृष्ट दशा में थी कि आजके उन्नत - शील प्रजातंत्र राज्योंके लिये वह एक अच्छा खासा आदर्श है । इस प्रकार उस समयकी राजनैतिक स्थिति थी । श्रेणिक महाराज महामंडलेश्वर अर्थात एक हजार राजाओंके स्वामी थे' 1 [ १३९ उस समयकी सामा जिस देशकी राजनैतिक स्थिति सुचारु और समृद्धिशाली हो, उसका समाज अवश्य ही उन्नतशील जिक दशा । व्यवस्था में होता है । ऐहिक सुख सम्पन्न दशा में व्यक्ति स्वातंत्र्य आत्महितकी बातोंकी ओर लोगोंका ध्यान स्वतः जाता है । उस समयका भारतीय समाज ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र वर्णोंमें विभक्त था । चाण्डाल आदि भी थे । भगवान १-० पृ० ३३९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | महावीरजीके जन्म होनेके पहिले ही ब्राह्मण वर्णकी प्रधानता थी । उसने शेष वर्णोंके सब ही अधिकार हथिया लिये थे । अपनेको पुजवाना और अपना अर्थसाधन करना उसका मुख्य ध्येय था । यही कारण था कि उस समय ब्राह्मणोंके अतिरिक्त किसीको भी धर्मकार्य और वेदपाठ करनेकी आज्ञा नहीं थी । ब्राह्मणेतर वर्णोंके लोग नीचे समझे जाते थे । शूद्र और स्त्रियों को मनुष्य ही नहीं समझा जाता था । किन्तु इस दशासे लोग ऊब चले- उन्हें मनु1 प्योंमें पारस्परिक ऊंच नीचका भेद अखर उठा । भगवान पार्श्वनाथका धर्मोपदेश हुआ और उससे जनता अच्छी तरह समझ गई कि मनुष्य मनुष्य में प्राकृत कोई भेद नहीं है । प्रत्येक मनुष्यको आत्म- स्वातंत्र्य प्राप्त है । कितने ही मत प्रर्वतक इन्हीं बातोंका प्रचार करनेके लिये अगाड़ी आगये है। जैनी लोग : इस आन्दोलन में अग्रसर थे । उधर इतनेमें ही साधुओं की बात जाने दीजिये, श्रावक तक लोगों में से जातिमूढ़ता अथवा जाति या कुलमदको दूर करनेके साधु प्रयत्न करते थे | रास्ता चळते एक श्रावकका समागम एक ब्राह्मणसे होगया । ब्राह्मण अपने जातिमदमें मत्त थे; किन्तु श्रावक के युक्तिपूर्ण वचनोंसे उनका यह नशा काफूर होगया । वह जान गये कि "मनुष्यके शरीरमें वर्ण आकृतिके भेद देखने में नहीं आते हैं, जिससे वर्णभेद हो; क्योंकि ब्राह्मण आदिका शूद्रादिके साथ भी गर्भाधान देखने में आता है। जैसे गौ, घोड़े आदिकी जातिका भेद पशुओंमें है, ऐसा -जातिमेद मनुष्यों में नहीं है; क्योंकि यदि माकरिभेद होता तो १-मम० पृ० ४७–५६ । २ - भमबु० पृ० १५-१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति । [ १४१ ऐसा भेद होना संभव था ।" अतः मनुष्यजाति एक है । उसमें जाति अथवा कुलका अभिमान करना वृथा है । एक उच्च वर्णी ब्राह्मण भी गोमांस खाने और वेश्यागमन करने मादिसे पतित हो सक्ता है और एक नीच गोत्रका मनुष्य अपने अच्छे आचरण द्वारा ब्राह्मणके गुणों को पासक्ता है । ४ भगवान महावीरजीके दिव्यसंदेश में मनुष्यमात्र के लिये व्यक्ति स्वातंत्र्यका मूल मंत्र गर्भित था । भगवानने प्रत्येक मनुष्यका आचरण ही उसके नीच अथवा उंचपनेका मूल कारण माना था। उनने स्पष्ट कहा कि संतानक्रमसे चले आये हुये जीवके आचरणकी गोत्र संज्ञा है । जिसका ऊंचा आचरण है उसका उच्च गोत्र है और जिसका नीच आचरण हो, उसका नीच गोत्र है । शूद्र हो या स्त्री हो अथवा चाहे जो हो गुणका पात्र है, वही पुजनीय है । देह या कुलकी वंदना नहीं होती और न जातियुक्तको ही मान्यता प्राप्त है । गुणहीनको कौन पूजे और पाने ? भ्रमण भी गुणोंसे होता है और श्रावक भी गुणोंसे होता है। महावीरजीके इस संदेश से १ - उपु० पर्व ७४ श्लो० ४९१-४९५ । २-आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक ४५ । ३-उपु० प ७४ इलो० ४९० । ४- अमितगति श्रावकाचार श्लो० ३० परि० १७ व भा० पृ० ४९ । - गोमहसार । ५- संताण कमेणागय जीवयरणस्स गोदमिदि सण्गा । उच्चं नींचं चरणं उच्चं नीचं हवे गोदं ॥ ६- " शिशुत्वं यं वा यदस्तु तत्तिष्ठतु तदा । गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ॥ ७- वि देहो मंदिर ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो । को वंदमि गुणहोणो ण हु स्रवणो णेय साबओ होइ ॥२७॥ - दर्शनपाहू । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९) संक्षिप्त जैन इतिहास । जनताकी मनमानी मुगद पूरी हुई और वह अपने जाति अथवा "कुलमदको भूल गई थी ! तब भारतमें विश्वप्रेमकी पुण्यधाराका अटूट प्रवाह हुआ । . तब जाति या कलकी जनता गुणोंकी उपासक बन गई। ब्राह्मण. मान्यता न होकर क्षत्रिय अथवा वैश्यत्वका उसे अभिमान गुणोंका आदर ही शेष न रहा ! सब ही गुणोंको पाकर होता था। श्रेष्ट बनने की कोशिश करते थे । धन्यकुमार सेठको देखिये; उनके गुणों का आदर करके सम्राट श्रेणिकने अपनी पुत्रीका विवाह उनसे कर दिया था और उन्हें राज्य देकर अपने समान राज्याधिकारी बना दिया था। यही बात इनसे पहले हुये सेठ भविष्यदत्तके विषयमें घटित हुई थी। वह वैश्यपुत्र होकर भी राज्याधिकारी हुये थे । हस्तिनागपुरके राजसिंहासनपर मारूढ़ होकर उन्होंने प्रजाका पालन समुचित रीतिसे किया था । सेठ प्रीतिंकरको क्षत्री राजा जयसेनने आधा राज्य देकर राजा बनाया था। सारांशतः स्वतंत्र अन्वेषणके आधारसे विद्वानोंको यही कहना पड़ा है कि “ उस समय ऊपरके तीन वर्ण (बाह्मण, क्षत्री, वैश्य) तो वास्तवमें मूलमें एक ही थे; क्योंकि राना, सरदार और विप्रादि तीसरे वैश्य वर्णके ही सदस्य थे जिन्होंने अपनेको उच्च सामाजिक पदपर स्थापित कर लिया था। वस्तुतः ऐसे परिवर्तन होना जरा कठिन थे, परन्तु ऐसे परिवर्तनोंका होना संभव था। गरीब मनुष्य राजा-सरदार (Nobles) बन सक्ते थे और फिर दोनों ही ब्राह्मण १-धन्यकुमार चरित्र देखो । २-मविष्यदत्तचरित् । ३-उपु० पर्व ७६ श्लो० ३४६-३४८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति । 1 [ १४३ दोसते थे । ऐसे परिवर्तनोंके अनेक उदाहरण ग्रन्थों में मिलते हैं । इसके अतिरिक्त ब्राह्मणोंके क्रियाकांडयुक्त एवं सर्व प्रकार की सामाजिक परिस्थितिके पुरुष स्त्रियोंके परस्पर सम्बन्ध के भी उदाहरण मिलते हैं और यह उदाहरण केवल उच्च वर्णके ही पुरुष और नीच कन्याओंके सम्बन्धके नहीं हैं, बल्कि नीच पुरुष और उच्च स्त्रियोंके भी हैं । "" सचमुच उस समय विवाहक्षेत्र अनि विशाल था। चारों विवाह क्षेत्रकी वर्णोंके स्त्री-पुरुष मानन्द परस्पर विवाह सम्बन्ध विशालता । करते थे। इतना ही क्यों, म्लेच्छ और वेश्याओं आदिसे भी विवाह होते थे । राजा श्रेणिकने ब्राह्मणी से विवाह किया था; जिसके उदरसे मोक्षगामी अभयकुमार नामक पुत्र जन्मा थारे । वैश्यपुत्र नीवंधरकुमारने, क्षत्रिय विद्याधर गरुड़वेगकी कन्या गन्धर्वदत्ताको स्वयंवर में वीणा बजाकर परास्त किया और विवाहा थैौ । स्वयंवरमंडपमें कुलीन अकुलीनका भेदभाव नहीं था | विदेह देशके धरणीतिलका नगरके राजा गोविन्दकी कन्याके स्वयंवर में ऊपर के तीन वर्गोंवाले पुरुष आये थे ।" जीवंधरकुमारके यह मामा थे । जीवन्बरने चंद्रक यंत्रको वेवकर अपने मामाकी कन्याके साथ पाणिग्रहण किया था । पलत्रदेशके राजाकी कन्याका सर्पविष दूर १- बुइ० पृ० ५५-५९२ पु० पर्व ७५ श्लो० २९ । ३ - उपु• पर्व ७५ श्लो० ३२०-३२५ । ४- कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवरगतां परं । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंत्ररे ॥ हरि० जिनदासकृत | ५- क्षत्रचूडामणिकाव्य लंब १० लो० २३-२४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] संशिम. जैन इतिहास.। करके उसे भी जीवंधरने व्याहा था। वणिकपुत्र प्रीतकारका विवाह राजा जयसेनकी पुत्रीके साथ हुआ था। विवाह सम्बन्ध करनेमें जिस प्रकार वर्णभेदका ध्यान नहीं रक्खा जाता था, वैसे ही धर्मविरोध भी उसमें बाधक नहीं था । वसुमित्र श्रेष्ठी जैन थे; किन्तु उनकी पत्नी धनश्री अनैन थी। साकेतका मिगारसेठी जैन था; किन्तु उसके पुत्र पुण्यवर्द्धनका विवाह बौद्ध धर्मानुयायी सेठ धनं. जयकी पुत्री विशाखासे हुआ था । सम्राट् श्रेणिकके पिता उपश्रेणिकने अपना विवाह एक भीलकन्यासे किया था। भगवान महावीरके निर्वाणोपरान्त नन्दराजा महानंदिन जैन थे । इनकी रानियोंमें एक शूद्रा भी थी, जिससे महापद्मका जन्म हुआ था। चम्पाके श्रेष्टी पालित थे। इनने एक विदेशी कन्यासे विवाह किया था। प्रीतंकर सेठ जब विदेशमें धनोपार्जनके लिये गये थे, तो वहांसे एक राजकन्याको ले आये थे; जिसके साथ उनका विवाह हुआ था। इस कालके पहलेसे ही प्रतिष्ठित जैन पुरुष जैसे चारुदत्त अथवा नागकुमारके विवाह वेश्या-पुत्रियोंसे हुये थे । सारांशतः उस समय विवाह सम्बन्ध करने के लिये कोई बन्धन नहीं था । सुशील और गुणवान् कन्याके साथ उसके उपयुक्त वर विवाह कर सक्ता था। स्वयंवरकी प्रथाके अनुसार विवाहको उत्तम समझा जाता था । १-क्षाचू० लंब ५ श्लो० ४२-४९।२-उपु० पर्व ७६ श्लो० ३४६३४८ । ३-आक० भा० ३ पृ० ११३ । ४-भमबु० पृ. २५२ । .५-आक• भा० ३ ० ३३ । ६-चीर वर्ष ५ पृ० ३८८ । ७-उसू० २१ । -उपु० पृ० ०३३) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१४५ महिलाओं का आदर और प्रतिष्ठा भी उस समय काफी था। महिलाओं की महिमा पुरुष स्त्रियोंको अपनो मङ्गिनो समझते __ और प्रतिष्ठा । थे और उनके साथ बड़े सौजन्य और प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे । परदेका रिवाज तब नहीं था। स्त्रियां बाहर निकलतीं और शास्त्रार्थ तक करती थीं । राजा सिद्धार्थ जिस समय राजदरबारमें थे, उस समय रानी त्रिशला वहां पहुंची थीं। रामाने बड़े मानसे उनको अपने पाप राजसिंहासन पर बैठाया था। और अन्य राजकार्यको स्थगित करके उनके भागमनका कारण जानना चाहा था। पुरुष स्त्रियोंसे उचित परामर्श और मंत्रणा भी करते थे। जम्बृकुमार जिस समय जैन दीक्षा धारण करनेको उद्यत हुये थे, उस समय उनकी नवविवाहिता स्त्रियोंने खूब ही युक्तिपूर्ण शब्दों द्वारा उन्हें घरमें रहकर विषयभोग भोगने के लिये उत्साहित किया था। जम्बूकुमारने भी उनके परामर्शको बड़े गौरसे सुना था और उनको सर्वथा संतुष्ट करके वह योगी हुये थे। उनके साथ उनकी पत्नियां भी साध्वी होगई थीं। सचमुच उस समय स्त्रियों को भी धर्मागधन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। गृहस्थ दशामें वे भगवानका पूजन अर्चन और दान अथवा सामयिक आदि धर्म कार्य करती थीं। साधु संगतिका लाभ उठाती थीं। मथुगके महदास सेठने अपनी स्त्रियों सहित रात्रि जागरण करके भगवानका पूजन-मनन किया था। स्त्रियों की और उनकी मो ज्ञानचर्चा उस समय हुई थी, उसको सुनकर मथुराके राना एवं चमन चोर भी प्रतिबुर होगये थे। सचमुच उस समयकी खियां १-३० पु. पृ. ६०५-६०६ । २-१० पु. पृ. ..२-७०४ । १-तो. १. ५-10। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । बड़ी ही ज्ञानवती और विदुषी होती थीं। वह शृङ्गार करना और सुन्दर वस्त्र पहेनना जानती थी; किन्तु शृङ्गार करनेमें हो तन्मय नहीं रहती थीं। वह बाह्य सुन्दरताके साथ अपने हृदयको भी अच्छे २ गुणोंपे सुन्दर बनाती थीं। वह कन्यायें योग्य अध्यापिकाओं अथवा, साध्वीयोंके समीप रहकर समुचित ज्ञान प्राप्त करती थीं और प्रत्येक विषयमें निष्णात बननेकी चेष्टा करती थीं । उस समयकी एक वेश्या भो बहत्तरकला, चौसठ गुग और अठारह देशो भाषाओं में पाराङ्गत होती थी। ( विधाक सुत्र १-३)* संगीत विद्याका बहुत प्रचार था। जीवंधरकुमारने नववेदत्ता आदि कुमारिकाओंको वीणा बजानेमें परास्त करके विवाह किया था। सुरमं नरी और गुणमाला नामक वैश्य पुत्रियां पैद्य विद्याकी जानकार थो। जीवंधरकी माता मयूग्यंत्र नामक वायुयानमें उड़ना सीखती थीं । ब्राह्मग कन्या नंदश्रीने राना श्रेणिककी चतुराईकी खासी परीक्षा ली थी । उस समय पढ़ लिखकर अच्छी तरह होशियार हो जानेपर कन्याओं के विवाह युवावस्थामें होते थे । जबतक कन्यायें युवा नहीं हो लेती थीं, तबतक उनका वाग्दान होनानेपर भी विवाह नहीं होता था। कनकलताको उसके निर्दिष्ट पतिसे इसी कारण अलग रहने की आज्ञा हुई थी । बहुधा कन्यायें वरकी परीक्षा करके, उसे योग्य पानेपर अपना विवाह उपके माथ कर लेती थीं। युवावस्था में विवाह होनेसे उनकी संतान भी बलवान और दयनीवी होती थी। यही ___x ईऐ. मा. २० पृ. २६ । १-क्षत्रचूडामणि काव्य व भम. पृ. १२७-१३४ । २-३• पु० पृ. ६१७। ३-उ० पु० पृ. ६४२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१४७ कारण है कि तब विधवाओं का विलाप प्रायः नहीं के बराबर सुननेको मिलता था । विधवा हुई स्त्रियां, फिर अधिक समय तक गृहस्थी में नहीं रहती थी । वे साध्वी होनातीं थीं अथवा उदासीन श्राविकाके रूप में अपना जीवन बिताती थीं। उनका चित्त मामारिक भोगोपभोगकी ओर आकृष्ट नहीं होता था। हां, यदि भाग्यवशातु कोई कुमारी कन्या अथवा विधवा सन्मार्गसे विचलित हो • जाती थी तो उसके साथ वृणाका व्यवहार नहीं किया जाता था। उन्हें मब ही धर्मकार्य करनेकी म्वाधीनता रहती थी। चंपानगरकी कनकलताका अनुचित मम्बंध एक युवासे हो गया था । इसपर यद्यपि वे ल जन हुये थे; परन्तु उनके धर्मका. यों में बाधा नहीं आई थी। वे पति-पत्नीवत् रहते हुये, मुनिदान और देवपूनन करते थे । इमी तरह ज्येष्ठा आर्यिकाके भृष्ट होने पर. उसे प्रायश्चित और पुनः दीक्षा देकर शुद्ध कर लिया गया था। महिलायें विपत्ति में पड़ने पर बड़े माहससे अपने शोकधर्मकी रक्षा करती थीं और ममान भी इसी तरह पीड़ित हुई कन्याका अनादर नहीं करती थी। चंदनाका उदाहरण स्पष्ट है। मागंशतः भगवान महावीरनीके समयमें महिलाओं का जीवन विशेष आदरपूर्ण और स्वाधीन था। निम देश अथवा समानकी स्त्रियां विदुषी और ज्ञानवान इस समयके वोर और होती हैं, वहांका पुरुष व स्वभावतः पराकमी पुरुष। विद्यापट और विचक्षण बुद्धिवाला होता है। १-३० पु. पृ. ६४३ । २-भाक० मा• २ पृ. ५६ । ३-3. पु• पृ. ६१७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवान महावीरके समयमै भारतके पुरुष ऐसे ही कला कुशल और विद्वान थे । वह लोग बालकको, जहां वह पांच वर्षका हुमा, विद्याध्ययन करने में जुटा देते थे; किन्तु उस समयकी पठन पाठन प्रणाली जसे बिल्कुल निराली थी। तब किसी एक निर्णीत ढांचे के पढ़े-लिखे लोग विद्यालयोंसे नहीं निकाले जातेथे और न मानकलकी तरह 'स्कूल' अथवा 'कालेज' ही थे । उस समयके विद्वान् ऋषि ही बालकों की शिक्षा दीक्षाका भार अपने ऊपर लेते थे। सर्व शास्त्रों और कलाओंमें निपुण इन ऋषियोंके आश्रममें जाकर विद्यार्थी युवावस्थातक शास्त्र और शस्त्रविद्यामें निष्णात हो वापिस अपने घर आते थे। तक्षशिला और नालंदाके विद्या आश्रम प्रसिद्ध थे। जैन मुनियोंके आश्रम भी देशभरमें फैले हुए थे। विदेहमें धान्य पुरके समीप शिखर भूधर पर्वतपरके जैन आश्रममें प्रीतंकर कुमार विद्याध्ययन करने गये थे। मगध देशमें ऋषि गिरिपर भी जैन मुनियों की तपोभूमि थी। __ ऐसे ही अनेक स्थानोंपर माश्रमोंमें उपाध्याय गुरु बालकबालिकाओंको समुचित शिक्षा दिया करते थे । विद्यार्थी पूर्ण ब्रह्मचर्यसे रहते थे; जिसके कारण उनका शरीर गठन भी खूब अच्छी वाह होता था। विद्याध्ययन कर चुकनेपर युवावस्थामें योग्य कन्याके साथ विवाह होता था। किन्तु विवाहके पहिले ही युवक अर्थोपाजनके कार्य में लगा दिये जाते थे । इसके साथ यह भी था कि कई युवक आत्मकल्याण और परोपकारके भावसे गृहस्थाश्रममें आते ही १-जेप्र० पृ. २३१ ।२-उपु० पृ. ७२०-७३५ । ३-मनि. भा. १ पृ. ९२-९३।४-अप्र० पृ० २२६-२२७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१४९ न थे । वे साधु होकर कल्याणके कार्यमें लग जाते थे । सब लोग अपने २ वर्णके उपर्युक्त साधनों द्वारा ही आनीविकोपार्जन करते थे। किन्तु ऐमा करते हुये वे सचाई और ईमानदारीको नहीं छोड़ते थे । लाखों करोड़ों रुपयों का व्यापार दुर२के देशोंसे बिना लिखा पढ़ीके होता था। विदेह व्यापारका केन्द्र था। बनारस, गनगृह, तामृलिप्ति, विदिशा, उज्नैनी, तक्षशिला आदि नगर व्यापागके लिये प्रसिद्ध थे। रोहकनगर, सुरपारक ( सोपारा बम्बईके पाम) भृगुकच्छ (भड़ोंच) मादि नगर उस समयके प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। इन बन्दरगाह तक व्यापारी लोग अपना माल और सामान गाड़ियों में और घोड़ोंपर लाते थे और फिर नहाजों में भरकर उसे विदेशोंमें लेनाते थे । सेठ शालिभद्र और प्रीतिंकर आदिकी कथाभोंमें इसका अच्छा वर्णन मिलता है। उस समयके भारतीय व्यापारी लंका, चीन, जावा, बेबीलोनिया, मिश्र आदि देशोंमें व्यापारके लिये जाया करते थे और खूब धन कमाकर लौटते थे। उनके निनी जहान थे और वे मणि एवं मंत्रका भी प्रयोग करना जानते थे। संतानको अच्छे संस्कारोंसे संस्कृत करने का रिवाज भी चालू था। गरीब और ममीर सांपारिक कार्यो को करते हुये भगवद्भनन और जाप सामायिक करना नहीं मूलते थे। राना नेट युद्धस्थलमें मिनेन्द्र प्रतिमाके समक्ष पूना करते थे। किंतु प्रतों को पालते हुये भी लोग इष्टका १-मया• पृ. 16-४६ । २-हि. पृ. २१२ व जगएमे० १९२७ पृ.११।१.परि० भा० पृ. -४६ ४.इक्किा० मा. १ पृ. ६९३-६९६ प भा० २ पृ. ३०-४२. ५-प्र. पृ० २३० । प्र. पृ. २२८ । ७-जेप• पृ. २२८। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] संक्षिप्त जैन इतिहास । निग्रह करनेसे नहीं चूकते थे । राजाओंका तो यह कर्तव्य ही था; किंतु वणिक लोग भी शस्त्रविद्यामें निपुण होते थे और वक्त पड़नेपर उससे काम लेना जानते थे। प्रीतिकरने भीमदेव नामक विद्याधरको परास्त करके राजकन्याकी रक्षा की थी। सचमुच उस समयके पुरुष पुरुषार्थी थे और उनके शिल्प कार्य भी अनूठे होते थे। सात२ मंनिलके मकान बनते थे और उनकी कारीगरी देखते ही बनती थी। सोनेके स्थ और अम्बारियां दर्शनीय थे। उनके घोड़े और हाथियोंकी सेना जिस समय सजधजके निकलती थी, तो देवेन्द्रका दल फीका पड़ा नजर पड़ता था। उस समयके चत्य और मूर्तियां अद्भुत होती थीं । उनके एकाध नमुने आज भी देखनेको मिलते हैं । लोग बड़े पुरुषार्थी, दानी और धर्मात्मा थे । सारांशतः उस समयकी सामाजिक स्थिति आजसे कहीं ज्यादा अच्छी और उदार थी। उस उदार सामाजिक स्थितिमें रहते हुये, भारतीय अपनी धार्मिक प्रवृत्तिमें भी उत्कृष्टताको पाचुके थे। धार्मिक स्थिति ।। जिस समय भगवान महावीरजीका जन्म भी नहीं था, उसके पहिलेसे ही यहां वैदिक क्रियाकाण्डकी बाहुल्यता थी। धर्मके नामपर निर्मुक और निरपराध जीवोंकी हत्या करके यज्ञ-वेदियां रक्तरंजित की जाती थीं। कल्पित स्वर्गसुखके लालचमें इतर समान ब्राह्मणोंके हाथकी कठपुतली बन रहा था। उन्हें न बोलनेकी स्वाधीनता थी और न ज्ञान लाभ करनेकी खुली माजी ! १-जैप्र० पृ. २२९ । २-मम• पृ० ५८ । 3-उपु० पृ. ७५०। ४-मम० पृ. ५२-५६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति । [ १५१ किंतु यह 'पोम्डम' अधिक दिनोंतक नहीं चल सका, यह हम देख चुके हैं और जानते हैं। भगवान पार्श्वनाथजी के सदुपदेश से मानवों को ज्ञान नेत्र मिल गये थे। अनेकों मत प्रवर्तक हर किसी जातिमेंसे अगाड़ी आकर विना किसी भेद भावके प्रचलित धार्मिक क्रियाकाण्डके विशेष में अपना झंडा फहराते विचर रहे थे । शासक समुदाय इन लोगोंको आश्रय देने में संकोच नहीं करता थी । फिर इसी समय भगवान महावीर और म० बुद्धका जन्म हुआ । लोगोंके भाग्य खुल गये । आत्म- स्वातंत्र्यका युग प्रवर्त गया । दोनों महापुरुषोंने वैदिक कर्मकाण्डकी असारता और उसका घोर हिंसक और भयावह रूप प्रकट कर दिया । · जैन ग्रन्थों में कई स्थलों पर ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनमें जैनोंने लोगोंके हृदयों पर यज्ञमें होनेवाली हिंसाका क्रूर परिणाम अंकित करके उन्हें अहिंसामार्गी बना दिया था | साथ ही उस समय वृक्षों की पूजा और गंगा नदियों में स्नान अथवा जाति और कुलको धर्मका कारण मानना पुण्यकर्म समझे जाते थे। जैन शिक्षकोंने बड़ी सरळ रीति से इनका भी निराकरण कर दिया थी; जिसका प्रभाव जनता पर काफी पड़ा था। वह बड़ी ही सुगमता से अपनी मूल समझ सकी थी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि महिंसा की दुन्दुभि चहुओर बनने लगी और महावीर स्वामीके जयघोषके निनादसे आकाश गूंज गया । १- मम० पृ० १४-१७ । २ - प्रच० पृ० ३३५-३३६ व उस्• -२५ ( Pt. II. pp. 139 - 140 ) ३ - श्रेच० पृ० ३३२-३३० व उपु० पृ० ६२४-६२६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनधर्म जैसा आज मिल रहा है, उपका ठीक वैसा ही रूप तब और अबका उस समय था, यह मान लेना जरा कठिन है; ___जैनधर्म ! क्योंकि जब इसी जमानेके किसी मतप्रर्वतकके सिद्धान्त ठीक वैसे नहीं रहते, जैसे वह बताता है; तब यह कैसे संभव है कि ढाई हजार वर्ष पहिले प्रतिपादित हुमा धर्म मान ज्यों का त्यों मिल सके ! किन्तु इतनी बात निःसन्देह सत्य है कि जैनधर्मके दार्शनिक और सैद्धांतिक रूपमें बिल्कुल ही नहीं, कुछ अन्तर पड़ा है। इसका कारण यह है कि जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है । विज्ञान सत्य है । वह नैमा है वैसा हमेशा रहता है। इसी लिये जैनधर्म का दार्शनिक रूप आज भी ठोक वैसा ही मिलता है, जैसा उसे भगवान महावीरने बतलाया था। इसका समर्थन बौद्ध ग्रन्थोंसे होता है; जहां जैनोंके प्राचीन दार्शनिक सिद्धांत ठीक वैसे प्रतिपादित हुये हैं, जैसे मान मिलते हैं। और इसप्रकार यह कहा जातक्ता है कि भगवान महावीरके मूल धर्मसिद्धांत माज भी अविकृतरूपमें मिल रहे हैं-सिर्फ अन्तर यदि है तो उनके द्वारा बताये हुए कर्मकांड अथवा चारित्र सम्बंधी नियमोंमें है । अतः उस समयके धार्मिक क्रियाकांडपर एक नजर डाल लेना उचित है। पहेले ही मुनिधर्मको ले लीजिये। इस समय यह मतभेद समयका है कि जैन मुनिका भेष मूलमें नग्न था अथवा मुनिधर्म। वस्त्रमय भी था; किंतु बौद्धशास्त्रों के आधारसे यह प्रगट किया जाचुका है कि जैन मुनि नग्न भेषमें रहते थे और उनकी क्रियायें प्रायः वैसी ही थी जैसी कि माम दिगम्बर जैन १-ममबु पृ० ११७-२७० । उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१५३ मुनियों की मिलती हैं। वह दातारके घर जाकर जो शुद्ध माहार विधिपूर्वक मिलता था, उसको ग्रहण कर लेते थे। यह बात नहीं थी कि वह भिक्षा मांगकर उपाश्रयमें ले आकर उसे भक्षण करते हों। भाजीविक साधु ऐसा करते थे। इसी कारण श्वेतांबरोंने उनपर माक्षेप किया है। एक बात और है कि उस समय मुनिधर्म पालन करने का द्वार प्रत्येक व्यक्तिके लिये खुला हुआ था। चोर, डाकू, व्यभिचारी, पतित इत्यादि पुरुष भी मुनि होकर मात्मकल्याण कर सके थे। अंजनचोरकी कथा प्रसिद्ध है-वह मुनि हुआ था। मूरदत्त डाकू मुनि होकर मुक्तधामका वासी हुआ था। सात्यकि व्यभिचार कर चुकने पर पुनः दीक्षित हो मुनि होगये थे। व्यभिचारजात रुद्र मुनि ग्यारह अंगका पाठी विद्वान् साधु थे। । ऐसे ही उदाहरण और भी गिनाये जातक्ते हैं, किंतु यही पर्याप्त हैं। इम उदारताके माथ२ उस समय जैन मुनियों में यह विशेषता और थी कि वह अष्टमी और चतुर्दशी इत्यादि पर्वके दिनों में बानारके चौराहों पर खड़े होकर मैनधर्मका प्रचार करते थे और मुमुक्षुओंकी शाओंका समाधान करके उनको जैनधर्म में दीक्षित करते थे। इस क्रिया द्वारा उनके अनेकों शिष्य होते थे । इन नव दीक्षित जैनोंके यहां बह माहार लेने में भी संकोच नहीं करते थे। भक्तामरचरित काव्य २१ की कथासे यह स्पष्ट है। उस समयके मुनि कड़े १-भमबु• पृ. ५४-६५ ॥२-औपपातिक सूत्र १२० । ३-भाक. मा० १ पृ. ७४ । ४.भा. मा० १ १० १५५ । ५-भाक. भा. २ पृ. १.0-1.0।-मधु १० २४.प.विवष्टिक। ७-जप, • पृ. २४. । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । विद्वान् और सर्वथा अरण्यमें रहकर ज्ञान ध्यानमें लीन रहते थे । इस प्रकार उस समयका मुनिधर्म था । मुनियोंकी तरह आर्यिकाओंकी भी उस समय बाहुल्यता थी; उस समयको आर्थि. यह आर्यिकायें भी जैनधर्म प्रचार में बड़ी काओंका धर्म । सहायक थीं । गरीब और अमीर - सराय और महल सबमें इनकी पहुंच थी । बनारसके राजा जितारिकी राजकन्या मुण्डिकाको वृषभश्री आर्यिकाने श्राविका बनाया थी । राजगृहके कोठारी की पुत्री भद्राकुन्दलकेशाने अपना विवाह विप्र पुत्र सत्थुक के साथ किया था; जिसे डकैती के लिये राजदंड मिल चुका था । सत्थूक भद्रासे इतना प्रेम नहीं करता था जितना कि वह उसके गहनों को चाहता था, भद्रा उसके इस व्यवहारसे बड़ी दुखी हुई । एक रोज उसने उसे घोकेसे एक गढ़ेमें ढकेल दिया और वह भयभीत होकर जैन संघमें आकर आर्यिका होगई । एक हत्यारी और विषयलम्पट स्त्री भी संबोधिको पाकर जैन साध्वी हो गई। उसके मार्ग में कोई बाघा नहीं आई। इससे भगवान महावीर के आर्यासंघका विशालरूप स्पष्ट है । जिस समय यह भद्रा जैनसंघमें पहुंची तो उस समय इससे पूछा गया था कि वह किस कक्षाकी दीक्षा ग्रहण करना चाहती है ? उत्तर में उसने सर्वोत्कृष्ट प्रकार अर्थात् आर्थिके व्रत लेना स्वीकार किये थे । इसपर उसने केशकोंच करके जैन आर्यिकाका भेष धारण किया था । वह एक वस्त्र धारण किये रहती थी । मैले-कुचैले रहने का उसे कुछ ध्यान न 1 था। इसके विपरीत उदासीन व्रती श्राविका वालोंको मुण्डाये रहतीं · १ - सकौ ० ० ९० । २-ममबु पृ० २५९-२६० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर संघ और अन्य गजा । [ १५५ तत्कालीन श्रावकाचार । * थीं, पृथ्वीपर मोतीं थीं और मूर्यास्त होनेके पश्चत् भोजनपान नहीं करतीं थीं । इस तरहका आर्थिध धर्म उस जमाने का था । भगवान महावीरजी के समयका श्रावकाचार उन्नत और विशाल था । उसमें पाखण्ड और मिथ्यात्वको स्थान प्राप्त नहीं था । श्रावक और श्राविका नियमित रूपसे देवपूजन, गुरु उपासना और दान कर्म किया करते थे । वे नियमसे मद्य मांपादिका त्याग करके मूल गुणोंको धारण करते थे। व्रत और उपवासोंमें दत्तचित्त रहते थे । अष्टमी और चतुर्दशोको मुनिवत् नग्न होकर प्रतिमायोग धारण करके स्मशान आदि एकांत स्थानमें आत्मध्यानका अभ्यास किया करते थे । * किंतु त्यागी होते हुये भी आरंभी हिंमासे विलग नहीं रहते थे । वे कृषि कार्य भी करते थे।" तथा प बड़े चतुर और ज्ञानवान होते थे । अनेकोंसे शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार रहते थे | आजकल के श्रावकों की तरह घर्मके विषय में परमुखापेक्षी नहीं रहते थे । उस समय मुद्रा व दुपट्टा रखकर श्रावक लोग शास्त्रार्थ करनेका आम चैलेंज देते थे। कांपिल्य के कुन्द कोलिय जनने मुद्रा और दुपट्टा रखकर शास्त्रार्थ किया थी । जैन स्तूपों I आदिकी खुदाई होनेपर ऐसी मुद्रायें निकली हैं। श्राविकायें भी इन शास्त्र में भाग लेती थीं। इस क्रिया द्वारा धर्मका बहुप्रचार होता था और श्रावकों की संख्या बढ़ती थी । जीवंधर कुमारने एक ४ 9 १-ममबु० पृ० २५८-२६० । २-जैप्र० पृ० २३४ । ३-जेप्र० पृ. २३२ । ४-भमवु० पृ० २०६ - २०७ । ५-जैप्र० पृ० ६-उस्० व्या० ६ । ७- दिजै० भा० २१ अंक १-२ ८-ममबु० पृ० २५८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat > २३४ पृ० ४० । www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । अनेन तपस्वीको जैनधर्मका उपदेश देकर जैनी बनाया था। इसी तरह उन्होंने एक अन्य गरीब शूद वर्णके मनुष्यको जनधर्मका श्रद्धानी बनाकर उसे अपने आभूषण आदि दिये थे। गृहस्थ धर्मका पालन करने का अधिकार प्रत्येक प्राणीको था। श्रावक लोग नवदीक्षित जैनीके साथ प्रेममई व्यवहार करके वात्स. त्यधर्मकी पूर्ति करते थे। उसके साथ जातीय व्यवहार स्थापित करते थे। जिनदत्त सेठने बौद्धधर्मी समुद्रदत्त सेठके जैन होनानेपर उसके साथ अपनी कन्या नीली का विवाह किया था। खानपानमें शुद्धिका ध्यान रखा जाता था; किन्तु यह बात न थी कि किसी इतर वर्णी पुरुषके यहाँके शुद्ध भोजनको ग्रहण कानेसे किसीका धर्म चला जाता हो ! राना उपश्रेणिकने भील कन्यासे शुद्ध भोजन बनवाकर ग्रहण किया था। (आक० मा० २ ४० ३३ ) जैन मंदिरोंका द्वार प्रत्येक मनुष्यके लिये खुला रहता था। चम्पाके बुद्धदास और बुद्धसिंह नन मंदिरके दर्शन करने गये थे और अंतमें वह जैनी होगये थे। पशु तक भगवानका पूजन कर सक्ते थे । कुमारी कन्याको पत्नीवत ग्रहण करके उसके साथ रहनेवाले पुरुषके यहां मुनिरानने आहार लिया था। आजकल ऐसे व्यक्तियोंको 'दस्ता' कहकर धर्माराधन करनेसे रोक दिया जाता है। किंतु उस समय 'दस्सा' शब्दका नामतक नहीं सुनाई पड़ता था। किसी भी व्यक्तिके धर्मकार्यों में बाधा डालना उस समय अधर्मका कार्य समझा जाता था। और न उस समय अग्नि पूना, तर्पण मादिको धर्मका अंग १-क्षनचूडामणि लम्ब ६ को, ७-8 व लम्न ७ श्लो०.२३-३: । २-आक० भा० २ पृ०२८।३-सी० पृ०.१०५। ४-उपु० पृ. ६४२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [१५७. माना जाता था। सामान्यतः उस समयके धर्मका यह विशालरूप है। इस प्रकार उस समयके भारतकी परिस्थिति थी और वह आनसे कहीं ज्यादा सुघर और अच्छी थी। प्रत्येक प्राणी स्वाधीन और पराक्रमी था। रूढ़ियों की गुलामी, धार्मिकताका अंधविश्वास अथवा रुपये पैमेकी चाकरी उस समय लोगोंमें छू नहीं गई थी। सब प्रसन्न और आनन्दमई जीवन विताते थे। इनका उल्लेख ही उम समय नहीं मिलता है । हां, एक बात का बहुत उल्लेख मिलता है। वह यह कि वैराग्य होनेपर मुमुक्षु पुरुषोंको न राज्यका लालच, न स्त्री पुत्रों का मोह और न धन-संपदाका लोभ साधु होनेसे रोक सक्ता था। यह तो एक नियम था कि अंतिम जीवन में प्रायः सब ही विचारवान गृहस्थ माधु होकर आत्मज्ञान और ननकल्याणके कार्य करते थे; किंतु ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिनमें वैराग्यको पाकर व्यक्ति भरी जवानी में मुनि होगए थे ।* भगवान महावीरकानिर्वाणकाल। भगवान महावीरजीके निर्वाणकी दिव्य घटनाको मानसे करीब निकाली ढाईहनार वर्ष पहले अर्थात ईस्वी सन् १२७ असम्बद्धता। वर्ष पहले घटित हुमा माना जाता है । जेनोंमें मामकल निर्वाणाब्द इसी गणनाके अनुसार प्रचलित है। किन्तु उसकी गणनामे अन्तर है; जिसकी भोर मि० काशीप्रसाद जायसवाल, प्रो. कोबी और पं० बिहारीलालनी नोंका ध्यान . * जैप्र. पृ. २३।। १-जविभोसो, मा० १ १०९९ । २-वीर १। ३-वृजेशपृ.८। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] संक्षिप्त जैन इतिहास । आकर्षित कर चुके हैं। महावीर स्वामी के निर्वाण जैपी प्राचीन घटनाका ठक पता न रखना पचमुच जनों के लिये एक बड़ी लजाकी बात है । और आन इस पुरानी बात का बिलकुल ठोक पता लगा लेने का वायदा करना धृष्टता मात्र है । इतनेपर भी उपलब्ध प्रमाणोंसे जिप्त निरापद मन्तव्यपर हम पहुंचेंगे उसे प्रगट करना अनु. चित नहीं है। दुर्भाग्यवश आनसे करीब डेढ़ हजार वर्ष पहले भी वीर निर्वाणान्दके विषयमें विभिन्न मत थे । लगभग तीसरी शताव्दिके ग्रंथ 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' की निम्नगाथाओंसे वे इसप्रकार प्रगट हैं:'वीरजिणं सिद्धिगदे चउसदइगिसहि वास परिमाणे।। कोलंमि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ सगराओ ॥ ८६ ॥ अहवा वीरे सिद्ध सहस्सणवकमि सगसयभहिये । पणतीदिमि यतीदे पणमाले सगणिओ जादा ॥ ८७ ॥ ॥पाठान्त ॥ चौदस सहस्स सगसय तेणउदी वास काल विच्छेदे । वोरेसरसिद्धीदो उप्पण्णा सगणिओ अहवा ॥ ८८ ॥ ॥ पाठान्तरं ॥ णिव्वाणे वीरजिणे छव्याससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेखें संजादो सगणिओ अहवा ॥ ८६ ॥ अर्थ- "वीर भगवानके मोक्षके बाद जब ४६१ वर्ष वीत गये तब यहांपर शक नामका राना उत्पन्न हुआ । अथवा भगवानके मुक्त होनेके बाद ९७८५ वर्ष ५ महीने वीतनेपर शक राजा हुआ। (यह पाठान्तर है ) अथवा वीरेश्वरके सिद्ध होनेके १४७९३ वर्ष बाद शक राना हुआ ( यह पाठान्तर है ) अथवावीर भगवानके निर्वाणके ६०५ वर्ष और ५ महीने बाद शहराना हुआ।" .(नैहि , मा० १३ ४० ३३) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल। । १५९ ईश्वी सन्की प्रारम्भिक शताब्दियों में ही निर्वाणस्थिति वीर निर्वाण सम्वत विषयके इस प्रकार विभिन्न मतों को देख. पहलेसे प्रचलित है कर किन्हीं लोगोंकी धारणा होनाती है और विभिन्न मत। कि पहले निर्वाण व्द प्रचलित नहीं था । वह बादमें किन्हीं लोगों द्वारा चला दिया गया है। किंतु इस कल्पनामें कुछ भी तथ्य नहीं है। क्योंकि वीर निवाणाव्द ८४ का एक शिलालेख बारली ग्रामसे मिला है जो अजमेरके अनायब घरमें मौजूद है । हतभाग्यसे यह शिलालेख टूटा हुआ अधूरा है । इस कारण उसके आधारपर 'नर्वाणाब्दका पता नहीं चल सक्ता है । तो भी उसमें माध्यमिका नगरीका उल्लेख, निमपर हिन्दुओं अधिकार ई. पूर्व दुमरी शताब्दि तक रहा था, इस बात का द्योतक है कि इस समयके बहुत पहले जब वहांपर नैनों का प्राबल्य था तब यह शिलालेख लिखा गया था। अतएव भगवान महावीरकी निर्वाण तिथि ईस्वी सनसे हजारों वर्ष पहले नहीं मानी जासक्तो । ऐसी मान्यता शेखचिल्लीकी कहानीसे कुछ अधिक महत्व नहीं रखती। अब रही अवशेष मोंकी बात, मो उनपर अलग २ विवेचन करना उचित है । आनल वीरनिर्वाण तिथिके सम्बंध में निम्नलिखित मत मिलते हैं: (१) शकरानाके उत्पन्न होनेसे ४६१ वर्ष पहले वीर भगबानका निर्वाण हुआ। (२) शक रानाके होनेसे ६०५ वर्ष ५ महीने पहले वीर. प्रम मोक्ष गए। (३) ईस्वीसन्से ४६८ वर्ष पहले वीरनिर्वाण हुमा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । (४) विक्रमाब्दसे ५५० वर्ष पहले महावीरनी मोक्ष गये। (५) शकाब्दसे ७४१ वर्ष पहले वीर भगवानका निर्वाण हुआ। (६) विक्रम राजाके जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरस्वामी मुक्त हुये। प्रथम मतके अनुमार वीर-निर्वाणको माननेपर प्रश्न होता है कि यह शक राजा कौन था? इस मतका प्रतिपादन 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति में निम्न गाथाओं द्वारा हुआ है: "णिव्वाणगदे वीरे चउसदइगिसहि वासविच्छेदे । जादो च सगणरिंदो रज्जं वस्सस्स दुसय वादाला ॥३॥ दीणि सदा पणवण्णा गुत्ताणं चउमुहस्स वादाले । बस्सं होदि सहस्सं केई एवं परूवति ॥ ६४ ॥" मर्थात्-'वीर निर्वाणके ४६१ वर्ष बीतनेपर शक राजा हुमा और इस वंशके राजाओंने २४२ वर्ष राज्य किया। उनके बाद गुप्तवंशके राजाओंका राज्य २५५ वर्षतक रहा और फिर चतुर्मुख (कलिक) ने ४२ वर्ष राज्य किया। कोई २ लोग इस तरह एक हजार वर्ष बतलाते हैं। इन गाथाओंके कथनसे यह स्पष्ट है कि गुप्तवंशके पहले भारतमें जिस शकवंशका अधिकार था, प्रथम मतपर विचार। ' उपमें ही यह शक राजा हुआ था। और उसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में खूब मिलता है, इसलिये उसका सम्पर्क जैनधर्मसे होना संभव है । दंतकथाके अनुसार शक संवत् प्रवर्तक रूपमें यह राजा जैन धर्ममुक्त प्रगट है। किंतु आधुनिक विद्वानोंका इस शकरानाको शक संवत् प्रवर्तक मानना कुछ ठीक नहीं जंचता। यदि उनकी द्वितीय मतके अनुसार ६०५ वर्ष ५ मास धीरनिर्वाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [१६.. पके उपरान्त हुमा मानें तो शायद किसी अंशमै ठीक भी हो; परन्तु उन्हें तबसे ४६१ वर्ष पश्चात हुआ मानकर शक संवत् बतलाना प्रचलित शक संवतकी गणनासे बाधित है। इस दशामें शक-संवत् प्रवर्तकको ही जन ग्रन्थों का शकराना मान लेना जग कठिन है। इसके साथ ही शक-संवत् प्रवतंकका ठोक पता भी नहीं चलता ! कोई कनिट द्वारा इस संवत् का प्रारम्भ हुआ बताते हैं, तो अन्यों का मत है कि नहपान अथवा चष्टनने इस संवतको चलाया था। किंतु ये सब आधु नक विद्वानों के मत हैं और कोई भी निश्चयात्मक नहीं हैं।' इसके प्रतिकूल प्राचीन मान्यता यह है कि शक संवत् शालिवाहन नामक राना द्वारा शकोंपर विनय पानेकी यादद.तमें चलाया गया था। इस प्राचीन मान्यताको टुघरा देना उचित नहीं जंचता । रुद्रदामनके अन्धौवाले शिलालेखके आधार पर शक संवतको चलानेवाला गौतमो पुत्र शाती (शतवाहन या सालिवाहन) प्रगट होता है । गौतमी पुत्रने अपने विषय में स्पष्ट कहा है कि उसने शकों, पल्लवों और यवनों एवं क्षमतवंशको जड़ मूलसे नष्ट करके सातवाहन वंशका पुनरुद्धार किया था । किंतु कोई विद्वान इसे सन् १२० के लगभग हुआ बताते हैं और इस समय उसका नहपानसे युद्ध करके विनयोपलक्षमें सवत् चलाना ठीक नहीं बैटस'; क्योंकि शक्तवतु मन ७८ ई. से प्रा. म्म होता है। इसी कारण सातबाहन वंशके हालनामक रानाको इस संवतका प्रवर्तक कहा जाता है। किंतु अब उपरोक्त मन्धौवाले शिलालेखसे नहपान का Rमय १-जमीयो०, भा० १. पृ. ३३४ । २-जमीसो०, भा. १७ पृ. ३३५-३३६। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] संक्षिप्त जैन इतिहास । ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दिका अंतिम भाग प्रमाणित होता है । इस अवस्थामें गौतमीपुत्र शातकवर्णीका समय भी सन् १२० के बहुत पहले प्रगट होता है और यह उचित जंचता है कि उसने क्षहरात वंशनोंको सन् ७०-८० के लगभग परास्त किया था । अतः यह समय शक संवत्के प्रारम्भकालसे ठोक बैठता है और शालिवाहन (गौतमीपुत्र शातकर्णी ) द्वारा उसका चलाया जाना तथ्यपूर्ण प्रतीत होता है। इस दशामें जैन शास्त्रों में जिस शक रानाका उल्लेख है वह शक संवतका प्रवर्तक नहीं होसक्ता क्योंकि वह शकवंशका राजा था ! पहलेके जैन शिलालेखों और राजा वलीकथे ' से भी इस बात का समर्थन होता है। जैसे कि हर्मा अगाड़ी देखेंगे। तो अब देखना चाहिये कि जैन शास्त्रों का शक राना कौन नहपान हो शकराजा था ? नोंके अनुसार उसका वीर निर्वाहै। अतः दूसरा मत णसे ४६१ या ६०५ वर्ष बाद होना, मान्य नहीं है। उसके वंशका २४२ वर्ष तक राज्य करना और उनके बाद गुप्तवंशो रानाओंका अधिकारी होना प्रगट है। भारतीय इतिहासमें गुप्तवंशके पहले क्षत्रपवंशी राजाओं का राज्य प्रख्यात था । यह शक जातिके विदेशी लोग थे। तब इनमें क्षहगत शाखाके राजा प्रबक थे; जिसकी स्थापनाका मुख्य य नहपानको प्राप्त है। नहपान के बाद सन् ३८८ ई. तक इस वंशमें पई सना हुए थे । अन्तम गुप्तवंशी राना समुद्रगुप्तने इन्हें जीत लिया था। इसप्रकार इनका राज्यकाल लगभग ढाईमौ वर्षातक १-जमीयो०, भा० १८ पृ. ६:-७१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [१६३ प्रकट है।' इन बातों का सादृश्य जैनोंके उपरोक्त उल्लेखसे है। साथ ही आनकल नो नहपानका अंतिम समय ई० पूर्व ८२ से १२४ ई. तक माना जाता है वह भी नैनों की प्राचीन मान्यतासे ठीक बैठता है; क्योंकि उनके अनुपार वीर निर्वागसे ४६१ से ६०५ वर्ष बाद तक शक राना हुआ था । अब यदि वीर निर्वाण ई. पूर्व ५४५ में माना जाय, जिसका मानना ठोक होगा, जैसे हम अगाडी प्रगट करेंगे, तो उक्त समय ई० पूर्व ८४ से ई. ६० तक पहुंचता है । चूँ के यह समय शक रानाके उत्पन्न होने का है । इसलिये इसका सामञ्जस्य नहपानके उपरोक्त अंतिम ममयसे करीब२ ठीक बैठता है। इसके साथ ही नहपानका जैन सम्बंध भी प्रगट है । जैन शास्त्रोंमें नहपान का उल्लेख नरवाहन, नरसेन, नहवाण और नभोवारण रूपमें हुआ मिलता है। 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' में उसका उल्लेख नरवाहन रूरमें हुआ है। एक पट्टावली में उन्हें 'नहवाण' के नामसे उल्लिखित किया है। इस नाममें नहपानसे प्रायः नाम मात्रका अन्तर है। इसी कारण श्रीयुत् काशीप्रसाद जायसवाल और पं. नाथगमनी प्रेमीने नरवाहनको नहपान ही प्रगट किया है। १-भाप्राग०, भा० १० १२-१३। २-जाह, भा० १३ १० ५३३-यहांचर शायद यह आपत्ति हो सकती है कि यदि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के कर्ताको शराजा नामसे नहपानका उन्हख करना था, तो उन्हें ९३९४ गाथाओमें शराज.के स्थानपर नावाहन नाम लिखना उचित था ! इसके उत्तरमें हम यही कहेंगे कि 'त्रि०प्र०' के रचना काल के समय इस बातका पता लगाना कटिन था कि नहपान और शकराजा एक ही थे। विशेषके लिये देखो वीर वर्ष ६ । 3-ऐ०. भा० ११ पृ. २५१। ४-जैसा ., भा० १ ० ४ पृ. २१११५-हि. मा.१३.५३४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] संक्षिप्त जैन इतिहास। ___ उधर विबुध श्रीधरकी कथासे नरवाहन रानाका जैन सम्बंध प्रगट है; जिसके अनुसार दिगम्बर जैन सिद्धांत ग्रन्थोंके उद्धारक मुनि भूतबलि नामक भाचार्य वही हुए थे। नहपानका एक विरुद 'भट्टारक' था और यह शब्द जैनोंमें रूढ़ है । तथापि नहपानके उत्तराधिकारियोंमें क्षत्रप रुद्रसिंहका जैनधर्मानुयायी होना प्रगट है। मतएव नरवाहनका नहपान होना और उन्हें जैनधर्मानुयायी मानना उचित प्रतीत होता है । इस अवस्था में पूर्वोक्त पहले दो मतोंके अनुसार वीर निर्वाण शकाब्दसे ४६१ वर्ष अथवा ६०५ वर्ष ५ माप्त पूर्व मानना ठीक प्रमाणित नहीं होता; क्योंकि जैन शास्त्रोंका शकराना शक संवतका प्रवर्तक नहीं था, वह नहपान था। तीप्तरा मत प्रो० नॉल चारपेन्टियरका है; जिसका स्थापन निर्वाणकाल ई. . उन्होंने 'इन्डियन एन्टीक्वेरी' भा० ४३ ४६८ नहीं होसक्ता। में किया है। उनके मतसे वीर-निर्वाण ई० पू० ४६८में हुआ था। उनने अपने इस मतको पुष्टि में पहले ही दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके उस मतके निरापद होने में शङ्का की है, जिसके अनुसार सन् ५२७ ई. पूर्व वीरनिर्वाण माना जाता है। किन्तु इसमें जो वह दिगम्बरोंके अनुसार विक्रमसे ६०५ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण बतलाते हैं, वह गलत है। किसी भी प्राचीन दिगम्बरग्रंथमें विक्रमसे ६०५ वर्ष पहले वीर निर्वाण होना नहीं १-सिद्धांतसारादि संग्रह, पृ. ३१६-३१८ । २-राइ०, पृ० १०३ । ३-इंऐ०, भा० २० पृ० ३६३ । ४-त्रिलोकसार गा० ८५०-त्रिलोकसारके टीकाकार एवं उनके बादके लोगोंको शकराजासे मतलब विक्रमादित्यसे भ्रमवश था। असल में वह नहपानका द्योतक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [१६५ लिखा है; बलिक विक्रमके जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरका मोक्षगमन बताया गया है । शायद प्रो० सा० को यह भ्रम, उपरान्तके कतिपय जैन लेखकों के अनुरूप, 'त्रिलोकप्तार'की ८५०वीं गाथाकी निम्न टीकासे होगया है, जिसमें शक रानाको 'विक्रमाङ्क' कहा है । " श्री वीरनाथ निवृते सकाशात पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि पंचमासयुतेन गत्वा पश्चात् विक्रमाङ्कशकरानो जायते ।" यहांपर विक्रमाङ्क शक रानाका विशेषण है। वह विक्रमादित्य रानाका खास नाममुचक नहीं है । इस कारण त्रिलोकपारके मतानुसार विक्रमसे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीर निर्वाण नहीं माना जासक्ता और वह शकाव्दसे भी इतने पहले हुआ नहीं स्वीकार किया नासक्ता; यह पहले ही लिखा जाचुका है। श्वेताम्बरोंके ग्रन्थ 'विचारश्रेणि'की विक्रमसे ४७० वर्षपूर्व वीर निर्वाण हुआ प्रगट करनेवाली गाथाओंका समर्थन उससे प्राचीन ग्रंथ 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' से होता ही है और उपर वौद्ध सं० ई. पूर्व ५४३ से प्रारम्भ हुमा खारवेलके शिलालेखसे प्रमाणित है। इसलिये वह ई० पू०४७७ में नहीं माना जासक्ता । तथापि उसके साथ वीर निर्वाण संवत् ई०पू० ४६८ से मानना भी बाधित है; क्योंकि यह बात बौद्धशास्त्रोंसे स्पष्ट है कि म. बुद्धके जीवनकालमें ही म. महावीरका निर्वाण होगया था। उक्त प्रो. सा. इस असम्बद्धताको स्वयं स्वीकार करते हैं । मि. काशीपसाद नायसवालने प्रो• सा के इस मत का निरसन मच्छी तरह कर दिया है। मतएव इस मतको मान्यता देने में भी हम असमर्थ हैं ! १-जविओसो०, भा० १ पृ. ९९-१०५। २-मज्झिम० २।२४३ : · दीनि० भा० ३ पृ. १। ३-ऐ०, भा० ४९ पृ. ४३...। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । चौथा मत श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीका है और उसके विक्रमाङले ५५० पूर्व अनुसार विक्रमाब्दसे ५५० वर्ष पहले वीर भी निर्वाणकाल प्रभू मोक्ष गये प्रगट होते हैं। इस मतका नहीं होसक्तो। आधार श्री देवसेनाचार्य और श्री अमितगति आचार्यका उल्लेख है, जिनमें समयको निर्दिष्ट करते हुए 'विक्रमनृपकी मृत्युसे' ऐसा उल्लेख किया गया है । होसक्ता है कि इन आचार्यों को विक्रमसंवतको उनकी मृत्युसे चला मानने में कोई गलती हुई हो; क्योंकि विक्रमकी मृत्युके बाद प्रजा द्वारा इस संवतुका चलाया जाना कुछ नीको नहीं लगता। 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थोंमें इस मतका उल्लेख नहीं मिलता है। यदि इस मतको मान्यता दीजाय तो सम्राट अजातशत्रुके राज्यकालमें भगवान महावीरका निर्वाण हुआ प्रगट नहीं होता और यह बाधा पूर्वोक्त तीन मतोंके सम्बन्धमें भी है। दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन अन्थों एवं बौद्धोंके शास्त्रोंसे यह बिल्कुल स्पष्ट ही है कि महावीरजीके निर्वाण समय अजातशत्रु राज्य था। उसके राज्यके अंतिम भागमें यह घटना घटित हुई थी। अजातशत्रुका राज्यकाल सन् ५५२ से ५१८ ई० पू० अथवा सन् १५४ से ६२७ ई० पू० प्रगट है। विक्रमाब्दसे ५५० वर्ष पूर्व भगवानका मोक्षलाभ माननेसे वह सम्राट श्रेणिकके राज्यकालमें हुआ घटित होता है और यह प्रत्यक्ष बाधित है। अतः इस मतको स्वीकार कर लेना भी कठिन है। १-दर्शनसार पृ० ३६-३७ । २-जबिओसो०, भा० ११० ९९-११५ उपु० । ३-जबिओसो०, भा० १ पृ. ९९-११५ व अहिहं०, पृ. ३४-३८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल | [ १६७ पांचवें मत के अनुसार शक व्दसे ७४१ वर्ष पहले वीर भगशकाब्दसे ७४१ वर्ष वानका निर्वाण हुआ प्रगट होता है । उस पूर्व भी भ्रांतमय है । मतका प्रतिपादन दक्षिण भारतके १८ वीं शताब्केि शिलालेखों में हुआ है। जैसे दीपनगुड़ी के मंदिवाले बड़े शिलालेख में इसका उल्लेख यूं है : " " वर्द्धमानमोक्षगत व्दे अष्टत्रिंशदधिपंचशतोत्तर द्विसहस्रपरिगते शालिवाहनशककाले सप्तनवतिसप्तशतोत्तरसहस्रवर्ष संमिते भवनाम सवत्सरे" इसमें शाका ११९७ में वीर सं० २५५८ होना लिखा है । वर्तमान प्रचलित सं० से इसमें १३७ वर्षका अन्तर है । इस अन्तरका कारण त्रिलोकसार के ८९० वें नं०की गाथाकी टीका है, जैसे कि हम ऊपर बता चुके हैं। द क्षण भारत के दिगम्बर जैन इतिहास ग्रन्थ 'रामा वलीकथे' से भी इसका समर्थन होता है । उसमें लिखा है कि 'महावीरजी मुक्त हुये तब कलियुग के २४३८ वर्ष बीते थे और विक्रमसे ६०५ वर्ष पूर्व वह मुक्त हुये थे । उपरोक्त टीकाके कथनसे भ्रम में पड़कर ऐसा उल्लेख किया गया है और इस भ्रमात्मक मतको भला कैसे स्वीकार किया जासक्ता है ? २ अंतिम मत है कि विक्रम जन्मसे ४७० वर्ष पहले महावीरअन्तिम मत स्वामीका निर्वाण हुआ था। और इस मतके अनुमान्य है । सार ही आजकल जैनोंमें वीरनिर्वाण संवत प्रचलित है । यह संवत् ताजा ही चला हुआ नहीं है बल्कि प्राचीन साहित्वमें भी इसका उल्लेख मिलता है। किन्तु इसकी गणना में पहले से १ - ममेप्राप्रेस्मा • १० ९८-९९ । २ - जेनमित्र, वर्ष ५ अंक ११ • १० ११-१२ । ३-डाका लिखे हुएके गुटके में इसका उल्लेख है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ । संक्षिप्त जैन इतिहास | ही भूल हुई है । उसको देखनेके लिये यहां पर उन प्रमाणोंको उपस्थित करना उचित है, जिनके आधारसे यह गणना हुई है:(१) सत्तरि चदुसदजुत्तो तिणकाला विकमो हवइ जम्मा । अठवरस... सोडसवासेहि भम्मिए देसे ॥ १८ ॥ नंदिसंघ पट्टावली (जेसिभा०, कि० ४ पृ० ७५) (२) सतरि चटुसदजुत्तो तिणकाले विक्कम हवइ जम्मा । अठवरस वाललीला, सोडसवासेहि भम्मये देतेा ॥ रसपण वीसा रज्जो कुणंति मिच्छेोपदेश संजुत्तों । चालीस वरस जिनवर धम्मे पालेय सुरपयं लहियं ॥ ॥ विक्रम प्रबंध ॥ (३) सरस्वती गच्छकी पट्टावलीको भूमिका स्पष्टरूपसे वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका जन्म होना लिखा है; यथा:" बहुरि श्री वीरस्वामीकूं मुक्ति गये पोछें च्यारसौ सत्तर ४७० वर्ष गये पीछें श्रीमन्महाराज विक्रम राजाका जन्म भया । " (४) जं रर्याणि कालगओ अरिहा तित्थंकरो महावीरी | तं स्यणि अवंति वई अभिसित्तो पालया रायां ॥ सही पालग रन्न पण पण्णसंयतु होई नंदाणं । अट्ठसयं मुरियाणं तीसचिअ पुस्तमित्तस्स ॥ वलमित्त भानुमित्ता सट्टी वरिसाणि चत्तं नरवाहणे | तह गद्दभिल्ल रन्त तेरसवरिसा सगस्स च ॥ - तीर्थोद्वार प्रकीर्ण । (५) वसुनंदि श्रावकाचार में विक्रम शकसे ४८८ वर्ष पूर्व महावीर निर्वाण होना लिखा है । ( देखो जैन मित्र, वर्ष ५ अंक ११०११-१२ ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [१६९ उपरोक्त सबही उल्लेखोंमें प्रायः भगवान महावीरसे ४७० वर्ष बाद विक्रमरानाका जन्म होना लिखा है और वर्तमान विक्रम संवत उनके राज्यकालसे चला हुमा मिलता है। यही कारण है कि वसुनंदि श्रावकाचारमें विक्रमसंवतसे ४८८ वर्षपूर्व वीरनिर्वाण हुआ निर्दिष्ट किया गया है क्योंकि विक्रमके जन्मसे राज्याभिषेकको कालान्तर १८ वर्षका माना जाता है । इस अवस्थामें प्रचलित वीरनिर्वाण संवत्का संशोधन होना आवश्यक प्रतीत होता है। शायद उपरोक्त प्रमाणों में नं० ४ पर आपत्ति की जाय, जिसमें वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद शकरानाका राज्यान्त होना लिखा है। किन्तु यह बात ठीक नहीं है। यहांपर शकरानासे भाव शकारिराना विक्रमादित्यसे प्रगट होता है। डॉ. जैकोबी भी यही बात प्रगट करते हैं। यदि ऐमा न माना जाय और शकराना भाव शक संवत् प्रवर्तकके लिये जाय, तो उक्त गणनाके अनुसार चंद्रगुप्त मौर्यका अभिषेक काल ई० पूर्व १७७ वर्ष भाता है और यह प्रत्यक्ष बाषित है । साथ ही उपरोक्त गाथाओंका गणनाक्रम आपत्तिजनक है, जैसे हमने अन्यत्र प्रगट किया है। मालूम होता है कि विक्रमसे ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण बतलाने के लिए श्वेतांबराचार्योंने अपने मनोनुकूल उक्त गाथाओंका निरूपण कर दिया है। इस दशामें यह नहीं कहा जासक्ता कि उनको विक्रमके जन्म राज्य अथवा मृत्युसे ४७० वर्ष पूर्व बीर निर्वाण मान्य था। किन्तु भवशेष मतों के समक्ष विक्रमके जन्मसे ४७० वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण हुमा मानना ठीक है। १-मदनकोष व भाप्राए । २-जैसा सं० । ३-वीर, वर्ष ६.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | इस गणना के अनुसार अर्थात् विक्रमके जन्मसे १७० वर्ष निर्वाणकाल ई० पू० पूर्व (१४५ ई० पू०) वीर निर्वाण मान५४५ में था । नेसे, उसका अजातशत्रुके राज्य काल में ही होना ठीक बैठता है और म० बुद्धका तब जीवित होना भी प्रगट है | अतः यह गणना तथ्यपूर्ण प्रगट होती है । शायद यहांपर यह आपत्ति की जाय कि चूंकि अजातशत्रुका राज्यकालका अंतिम वर्ष ई० पूर्व ५२७ है और म० बुद्धकी देहांत तिथिका शुद्धरूप ई० पू० ४८२ विद्वानोंने प्रगट किया है; इसलिये वीर निर्वाण कोई ई० पूर्व ५२७ वर्षमें हुआ मानना ठीक है । किन्तु पहिले तो यह आपत्ति उपरोक्त शास्त्रलेखोंसे बाधित है । दूसरे अजातशत्रु वीर निर्वाणके कई वर्ष उपरांत तक जीवित रहा था, यह बात जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रगट है। इसलिये उनके अंतिम राज्यवर्ष ई० पूर्व ५२७ में वीर निर्वाण होना ठीक नहीं जंचता । साथ ही यदि म० बुद्धकी निघन तिथि ४८० वर्ष ई० पू० थोड़ी देर के लिये मान भी ली जाय तो भगवान महावीरके उपरांत इतने लम्बे समय तक उनका जीवित रहना प्रगट नहीं होता । अन्यत्र हमने भगवान महावीर और म० बुद्धकी अंतिम तिथियोंमें केवल दो वर्षोका अन्तर होना प्रमाणित किया है । डॉ० हाणले सा• इस अन्तरको अधिक से अधिक पांच वर्ष बताते हैं; परन्तु म०बुद और भ० महावीरके जीवन सम्बंध को देखते हुये, यह अन्तर कुछ अधिक प्रतीत होता है । भ० महावीरके जीवन में केवलज्ञान 3 , १ - जयिओसो ० भा० १ ० ९९-११५ व उपु० । २ - वीर, वर्ष ६ । ३ - आजीविक - इरिइ० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निवणकाल । [१७१ प्राप्त करने की घटना मुख्य थी, इम हमारी गणनाके अनुसार उस समय म० बुद्धकी अवस्था ४८ वर्षकी प्रगट होती है और इसका समर्थन उस कारणसे भी होता है, जिसकी बम्हसे म० बुद्धके ५० से ७० वर्षके मध्यवर्ती जीवन घटनाओं का उल्लेख ही नहीं बराबर मिलता है। बात यह है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ होने और धर्मप्रचार प्रारम्भ करने के पहलेसे ही म० बुद्ध अपने मध्यमार्गका प्रचार करने लगे थे, जैसे कि बौद्ध ग्रंथोंसे भी प्रगट है। अतएव दो वर्षके भीतर २ भगवान महावीरके वस्तु स्वरूप उपदेशका दिगन्तव्यापी होना प्राकृत सुमंगत है । और भगवान महावीरके प्रभावके समक्ष उनका महत्व क्षीण होनाय तो कोई माश्चर्य नहीं है । यह बात हम पहले ही प्रगट कर चुके हैं और इसका समर्थन स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंसे होता है। अतएव उपरोक्त गणना एवं भ० महावीर और म० बुद्धके परस्पर जीवन सम्बन्धका ध्यान रखते हुये म० बुद्धकी निधन-तिथि ई० पूर्व ४८२ या ४७७ स्वीकार नहीं की मासकी ! बल्कि हमारी गणनासे प्रगट यह है कि म. महावीरसे छ वर्ष पहले म० बुद्धका जन्म हुमा था और उनके निर्वाणसे दो वर्ष बाद म• बुद्धकी जीवनलीला समाप्त हुई थी। वेशक बौद्ध शास्त्रों में म० बुद्धको उस समयके मत-प्रवर्तकों में सर्वलघु लिखा है; किन्तु उनका यह कथन निर्वाष नहीं है, क्योंकि उन्हीं के एक अन्य शास्त्रोंमें म. बुद्ध इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर देते नहीं १-मनि. मा. १ पृ० २२५; नि० मा० ११ पृ. ६६ व "वीर" वर्ष ६ । २-ममबु. १०१०३-११.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । मिलते कि वे सर्वलघु हैं !' इससे यह ठीक जंचता है कि आयुमें भ० महावीरसे म० बुद्ध अवश्य बड़े थे; परन्तु एक मतप्रवर्तककी भांति वह सर्वलघु थे; क्योंकि अन्य सब मत म० बुद्ध से पहलेके थे ! इसप्रकार भ० महावीरका निर्वाण म० बुद्धके शरीरान्तसे दो वर्ष पहले मानना ठीक है और चूंकि बौद्धों में म० बुद्धका परिनिव्वान ई० पूर्व ५४३ वर्ष में माना जाता है, इसलिये भ० महावीरका निर्वाण ई० पूर्व ५४५ में मानना आवश्यक और उचित है । जैसे I पहिले भी यही अन्यथा प्रगट किया जाचुका है । उक्त मतका । दिगम्बर जैनशास्त्रोंके कथनसे भी भ० महावीरकी जीवन दि० जैन शास्त्रोंसे घटनाओं का उक्त प्रकार होना प्रमाणित है । यह लिखा जाचुका है कि श्रेणिक बिम्बसारकी समर्थन होता है। मृत्यु भ० महावीरके जीवन में ही होगई थी और उनके बाद कुणिक अजातशत्रु विधर्मी होगया था; जिसे भ० महावीर के निर्वाणोपरान्त श्री इन्द्रभूति गौतमने जैनधर्मानुयायी बनाया था । इतिहास से श्रेणिकका मृत्युकाल ई० पू० ११२ प्रकट है । तथापि सं० १८२७की रची हुई 'श्रेणिकचरित्र' की भाषा वचनिका में है कि: " राज अविकार । श्रेणिक नीति सम्भालकर, करे बारह वर्ष जु बौद्धमत रहा कर्मवश धार ॥५२॥ बारह वर्ष तने चित धरो, नन्दग्राम यह मारग करो । तह थी सेठि साथि चालियो, तब वेणक नगर आयिये ॥५३॥ नन्दश्री परणी सुकुमाल, वर्ष दूसरे रह सुबाल । सात वर्ष भ्रमण घर रहे, पाछे आप राजसंग्रहे ॥ ५४ ॥ १-सुत्तनिपात (S. B. E; X) पृ० ८७ व भमबु० पृ० ११० । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल । [ १७३ नन्दश्रीने विसरी राय, तीन वर्ष जु पिता घर थाय । आठ वर्षना अभयकुमार, राजगृही आयो चितधार ॥५५॥ चार वर्षमें न्याय जु किया, बारह वर्षतणां युव भया । श्रेणिक वर्ष छवीस मंकार, महावीर केवल पद धार ॥ ५६ ॥ अधिकार १५ ।" इससे प्रकट है कि श्रेणिकको १२ वर्षकी उम्र में देशनिकाला हुमा और रास्ते में वह बौद्ध हुये । दो वर्ष तक नन्दनी के यहां रहे | बादमें ७ वर्ष उनने भ्रमण में बिताये और २२ वर्षकी उम्र में उन्हें राज्य मिला | तथापि उनकी २६ वर्षकी अवस्था में भगवान महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी । इससे प्रत्यक्ष है कि भ० महावीर सर्वज्ञ होने और धर्मप्रचार आरम्भ करने के पहले ही म० बुद्ध द्वारा बौद्धधर्मका प्रचार होगया था। यही कारण है कि देश से निर्वासित होनेपर श्रेणिक बौद्ध होसके थे। इस दशा में नैन शास्त्रानुसार भी हमारी उपरोक्त जीवन-संबंध व्याख्या ठीक प्रगट होती है। साथ वीर निर्वाणकाल ई० पूर्व ५४९ माननेसे भ० का केवलज्ञान प्राप्ति समय ई० पू० १७५ ठहरता है । इस समय श्रेणिककी अवस्था २६ वर्षकी थी अर्थात् श्रेणिकका जन्म ई० पू० ५८० में प्रगट होता है | राज्यारोहण कालसे २८ वर्ष उपरान्त राज्यसे अलग होकर उनकी मृत्यु हुई माननेपर ई० पू० ५५२ उनका मरणकाल सिद्ध होता है । इतिहास से इस तिथिका ठीक सामञ्जस्य बैठता है । अतएव भगवान महावीरका निर्वाणकाल ई० पू० १४५ मानना उचित है । वर्तमान प्रचति वीरनिर्वाण संवत्का शुद्ध रूप २४७० होना उचित है ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । __ भगवान महावीरकी मुख्य तिथियाँ । १. भगवान महावीरका जन्म........... "ई० पूर्व ६१७ २. , , गृहत्याग.........." ,, ,, ९८७ ३. ,, ,, केवलज्ञान............. ,, ,, ९७५ ४. , , निर्वाण............... ,, ,, ९४५ अंतिम केकली श्री जम्बूस्वामी। (ई० पूर्व ५२१-४४०) भगवान महावीरजी के निर्वाण लाभ करनेके पश्चात् चौवीस ___ वर्षमें श्री इन्द्रभृति गौतम और सुधर्मास्वामी भी जम्बूस्वाम।। उनके अनुगामी हये थे। सुधर्मास्वामीके मोक्ष प्राप्त करलेने पर वीर-संघका शासन श्री जम्बूम्बामीके आधीन रहा था। यह अतिम केवली थे ।' इनके उपरांत इस देशसे कोई भी जीव सर्वज्ञ और मुक्त नहीं हुआ है । लोग कहते हैं कि जम्बूस्वामी अपने साथ ही मोक्षका द्वार बंद कर गये थे। जम्वृस्वामी का जन्म भगवान महावीरके जीवनकालमें हुआ था। मगधदेशके रानगृह नगरमें एक महदास बाल्य-जीवन ।। '' नामक जैन सेठ रहते थे । जिनमती मथवा निनदासी नामक उनकी सुशोल और विदुषी पत्नी थी। जम्बूकुमा १-उ० पृ० ७१० । २-उ० पृ० ७०२ व जम्बूकुमार चरित पृ० १८. किन्तु श्व० आम्नायमें इनके माता-पिताका नाम क्रमशः रुषभदत्त व धारणि लिखा है । रुषभदत्त काश्यपगोत्री श्रेष्ठी थे। (जैसा सं. भा० १ अंक-वीविंशावलि पृ० २) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी। [१७५ रका जन्म इन्हींकी कोखसे हुआ था। जिस समय यह गर्भमें आये थे उससमय इनकी माताने हाथी, सरोवर, चांवलोका खेत, धूम · रहित मग्नि और जामुनके फल-यह पांच शुभ स्वप्न देखे थे ।' नामुनके फलोंको देखनेके कारण इनका नाम 'जम्बूकुमार' रक्खा गया था। इन्होंने बाल्यकालमें बड़ी ही कुशलता पूर्वक समग्र शस्त्रशास्त्र विषयक विद्याओं में योग्यता प्राप्त करली थी। किन्तु इनका स्वभाव बचपरसे ही उदासीन वृत्तिको लिये हुए था । युवा होनेपर भी इन्हें कोई विकार नहीं हुआ था। इनका आदर रानगृहके राजदरबारमें अधिक था। एकदा जम्बस्वामीकी केरलदेशके राना मृगाङ्कने श्रेणिकके पाप्त सहाय वीरता । ताके लिये एक दूत भेना था। इसका कारण यह था कि मृगाङ्कपर सहीप (लंका)के राजः रत्नचूलने आक्रमण किया था और वह उनकी रानकुमारी विलासवतीको बलात् ले नाना चाहता था। मृगांकको यह असह्य था । वह राजा श्रेणिकको अपनी जया देना चाहता था। इधर नम्बू कुमारके पराक्रम और शौर्यकी प्रशंसा पहिलेसे ही थी। राना श्रेणिकने उनके ही आधीन अपनी सेनाको राना मृगांकी सहायताके लिये मे ना था। जम्बू कुमारने अपने बाहुबल और रणकौशल से रत्नचूलको हरा दिया था। और रामा मृगांकने प्रपन्न होकर विलासवतीका विवाह श्रेणिकके साथ किया था। एक वैश्यपुत्र में इस पगक्रम और संग्राम कौशल का होना मामकलके 'पनियों के लिये समुचित शिक्षा पानेका मादर्श है। १-वेताम्बर केवल जम्वृक्ष देखा बतलाते है- जैसा ५० मा... बंक ३-वीर पृ. २) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | वैराग्य । जम्बू कुमारकी मनोवृत्ति वैराग्यमई थी । युवावस्था होनेपर भी वह सांसारिक प्रलोभनोंसे विरक्त थे । एक दिन विपुलाचल पर्वतपर श्री सुधर्मास्वामी संघसहित आये और राजा अजातशत्रु रनवास और पुरजन सहित वन्दना करनेके लिये गये थे । जम्बूकुमार भी गये थे और वह जिनदीक्षा ग्रहण करना चाहते थे; किन्तु सम्बन्धियोंके विशेष आग्रह से घर वापिस लौट आये । श्वेताम्बर आम्नायकी मान्यता है कि इससमय उनकी अवस्था सोलहवर्षकी थी और उनने श्रावक के व्रत धारण किये थे । घरपर आते ही जम्बूकुमारके माता-पिताको उनका विवाह कर देनेकी फिक्र हुई थी । उनने देखा कि यदि उनका विवाह | इकलौता बेटा भोगोपभोगकी सामिग्री और सुन्दर रमणियोंको पाकर सांसारिकतामें संलग्न न हुआ तो अवश्य ही उन्हें उससे हाथ धो लेने होंगे । यही सोचकर उनने आठ सेठपुत्रियों से उनका विवाह कर दिया था। माता-पिता के आग्रह से उनने विवाह तो कर लिया; किन्तु आपने अपनी पत्नियोंके प्रति स्नेहकी एक दृष्टि भी न डाली । वह विवाह के दूसरे दिन ही तपोभूमिकी ओर जानेके लिये उद्यत होगये ! मांने बहुत समझाया और प्रेम दर्शाया | पत्नियोंने विषयभोगोंकी सारता और अपना अधिकार उनपर सुझाया; किन्तु कोई भी जंबूकुमारको दीक्षाग्रहण करने की दृढ़ प्रतिज्ञासे शिथिल न कर सका ! उसीसमय एक विद्युत नामक चोर, जो भर्हद्दास के यहां चोरी करने आया था, जम्बूकुमारके इस वैराग्य और निर्लोभको १-उपु० पृ० ७०३ । २- जैसा सं० खं० १ अं० -३ - वीर० पृ० २ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी । [ १७७ ૨ ' देखकर प्रतिबुद्ध होगया । सबने ही श्री सुषम्मीचायके निकट I नाकर जिनदीक्षा ग्रहण कर लो। इस समय अजातशत्रु भो अपनी अठरह प्रकारकी सेना के साथ वहां आया था | जंबूकुमार के साथ विद्युच्चोर और उसके पांचनौ साथी एवं सेठानी जिनदासी और जम्बू कुमारकी आठों पत्नियोंने भी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कुल ५२७ मनुष्य उनके साथ मुनि हुये थे। नौ क्रोड सुवर्ण मुद्राओं और इतनी धन-संपदाचा जम्बूकुमारने मोह नहीं किया था और न रमणी - रत्नों की मनमोहक रूप राशि ही उनको कर्तव्यपथसे विचलित कर सकी थी । 3 मुनि जीवन | हुआ 1 जम्बूकुपार मुनि होकर सुम्मस्व मीके निकट तपश्चरण करने लगे थे। जब उनका उपवास पूर्ण हुआ तो उनका प्रथम पारणा राजगृहके सेट निनदास के गृहमें थी । इसके उपरान्त वह वनमें जाकर उग्रोग्र तप करने लगे थे । श्वेतांबरोंका कथन है कि बीस वर्ष तक उनने यह घोर तपस्या की थी और वह सोलह वर्षकी अवस्था में दीक्षित हुये थे । दिगम्बर शास्त्रोंमें उन्हें युवावस्था में मुनि हुआ लिखा है । इम मुनि दशा के पश्चात् उनको ज्येष्ट मुदी सप्तमीके शुभ दिन केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी । इमी दिन सुधर्मास्वामी मुक्त हुये थे । जम्बू कुमार १- वेतांबर वंशावलिने चोरका नाम प्रभव है और वह जयपुर के राजाका पुत्र था | जम्बूकुम के उपरांत वही पट्टधीश हुआ था; किन्तु दिगम्बर ग्रन्थ नंदि अथवा विष्णुको जम्बुका उत्तराधिकारी बताते है। (जैसा० खण्ड १ वीर वंश० पृ० ३ वजेहि० भ० १ १० ५३१ | २-उ० पृ० ७०९ । ३- जैसा मा० १ वीर वंशा० पृ० २ । ४- जम्बू ० पृ० ६३ । ५ जैप्रा० वी० पृ० २-३ । ड ६- जम्मृ० प० કર ६३ व उपु० पृ० ७१० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | १ 1 3 सर्वज्ञ होकर चालीस वर्ष तक जिनधर्म का प्रचार सर्वत्र करते रहे थे । ' इनका भव नामक शिष्य प्रख्यात्थ । विद्युच्चोर भी महातपस्वी मुनि हुये थे । उनने भी चहुँओर विहार करके धर्मकी मन्दाकिनी विस्तृत की थी । एक दफे मथुरा में उनपर एक वनदेवताने घोर उपसर्ग किया था; जिसमें वह दृढ़परिकर रहे थे । बारह वर्ष तक तप करके वह सर्वार्थसिद्धिमें अहमेन्द्र हुये । अर्हदास सेठ समाधिमरण पूर्वक छठवें स्वर्ग में देव हुये । निमती सेठानी एवं अन्य महिलायें भी मरकर देव हुई थी। * यद्यपि जम्बुकुमारका विहार और धर्म प्रचार प्रायः समग्र सर्वज्ञ - दशा में देशमें हुआ था; किन्तु ऐसा मालून होता है कि धर्मप्रचार | बंगाल और विहारसे उनका सम्पर्क विशेष रहा था। सुधर्मा और जम्बूस्वामी पुण्ड्रवर्द्धन में विशेष रीतिसे धर्मपचार करने आये थे और उपरांत यह स्थान जैन का मुख्य केन्द्र होगया थी। कहते हैं कि जम्बूस्वामीको निर्वाण लाभ भद्रबाहुके जन्मस्थान कोटिकपुर में हुआ था, किन्तु भगवान सकलकीर्तिके शिष्य ० निनदासने उनका निर्वाणस्थान विपुलाचल पर्वत बतलाया है । उघर दि० जैनों की मान्यता है कि जम्बूस्वामी मथुरा से मोक्षधाम सिधारे थे। उनकी इस पवित्र स्मृतिने वहां पर वार्षिक मेला भी भरता है । अतः निश्चितरूपमें यद्यपि यह नहीं कहा ना ५ ε १ - उपु० पृ० ७१० किन्तु एक प्राचीन गाथामें यह समय ३८ वर्ष लिखा है । ( 'अठतीस वास रहिने केवलणाणीय उक्किहो ॥' ) श्वतांबर ४४ वर्ष और कुल आयु ८० वर्षकी बताते है । जैसा सं० खण्ड १ वीर वंशा० पृ० ३ । २-उपु० पृ० ७१० । ३-जम्बू० पृ० ६४-६५ । वीर वर्ष ३ पृ० ३७० | ५ - पूर्व व राजा वलीकथे- जहि० भा० ११ ६१९ । ६ - जैहि भा० ११ पृ० ६१९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी । [ १७९ सक्ता कि जम्बूस्वामीका निर्वाण स्थान कहां था; किन्तु जैन मान्यता और मथुराके जैन पुरातत्वको देखते हुये मथुगमें उनका मोक्षस्थान होना ठीक जंचता है । विपुलाचल पर्वतपर उनने दीक्षा ग्रहण की श्री, यह स्पष्ट है। संभवतः इमीपरसे व जिनदासने उनका निर्वाण ० 3 ર स्थान भी उसे ही लिख दिया है । कोटकपुर समाधिस्थान कहा जाता है । संभव है, वह केवलज्ञान स्थान हो । वह पुण्ड्रवर्द्धन देशका कोटिवर्ष नामक ग्राम अनुमान किया गया है; जहांसे गुप्त व पालवंशी राजाओंके सिक्के मिले हैं। संभवतः इसी समय अतः कृत केवलियों में सर्व अंतिम श्रीधर नामक केवली कुण्डलगिरि से मुक्त हुए थे. इस समय भगवान महावीरको मोक्ष गये ६२ वर्ष हो चुके थे । * श्वेतांबर सम्प्रदायकी मान्यता है कि जम्बू कुमारके समय में भी श्वेताम्बरीय भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य-परम्परा अलग मौजूद कथन । धो और रत्नप्रभसूरि आचार्य पदपर नियुक्त थे । उन्होंने वीर भूके मोक्ष जानेके बाद पचहत्तरखे वर्षने ओड़वा नगरकी चामुण्डाको प्रतिबोध कर कितनेक जीवों को अभयदान दिया था और वहांके परमार वंशी राजा श्री उनलदेव एवं अन्य लोगों को जैनी बनाकर उनकेश जातिका प्रादुर्भाव किया था। किंतु दि० शास्त्रोंका कथन है कि भगवान पार्श्वके तीर्थ के मुनि वीर संघ में संमिलित होगये थे । वेतांबरोंके ' उत्तराध्ययन सूत्र' से भी यही प्रगट है ।" परमार वंशकी उत्पत्ति अर्वाचीन है, इस कारण जम्बूस्वानी के समय परमार वंशी राजाका होना अशक्य है । ४ ε १- पीर वर्ष ३ पृ० ३०० २- मेहि०: मा० १३० ५३१३ बर वर्ष मानते हैं। जैसाधं. पृ० ३० १ १ वीर वंशा० पृ० ३ । ५-उसू० पृ० १३१६०, प० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । ( ह ) नव-नन्द | नन्द-वंश । ( ई० पूर्व ४५९ - ३२६ ) शिशुनागवंशके अंतिम दो राजाओं-नन्दवर्द्धन और महानन्दिका उल्लेख पहिले किया जाचुका है; किन्तु इनके नामके साथ 'नन्द' शब्द होनेके कारण, यह नन्दवंशके राजा अनुमान किये जाते हैं। नंदवंशमें कुल नौ राजा अनुमान किये जाते हैं; किन्तु मि० जायसवाल 'नव-नन्द' का अर्थ 'नवीन नन्द' करते हैं । इस प्रकार नन्दवर्द्धन और महानंदि तथा महादेवनन्द व नन्द चतुर्थ प्राचीन नंदराजा ठहरते हैं । क्षेमेन्द्रके पूर्वनन्दाः ' उल्लेख से भी इनका प्राचीन नन्द होना सिद्ध है । नवीन नंद राजाओं में कुल दोका पता चलता है । इस प्रकार कुल छै राजा नंदवंशमै हुये प्रगट होते हैं । कवि चन्दबरदाई (१२ वीं श० ई०) ने 'नव' का अर्थ नौ किया था; किन्तु वह भ्रम मात्र है । हिन्दुपुराणों के अनुसार नंदवंशने १०० वर्ष राज्य किया था; किन्तु जैनग्रन्थों में उनका राज्यकाल १५५ वर्ष लिखा मिलता है। १८० ] " १ - जबिओसो, भा० १ पृ ८७ - सिकन्दर महानको वृषल नन्द सिंहासन पर मिला था ( ३२६ ई० पू० ) और चन्द्रगुप्तने दिसम्बर ई० ० पू० ३२६ में अंतिम नन्दको परास्त किया था । इस कारण मि० जायसवाल एक महीने में आठ राजाओंका होना उचित नहीं समझते । २-अहि पृ० ४५ । ३ - जबिओसो, भा० भा० २ पृ० ४३ । ४-हरि० भूमिका पृ० ९६ - ( पालकरज्जं सर्हि इगिसय पणत्रण्ण विजयवसंभवा । ) जैन ग्रंथों में इस वंशका नाम ' विजयवंश' लिखा है 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १ पृ० ८९... व भाप्रारा० १२ व त्रिलोकप्रज्ञप्ति गाथा www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द-वंश | [ १८१ विद्वान् लोग जैनोंकी इस गणनासे सहमत नहीं हैं ।' वह पालक राजाके राज्यकाल सम्बन्धी ६० वर्ष भी इन्हीं ११५ वर्षों में सम्मिलित करते हैं । और जैनोंकी यह गणना भारतीय इतिहासमै नितान्त विलक्षण बतलाते हैं । यद्यपि नन्दवंशकी प्राचीन शाखा के दोनों राजाओं का वर्णन पहिले किंचित् लिखा जाचुका है; किन्तु वह पर्याप्त नन्दिवर्द्धन । नहीं है । नन्दवर्द्धनका नाम 'नन्द' था और 'वर्द्धन' उसकी उपाधि थी; जिससे वह महानंदसे पृथक् प्रगट होता है । उसका सम्बन्ध शिशुनाग और लिच्छवि, दोनों ही वंशोंसे था । उसकी माता संभवतः लिच्छवि कुलकी थी । मि० जायसवालने उसको चालीस वर्षतक राज्य करते लिखा है । नन्दवर्द्धन के समय में ही बौद्धों का दूसरा संघसम्मेलन हुआ था । इसी कारण बौद्धों के द्वारा व्यवहृन इनका अपरनाम ' कालाशोक ' अनुमान किया गया है । नन्द प्रथम अथवा नन्दवर्द्धन ने अपने राज्यका विस्तार खूब फैलाया था । यही वजह है कि वह 'वर्द्धन्' की सम्मानसूचक विरुदसे विभूषित हुये थे । नन्दवर्द्धन ने अपने राज्यके दशवें वर्ष में प्रपोतराजाको जीतकर अवन्तीपर अधिकार जमा लिया था । मालूम होता है कि उसने एक भारतव्यापी 'दिग्विनय' की घी । इस दिग्विजय में उसने दक्षिण-पूर्वी और पश्चिमीय समुद्रतटवर्ती देशों को अपने राज्य में मिला लिया था । उत्तर में हिमालय पर्वतके तराईके देश जीत लिये थे । काश्मीर और कलिङ्गको भी १- अहिर पृ० ४२, व १रि० भूमिका पृ० १२ । २ - जवि मोखो, भा० १० ८९... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ १८२] संक्षिप्त जैन इतिहास । उसने अपने आधीन कर लिया था। ई० पूर्व ४४९-४०९ में पारस्थ-साम्राज्य नष्ट होने लगा था । इसी अवसरपर नन्दवईन्ने काश्मीरसे लौटते हुये तक्षशिलावाले पारस्थ राज्यका अन्त कर दिया था। उनकी यह दिग्विजय उनके विशेष पराक्रम, शौर्य और रणचातुर्यका प्रमाण है ।' नन्दवर्द्धनने अपने राज्यारोहण कालसे एक संवत् भी प्रचलित किया था, जो ई० पू० ४५८से प्रारम्भ हुआ था और अलबरूनीके समय तक उसका प्रचार मथुरा व कन्नौजमे था।* उन्हें जनधर्मसे प्रेम था, यह पहिले ही लिखा जाचुका है। सर जान ग्रीयेर्सन सा० कहते हैं कि नन्दराजाओंका ब्राह्मणोंसे द्वेष था । नन्द द्वितीय अथवा 'महा' नन्दके विषयमें कुछ अधिक परिचय प्रायः नहीं मिलता है । हां, इतना स्पष्ट महा नन्द । है कि उनके समयमें तक्षशिला तक नन्दराज्य निष्कण्टक होगया था। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि महा नन्दके मित्र थे और वह तक्षशिलासे पाटलिपुत्र पहुंचे थे। यह भी सच है कि महा नन्दकी एक रानी शूदा थी और उसके गर्भसे महा-पद्मनन्दका जन्म हुआ था। इसका राज्यकाल ई०पूर्व.४०९.३७४ मानाजाता है। महानंदकी शूद्रा रानीके गर्भसे महापद्मका जन्म हुआ था। इसने नन्द राज्यके वास्तविक उत्तराधिकारी अपने महां पद्मनन्द । 'सौतेले भाईको धोखेसे मार डाला था और स्वयं १-जबिओसो. भा० १ १० ७७-८१ । *:जबिभोसो० भा० १३ पृ. २०' । + अहिइ० पृ० ४५ । २-जबिओसोमा पृ० ८२। आई भा० १ पृ० ५८-५९ व. अहिर पृ० ४१ । कुछ लोग कहते है कि सांप्रदायिक द्वेषसे ऐसा लिखा गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द वंश । [१८३ रामा बन बैठा था। प्राचीन जैन कानूनकी दृष्टिसे यद्यपि महानन्दका शूदा स्त्रोसे विवाह करना ठीक सिद्ध होता है। किंतु इस विवाह संबंधसे उत्पन्न हुआ पुत्र महापद्म केवल भरण-पोषणके योग्य सहायता पाने का अधिकारी ठहरता है । वह राज्यसिंहासनपर भारूड़ होने के योग्य अधिकार नहीं रखता था ! राना उपश्रेणिकके संबंध भी यही बात घटित हुई प्रतीत होती है । वह एक भोल कन्याको इस शतपर विवाह लाये थे कि उसके पुत्रको राजा बनायेंगे । किंतु शास्त्र और नियमानुसार श्रेणिक ही राज्य पानेके अधिकारी थे। हठात् उपश्रेणिक महारानने अपना वचन निभानेके लिये, श्रेणिकको देशसे निर्वासित कर दिया था; यह सब कुछ लिखा जाचुका है। महापद्मको इस नियमका उल्लंघन करना पड़ा था और उसने वास्तविक उत्तराधिकारीकी जीवनलीला असमयमें ही समाप्त करके स्वयं नन्दराज्यकी बागडोर अपने हाथमें ली थी। मालूम होता है कि इस घटनासे जैन रुष्ट हुये होंगे और महापनको घृणाकी दृष्टिसे देखने लगे होंगे। यही कारण है कि महापद्म द्वारा नैनोंके सताये जाने का उल्लेख मिलता है। उड़िया भाषाके एक ग्रन्थमे (१४वी श० ) मगधके नन्दरानाको वेद धर्मानुयायी लिखा है। उपर जैनोंके हरिषेण कृत कयाकोषमें (८वी श०) भी एक नन्दराजाको ब्राह्मण धर्म में दीक्षित करने की कथा मिलती है। वहां महापद्म नामक एक नैन मुनिने 1-अविओ मा० १ पृ. ८७ व माप्रारा० भा० २ पृ. ४५ अखि पृ. ४०-४। २- ० । ३-भगवतीसूत्र-ऑप. मा० १ पृ. ५८... ४-अविमोसो० भा० ३ ० ४८१ । ५-स पसाकोषके भनुशार " आराधना व्याकोष' भा• ३ पृ. ७०-८१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] संक्षिप्त जैन इतिहास । उनको प्रतिबुद्ध किया था । हमारे विचारमें यह महापद्म नाम नंदरानाका ही द्योतक है । नो हो, इतना स्पष्ट है कि नंदराजा ब्राह्मगोंके द्वेषी थे और वह जैनधर्मसे प्रेम रखते थे। उनका जन धर्मानुयायी होना कुछ आश्चर्य ननक नहीं है । इन नव नंदोंके मंत्री निम्सन्देह जैन धर्मानुयायी थे । महापद्म का मंत्री पल्पक नामक था और इसका ही पुत्र अगाडीके नन्दका मंत्री रहा था । ___ महापद्मनन्दमें अपने दादा नन्दवर्द्धनके समान क्षात्रशक्ति ____और रणकौशलकी बाहुल्यता थी। उसने नंदराज्यको '। विस्तृत बनाने के प्रयत्न किये थे। उसने कौशाम्बीको जीतकर वहां के पौरववंशका अंत किया था। गंगा व जमनाकी तरा. ईवाले और भी छोटे२ स्वाधीन राज्यों-पांचाल, कुरु आदिको उसने अपने अधिकार कर लिया था । इमप्रकार कुशलतापूर्वक वह ई० पूर्व ३३६-३३८ तक राज्य करता रहा था। महापद्मके पहिले महानन्दके वास्तविक उत्तराधिकारी दो पुत्र नन्द महादेव और नंद चतुर्थ कुल ३७४ से ३६६ ई० पूर्वतक नाममात्रको राज्याधिकारी रहे थे। उनका संरक्षक महापद्म था और अन्तमें उसने ही राज्य हथिया लिया था। __ अंतिम नन्द सफल्य अथवा धननन्द था । यह बड़ा लालची ____ था। इसका मंत्री सकटाल जैन धर्मानुयायी था; अन्तिम-नन्द । - जो अन्तमें मुनि होगया था। इसके पुत्र स्थूलभद्र और श्रीयक थे । स्थूलभद्र भैनमुनि होगये थे और श्रीय १-अहि: पृ० ४५-४६ । २-कहिइ० पृ० १६४ । ३-हिलिगै० पृ० ४५ । ४-जविओसो०, भ.० १ पृ० ८९-९० ।५-आक० भा० ३पृ० ७८-८१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द-वंश | ૧ [ १८५ कको मंत्रीपद मिला था । इसीका अपरनाम संभवतः राक्षस था । " धननन्दमें इतनी योग्यता नहीं थी कि वह इतने विस्तृत राज्यको समुचित रीति से संभाल लेता; यद्यपि उस समय भारतमें वह सबसे बड़ा राजा समझा जाता था । यूनानियोंने उसको मगध और कलिङ्गका राजा लिखा है और बतलाया है कि उसकी सेनामें २ लाख पैदल सिपाही, २० हजार घुड़सवार, २ हजार रथ और ३ या ४ हजार हाथी थे । यूनानियोंने यह भी लिखा है कि उसकी प्रजा उससे अप्रसन्न थी । उबर कलिंग में ऐर वंशके एक राजाने घननंदसे युद्ध छेड़ दिया । घननन्द उसमें परास्त हुआ और कलिंग उसके अधिकार से निकल गया था । इधर चाणिक्यकी सहायता से चन्द्रगुप्तने भी नन्दपर आक्रमण कर दिया था । नन्दका सेनापति भद्रनाल था । " इम युद्ध में भी उसकी हार हुई और उसके साथ ही ई० पू० ३२६ में नंदवंशकी समाप्ति होगई 3 ૫ · थी । कहते हैं कि इसने ही जैनोंके तीर्थ पञ्चपहाड़ी का निर्माण पटना में कराया था । " १- हिलिज० पृ० ४५। २- मुद्रा० नाटक में नंदराजा के मंत्रीका नाम यही है । इसका भी जैन होना प्रगट है । वीर वर्ष ५ पृ० ३८८ । ३- अहि० पृ० ४०-४१ । ४- जत्रिओसो ० भा० ३ पृ० ४८३ ॥ ५- मिलिन्द ० २।१४७ । ६-चीनी लोग नन्दराजाकी मृत्यु ई० पूर्व ३२७ चताते है । ऐरि० भा० ९ पृ० ८७ । ७- अहि० पृ० ४६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 77 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | ( १० ) सिकन्दर महानूका आक्रमण और तत्कालीन जैन साधु । ( ई० पू० ३२७ - ३२३ ) १८६ ] सिकन्दर महान् । यूनान में मेसीउन नामक एक छोटेसे देशका राजा फैलकूस (फिलिप ) था । इसीका पुत्र सिकन्दर था । सिकन्दर बड़ा साहसी, पराक्रमी और प्रतिभाशाली था । उसने अपने पिता के छोटेसे राज्यका खूब विस्तार किया था । और वह बड़े साम्राज्यका स्वामी था । तीन वर्षमें ( ३३४३३१ ई० पू० ) उसने एशिया माइनर, सिरिया, मिस्र, ईरान, आदि देशोंको जीत लिया था और फिर भारतको जीतनेका संकल्प करके वह फर्वरी अथवा मार्च सन् ३२६ ई० पू० में ओहिन्द नामक स्थानपर सिंधु नदी पार करके भारतमें आपहुंचा था । पहिले ही उसके मार्ग में तक्षशिलाका हिंदू राज्य आया था; किन्तु यहांके शिशुगुप्त नामक राजाने सिकन्दरका विरोध नहीं किया था । उसने एक मित्रके समान उसका स्वागत किया था । इस प्रकार भारतवर्ष में पहिले पहिल सिकन्दरके सम्मानित होने में तक्षशिलाधीश और पुरु - ( पोरस ) एवं अन्य राजपूतों का पारस्परिक मनोमालिन्य ही मूल कारण था । पुरु और अन्य राजा लोग तक्षशिलापर कईवार चढ़ाई करते रहे थे । सिकन्दर तक्षशिलाधीशके इस स्वागतपर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने उसे तक्षशिलाका राज्य पुनः सौंप दिया । किन्तु पुरु (पोरस) ने, जो सिंधु और झेलम नदीके बीचवाले, देशपर I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com · Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु । [१८७ राज्य करता था, उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। पुरुने बड़ी वीरतासे लड़ाईमें सिकन्दरका सामना किया था; किंतु उसके हाथियों ने बड़ा धोखा दिया और हठात् उसने सिकन्दरका आधिपत्य स्वीकार कर लिया था । इस विनयके बाद सिकन्दर अगाड़ी पूर्व दिशाकी ओर बढ़ा था और व्याप्त नदीके किनारेपर पहुंचा था। यहां उसकी सेनाने जवाब देदिया-वह थक गई थी। उसने अगाडी बढ़नेसे इन्कार कर दिया था। बरवश सिकन्दरको वापस अपने देश लौट जाना पड़ा था । झेलम नदीके पास उसके सैनिकोंने दो हजार नावोंका वेड़ा तैयार कर लिया और उसपर सवार होकर अक्टूबर सन् ३२६ ई. पू. में वह झेलम नदीके मार्गसे वापस हुआ था। मार्ग में उसे कठिन कठिनाइयां झेलनी पड़ीं और दस महीने की यात्राके बाद वह फारस पहुंचा था। जून सन् ३२३ ई० पू० में वेबीलन में ३२ वर्षकी अवस्था में सिकन्दरका देहान्त होगया था। उसका विचार सिन्ध और पंजाबको अपने साम्राज्य में मिला लेने का था; किन्तु अपनी असामायिक मृत्युके कारण वह ऐसा नहीं कर सका था। उसकी मृत्युके बाद उसका साम्राज्य छिन्नभिन्न होगया और भारतके उत्तर-पश्चिमीय सीमावर्ती प्रदेशपर जो उसका अधिकार कुछ जमा था; उसे चन्द्रगुप्त मौर्यने नष्ट कर दिया था। यूनानियों के इस आक्रमणका मारतपर कुछ भी असर नहीं समातियों माकम- पड़ा था। भारतकी सम्पता और उसके 'पका प्रमोव। आचार-विचार मछुम रहे थे। मारतीयोने १-माह० पृ. ५५-५८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । यूनानी सभ्यताको ग्रहण नहीं किया था। सिकन्दरका भारतआक्रमण एक तेज आंधी थी; जो चटसे भारतके उत्तर-पश्चिमीय देशसे होती हुई निकल गई। उससे भारतका विशेष अहित भी नहीं हुआ था। यही कारण है कि भारतवासी सिकन्दरको शीघ्र ही भूल गये थे। किसी भी ब्राह्मण, जैन या बौद्धग्रंथमें इस माक्रमणका वर्णन नहीं मिलता है। किंतु इस आक्रमणका फल इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके द्वारा संसारकी दो सम्य और प्राचीन जातियों का सम्पर्क हुआ था । यूनानियोंने भारतवर्षके विद्वानोंसे बहुतसी बातें सीखीं थीं और यहांके तत्त्वज्ञानका यूनानी दार्शनिकोंके विचारोंपर गहरा प्रभाव पड़ा था। सिकन्दर और उसके साथियों का विशेष संप्तर्ग दिगम्बर जैन मुनियोंसे हुआ था। परिणामतः यूनानियोंमें अनेक विद्वान् “अहिंसा परमो धर्मः" सिद्धांत पर जोर देनेको तुल पड़े थे। इन लोगोंने जो भारत एवं जैन मुनियों ( Gymnosophists ) के सम्बन्धमे जो बातें लिखी हैं; उनका सामान्य दिग्दर्शन कर लेना समुचित है। भारतवर्षके विषयमें यूनानियोंने बहुत कुछ लिखा है, मगर खास . जानने योग्य बातें यह हैं कि वह उस समय भारतकी भारत वणना जनसंख्या तमाम देशोंसे अधिक बताते हैं जो अनेक संप्रदायों में विभक्त था और यहां विभिन्न भाषायें बोली जाती थीं। एक संप्रदाय ऐसा भी है कि न उसके अनुयायी किसी जीवित प्राणीको १-पैथागोरस ऐसा ही उपदेश देता था ( देखो ऐइ० पृ. ६५) और पोरफेरियस ( Porphyrious) ने मांस निषेध पर एक प्रन्यलिखा था । (ऐइ० पृ० १६९)। २-ऐइ० पृ० १ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [१८९ मारते हैं और न खेती करते हैं । वह घरों में नहीं रहते। और शाकाहार करते हैं। वह उत्त अनानको प्रयोगमें लाते हैं जो अपने आप पृथ्वीमें उपनता है और मई (millet) जैसा होता है।' बहुत करके यह वर्णन जैनोंके व्रती श्रावकों को लक्ष्य करके लिखा गया प्रतीत होता है । ब्राह्मणोंमें कतिपय ऐसे भी थे, जो मांस नहीं खाते और न मद्य पीते थे। भारतवासियोंको यूनानियोंने मितव्ययी किन्तु माभूषणोंके प्रेमी लिखा है। उनने मिश्रदेश समान यहां भी सात जातियों का होना लिखा है किन्तु यह राजनतिक अपेक्षासे सात भेद कहे जासक्ते हैं। वैसे चार जातियां-ब्राह्मग, क्षत्री, वैश्य, शूद-यहां थीं। कृषक लोग अधिक संस्थामें थे । वे बड़े साल और दयालु थे । उन्हें युद्ध नहीं करना पड़ता था । क्षत्री लोग युद्ध करते थे । प्रत्येक जाति के लिये मपना व्यवसाय करना अनिवार्य था । युद्धके समय भी खेती होती रहती थी। कोई भी उनको नहीं छेड़ता था, फसलका : भाग स्वयं रखने और शेष रानाको देते थे।"भार. तीय घने बुने हुए कपड़ेको लिखनेके काममें लाने थे। भारतमें अन्ननल की बाहुल्यता और विशेषता थी। उनका शरीर गठन साधारण मनुष्योंसे कुछ विशेषता रखता था और उसका उन्हें गर्व था। वह शिल्प और ललित कलाओंमें खूब निपुण थे। घरती शाक और अनान तो उगता ही है परन्तु अनेक प्रकारकी धातुयें भी निकलती थीं । सोना, चांदी और लोहा विशेष परिणाममें निकलता १-ऐइ० पृ. २ । २-ऐ६० पृ० १८३ । ३-ऐ३० पृ. ३० । ४-ऐ३० मे पृ. ४०-४३ । ५-ऐइ. पृ. ६-ऐ६० पृ० ५६ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | बताया है। नदियोंसे भी सोना निकलता था । इसीकारण कहा जाता है कि भारत में कभी अकाल नहीं पड़ा और न किसी विदेशी राजाने भारतको विजय कर पाया । उनमें झूठ बोलने और चोरी करनेका प्रायः अभाव था । वे गुणोंका आदर करते थे । वृद्ध होनेसे ही कोई आदरका पात्र नहीं होता। उनमें बहु विवाहकी प्रथा प्रचलित थी । कहीं कन्यापक्षको एक जोड़ी बैल देनेसे वरका विवाह होता था और कहीं वर-कन्या स्वयं अपना विवाह करा लेते थे । * स्वयंवरकी भी प्रथा थी । विवाहका उद्देश्य कामतृप्ति और संतान वृद्धिमें था । कोई २ एक योग्य साथी पानेके लिये ही विवाह करते थे ।" वे छोटीसी तिपाईपर सोनेकी थाली में रखकर भोजन करते थे । उनके भोजन में चांवल मुख्य होते थे । २ Ε भारतीय तत्ववेत्ता | यूनानियोंने भारतवर्षके तत्ववेत्ताओं का वर्णन किया है, वह बड़े मार्केका है । उन्होंने भारतकी सात जातियों में से पहली जाति इन्हीं तत्ववेत्ता - ओंकी बतलाई है । इनमें ब्राह्मण और श्रमण यह दो भेद प्रगट किये हैं । ब्राह्मण लोग कुल परम्परासे चली हुई एक जाति विशेष थी । अर्थात् जन्मसे ही वह ब्राह्मण मानते थे । किंतु श्रमण सम्प्रदाय में यह बात नहीं थी। हर कोई विना किसी नातिपांतके भेद श्रमण हो सक्ता था | ब्राह्मणोंका मुख्य कार्य दान, दक्षिणा लेना और यज्ञ कराना था । वे साहित्य रचना और वर्षफल भी प्रगट करते थे । वर्षारम्भ में वे अपनी रचनायें लेकर राजदर I पृ० ७०-७१ । ३-ऐइ० १ - मेऐइ० पृ० ३१-३३ । २ - ऐइमे० पृ० ३८ । ४- मेएइ० पृ० २२२ । ५- मेऐइ०, पृ० ७१ । ६ मेऐइ •, ०७४ । - मेऐ६०, पृ० ९८ । ८- ऐइ० १० १६९ व १८१ " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर - आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [ १९१ रवार में पहुंचते थे और मान्यता पाते थे । यदि उनका वर्षफल आदि कोई कार्य ठीक नहीं उतरता तो उन्हें जन्मभर मौन रहने की आज्ञा होती थी। इस कार्यमें श्रमण भी भाग ले सक्ते थे । ब्राह्मणों ने ऐसे भी थे, जो वानप्रस्थ दशामें रहते थे । 7 श्रमण भी कई तरह के थे; किंतु उनमें मुख्य वह थे जो नग्न " • जैनोसोफिस्ट' रहते थे। यह ब्राह्मण और बौद्धोंसे भिन्न थे। इनको विद्वानोंने दिगम्बर जैन मुनि माना है; दिगम्बर जैन साधु थे । यद्यपि कोई विद्वान इन्हें आजीविक साधु अनुमान करते हैं । किंतु इनका यह अनुमान निर्मूल है। यूनानियोंने इन नग्न साधुओंकी मिन विशेष क्रियाओं का उल्लेख किया है; उनसे इनका दिगम्बर जैन मुनि होना सिद्ध है । उदाहरण के लिये देखिये :-- (?) यूनानियोंका कथन है कि " श्रमण कोई शारीरिक परिश्रम (Labour =प्रारम्भ ) नहीं करते हैं; नग्न रहते हैं; सर्दीमें खुली हवामें और गरमियों में खेतों में व पेड़ों के नीचे शासन जमाते हैं; और फलों पर जीवन यापन करते हैं ।" यह सब क्रियायें जैन मुनियोंके जीवन में मिलती हैं । जैन मुनि आरम्भके सर्वथा त्यागो होते हैं । वे पानीतक स्वयं ग्रहण नहीं करते यह बौद्धशास्त्रों से भी प्रगट है ।" उनका नग्नभेष भी जैन शास्त्रोंके अनुकूल है; जैसे कि पहले लिखा नाचुका है। वनों और गुफाओं आदि एकान्त स्थानमें जैन मुनिको रहनेका आदेश है । तथा वह निरामिषमोजी और उद्दिष्ट त्यागी होते हैं । १- ऐ३० पृ० ४७ । २ जसि . ११ कि० १-१० ८ ॥ ३- ३० पृ० ४७ । १-मनेडु० ई २२३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | (२) 'श्रमण नग्न रहते, कठिन परीषह सहन करते और किसीका निमंत्रण स्वीकार नहीं करते हैं । उनकी मान्यता जनसाधारण में खूब है ।" जैन मुनि कठिन परीषद सहन करने और निमंत्रण स्वीकार करने के लिये प्रख्यात हैं । (३) ' इन्डिया के साधु नग्न रहते और कोह कॉफका (Cau casus) बर्फ तथा सर्दीका वेग बिना संक्लेश परिणामोंके सहन करते हैं और जब वे अपने शरीरको अग्निके सुपुर्द कर देते हैं और वह जलने लगता है, तो उनके मुखसे एक आह भी नहीं निकलती है ।"" सर्दी, गर्मी, दंश आदि बाईस परीषहों को जैन मुनि समताभाव से सहन करते हैं उनको शरीर से ममत्व नहीं होता । अंतिम समय में वे सल्लेखना व्रत करते हैं और प्राणान्त होजानेपर अग्निचिता उनकी देह भस्म होजाती है । कल्याण (Kalanos ) नामक एक जैन मुनिके सल्लेखना व्रतका विशद वर्णन, यूनानियोंने किया है निम्नमें उसको प्रकट करते हुये इस विषयका स्पष्टीकरण होजायगा । आज भी जैन साधु इस व्रतका अभ्यास करते हुये मिलेंगे । इससे भाव आत्महत्याका नहीं है । 3 (४) 'उन (भारतीयों) के तत्ववेत्ता, जिनको वे 'जिन्मोसोफिस्ट कहते हैं, प्रातः कालसे सूर्यास्त तक सूर्यकी ओर टकटकी लगा कर खडे रहते हैं । खूब जलती हुई रेतपर वह दिनभर सभी इस पैर से और कभी दूसरे से स्थित रहते हैं । यहांपर जैन मुनियों को आतापन योग नामक तपस्याका साघन करते हुये बताया गया है । (५) साधारण मनुष्यों को संयमी और संतोषमय जीवन वितानेकी१- ऐइ० पृ० ६३ । २ - ऐइ० पृ० ६८ फुट० - १ । ३-ऐइ पृ० ६८ फु०२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [१९३ सलाह इन श्रमणोंने दी थी।' जैन मुनि सदा ही ऐसी शिक्षा दिया करते हैं। (६) श्रमण और श्रमणी ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हैं। श्रमणी तत्वज्ञान का अभ्यास करती हैं । जनसंघके मुनि आर्यिकाओं को पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करना अनिवार्य होता है। मार्यिकायें तत्वज्ञानका खासा अध्ययन करती हैं । (७) श्रमण संघमें प्रत्येक व्यक्ति सम्मिलित होसक्ता है।' जैनसंघका हार भी प्रत्येक नीवित प्राणीके लिये सदासे खुला रहा है। (८) 'श्रमण नग्न रहते हैं । वे सत्य का अभ्यास करते हैं। भविष्य विषयक वक्तव्य प्रगट करते हैं। और एक प्रकारके 'पिरामिड' (Pyramid) की पूजा करते हैं, जिनके नीचे वे किसी महापुरुषकी अस्थियां रक्खी हुई मानते हैं ।" नग्न रहना, सत्यका अभ्याप्त करना और भविष्य सम्बंधी वक्तव्य घोषित करना नैन मुनियों के लिये कोई अनोखी बात नहीं है। ज्योतिष और भविष्य फल प्रगट करने के लिये वे अनैन ग्रन्थों में भी सन्मानकी दृष्टिसे देखे गये हैं। सिद्ध प्रतिमा संयुक्त स्तूप ठीक 'पिरामिड ' असे होते हैं। नैनों में इनकी मान्यता बहु प्राचीनकालसे है । यह स्तुर १-ऐइ० पृ. ७० । २-ऐइ. १० १८३ व मेऐइ० पृ.१.३ । ३-ऐ१०, पृ० १६७ । ४-वीरे, वर्ष५ पृ. २३०-२३४ । ५-ऐइ०, पृ. १८३ । ६-न्यायबिन्दु (अ. ३) में श्री ऋषभ व वदमान महावीरजीको ज्योतिष विद्या निगात होने के कारण सर्वज्ञके आदर्शरूप प्रगट किया है। पुद्रा राइस (अं० ४), प्रबोध चन्द्रोदय (. ३) भादि वर मुनि भविष्य विषयक घोषगा करते बताये गये है। देखो जा. भाग 1४ पृ. ४५-६१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | केवली भगवानके समाधिस्थानपर बनते हैं। तक्षशिला में आज भी कई भग्न जैन स्तूप मिले हैं । (९) 'सूर्य की प्रखर धूप में खड़े हुए दिगम्बर (नग्न) साधुओंसे सिकन्दर ने पूछा कि आप लोग क्या चाहते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया कि, आप अपने साथियोंके साथ कहीं छायाका आश्रय लें । बस, हमको यही चाहिये ।" यह क्रिया दया दाक्षिण्यादि जैन साधुओं के उपयुक्त गुणयुक्त है । उन्होंने यूनानियों के लिये सूर्यका ताप असहिष्णु समझकर शीतल प्रदेशके उपयोगका उपदेश दिया प्रतीत होता है । (१०) श्रमणोंने कहा था कि 'इस परिभ्रमणका कभी अन्त होनेवाला नहीं । जब हमारी मृत्यु होगी तो इस शरीर और आत्माका जो अस्वाभाविक मिलन है, वह छूट जायगा । मृत्युके बाद हमें एक अच्छी गति प्राप्त होगी। यह मान्यतायें ठीक जैनों के समान हैं । (११) " एकबार सिकन्दरने ध्यानमग्न दश साधुओं को बलाकारसे पकड़कर मंगा लिया था। साधुओंसे उसने दस प्रश्न किये और धमकी दी कि यदि इनका ठीक उत्तर नहीं होगा, तो हम सबको एक साथ मरवा देंगे । परन्तु साधुओंके संघनायकने बड़ी निर्भीकतासे सिकन्दर से कहा था कि यद्यपि तुम्हारा शारीरिक और सैनिक बल हमसे बढ़ा चढ़ा है, किंतु आत्मिक बल तुम्हारा हमसे प्रबल नहीं होक्ता | कहा जाता है कि ये नग्न साधु सिकन्दर के सिपा१- जैसि : भा० भा० १ कि० २-३, पृ० ८- । २- पूर्ववत् । ३- ऐ६० पृ० ०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रपण व तत्कालीन जैन साधु । [१९५ हियों तथा अन्यान्य मनुष्यों के पदचिन्हित पृथ्वीपर ही पैर रखकर चलते थे । जैनाचार्योने जहां मुनियों के भाचारका कथन किया है, वहां विहार वर्णनमें स्पष्ट रूपसे लिखा है कि मुनियों को तथा साधुओंको मर्दित तथा पददलित भूमिपर ही चलना चाहिये। इस कथनसे ग्रीक इतिहास लेखकों का कथन बड़ी अभिन्नतासे मिलता है।" उपरोक्त खास विशेषताओं को देखते हुये यह निस्सन्देह स्पष्ट है कि सिकन्दर महान को जो नग्न साधु तक्षशिलाके आसपास मिले थे, वह दिगम्बर जैन साधु थे । आनीविक साधु वह नहीं होसते; क्योंकि आजीविक साधु पूर्णतः निरामिष भोनी नहीं होते, भानीविका करते हैं और एक लाठी (डन्डा) भी हाथ लिये रहते हैं। तथापि उनका वैदिक ऋषि और बौद्ध भिक्षु होना भी अपंगत है। इन दोनों साधुओं का उल्लेख तो यूनानियोंने प्रथक रूपमें किया है। अतएव इन नग्न साधुको दिगम्बर जैन श्रमण मानना अनु. चित नहीं है। तक्षशिलामें तब इनकी बाहुल्यता और प्रतिष्ठा अधिक थी; इससे कहा जा सक्ता है कि उस समय जैनधर्म अवश्य ही उत्तर-पश्चिमीय सीमावर्ती देशोंतक फेल गया था। यूनानी लोगों के वर्णनसे तबके जैन साधुधर्मके स्वरूपका भी दिग्दर्शन होनाता है और वह म० महावीरके समयके अनुकूल प्रगट होता है। 1-सि भा०, मा० १ कि. ४ पृ. ६ । २-भमबु०१० २०-२२ व पीर वर्ष २ पृ. ५४७ । ३-असिभा०, भा० १ कि. २-३ पृ. ८। ४-डॉ. स्टीवेन्सन (जसऐगो. जनवरी १८५५), प्रो. कोलया (ऐरि० भा. १ पृ. १९९) और इन्सापेटिया ब्रटेन (04 भवृत्ति) भा. १५ पृ. १२८में इन नग्न प्रमणो न नि लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । ६ यूनानियोंने इन नग्नसाधुओंमें मन्दनीस और कलोनस नामकदिगम्बर जैन दो साधुओंकी बड़ी प्रशंसा की है। इनको साधु मन्दनीस और उन्होंने ब्राह्मण लिखा है और इस अपेक्षा कलानस । किन्हीं लेखकोंने उनका चरित्र वैदिक ब्राह्मणोंकी मान्यताओं के अनुकूल चित्रित किया है; किंतु उनको सबने नग्न बतलाया है ।" तथापि कलोनसको जो केशलोंच आदि करते. | लिखा है, उससे स्पष्ट है कि ये साधु जैन श्रमण थे। एक यूनानी लेखक ने क्लोनसको ब्राह्मण पुरोहित न लिखकर 'भ्रमण' बतलाया भी है । अतः मालूम ऐसा होता है कि जन्मसे ये ब्राह्मण होते हुये भी जैन धर्मानुयायी थे । इनका मूल निवास तिरहूतमें थी । सिकन्दर जब तक्षशिला में पहुंचा तो उसने इन दिगम्बर साधुओं की बड़ी तारीफ सुनी। उसे यह भी मालम हुआ कि वह निमंत्रण स्वीकार नहीं करते | इसपर वह खुद तो उनसे मिलने नहीं गया; किंतु अपने एक अफसर ओनेसिक्रिटस (Onesikritos) को उनका हालचाल लेनेके लिये भेजा । तक्षशिला के बाहर थोड़ी दूरपर उस अफसरको पन्द्रह दिगम्बर साधु असह्य धूपमें कठिन तपस्या करते मिले थे । कलोनस नामक साधुसे उसकी वार्तालाप हुई थी । यहीं साधु यूनान जाने के लिये सिकन्दर के साथ हो लिया था। मालूम होता है कि 'कलोनस' नाम संस्कृत शब्द 'कल्याण' का अपभ्रंश है । " २ - ऐइ०, पृ० ७२ । पृ० १ - विशेष के लिये देखो वीर, वर्ष ६ । ३- ऐरि० भा० ९ पृ० ७० । ४ - पे०, ६९ । ५ - यूनानी लेखक प्लूटार्कका कथन है कि यह मुनि आशीर्वादमें 'कल्याण' शब्दका प्रयोग करते थे । इस कारण कलॉनस कहलाते थे । इनका यथार्थ नाम 'स्फाइन्स' (Sphines ) था । मेऐइ० पृ० १०६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालिन जैन साधु [१९७ अतः इन साधुका शुद्ध नाम ठीक है, जो जैन साधुओं के नामके समान है। मुनि कल्याणने इस विदेशीके प्रचण्ड लोभ और तृष्णाके वश हो घोर कष्ट सहते हुये वहां आया देखकर जरा उपहातभाव धारण किया और कहा कि पूर्वकालमें संसार सुखी था-यह देश अनानसे भरपूर था। वहां दृष और अमृत आदिके झरने वहते ये, किन्तु मानव समान विषयभोगोंके माधीन हो घमण्डी और उद्दण्ड होगया। विधिने यह सब सामग्री लुप्त करदी और मनुप्यके लिये परिश्रमपूर्वक जीवन विताना (A life of toil) नियत कर दिया । संसारमें पुनः संयम मादि सद् गुणों की वृद्धि हुई और अच्छी चीनों की बाहुल्यता भी होगई ! किन्तु अब फिर मनुष्यों में असन्तोष और उच्छृङ्खलता आने लगी है और वर्तमान अवस्थाका नष्ट होनाना भी मावश्यक है। सचमुच इप्त वक्तव्य द्वारा मुनि कल्याणने भोगभूमि और कर्मभूमिके चौथे काळ और फिर पंचमकालके प्रारंभका उल्लेख किया प्रतीत होता है। ___उनने यूनानी अफसरसे यह भी कहा था कि 'तुम हमारे समान कपड़े उतारकर नग्न होनाओ और वहीं शिलापर मासन जमाकर हमारे उपदेशको श्रवण करो। बेनारा यूनानी अफसर इस प्रस्तावको मुनकर बड़े असमंजसमें पड़ गया था; किन्तु एक जैन मुनिके लिये यह सर्वथा उचित था कि वह संसारमें बुरी तरह फंसे हुये प्राणी उद्धार करने भावसे उसे दिगम्बर मुनि होना· १-ऐह, पृ. ७० । २-ऐ६० पृ. ७०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] संक्षिप्त जैन इतिहास । नेकी शिक्षा दें । प्रायः प्रत्येक जैन मुनि अपने वक्तव्य के अन्तमें ऐसा ही उपदेश देते हैं और यदि कोई व्यक्ति मुनि न होसके तो उसे श्रावकके व्रत ग्रहण करने का परामर्श देते हैं। मुनि कल्याणने भी यही किया था। किन्तु एक विदेशीके लिये इनमें से किसी भी प्रस्तावको स्वीकार कर लेना सहसा सुगम नहीं था। मुनि मन्दनीस, जो संभवतः संघाचार्य थे, यूनानी अफसरकी इस विकट उलझनमें सहायक बन गये। उन्होंने मुनि कल्याणको रोक दिया और यूनानी अफसरसे कहा कि 'सिकन्दर' की प्रशंसा योग्य है। वह विशद साम्राज्यका स्वामी है, परन्तु तो भी बह ज्ञान पानेकी लालसा रखता है। एक ऐसे रणवीरको उनने ज्ञानेच्छु रूपमें नहीं देखा ! सचमुच ऐसे पुरुषोंसे बड़ा लाभ हो, कि जिनके हाथोंमें बल है, यदि वह संयमाचारका प्रचार मानवसमाजमें करें । और संतोषमई जीवन वितानेके लिये प्रत्येकको बाध्य करे। ____ महात्मा मन्दनीसने दुभाषियों द्वारा इस यूनानी अफसरसे वार्तालाप किया था। इसी कारण उन्हें भय था कि उनके भाव ठीक प्रकट न होसकें। किन्तु तो भी उनने जो उपदेश दिया था उसका निष्कर्ष यह था कि विषय सुख और शोकसे पीछा कैसे छूटे । उनने कहा कि शोक और शारीरिक श्रममें भिन्नता है। शोक मनुष्यका शत्रु है और श्रम उसका मित्र है। मनुष्य श्रम इसलिये करते हैं कि उनकी मानसिक शक्तियां उन्नत हों, जिससे कि वे भ्रमका मन्त कर सकें और सबको अच्छा परामर्श देसकें। वे तक्षशिला वासियोंसे सिकन्दरका स्वागत मित्ररूपमें करने के लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु । [ १९९ कहेंगे; क्योंकि अपने से अच्छा पुरुष यदि कोई चाहे तो उसे भलाई करना चाहिये ।" इसके बाद उनने यूनान के तत्ववेत्ताओं में जो सिद्धान्त प्रच किते थे उनकी बाबत पूछा और उत्तर सुनकर कहा कि 'अन्य विषयों में यूनानियों की मान्यताएं पुष्ट प्रतीत होती हैं, जैसे अहिंसा आदि, किन्तु वे प्रकृतिके स्थानपर प्रवृत्तिको सम्मान देनेमें एक बड़ी गलती करते हैं । यदि यह बात न होती तो वे उनकी I तरह नग्न रहने में और संयमी जीवन बिताने में संकोच न करते; क्योंकि वही सर्वोत्तम गृह है, जिसकी मरम्मतकी बहुत कम जरूरत पड़ती है । उनने यह भी कहा कि वे (दिगम्बर मुनि) प्राकृतवाद, ज्योतिष, वर्षा, दुष्काळ, रोग आदिके सम्बन्धमें भी अन्वेषण करते हैं। जब वे नगरमें जाते हैं तो चौराहे पर पहुंचकर सब तितरबितर होजाते हैं । यदि उन्हें कोई व्यक्ति अंगूर मादि फल लिये मिल जाता है, तो वह देता है उसे ग्रहण कर छेते हैं । उसके बदले में वह उसे कुछ नहीं देते । प्रत्येक धनी गृहमें वह अन्तः १- ऐ६० पृ० ७०-७१ सन्तोषी और संयमी जीवन विताने की शिक्षा देना, दूसरोंके साथ भटाई करनेका उपदेश देना और प्रवृत्तिको प्रधानता देना, जैन मान्यताका द्योतक है । २-इस उल्लेखसे उस समय के मुनियों का प्रत्येक विषय में पूर्ण निष्णात होना सिद्ध है । ३- यहां आहार क्रियाका वर्णन किया गया है। नियत समयपर संघ आहार के लिये नगर में जाता होगा और वहां चौराहेपर पहुंचकर सबका अलग २ प्रस्थान कर मामा ठीक ही है । ४-केसे और कौनसा आहार वे ग्रहण करते है ? इस प्रश्नके उत्तर में महात्मा मन्दनीसने यह वाक्य कहे प्रगट होते है । जैन साधुझे एक. व्यक्ति मतिपूर्वक जो भी शुद्ध निरामिष भोजन देता है, उसे ही वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] संक्षिप्त जैन इतिहास । पुर तक बिना रोक्टोकके जातक्ते हैं । भाचार्य मन्दनीसने सिकन्दरके लिये यह भी उपदेश दिया था कि वह इन सांसारिक सुखोंकी भाशामें पड़कर चारों तरफ क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? उसके इस परिभ्रमणका कभी अन्त होनेवाला नहीं। वह इप्त पृथ्वीपर अपना कितना ही अधिकार जमाले, किन्तु मरती बार उसके शरीरके लिये साढेतीन हाथ नमीन ही बप्त होगी।' इन महात्माके मार्मिक उपदेश और जैन श्रमणों की विद्याका प्रभाव सिकन्दर पर बेढब पड़ा था। उसने अपने साथ एक साधुको भेननेकी प्रार्थना संघनायकसे की थी; किन्तु संघनायकने यह बात अस्वीकार की थी। उन्होंने इन जैनाचार हीन विदेशियोंके साथ रहकर मुनिधर्मका पालन अक्षुण्ण रीतिसे होना अशक्य समझा था। यही कारण है कि उनने किसी भी साधुको यूनानियों के साथ जानेकी माज्ञा नहीं दी। किन्तु इसपर भी मुनि कल्याण (कलॉनस) धर्मप्रचारकी अपनी उलट लगनको न रोक सके और वह सिकन्दरके साथ हो लिये थे। उनकी यह क्रिया संघनायकको पसंद न आई और मुनि कल्याणकको उनने तिरस्कार दृष्टिसे देखा था। भारतसे लौटते हुये, जिससमय सिकन्दर पारस्यदेशमें पहुंचा; कलोनसको विदेशमें तो वहकि सुप्ता (Susa) नामक स्थानमें समाधिमरण । इन महात्मा कलानसको एक प्रकारकी व्याधि जो अपने देशमें कभी नहीं होती थी होगई। इस समय ग्रहण करते है। उसके बदले में वह उसे कुछ भी नहीं देते। भोजनके नियममें वे भक्तजनका कोई भी उपकार नहीं करते। १-ऐइ. पृ० ७३ । २-सि भा०, मा० १ कि० ४ पृ० ५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर-आक्रमण व तत्कालीन जैन साधु । [ २०१ वह तेहत्तर वर्षके वृद्ध थे । और फिर रुग्गदशामें उनके लिये जैनधर्मकी प्रथानुसार प्रवृत्ति करना और धर्मानुकूल इन्द्रियदमनकारी भोजनों द्वारा रोगी शरीरका निर्वाह करना असाध्य होगया था । इसलिये उन्होंने सल्लेखना व्रतको ग्रहण कर लेना उचित समझा । यह व्रत उसी असाध्य अवस्थामें ग्रहण किया जाता है, जब कि व्यक्तिको अपना जीवन संकटापन्न दृष्टि पड़ता है। मुनि कल्याणकी शारीरिक स्थिति इसी प्रकारकी थी । उनने सिकन्दर पर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया । पहिले तो सिकंदर राजी न हुआ; परंतु महात्माको आत्मविर्सन करने पर तुला देखकर उसने समुचित सामग्री प्रस्तुत करनेकी आज्ञा दे दी । पहिले एक काठकी कोठरी बनाई गई थी और उसमें वृक्षोंकी पत्तियां बिछा दीगईं थीं । इसीकी छतपर एक चिता बनाई गई थी । सिकन्दर उनके सम्मानार्थ अपनी सारी सेनाको सुसज्जित कर तैयार होगया । नीमारीके कारण महात्मा कलॉनस बड़े दुर्बल होगये थे । उनको लाने के लिये एक घोड़ा भेजा गया; किन्तु जीवदयाके प्रतिपालक वे मुनिराज उस घोड़े पर नहीं चढ़े और भारतीय ढंगसे पालकी में बैठकर वहां आ गये। वह उस कोठड़ी में उनकी व्यवस्थानुसार बन्द कर दिये गये थे । अन्तमें वह चितापर विराजमान हो गये । चितारोहण करती र उनने जैन नियमानुसार सबसे क्षमा प्रार्थनाकी भेंट कीं | तथा धार्मिक उपदेश देते हुये केशलोंच भी किया | 2 1 . १ - ऐइ०, पृ० ७३ । २ - केशलोच करना, जैन मुनियोंका खास नियम है। यूनानियोंने मुनि कल्याणके अंतिम समयका वर्णन एक निश्चित रूपमें नहीं दिया है । चितापर बैठकर समाधि लेना जैन दृष्टिसे ठीक नहीं ह । सम्भवतः अपने शबको जलवाने की नियतसे मुनि कल्याणने ऐसा किया हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] संक्षिप्त जैन इतिहास। उससमय सिकन्दरको यह दृश्य मर्मभेदी प्रतीत हुआ तो भी उसने अपनी भक्ति दिखानेके लिए अपने सभी रणवाद्य बजवाये और सभी सैनिकों के साथ शोकसुचक शब्द किया तथा हाथि. योंसे भी चिंघाड करवाई । सिकन्दर उनके निकट मिलनेके लिये भी आया; किंतु उन्होंने कहा कि “ मैं अभी मापसे मुलाकात करना नहीं चाहता; अब शीघ्र ही आपसे मुझे भेंट होगी।" इस कथनका भावार्थ उस समय कोई भी न समझ सका; परन्तु कुछ समयके बाद जब सिकन्दर कालकवलित होनेके सम्मुख हुमा तो म० कलॉनसके इस भविष्यद्वक्तृत्व शक्तिकी याद सबको होआई।' उस चिताकी धधकती हुई विकराल ज्वालामें महात्मा कलोनसका शरीरान्त होगयाथा। इन जैनमुनिने विदेशियोंके हृदयोंपर कितना गहरा प्रभाव जमा लिया था, यह प्रकट है। सचमुच यदि वह यूनान पहुंच जाते तो वहांपर एकवार जैन सिद्धांतोंकी शीतल और विमल जान्हवी बहा देते ! १-म. कलॉनसके भविष्यद्वक्तखके इस उदाहरणसे उनको अपने - अंतिम समयका ज्ञान हुआ मानना कुछ अनुचित नहीं जचता और वह चितापर ठीक उसी समय बैठे होंगे; जिस समय उनके प्राण पखेरू इस नश्वर शरीरको छोडने लगे होंगे। २-जैसि मा०, मा० १ कि. पृ.. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [ २०१ श्रुतकेवली भद्रकाहुजी और अन्य आचार्य। (ई० पू० ४७३-३८३) जास्वामी अंतिम केवली थे । इनके बाद केवलज्ञान-सूर्य श्री मयाहजीको इस उपदेशमै मस्त होगया था; परन्तु पांच समय । मुनिराज श्रुतज्ञानके पारगामी विद्यमान रहे थे। यह नंदि, नंदिमित्र, अपराजित, मोवर्धन और भद्रबाहु नामक थे।' नंदिके स्थानपर दूसरा नाम विष्णु भी मिलता है। यह पांचों मुनिराज चौदह पूर्व और बारह अंगके ज्ञाता श्री नम्बूस्वामीके बाद सौ वर्षमें हुए बताये गये हैं और इस अपेक्षा अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी ई० पू० ३८३ अथवा ३६५ तक संघाधीश रहे प्रगट होते हैं। किन्तु भनेक शास्त्रों और शिलालेखोंसे यह भद्रगाहस्वामी मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तके समकालीन प्रगट होते हैं। और चन्द्रगुप्त का समय ई० पृ. ३२६-३०२ माना जाता है।' मव यदि श्री भद्रबाहुस्वामीका मस्तित्व ई० पू० ३८३ मा ३६५ के बाद न माना जाय तो वह चन्द्रगुप्त मौर्यके समकालीन नहीं होसके हैं। 'उपर विडोयपण्णति' जैसे प्राचीन ग्रन्थोंसे प्रमाणित है कि मगवान महावीरनीके निर्वाण कालसे २१५ वर्ष ( पालकवंश ६. १-तिल्लोपन्मति गा० .२-७४ । २-मुवावतार कथा पृ. ॥ गपति गा. ४३-४।। -जेसि मा०, भा. १ कि. १-४ मान बे• पृ. २५-४०।४-अरिमोसो. भा. १ पृ. ९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । वर्ष+नन्दवंश १५५) बाद मौर्यवंशका मभ्युदय हुआ था। श्वेतांबर पट्टावलियोंसे सम्राट चन्द्रगुप्त का वीर निर्वाणसे २१९ वर्ष बाद ई० पू० ३२६ या ३२५ के नवम्बर माप्तमें सिंहासनारूढ़ होना प्रगट है। इस प्रकार चन्द्रगुप्तका राज्यारोहण काल जो ३२६ ई० पू० अन्यथा माना जाता है, वह जैन शास्त्रोंके अनुसार भी ठीक बैठना है । अतएव थी भद्रबाहु स्वामीका मस्तित्व ई० पू० ३८३ था ३६५ के बाद मानना समुचित प्रतीत होता है । जैन शास्त्रोंसे प्रकट है कि भद्रबाहुस्वामीके ही जीवनकाल में विशाखाचार्य नामक प्रथम दशपूर्वी का भी अस्तित्व रहा था। इस श्लोकमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायके ग्रंथोंसे भद्रबाहु और चंद्रगुप्त प्रायः समसामयिक सिद्ध होते हैं। पहिलेके चार श्रुतकेवलियोंके विषयमें दिगम्बर जैन शास्त्रोंमें ____ कुछ भी विशेष वर्णन नहीं मिलता है। हां, भद्रबाहुका चरित्र। भद्रबाहुके विषयमें उनमें कई कथायें मिलती हैं। श्री हरिषेणके 'बृहत्कथाकोष ' ( सन् ९३१ ) में लिखा १-तिप० गा० ९५-९६ । २-ईऐ० भा० ११ पृ. २५१ । ३-दिगम्बर जैनप्रन्थोसे प्रगट है कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त सहित कटिपर्व नामक पर्वतपर रह गये थे और विशाखाचार्यके आधिपत्यमें जैनसंघ चोलदेशको चला गया था। उधर श्वेताम्बरोंकी भी मान्यता है कि भद्रबाहु अपने अन्तिम जीवनमें नेपालमें जाकर एकान्तवास करने • लगे थे और स्थूलभद्र पट्टाधीश थे। (परि० पृ० ८७-९०) अतः निस्संदेह भद्रबाहुजीके जीवनकाल में ही उनके उत्तराधिकारी होना और उनका ई. पू. ३८३ के बादतक जीवित रहना उचित जंचता है। २९ वर्ष तक वे पट्टपर रहे प्रतीत होते है और फिर मुनिशासक या उपदेशक रूपमें शेष जीवन व्यतीत किया विदित होता है । ४-जैशिसं०, पृ०६६। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । [ २०५ है कि पौण्ड्वर्डन देश में देवकोट्ट नामक ग्राम था; जिसको प्राचीन समय में 'कोटिपुर' कहते थे । यहां पद्मरथ राजा राज्य करता था । पद्मरथका पुरोहित सोमशर्मा था । उसकी सोमश्री नामक पत्नीके गर्भसे भद्रबाहु का जन्म हुआ था । एक दिन जब भद्रबाहु खेल ' रहे थे, चौथे श्रुतवली गोवर्द्धनस्वामी उबर आ निकले और यह देखकर कि भद्रबाहु पांचवें श्रुतकेवली होंगे, उन्होंने भद्रबाहुके माता-पिता की अनुमति से उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया । भद्रबाहु अनेक विद्यायों में निष्णात पंडित होगये । वे गोवर्द्धन नदीके किनारे एक बागमें ठहरे थे । उस समय उज्जैनमें जैन श्रावक चंद्रगुप्त राजा था और उसकी रानी सुप्रभा थी । जिस समय भद्रबाहुम्वामी वहां नगर में आहारके लिये गये, तो एक घर में एक अकेला बालक पालने में पड़ा रोरहा था, उसने भद्रबाहुनी से लौट जानेके लिये कहा । इससे उनने जान लिया कि उस देशमें बारह वर्षका अकाल पड़नेवाला है । यह जानकर उनने संघको दक्षिण देशकी ओर जानेकी आज्ञा दी और स्वयं उज्जैन के निकट भद्रपाद देश में जाकर समाधिलीन होगये । राजा चंद्रगुप्तने भी अकालकी बात सुनकर भद्रबाहुके निकट दीक्षा ग्रहण कर ली थी । उन्हीं का नाम विशाखाचार्य रक्खा गया था और वे संघावीश होकर दक्षिणकी ओर पुन्नाट देशको संघ लेगये थे । जब बारह वर्षका अकाळ पूर्ण हुआ तब वे संत्रसहित लौटकर मध्यदेश में आगये थे ।' श्री रत्ननंदिनीके ' भद्रबाहु चारित्र' में भी ऐसा ही वर्णन है, परंतु उसमें थोड़ासा अन्तर है । इसके अनुसार १- जेहि० भा० १४ पृ० २१७६ श्रव० १० २७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । सम्राट् चंद्रगुप्तने भद्रबाहुस्वामीसे सोलह स्वप्नोंका फल पूछा था; जिसे सुनकर वह मुनि होगये थे । बारह वर्षका अकाल जानकर सब दक्षिणको चले गये थे । इस चारित्र में भद्रबाहुजीको भी संघके सहित दक्षिणकी ओर गया लिखा है परंतु मार्ग में अपना अन्तसमय सन्निकट जानकर उनने संघको चोलदेशकी ओर भेज दिया था और स्वयं चंद्रगुप्ति मुनिके साथ वहीं रह गये थे । वहींपर उनका स्वर्गवास हुआ था | चंद्र1 गुप्ति मुनि कान्यकुब्जको चला आया था । कनड़ी भाषा के दो ग्रंथ 'मुनिवंशाभ्युदय' ( १६८० ई० ) और " राजाबलीकथे " (१८३८ ई०) में भी भद्रबाहु का वर्णन मिलता है । पहिले ग्रन्थ से यह स्पष्ट है कि केवली भद्रबाहु श्रमणबेलगोला तक आये थे और वहां चिक्कवेट्ट (पर्वत) पर रहे थे । एक व्याघ के आक्रमण से उनका शरीरान्त हुआ था । जैनाचार्य अईहलिकी आज्ञा से दक्षिणाचार्य भी यहां दर्शन करने आये थे । उनका समागम चन्द्रगुप्तसे हुआ था, जो यहां यात्रा के लिये आया था । इस ग्रन्थके अनुसार चंद्रगुप्त ने दक्षिण आचार्य से दीक्षा ग्रहण की थी । मालुम ऐसा होता है कि इस ग्रन्थके रचयिताने द्वितीय भद्रबाहुको चन्द्रगुप्तका समकालीन समझा है। यही कारण है कि वह अईहूलि आचार्यका नाम ले रहा है। किंतु चंद्रगुप्त के समकालीन द्वितीय भद्रबाहु नहीं होते | उनके समय में किसी भी चन्द्रगुप्त नामक राजाका अस्तित्व भारतीय इतिहास में नहीं मिलता । 'राजावली थे' में यह विशेषता है कि उसमें चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र का राजा प्रगट किया गया है। &... १- भरबाहु चरित्र पृ० ३१-३५ व ४९... · Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । अन्य आचार्य । [ २०७ वास्तवमें मौय्यं साम्राज्यकी दो राजधानियां उज्जैनी और पाटलिपुत्र प्रारम्भसे रहीं हैं । अतएव जैन कथाकारोंने अपनी रुचिके अनुसार दोनोंमें से एक२का उल्लेख समय २ पर किया है । इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्तके पुत्रका नाम सिंहसेन लिखा है; जिसे राज्य देकर चन्द्रगुप्त मुनि होगये थे और भद्रबाहुजीके साथ दक्षिणको चले गये थे । एक पर्वतपर भद्रबाहुनी और चन्द्रगुप्त रहे थे । शेष संघ चोलदेशको चला गया था । तामिलभाषा के " नालडियार" नामक नीतिका ठपसे भी दक्षिणके पांड्य देशतक इस संघका पहुंचना प्रमाणित है। इस नीतिकाव्यकी रचना इस संघके साधुओं द्वारा हुई कही जाती है। पांड्य राजाने इन जैन साधुओंका बड़ा आदर और सत्कार किया था । वह इनके गुणोंपर इतना मुग्ध था कि उसने सहसा उन्हें उत्तरारथकी ओर जाने नहीं दिया था । · आज भी अकट जिले में 'तिरुमल५' नामक पवित्र जैनस्थान उत्तर भारत से जैनसंघ आनेकी प्रत्यक्ष साक्षी देरहा है। यहांपर पर्वत के नीचे अनेक गुफायें हैं । एक गुफा विद्याम्पासके लिये है, जिनमें जम्बुद्वीप आदिके नक्शे बने हुए हैं । यह प्रसिद्ध है कि भद्रबाहुके मुनिसंघवाले बारह हजार मुनियों में से आठ हजार मुनियौने यहां आकर विश्राम किया था । पवार डेफुट लम्बे चरणचिन्ह उसकी प्राचीनता स्वयं प्रमाणित करते हैं। सचमुच उससमय और उससे बहुत पहले से चोल, पांड्य आदि देशोंन अस्तित्व और उनकी रूपति दूर २ देश देशांतरों में होगई १४ १० १३२ । ३०-३२ । - अहि. मा० १-०, पृ० ३-ममेप्राजेस्मा • १० ७४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | थी ।' दक्षिण भारत के इन देशोंका व्यापार एक अतीव प्राचीन कालसे जैनधर्मकी व्यापकता भी यहां 3 देश - विदेशों से होता रहा है। भगवान पार्श्वनाथजी से पहले की थी ! अतएव उत्तर भारतसे जैन संघका दक्षिणकी ओर जाना एक निश्चित और अभ्रांत घटना है । उपरोक्त चरित्रों में यद्यपि किंचित् परस्पर विरोध है; किंतु जैन संघका दक्षिण के उन सबसे यह प्रमाणित है कि भद्रबाहुके प्रस्थान इत्यादि । समय में जैन संघ दक्षिणको गया था और बारह वर्षका भीषण अकाल पड़ा था । इस बातपर भी वे करीब २ सहमत हैं कि जिन भद्रबाहुका उल्लेख है, वह अंतिम श्रुतवली हैं और उनके शिष्य एक राजा चन्द्रगुप्त अवश्य थे, जो उज्जैनी और पाटलिपुत्र के अधिकारी थे अर्थात् उनके यह दो राजकेन्द्र थे । यह चंद्रगुप्त इसी नामके प्रख्यात् मौर्य सम्राट हैं । हां, इस बात से हरिषेणजी, जो अन्य कथाकारों में सर्व प्राचीन हैं, सहमत नहीं हैं कि भद्रबाहुजी संघके साथ दक्षिणको गये थे । श्वेतांबर मान्यता के अनुसार भी उनका दक्षिण में जाना प्रकट नहीं है । उसके अनुसार भद्रबाहुजीका अंतिम जीवन नेपाल में पूर्ण हुआ था; किंतु यह संशयात्मक है कि यह वही भद्रबाहु हैं जिन भद्रबाहुको वह नेपाल में गया लिखते हैं । जो हो, उपरोक्त दोनों मतों से प्राचीन श्रृंगापटम्के दो शिलालेख इस बातके साक्षी हैं कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त के साथ श्रव १ - कात्यायन ( ई० पू० ४०० ) को चोल, माहिष्मत और नाविक्यका ज्ञान था । पातजंलि ( ई० पू० १५० ) समप्र भारतको जानता था । २ - जमेसो ० ० भा० १८/५० ३०८-३२० । ३-भपा० पृ० २३४-२३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । [ २०९ णबेळगोळमें चन्द्रगिरि पर्वतपर आये थे । इनसे भी प्राचीन शिलालेख चंद्रगिरिपर नं० ३१ वाला है । उसमें भी इन दोनों महात्माओं का उल्लेख है।' इस दशा में भद्रबाहुनीका श्रवणबेलगोल में पहुंचना, कुछ अनोखा नहीं जंचता । हरिषेणजीने शायद दूसरे बहूकी घटनाको इनसे जोड़ दिया होगा; क्योंकि प्रतिष्ठानपुर के द्वितीय भद्रबाहुका भाद्रपाद देशमें स्वर्गवास प्राप्त करना बिल्कुल संभव है । अतएव प्रथम भद्रबाहुनीका समाधिस्थान श्रवणबेलगोल मानना और उनके समयमें ही प्रथम दशपुर्वीको रहते स्वीकार करना उचित है । श्वेतांबर संप्रदाय के अनुमार श्री जम्बूस्वामीके उपरांत एक प्रभव नामक महानुभाव उनके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर पट्टावली | और प्रथम श्रुतकेवली हुये थे । यह वही । चोर थे, जिनने अबुद्ध होकर श्री जम्बूस्वामीके साथ दीक्षा ग्रहण की थी । श्वेतांबरोंने प्रभवको जयपुर के राजाका पुत्र लिखा है, जो बचपन से ही उद्दण्ड था । राजाने उसकी उद्दण्डता से दुखी होकर अपने देश से निकाल दिया था और वह राजगृह में चौर्य कर्म करके जीवन व्यतीत करता था । दिगम्बर जैन ग्रन्थोंने भी विद्युच्चर चोरको एक राजाका पुत्र लिखा है । किन्तु उसे वे जम्बूस्वामीका उत्तराधिकारी नहीं बताते हैं। समझमें नहीं आता कि जब दिग म्बर और श्वेताम्बर भेदरूप दीवालकी जड़ भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय में पड़ी थी, तब उनके पहिले हुये श्रुतकेवलियों की गणना में २ १-अत्र०, पृ० ३३-३४ । २- परि०, पृ० ४२ - ५० वा०, वीर०, मा० १ पृ० ३ । ३-उपु०, पृ० ७०३ । ir Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० संक्षिप्त जैन इतिहास। दोनों सम्प्रदायोंमें क्यों मतभेद है ? जो हो, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रथम श्रुतकेवली प्रभव हैं। वह चवालीस वर्षतक सामान्य मुनि रहे थे और उनने ग्यारह वर्षतक पट्टाधीश पदपर व्यतीत किये थे। उनने राजगृह के वत्सगोत्री यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करनेवाले शिय्यंभव नामक ब्राह्मगको प्रबुद्ध किया था और वही इनका उत्तराधिकारी हुमा था। श्री प्रभवस्वामीने ८५ वर्ष की अवस्थामै वीर नि० सं० ७५ में मुक्त पद पाया था। श्री शिव्यंभव अट्ठाइस वर्षकी उमर में जैन मुनि हुये थे । ग्यारह वर्षतक प्रभवस्वामीके शिष्य रहकर वह पट्टपर मारूढ़ हुये थे । तेईस वर्षतक युगप्रधान पद भोगकर ६२ वर्षकी अवस्थामें वीर नि० सं० ९८ में स्वर्गवासी हुये थे। इनने अपने छै वर्षके बालक पुत्रको दीक्षित किया था और उसके लिये दशवकालिकसूत्रकी रचना की थी। इनके उत्तराधिकारी श्री यशोभद्र नी थे। यह तूंगी कायन गोत्रके थे और गृहस्थीमें बाईस वर्षतक रहकर जैन मुनि हुये थे। छत्तीस वर्षके हुये तब यह पट्टाधिकारी होकर पचास वर्षतक इस पदपर विभूषित रहे थे । वीरनिर्वाणसे एकप्तौ व्यालीस वर्षों के बाद यह तीसरे श्रुतकेवही स्वर्गवासी हुये थे। इनके उत्तराधिकारी श्री संमूतिविनयसूरि थे जिनके गुरुभाई श्री भद्रवाहु स्वामी थे। इस प्रकार श्वेताम्बर चौथे और पांचवें श्रुतकेवलियों को समकालीन प्रगट करते हैं। वह कहते हैं कि संभृतिविजयसरि तो पट्टाधीश थे और भद्रबाहुस्वामी गच्छकी सारसंभाल करनेवाले थे । संमूति 1-जेसा भा० १ वीरवं० पृ. ३ व परि० पृ. ५४... । २-सा भा० १ वीरवं० पृ० ४ व परि० पृ. ५८ ।. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य । [ २११ विजय मादुर गोत्रके थे। जब वे ४२ वर्षके थे, तब उनने मुनिदीक्षा ग्रहण की थी । ८६ वर्षकी उमर में वह युगप्रधान हुये थे और केवल आठ वर्ष इस पदपर रहकर वी० नि० सं० १९६ में स्वर्गवासी हुये थे । ' संभूति विजयके स्वर्गवासी होनेपर भद्रबाहुस्वामी संघाधीश श्वेताम्बर शास्त्रोंमें हुए थे । जब वह बयालीस वर्ष के थे, तब श्री. श्री भद्रबाहु । यशोभद्रसूरिने उनको जैन मुनिकी दीक्षा दी थी । यशोभद्रकी उन्होंने १७ वर्ष तक शिष्यवत् सेवा की थी । फिर वह युगनघान हुए थे और इस पदपर चौदह वर्षतक आसीन रहे थे । वीर निर्वाणसे १७० वर्ष बाद उनका स्वर्गवास हुआ था उनके उत्तराधिकारी स्थूलभद्र हुए थे । दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार यद्यपि श्रुतके वलियोंकी नामावली में परस्पर मन्तर है; किन्तु वह दोनों ही भद्रबाहुको अंतिम श्रुतकेवली स्वीकार करते हैं । वेतांबर केवल इन्हीं एक भद्रबाहु का उल्लेख करते हैं और इन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिरका भाई व्यक्त करते हैं । उनके अनुसार इनका जन्मस्थान दक्षिण भारतका प्रतिष्ठानपुर है । १- पूर्व प्रमाण । २- सा० भा० १ वीरवं० प्र० ५ व परि० पृ० ८७ । यद्यपि हेमचन्द्राचार्थने वीर निर्वाणसे १७० वर्ष बाद भद्रबाहूका स्वर्गवास हुआ लिखा है, परन्तु वह ठीक नहीं प्रतीत होता; जैसे कि पहिले लिखा जाचुका है । उनने स्वयं उनका स्वर्गवास मौर्य सम्राट् विन्दुसारका वर्णन कर चुकने पर लिखा है । दिगम्बर मतमे वीर नि० से १६२ वर्षमे केवलियों का होना लिखा है। इससे भी यही भाग लिया जाता है कि इस समय में ही मद्रबाहु का स्वर्गवास होगया था; किन्तु यह मानना ठीक नहीं जंवता । इस समय वह संघनायक पइसे विलग होगये होगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] संक्षिप्त जैन इतिहास । और वह इनका गोत्र प्राचीन बतलाते हैं; जो बिलकुल अश्रुतपूर्व है और उसका स्वयं उनके ग्रन्थों में अन्यत्र कहीं पता नहीं चलता है।' वराहमिहिरका मस्तित्व ई०सन्के प्रारम्भसे प्रमाणित है। इस अवस्थामें श्वेतांबरोंकी मान्यताके अनुसार भद्रबाहुका समय भी ज्यादासे ज्यादा ईस्वीके प्रारम्भमें ठहरता है; जो सर्वथा असंभव है। मालूम ऐसा होता है कि प्रथम भद्रबाहु और द्वितीय भद्रबाहु दोनोंको एक व्यक्ति मानकर द्वितीय भद्रबाहुकी जीवन घटनाओंको प्रथम भहुबाहुके जीवनमें जा घुसेड़नेकी भारी भूल करते हैं । 'कल्पसूत्र' इन्हीं भद्रबाहुका रचा कहा जाता है । आवश्यकसूत्र, उत्तराध्ययनसुत्र, आदिकी निरुक्तियां भी इन्हींकी लिखीं मानी जाती हैं; किंतु वह भी ई०के प्रारम्भमें हुए भद्रबाहुकी रचनायें प्रगट होती हैं, जैसे कि महामहोपाध्याय डा. सतीशचंद्र विद्याभूषण मानते हैं। मालूम यह होता है कि श्वेताम्बरोंको या तो भद्रबाहु श्रुतकेवलीका विशेष परिचय ज्ञात नहीं था अथवा वह जानबूझकर उनका वर्णन नहीं करना चाहते हैं। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुने उस संघमें भाग और फिर उपदेशक रूपमें रहे होंगे। श्वे. मान्यतासे उनकी आयु १२६ वर्ष प्रगट है । यदि उन्हें ४० वर्षकी उम्नमें आचार्य पद मिला मानें तो ६५ वर्षकी आयुमें वे आचार्य पदसे अलग हुये प्रगट होते हैं। शेष आयु उनने मुनिवत विताई थी और इस कालमें वे चंद्रगुप्तकी सेवाको पा सके : १-जैसासं० भा० १ वीर पं० पृ. ५ व परि० पृ० ५८ । २-उसू० भूमिका पृ० १३ । ३-डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषणने इस्वी प्रारम्भमे बराहमिहिरका अस्तीत्व माना है (जैहि० भा० ८ १० ५३२) किन्तु कर्न आदी छठी शताब्दीका मानते हैं । ४-हिष्टी आफ मेडिबिल इण्डीयन लाजिक, नैहि• भा० ८ पृ. ५३२ । । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [२१३ नहीं लिया था, जिसको श्वेताम्बराचार्य स्थूलभद्रने एकत्र किया था। 'श्री संघके बुलानेपर भी वे पाटलिपुत्रको नहीं आये जिसके कारण श्री संघने उन्हें संघबाह्य कर देनेकी भी धमकी दी थी।'* इसके विपरीत दिगम्बर जैनी भद्रबाहु श्रुतकेवलीका वर्णन बड़े गौरव और महत्वशाली रीतिसे विशेष रूपमें करते हैं। श्वेतां. बरोंने उनको प्राचीन गोत्रका बतलाकर दिगम्बर मान्यताकी पुष्टि की है; जो निग्रंथ ( नग्न ) रूपका भद्रबाहुके समान मार्षमार्गका अनुगामी है। खेतांबरोंने स्थूलमद्रकी अध्यक्षता स्वीकार करके सबस्त्र भेषको मोक्षलिङ्ग माना है और पुरातन नियमों एवं क्रियाओं में अंतर डाल लिया है । बस कह प्राचीन 'भद्रबाहु' को विशेष मान्यता न देते हुये भी अपने अंग ग्रंथों और भाष्योंको पुरातन और प्रामाणिक सिद्ध करनेके लिये और ईस्वीसन के प्रारम्भवाले भद्रबाहुको प्राचीन भद्रबाहु व्यक्त करने के मावसे, केवल उन्हींका वर्णन करते हैं। दुसरे भन्नाहुके विषममें वह एकदम चुप हो जाते हैं, किंतु वह अपने माप उनको वराहमिहिरका समकालीन बताकर उनकी अर्वाचीनता स्पष्ट कर देते हैं। १-उस. मृमिका, पृ० १४ । * परि• व अविसं० पृ. ६७ । २-एक बैन पावली में एक तीसरे मदना का उल्लेख है और उनका समय ईसवीको प्रारम्भिक शताब्दिया है। उनके एक शिष्य द्वारा श्वेतां. वर संप्रदायही उसत्ति होना लिखा है। संभव है, श्वेतांबोके द्वितीय भत्रबाहु रही हो; निमका पता नहीं है । (ईऐ० मा० २१ पृ०५८) समाह• पृ. २४-२५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] संक्षिप्त जैन इतिहास । श्रुतकेवली भद्रबाहुके जीवनकी सबसे बड़ी घटना उत्तर जैन संघमें भेद- भारतमें घोर दुष्काल पड़नेकी बनहसे जैनसंघके स्थापना। दक्षिण भारतकी ओर गमन करनेकी है । इस घटनाका अंतिम परिणाम यह हुआ था कि जैन संघके दो भेदोंकी जड़ इसी समय पड़ गई । बारह वर्षका अकाल जानकर श्री विशाखाचार्यकी अध्यक्षतामें संपूर्ण संघ दक्षिणको गया, किंतु स्थूलभद्र और उनके कुछ साथी पाटलिपुत्र में ही रह गये थे। घोर दुष्कालके विकराल कालमें ये पाटलिपुत्रवाले जैन मुनि प्राचीन क्रियायोंको पालन करने में असमर्थ रहे । उन्होंने भापदूरूपमें किंचित वस्त्र भी ग्रहण कर लिये और मुनियोंको अग्राह्य भोजन भी वे स्वीकार करने लगे थे। जिस समय विशाखाचार्यकी प्रमुखतावाला दक्षिण देशको गया हुमा संघ सुभिक्ष होनेपर उत्तरापथकी ओर लौटकर आया और उसने पीछे रहे हुये स्थूलभद्रादि मुनियोंका शिथिलरूप देखा तो गहन कष्टका अनुभव किया। विशाखाचार्यने स्थूलभद्रादिसे प्रायश्चित्त लेकर पुनः आर्ष मार्गपर आजानेका उपदेश दिया; किंतु होनीके सिर, उनकी यह सीख किसीको पसंद न आई । स्थूलभद्रकी अध्यक्षतामें रहनेवाला संघ अपना स्वाधीन रूप बना बैठा और वह पुरातन मूल संघसे प्रथक् होगयो । यही संघ कालांतरमें श्वेतांब १-श्रव० ३९-४०; उसू० भूमिका पृ० १५-१६ व ऐइ जै० पृ. ९-१० में श्वे० बिद्वान श्री पूर्णचन्द्र नाहरने भी यही लिखा है । हार्णले व ल्युमन पा० भी इस कथाको मान्यता देते हैं (Vienna oriental gournol, VII, 382 व इंऐ. २१५९-६.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [२१५ राम्नायके रूपमें परिवर्तित हुआ। जैसे कि अगाड़ी लिखा गया है। जिप्त पुरातन संघके प्रधान पहिले 'प्राचीन' भद्रबाहु थे और फिर उनके उत्तराधिकारी विशाखाचार्य हुये, वह अपने सनातन स्वरू. पमें रहा और आर्ष रीतियों का पालन करता रहा । यही आजकल दिगम्बर सम्प्रदायके नामसे विख्यात् है। स्थूलभद्रादिका संघ, नब मूलसंघसे पृथक् होगया; तो प्राकृत ... उसे अपने धर्मशास्त्रोंको निर्दिष्ट करनेकी श्रुतज्ञानकी विक्षिप्ति। '' आवश्यक्ता हुई। दुष्कालकी भयंकरतामें श्रुतज्ञान छिन्नभिन्न होगया था । भद्रबाहुके समय तक तो जनसंघ एक ही था; किन्तु उनके बाद ही जो उसमें उक्त प्रकार दो भेद हुये; जिसके कारण श्रुतज्ञानका पुनरुद्धार होना अनिवार्य हुमा । दिगम्बर जैनों का मत है कि इस समय समस्त द्वादशांग ज्ञान लुप्त होगया था। केवल दश पूर्वोके जानकार रह गये थे। किन्तु श्वेतां. बरों की मान्यता है कि पाटलिपुत्र में जो संघ एकत्रित हुमा था और निसमें भद्रबाहुने भाग नहीं लिया था, उसने समस्त श्रुतज्ञानका संशोधित संस्करण तैयार कर लिया. था। स्थूलभद्ने पूर्वोका ज्ञान स्वयं भद्रबाहुस्वामीसे प्राप्त किया था; किन्तु उनको अंतिम चार पूर्व मन्योंको पढ़ाने की आज्ञा नहीं थी। इस प्रकार ग्यारह अङ्ग और दश पूर्वका उद्धार श्वेतांबरोंने कर लिया था; किन्तु उनके ये अन्य दि. नैनोंको मान्य नहीं थे। उनका विश्वास था कि पुरातन अंग व पूर्व ग्रंथ नष्ट होचुके हैं। केवळ दश पूर्वोका ज्ञान श्री विशाखाचार्य एवं उनके दश परम्परीण उत्तराधिकारियों को स्मृतिमें शेष रहा था। दिगम्बर जैनोंकी इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । मान्यताकी पुष्टि जनसम्राट् खारवेलके हाथीगुफावाले प्राचीन शिलालेखसे भी होती है जिसमें लिखा है कि श्रुतज्ञान मौर्यकालमें लुप्त होगया था, उसका पुनरुद्धार करनेके लिये सम्राट् खारवेलने ऋषियों की एक सभा बुलाई थी और उसमें अवशेष उपलब्ध भङ्ग ग्रंथोंका संग्रह करके श्रुत विच्छेद होनेसे बचा लिया गया था। यह समय अंतिम दश पूर्वोके अंतिम जीवनकालके लगभग बैठता है और इसके बाद दिगम्बर जैनोंके भनुमार ग्यारह अंगधारी मुनियों का अस्तित्व मिलता है। यद्यपि भैनशास्त्रोंमें सम्राट खारवेल और उनके उपरोक्त प्रशस्त कार्यका उल्लेख कहीं नहीं है, किन्तु उक्त प्रकार दशपूर्वियोंके बाद ग्यारह अंगघारियोंका अस्तित्व मानकर अवश्य ही दिगम्बर जैन मान्यता इस बातका समर्थन करती है कि इस समय अंग ग्रंथोंका उद्धार किन्हीं महानुभावों हारा हुआ था । इस दशामें श्वेताम्बर संप्रदायके मतपर विश्वाप्त करना जरा कठिन हैनो दृष्टिव द अंगके अतिरिक्त शेष समूचे श्रुतज्ञानका अस्तित्व आज भी मानता है। श्वेतांबर ग्रन्थोंमें स्थूलभद्रको अंतिम नन्दराजाके मंत्री शकताम्बराचार्य डालका पुत्र लिखा है। निस समय शिक्षा पाकर, स्थूलभद्र। यह घरको लौटे तो उनके पिताने उन्हें एक वेश्याके सुपुर्द कर दिया। उसके पास रहकर स्थूलभद्र दुनियादारीके कामोंमें दक्षता पाने लगे। वेश्याके यहां रहते हुये बहुत समय व्यतीत होगया और इसमें धन भी बहुत खर्च हुमा। इनके छोटे भाई श्रीयकको अपने पिताकी यह लापरवाही पसंद न भाई। १-जविओसो, भा० १३ पृ. २३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य। [२१७ उसने पिताके जीवनका अन्त करना ही उचित समझा। स्थूलभद्रको इस घटनासे संवेगका अनुभव हुआ और वह तीस वर्षकी अवस्थामें मुनि होगये। चौवीस वर्षतक उन्होंने श्री संमूतिविनयकी सेवा की और उनसे चौदह पूर्वोको सुनकर, उनने दशपूर्वोका अर्थ ग्रहण किया। संभृतिविजयके उपरांत वे युगप्रधान पदके अधिकारी हये और इस पदपर ४५ वर्ष रहे।' वीरनिर्वाण सं० २१५ में स्वर्गलाभ हुमा कहा जाता है। इन्हींके समयमें अर्थात् वीर नि० सं० २१४में तीसरा निहन्व (संघभेद) उपस्थित हुआ कहा जाता है । यह अषाढ़ नामक व्यक्ति द्वारा स्वेतिका नगरीमें घटित हुमा था; किंतु वह मौर्यबलभद्र द्वारा राजगृहमें सन्मार्ग पर ले आया गया लिखा है। १-जैसासं०, भा० १ वीर पृ० ५-६; किन्तु श्वेतांबरों की दूसरी मान्यताके अनुसार स्थूलभद्रने दश पूर्वो का अर्थ भद्रबाहुस्वामीसे ग्रहण किया था और वह उनके बाद ही पटपर आये होगे। श्वेतांबरोका यह भी मन प्रवट लेता है। स्थलगद मंतिम अतकेंपली थे; किंतु नसती मायासे मद्रबाहुबा अंतिम मुक्केवली होना प्रगर है। (सू० भूमिका ~ प. .. रेमासाने रायोकी पल मषनामे ६० वर्षकी भूल ने है; इसी कारण पो. नि. ११५ में स्पृलमइका अंतिम समय प्रगट किया गया है। २-इंऐ• मा० ११ पृ० ३३५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । मौर्य साम्राज्य। (ई० पूर्व० ३२६-१८८) सिकन्दर महान के आक्रमणके बाद मगधका राज्य नन्दवंशके .. हाथसे जाता रहा था । ब्राह्मण चाणिक्यके चन्द्रगुप्त माय । सहयोगसे चंद्रगुप्त नामक एक व्यक्ति मगधका राना हुआ था । जब ई० पूर्व ३२६ अक्टूबरको सिकन्दर महान् पंजाबसे वापिप्त हुआ, उस समय मगधमें नन्दराजा राज्य कर रहा था । किन्तु इसके एक महीने बाद अर्थात् ई० पूर्व ३२६ के नवम्बर मासमें चन्द्रगुप्तने मगध के राज्यपर अपना अधिकार जमा लिया था। यद्यपि यह निश्चय नहीं है कि चन्द्रगुप्तने पहिले पंजाब विजय किया था या मगधको अपने अधिकारमें कर लिया था। किन्तु मालूम होता है कि उसने पहिले पंजाबको अपना मित्र बना लिया था और उसकी सहायतासे मगध जीता था। युनानी लेखकोंके कथनसे सिकन्दरके लौटते समय चन्द्रगुप्तका पंजाबमें होना प्रमाणित है । सिकन्दर कार्मिनियामें था, तब ही भारतवासियोंने उसके यूनानी सुबेदार फिलिप्सकी जीवनलीला उस समयमें ही समाप्त करके अपनी स्वाधीनताका बीज बो लिया था। 'मुद्राराक्षस' में जिस राजा पवर्तककी हत्या होनेका बखान है वह यही फिलिप्स था। इस घटनामें अवश्य ही चंद्रगुप्तका हाथ था । इसप्रकार पंजाबवासियोंने चन्द्रगुप्तके निमित्तसे अपनेको विदेशी युना- १-जबिओमो० भाग १ पृ० ११२...पर्वतककी समानता यु दर्शाई गई है-पर्वतक-परवओ-पिरवओ-फिलिप्पोस । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [२१९ नियों की पराधीनतासे मुक्त होता जानकर उसका पूरा साथ दिया था और वह उनकी सहायतासे मगधका राजा बनगया था । यह चंद्रगुप्त कौन था ? इस प्रश्नका उत्तर खोजने में हमारा - ध्यान सर्व प्रथम मुद्राराक्षस नाटकके टोका. चन्द्रगुप्त कौन था ? ' कारके कथनपर जाता है। उसने 'वृषल' शब्दके आधारपर अपनी टीकामें लिखा है कि 'नन्दवंशके अंतिम रानाकी वृषल (शूद्र) जातिकी मुग नामक रानीसे चन्द्रगुप्त उत्पन्न हुमा और अपनी माताके नामसे मौर्य कहलाया। बस, इसको पढ़कर ईसवी द्वितीय शताब्दिके यूनानी लेखकों एवं अन्य विद्वानोंने मान लिया कि चन्द्रगुप्त मुरा नामकी शूदा स्त्रीकी कुंखसे जन्मा था, इसलिये उसका नाम मौर्य पड़ा। किन्तु इस मान्यतामें तथ्य तनिक भी नहीं है। संस्कृत व्याकरणके अनुसार मुराका पुत्र 'मौरेय' कहलायगा, न कि मौर्य ! चाणक्यने जरूर चन्द्रगुप्त के प्रति सम्बोधनमें 'वृषल' शब्दका प्रयोग किया है किन्तु उसका अर्थ शूद्र न होकर मगषका राना होना उचित है; जैसे कि कोषकार बतलाते हैं। अशोकके लिये 'देवानां प्रिय' सम्बोधन बहु प्रयुक्त हुमा है किन्तु उसको साधारण (मर्यात मूर्ख) अर्थमें कोई ग्रहण नहीं करता। १-'कल्पादो नन्दनामान: केचिदान्महीभुजः ॥ २३ ॥ सर्वार्थसिदिनामासीत्तेषु विख्यातपौरुषः... ॥ २४ ॥ राशः पत्नी सुनन्दासीज्ज्येष्ठान्या वृषलात्मना । मुराख्या सा प्रिया मर्तुः शीवलावण्यवंपदा ॥२५॥ मुरा प्रस्तं तनयं मौर्याख्यं गुणवत्तरं.... ३१॥ २-राह• मा० १ पृ. ५९ व अप. पृ. ६-० । ३-हेमचन्दाचार्यका हेमकोष देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] ' संक्षिप्त जैन इतिहास । इसी प्रकार वृषलका साधारण अर्थ ग्रहण करना अनुचित है। फिर यह असंभव है कि चाणक्यके समान समझदार व्यक्ति, अपने उस कृपाभाजनके प्रति ऐसे क्षुद्र शब्दका प्रयोग कर उसे लजित करे, जो एक बड़े साम्राज्यका योग्य शासन था और जिसकी भ्रकुटि जरा टेढ़ी होनेपर किसीको अपने प्राण बचाना दुर्भर होजाता था। फिर चाणक्य तो स्वयं लिखता है कि दुर्बल रानाको भी न कुछ समझना भूल है। असल बात यह है कि चाणक्य 'वृषल' शब्दका व्यवहार आदर रूपमें-मगधके राजाके अर्थ में-इसलिये करता था कि इससे उसके उस प्रयत्नका महत्त्व प्रगट होता था जो उसने चन्द्रगुप्तको मगधका राजा बनानेमें किया था और इसकी स्मृति उसके आनन्दका कारण होना प्राकृत ठीक है । मुद्राराक्षसके ब्राह्मण टीकाकारने साम्प्रदायिक द्वेषवश चन्द्रगुप्तको शूदनात लिख मारा है; वरन् स्वयं हिन्दू पुराणों में चंद्रगुप्तके शूद्र होने का कोई पता नहीं चरता है। 'विष्णुपुराण' में उनको नन्देन्दु अर्थात् 'नंद-चंद्र' (गुप्त), भविष्यपुराणमें 'मौर्य-नंद' और बौद्धोंके 'दिव्यावदान' में केवल "नन्द' लिखा है। इन उल्लेखोंसे चंद्रगुप्तका कुछ संबंध नंदवंशसे प्रगट होता है । कोई विद्वान् 'मुद्राराक्षस' से भी यह संबंध प्रगट होता लिखते हैं; किन्तु इन उल्लेखोंसे भी चन्द्रगुप्तका शूद्रानात १-"दुर्बलोऽपि राजानावमन्तव्यः नास्त्यग्ने दौर्बल्यम् ।' २-अधः पृ० ६ हिडाव० परि० पृ. ७१...और राइ• मा० . पृ. ६०-६१ भाइ० पृ. ६२। ३-जबिओसो० भा० १ पृ. ११६ फुटनोट । ४-हिडाव., भूमिका पृ०. ११-१ व अध० पृ० ७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [ २२१. होना सिद्ध नहीं है । जैन लेखक तो स्पष्ट रीति से चन्द्रगुप्तको क्षत्रिय कहते हैं ।' हेमचन्द्राचायने 'मयूरपोषक ' ग्रामके नेताकी पुत्रीको चन्द्रगुप्तकी माता लिखा है। किंतु इससे भाव 'मोर पालनेवाले' के लगाना अन्याय है । प्रत्युत इस उल्लेखसे पुराणों के उपरोक्त उल्लेखों का स्पष्टीकरण हुआ दृष्टि पड़ता है । संभवतः नंद राजाकी एक रानी मयूरपोषक देशके नेता की पुत्री थी और उसीसे चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ था । जब शूद्राजात महापद्मने नंद राज्यपर आधिपत्य जमा लिया तो चन्द्रगुप्त अपनी ननसालमें जाकर रहने लगा हो तो असंगत ही क्या है ? वहीं पर चाणक्यकी उससे भेट हुई होगी । जैन शास्त्रोंमें एक मौर्यारूय देशका अस्तित्व महावीरस्वामीसे पहलेका मिलता है | वहांके एक क्षत्रिय पुत्र - मौर्यपुत्र भगवान के कि० ४ पृ० १९; भाइ० ६२ व राइ० - जैसिभा० भा० भाग १ पृ० ६० । २- मयूर पोषकप्र. मे तस्मिंश्च चणिनन्दनः । प्राविशत्कणभिक्षार्थ परिव्राजकवेषभृत् ॥ २३० ॥ मयूरपोषक गटतरस्य दुहितुस्तदा । अभुदापन्नसत्त्रायः बन्द्रपानाय दोहदः ॥ २३१॥-८ ॥' इत्यादि । श्री हेमचन्द्र के इस कथन से चन्द्रगुप्तको 'मोरोको पालनेवालेकी कन्याका पुत्र' लिखना ठीक नहीं है; जब कि वह ग्रामका नाम मयूर : पोषक लिख रहे है । मि० वरोदिया (हिलिजे० पृ० ४४ ) और उनके अनुसार मि. वेल ( हिआइ० पृ० ६६) ने 'मयूरपोषक' का शब्दार्थं ही प्रगट किया है। ३-डॉ० बिमलाचरण अॅ० नन्दराजाका विवाह पिप्पलिवन के मोरिय (मौर्य) क्षत्रियों की राजकुमारीसे हुआ समझते है। देखो क्षत्रीलेन्स० पृ० २०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] संक्षिप्त जैन इतिहास। गणधर भी थे। उधर 'महावंश' नामक बौद्ध ग्रंथसे प्रगट ही है कि 'चन्द्रगुप्त हिमालय पर्वतके आसपासके एक देशका, जो पिप्पलिवनमें था और मोर पक्षियोंकी अधिकताके कारण मौर्य राज्य कहलाता था, एक क्षत्रिय राजकुमार था। हेमचन्द्राचार्यका मयूरपोषक ग्राम, दिगम्बर जैनोंका मौर्याख्य देश और बौद्धोंके मोरिय (मौर्य) क्षत्रियोंका पिप्पलिवनवाला प्रदेश एक ही प्रतीत होते हैं और इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त इस देशकी अपेक्षा ही मौर्य कहलाता था । ऐसा ही मैकक्रिन्डलका लेख है। चन्द्रगुप्तका बाल्यजीवन मौर्याख्यदेशकी अपेक्षा अधिकतर चन्द्रगुप्तका बाल्य. मगधदेशमै व्यतीत हुआ था। तब मोरिय जीवन । (मौर्य) क्षत्रियोंकी राजधानी पिप्पलीवन थी। इन लोगोंमें भी उस समय गणराज्य प्रणालीके ढंगपर राज्य प्रबंध होता था। यही कारण प्रतीत होता है कि हेमचंद्राचार्यने मयूरपोषक देशके एक नेताका उल्लेख किया है। उनके उसे वहांका राजा नहीं लिखा है । किन्तु महापद्म नन्दने इन्हें भी अपने माधीन बना लिया था और एक मौर्य क्षत्री उनका सेनापति भी रहा था; यद्यपि अन्तमें उन्होंने उसे और उसकी सन्तानको मरवा डाला था। महापद्मके आधीन रहते हुये मौर्य क्षत्री सुखी नहीं रहे थे। चन्द्रगुप्तके भी प्राण सदैव संकटमें रहते थे; क्योंकि नंद राजाको उससे स्वभावतः भय होना अनिवार्य था; किंतु चंद्रगुप्तकी विधवा माताने उनकी रक्षा बड़ी तत्परतासे की १-वृजेश० पृ० ७ । २-महावंश-टीका (सिंहलीयावृत्ति) पृ० ११९...। ३-भाइ० पृ. ६२ । ४-जैसिमा० भा० १कि० ४ पृ. २१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२२३ थी। फलतः जिससमय चंद्रगुप्त युवावस्थामें पदार्पण कर रहे थे, उससमय उनका समागम चाणक्यसे हुआ, जो नंदराना द्वारा अपमानित होकर उससे अपना बदला चुकानेकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुका था। चाणक्यके साथ रहकर चंद्रगुप्त शस्त्र-शास्त्रमें पूर्ण दक्ष होगया और वह देश-विदेशोंमें भटकता फिरा था, इससे उसका अनुभव भी खुब बढ़ा था । जो हो, इससे यह प्रकट है कि चन्द्रगुप्त का प्रारंभीक जीवन बड़ा ही शोचनीय तथा विपत्तिपूर्ण था। निससमय चंद्रगुप्त मगध के राज्य सिंहासनपर मारूढ़ हुये राज-तिलक और उस समय वह पच्चीस वर्षके एक युवक थे। __ राज्यवृद्धि । उनकी इस युवावस्था का वीरोचिन और भारत हितका अनुपम कार्य यह था कि उन्होंने अपने देशको विदेशी यूनानियोंकी पराधीनतासे छुड़ा दिया। सचमुच चन्द्रगुप्तके ऐसे ही देशहित सम्बन्धी कार्य उसे भारतके राजनैतिक रंगमंचपर एक प्रतिष्ठित महावीर और संसारके Fम्राटोंकी प्रथम श्रेणीका सम्राट प्रगट करते हैं । 'योग्यता, व्यवस्था, वीरता और सैन्य संचालनमें चन्द्रगुप्त न केवल अपने समय में अद्वितीय था, वरन् संसारके इतिहासमें बहुत थोड़े ऐसे शासक हुये हैं, जिनको उसके बराबर कहा नासक्ता है। मगध के राज्य प्राप्त करने के साथ ही नंद रानाकी विराट् सेना उसके आधीन हुई थी। चन्द्रगुप्त ने उस विपुलवाहिनीकी वृद्धि की थी। उसकी सेन.मे तीस हजार घुड़सवार, नौ हमार हाथी, छ लाख पदल और बहुसंख्यक रथ थे। ऐसी दुर्गव - १-चौबोके 'अर्थ व्याकोष में भी यह उल्लेख है । जैसि भा० पूर्व पृ. २१ । २-लामाह०, मा० पृ. १४१ । ३-अहित. पृ० १२४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] संक्षिप्त जैन, इतिहास। सेनाकी सहायतासे उसने समस्त उत्तर भारतके राजाओंको जीत लिया था। उसके सिंहासनारूढ़ होनेके पहले उत्तरी भारतमें ही छोटे २ बहुतसे राजा थे, जो आपतमें लड़ा करते थे। धीरे धीरे चन्द्रगुप्तने उन सबको अपने अधिकारमें कर लिया और उसके साम्राज्यका विस्तार बंगालकी खाड़ीसे भरब-समुद्र तक होगया । इस प्रकार " वह शृङ्खलाबद्ध ऐतिहासिक युगका पहला राजा है, जिसे भारत सम्राट् कह सकते हैं।" महीसुर प्रांतकी अर्वाचीन मान्यताओंसे प्रगट है कि उस _ प्रांतपर नंदवंशका भी अधिकार था । यदि यह दक्षिण-विजय। बात ठीक मानी जाय तो नंदवंशके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त मौर्यका अधिकार भी इन देशोंमें होना युक्तिसंगत है । तामिल भाषाके प्राचीन साहित्यमें अनेकों उल्लेख हैं, जिनसे स्पष्ट है कि मौर्योने दक्षिण भारतपर आक्रमण किया था और उसमें वे सफल हुये थे। किन्तु इससे यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सक्ता कि दक्षिण भारतकी यह विजय चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा ही हुई थी अथवा उसके पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसारने दक्षिण प्रदेश अपने आधीन किया था । परन्तु यह विदित है कि चन्द्रगुप्तका पौत्र अशोक जब सिंहासन पर बैठा, तब यह दक्षिण देश उसके साम्राज्यमें शामिल था। जैन मान्यताके अनुसार चन्द्रगुप्तका साम्राज्य दक्षिण भारत तक होना प्रमाणित है।' १-भाइ० पृ. ६२ । २-ऑहिइ० पृ० ७४ । ३-श्रवण पृ० ३८। ४-ममैप्राजैस्मा० पृ. २०५ व जराएसो०; १९२८, पृ. १३५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २२५ जिससमय चन्द्रगुप्त भारतमें उक्त प्रकार एक शक्तिशाली सिल्यूकस नाइके- केन्द्रिक शासन स्थापित करने में संलग्न था, टर से युद्ध | उसी समय पश्चिमीय मध्य ऐशिया में सिकंदर महान्का सिल्यूकस नाइकेटर नामक एक सेनापति अपना अधिकार जमाने का प्रयास कर रहा था। उसने बड़ी सफलता से सिरिया, एशिया माइनर और पूर्वीय प्रदेशोंको हस्तगत कर लिया था । उसने भारतको भी फिरसे जीतना चाहा और ३०५ ई० पू० में सिन्धु नदी पार कर आया । चन्द्रगुप्तकी अजेय सेनाने उसका सामना किया | पहिली ही मुठभेड़में सिल्यूकसकी सेना पिछड़ गई और उसे दबकर संधि कर लेनी पड़ी। इस संधि के अनुसार सिंधु नदीके पश्चिमी मूत्र - विलोचिस्तान और अफगानिस्तानको चंद्रगुप्त ने अपने राज्य में मिला लिया । सिल्यूकस ५०० हाथी लेकर संतुष्ट होगया | उसने अपनी बेटी भी चन्द्रगुप्तको व्याह दी। इस विजय से चंद्रगुप्त का गौरव और मान विदेशों में बढ़ गया । सिल्यूकसका दूत उसके राजदरबार में आकर रहने लगा और उसके सम्पर्क से भारतका महत्वशाली परिचय और तात्विक ज्ञान विदेशियों को हुआ । पैरंदो (Pyrrho ) नामक एक यूनानी तत्ववेत्ता 1 जैन श्रमणों से शिक्षा ग्रहण करनेके लिये यहां चला आया और व्यापारकी भी खूब उन्नति हुई । चन्द्रगुप्तके इस साम्राज्य विस्तार के अपूर्व कार्य और फिर उसे व्यवस्थित भावसे एक सूत्र में बांध रखनेसे उसकी अदभुत तेनस्त्रिता, तत्परता और बुद्धिमत्ता का परिचय मिलता है । साधारण अवस्था से उठकर वह एक महान् सम्राट् १-भाइ० पृ० ६२-६३ । २- हिग्ली० पृ० ४२ व लाम० पृ० ३४ । १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ) संक्षिप्त जैन इतिहास । होगया, यह उसके अदम्य पुरुषार्थ और कर्मठताका प्रमाणपत्र है। सिल्यूकसकी ओरसे जो दूत मौर्य दरबारमें आया था, वह मेगास्थनीज नामसे विख्यात् था । वह कई शासन-प्रबन्ध । - वर्षांतक चन्द्रगुप्तके दरबारमें रहा था और बड़ा विद्वान् था। उसने उससमयका पूरा वृतान्त लिखा है। वह चन्द्रगुप्तको योग्य और तेजस्वी शासक बतलाता है । उसके वृत्तांत एवं कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे चन्द्रगुप्तके शासन-प्रबन्ध और उप्त समयकी सामाजिक स्थितिका अच्छा पता चलता है। राज्यका शासन पंचायतों द्वारा होता था; यद्यपि प्रत्येक प्रान्त भिन्न २ गवर्नरोंके माधीन था। इन प्रांतिक अधिकारियों को छै पंचायतों द्वारा राज्यप्रबन्ध करना पड़ता था । 'एक पंचायत प्रजाके जन्ममरणका हिसाब रखती थी। दूसरी टैक्स यानी चुंगी वसुल करती थी। तीसरी दस्तकारीका प्रबंध करती थी। चौथी विदेशीय लोगोंकी देखभाल करती थी। पांचवीं व्यापारका प्रबंध करती थी। और छठी दस्तकारीकी चीजोंके विक्रयका प्रबंध करती थी। कुछ विदेशीय लोग भी पाटलिपुत्र में रहते थे। उनकी सुविधाके लिये अलग नियम बना दिये गये थे।" पाटलिपुत्र उप्त समय एक बड़ा समृद्धिशाली नगर था। और . वह मौर्य सम्राट्की राजधानी थी। तब यह नगर राजधान । '' सोन और गंगाके संगमपर ९ मीलकी लम्बाई और १३ मील चौड़ाई में बता था। इसप्रकार वह वर्तमान पटनाकी तरह लंबा, संकीर्ण और समांतर-चतुर्भुनाकार था। उसके चारों ओर १-भाइ० पृ. ६३। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२२७ एक लकड़ीकी दीवार थी। इसमें ६४ फाटक और ५७० मीनार ये । इसके बाहर २०० गन चौड़ी और १५ गन गहरी खाई थी, नो सोनके जलसे भरी रहती थी। वर्तमान पटना नगरके नीचे यह प्राचीन पाटलिपुत्र तुपा पड़ा है। बांकीपुरके निकटमें खुदाई करनेसे चंद्रगुप्त के रानप्राप्तादका कुछ अंश मिला है। यह रानभवन भी लकड़ीका बना हुमा था, परंतु सनधन और सुंदरतामें किसी राजमहलसे कम न था। राज्यके शासन-प्रबन्धक समान ही नगरका प्रबंध एक म्युनिसिपल कमीशन द्वारा होता था। इसमें भी छै पंचायतें थीं और प्रत्येक पंचायतमें पांच सदस्य इनके द्वारा देश और नगरका सुचारु और आदर्श प्रबंध होता था। चन्द्रगुप्त का शासन प्रबन्ध आनकलके प्रजातंत्र राज्यों के लिये शासन प्रबन्धकी एक अनुकरणीय आदर्श था। मानकलकी विशेषतायें। म्युनिसिपिल कमेटियोंसे यदि उसकी तुलना की जाय, तो वह प्राचीन प्रबन्ध कई बातों में अच्छा माटम देगा। चन्द्रगुप्त के इस व्यवस्थित शासनमें प्रत्येक मनुष्य और पशुतककी रक्षाका पूरा ध्यान रखा जाता था। कौटेल्पके अर्थशास्त्र में पश ओंके भोजन, गौओंके दुहने और दुध, मक्खन आदिकी स्वच्छताके सम्बंध नियम दिये हुये मिलते हैं । पशुओं को निर्दयता और चोरीसे बचाने के नियम सविस्तर दिये गये हैं। एक जैन सम्राटके लिये ऐमा दयालु और उदार प्रष करना सर्वथा उचित है। मनुष्यों की रक्षाका भी पूरा प्रबंध था। व्यापारियों के लिये कई सड़कें बनवाई गई थी; बिनपर मुसाफिरों की रक्षाका पूरा प्रबन्ध था। १-मेएइ. । २-माह. पृ. १६७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ संक्षिप्त जैन इतिहास । भारतकी सीमासे पाटलिपुत्रतक राजमार्ग बना हुआ था। यह मार्ग शायद पुष्कलावती (गान्धारकी राजधानी) से तक्षशिला होकर झलम, व्याप्त, सतलज, जमनाको पार करता हुआ तथा हस्तिनापुर, कन्नौज और प्रयाग होता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचता था । सड़कोंकी देखभालका विभाग अलग था ।x दुर्भिक्षकी व्यवस्था उच्च न्यायालय करते थे । जो अन्न सरकारी भण्डारोंमें आता था उसका आधा भाग दुर्भिक्षके दिनोंके लिये सुरक्षित रक्खा जाता था और अकाल पड़नेपर इस भाण्डारमेंसे अन्न बांटा जाता था । अगली फसल के बीजके लिये भी यहींसे दिया जाता था। चन्द्रगुप्तके राज्य के अंतिम कालमें एक भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था । खेतोंकी सिंचाईका पूरा प्रबन्ध रक्खा जाता था जिसके लिये एक विभाग अलग था। चन्द्रगुप्त के काठियावाड़के शासक पुष्यगुप्तने गिरनार पर्वतके समीप 'सुदर्शन' नामक झील बनवाई थी। छोटी बड़ी नहरों द्वारा सारे देश में पानी पहुंचाया जाता था । नहरका महकमा आबपाशी-कर वसुल करता था। इसके अतिरिक्त किसानोंसे पैदावारका चौथाई भाग वसूल किया जाता था । आयात निर्यात मादि और भी कर प्रजापर लागू थे। राज्यमें किसी प्रकारकी अनीति न होने पाये, इसके लिये चन्द्रगुप्तने एक गुप्तचर विभाग स्थापित किया गुप्तचर विभाग। ' था । नगरों और प्रांतोंकी समस्त घटनाओंपर दृष्टि रखना और सम्राट अथवा अधिकारी वर्गको गुप्तरीतिसे सुचना x भाप्रारा. भा० २ ० ७१।१-लाभाइ० पृ० १६७ । २-भाइ. पृ. ६४ । ३-जराएसो. सन् १८९१ पृ. ४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २२९ देना इनका कार्य था । मेगास्थनीज लिखता है कि इन गुप्तचरोंपर कोई मिथ्या समाचार देनेका दोषारोपण कभी नहीं हुआ; क्योंकि किसी भी भारतीयसे यह अपराध कभी नहीं बन पड़ा । सचमुच प्राचीन भारतके निवासी सचाई और ईमानदारीके लिये बहुत ही विख्यात् थे । दण्ड विधान | चन्द्रगुप्तका फौजदारी कानून कठोर था । यदि किसी कारीगरको कोई चोट पहुंचाता, तो उसे प्राणदण्ड ही मिलता था । यदि कोई व्यक्ति किसीको अंगहीन कर देता तो दण्ड स्वरूप वह भी उसी अंगसे हीन किया जाता था; और हाथ घाते में काट लिया जाता था। झूठी गवाही देनेवालेके नाक कान काट लिये जाते थे । पवित्र वृक्षों को हानि पहुंचानेवाला भी दण्ड पाता था । सिरके बाल मुड़ दिये जानेका दण्ड बड़ा लज्जाजनक समझा जाता था । साधारणतः चोरीके अपराधमें अंग छेदका दण्ड दिया जाता था । चुङ्गीका महसूल देने में टालमटूल करनेवाला मृत्युदण्ड पाता था। अपराधी कड़ी यातनाओं द्वारा अपराध स्वीकार करनेके लिये बाध्य किये जाते थे । चन्द्रगुप्तके फौजदारी कानुनकी यह कठोरता किंचित् मापत्तिजनक कही जा सक्की है; किन्तु जिन्होंने इंग्लेन्ड आदि यूरोपीय देशों का निद मृतकालीन इतिहास पढ़ा है, वह जानते हैं कि इन देशों में भी नरा२ से अपराधके लिये भी प्राप्यदण्ड देनेका रिवाज था । ऐसा मालूम होता है कि प्राचीन कालमें दण्ड की कठोरतायें १- माइ० १० ६४, • १० १२९ और अमाह १०१४१५ २- माइ० १०६४ और अमाइ १० १५९-१६० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । सदाचार और सुनीतिकी बढ़वारीका विश्वास था । चन्द्रगुप्तके विषयमें कहा जासक्ता है कि उसका यह कठोर दण्डविधान सफल हुआ था | मेगास्थनीज लिखता है कि जितने समय तक यह चंद्रगुप्तकी सेना में रहा, उस समय चार लाख मनुष्योंके समूह में कभी किसी एक दिन में १२०) रुपयेसे अधिक की चोरी नहीं नहीं हुई। और यह प्रायः नहींके बराबर थी। भारतीय कानूनकी शरण बहुत कम लेते थे । उनमें वायदाखिलाफी और खयानत के मुकद्दमें कभी नहीं होते थे । उन्हें साक्षियों की भी जरूरत नहीं पड़ती थी । वे 1 भारतीय अपने घरोंको विना ताला लगाये ही छोड़ देते थे । ' इस उल्लेख से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्तके दण्ड विधानका नृशंसरूप जनताको सदाचारी और राज्याज्ञानुवर्ती बनाने में सहायक था । इस दशामें उसका प्रयोग अधिकता के साथ प्रायः नहीं होना संभव है। चन्द्रगुप्तकी विशाल सेनाकी व्यवस्थाके लिये एक सैनिक विभाग था । सेना के चारों भाग- (१) पैदल सैनिक विभाग | सिपाही, (२) अश्वारोही, (३) रथ, ( ४ ) हाथीका प्रबन्ध चार पंचायतों द्वारा होता था। पांचवीं पंचायत कमसरियट विभाग और सैनिक नौकर-चाकरोंका प्रबन्ध करती थी । छठी पंचायत जहाजों का प्रबन्ध करती थी । सेनाको वेतन नगद मिलता था। जहाज आदि सब यहीं बनाये जाते थे। इस व्यवस्थासे स्पष्ट है कि चंद्रगुप्तका सैनिक प्रबंध सर्वाङ्ग पूर्ण और सराहनीय था । यदि उसकी व्यवस्था ठीक न होती, तो इतने बड़े साम्राज्यपर वह सहसा अधिकार न जमा सक्ता ! २ १ - मेऐइ ० पृ० ६९-७० । २-भाइ० पृ० ६६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य। मौर्यकालकी सामानिक दशा भगवान महावीरके समयसे _ कुछ अधिक विलक्षण नहीं थी । वह प्रायः सामाजिक दशा। 'वैसी ही थी। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूदयह चार प्रधान जातियां थीं और इनको अपना वंशगत व्यवसाय करना अनिवार्य था। किन्तु प्रत्येक प्राणीको राजाज्ञासे दुसरा अथवा एकसे अधिक व्यवसाय करनेकी स्वाधीनता प्राप्त थी।' इन वर्गों में परस्पर उदारताका व्यवहार था। जातीय कट्टरताका नामशेष नहीं था। पारस्परिक सहयोगसे रहते हुये यहांके लोग बड़े सुखसम्पन्न और सदाचारी थे। वे मनुष्य जीवन के चारों पुरु. पार्थो-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-का समुचित साधन करते थे । ब्रह्मचर्यदशामें रहकर विद्याध्ययन करनेसे उनकी बुद्धि कुशाम और स्वास्थ्य अनुपम रहता था। वे सदा सत्यवादी थे। और शिल्प एवं कलाकौशलमें बड़े निपुण थे। सोने चांदी और जवाहरातके मामूषण बनाने के लिये देशमें सोने, चांदी, तांबे, लोहे, रत्न मादिकी खानें थीं। तब भारतीय मच्छे२ शस्त्र और बड़े जहान बनाते थे । उस समय यहांका शिल्प और वाणिज्य उन्न. तिकी चरमसीमापर पहुंचा हुमा था । सिंधुदेशके सुन्दर वस्त्र और देशकी बनी हुई अन्य वस्तुयें दूर २ विदेशोंमें बिकनेके लिये जाती थी। मेगास्थनीन लिखता है कि "भारतीय यद्यपि सरक स्वभाव और सादगीको बहुत पसंद करते हैं, परंतु रत्नों, . कारों और परिच्छेदोंका उनको खास शौक । परिच्छोंपर मुन 1-माप्रारा• मा. २ पृ. ९१ । २-लामाह• भा० १० १४९। ३-माप्रारा. भा. २ पृ. ११ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | हला और रुपहला काम कराते हैं । वे निहायत बारीकसे बारीक मलमलपर फूलदार कामकी बनी हुई पोशाकें पहिनते हैं । उनके ऊपर छतरियां लगाते हैं, क्योंकि भारतीयोंको सौन्दर्यका बहुत ध्यान है ।" " जूते एरियन निर्याकसके अनुसार लिखता है कि " भारतवासी नींचे रुईका एक वस्त्र पहनते हैं, जो घुटनेके नीचे आधी दूर तक रहता है । और उसके ऊपर एक दूसरा वस्त्र पहनते हैं । जिसे कुछ तो वे कंधोंपर रखते हैं और कुछ अपने सिरके चारों ओर लपेट लेते हैं । वे सफेद चमड़े के पहनते हैं; जो बहुत ही अच्छे बने हुये होते हैं ।" इस लेख से प्राचीन ग्रंथों में लिखे हुये ' अधोवस्त्र ' और ' उत्तरीय ' का बोध होता है । अधिकांश जनता शाकाहारी थी और मद्यपन नहीं करती थी । आवनृपके चिकने बेलनोंको त्वचापर फिराकर मालिश करानेका बहुत रिवाज था । ब्राह्मणों और श्रमणका आदर विशेष था । श्रमण संप्रदाय में प्रत्येक मुमुक्षु आत्मकल्याण करनेका साधन प्राप्त कर लेता था । चारों वर्णोंमें परस्पर विवाह सम्बन्ध प्रचलित था । विवाह महिलाओंकी जवान पुरुषों और युवती कन्यायोंके होते थे । महिमा | तब बाल्यविवाहका नाम सुनाई नहीं पड़ता था । विवाह के समय पति स्त्रीको अलङ्कार आदि देते थे, पर आजकल के मुसलमानोंके 'मेहर' के समान 'वृत्ति' (या स्त्रीधन) नामका निश्चित धन भी देते थे । इस घन एवं अन्य जो सम्पत्ति स्त्रीको अपने १ - ऐइमे०, पृ० ७० । २- भाप्रारा० भा० २ पृ० ८९५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [ २३३ रिश्तेदारों से मिलती, उसपर उसका पूरा अधिकार होता था । वह जैसे चाहे वैसे उसको खर्च कर सक्ती थी । स्त्री-घनकी रक्षाके लिये कड़े नियम राज्यकी ओर से बने हुये थे । किन्तु यदि पतिकी मृत्युके उपरान्त स्त्री दूसरा विवाह करती थी, तो उसका सारा स्त्रीधन जप्त होजाता था। हां, श्वसुरकी सम्मति से दूसरा विवाह करनेपर वह उस घनको पासक्ती थी। पर इतना स्पष्ट है कि पुनर्विवाह हेय दृष्टिसे ही देखा जाता था । पुनर्विवाह करनेके लिये अतीव कठिन नियम बना दिये गये थे; जिनमें स्त्रियोंके इस अधिकारको यथासंभव परिमित करनेका प्रयास था । पुरुषोंमें बहु विवाह करनेका रिवाज था; किन्तु इसके लिये भी समुचित राजनियम बने हुए थे । । । एक पत्नी से यदि संतान न हो, तो दूसरा विवाह करनेकी साधारण आज्ञा भी । और दूसरी पत्नीसे भी पुत्रोत्पन्न न हो, तो पुरुष तीसरा और फिर चौथा इत्यादि सामर्थ्य के अनुसार विवाह कर सक्ता था; किन्तु दूसरा विवाह करनेके पहले उसे प्रथम पत्नीके भरण-पोषणका पूरा प्रबन्ध कर देना अनिवार्य था । इस नियमके होनेके कारण बहुत कम ऐसे पुरुष होते थे जो बहुपत्नीक हो । किन्हीं विशेष अवस्थाओं में विवाह विच्छेद करनेकी मी राजाज्ञा थी। किंतु उससमय एक पतिव्रत और एक पत्नीव्रतकी प्रधानता थी । " * - जैन कानूनमें इस बातका खास ध्यान रक्खा गया है । उसीके अनुसार बनागुप्त जैसे जैब सम्राट्का राज्य नियम होना उपयुक्त है १ - सरस्वती, मा० २८ खण्ड २ १० १३६० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | उस समयकी समाज में वैदिक, जैन और बौद्ध एवं आजीविक धर्म प्रचलित थे । जैनधर्मका प्रचार खूब था; धार्मिक स्थिति । जैसे कि मुद्राराक्षस नाटकसे प्रकट है ।" प्रत्येक संप्रदाय के धर्मायतन बने हुये थे | त्यौहारों और पर्वोके अवसरों पर बड़ी धूमधामसे उत्सव मनाये जाते थे और समारोहपूर्वक बड़े २ जुलूस निकाले जाते थे; जिनमें सोने और चांदी के गहनोंसे सजे हुये विशालकाय हाथी सम्मिलित होते थे । 'चार२ घोड़ों और बहुतसे बैलोंकी जोड़ियोंवाली गाड़ियां और बल्लमबरदार होते थे । जुलूस में अतीव बहुमूल्य सोने चांदी और जवाहरातके कामके वर्तन और प्याले आदि साथ जाते थे । उत्तमोत्तम मेज, कुरसियां और अन्य सजावटकी सामिग्री साथ होती थी । सुनहले तारोंसे काढी हुई नफीस पोशाकें, जंगली जन्तु, बैल, भैंसे, चीते, पालतू सिंह, सुन्दर और सुरीले कण्ठवाले पक्षी भी साथ चलते थे । आजकलकी जैन रथयात्रायें प्रायः इस ही ढंगपर सुसज्जितनिकालीं जातीं हैं । पशु पक्षियोंको साथ रखने में, श्री तीर्थकर भगवान के समोशरणको प्रत्यक्षमें प्रगट करना इष्ट था । अशोकका पोता संप्रति ऐसी ही एक जैन यात्राको अपने राजमहल परसे देखते हुये सम्बोधिको प्राप्त हुआ था । इससे भी उससमय जैनधर्मकी प्रधानता स्पष्ट होजाती है। तब वह राष्ट्र-धर्म होने का गौरव. प्राप्त किये हुये था । १ - वीर वर्ष ५ पृ० ३८७-३९२ । २-लाभाइ० मा० १५० १५० । ३-परि० १० ९२-९६ / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २३५ जावन । उपरोक्त वर्णन से सम्राट् चंद्रगुप्तके राजनैतिक जीवनका चन्द्रगुप्तका वैयक्तिक परिचय प्राप्त है । 'प्रत्येक मनुष्य स्वयं विचार कर सकता है कि यह कैसा प्रतापी और विलक्षण राजा था; जिसने केवल २४ वर्षके अल्प समय में ही अपने हाथों स्थापित किये नवीन राज्यको ऐसी उन्नत दशापर पहुंचा दिया । आजसे २२ सौ वर्ष पूर्वके इसके राज्य प्रबंधका वर्णन पढ़कर हमारे पूर्वजोंको मूर्ख समझनेवाली आजकलकी साम्याभिमानी नातियां भी आश्चर्यचकित होती हैं ।' चन्द्रगुप्तका वैयक्तिक जीवन भी आदर्श था । वह दिनभर राजसभामें बैठकर न्याय किया करता था और वैदेशिक दूतों व्यादिसे मिलता था । राजाकी रक्षाके लिये यवनदेशकी स्त्रियां नियत थीं, जो शस्त्रविद्या और संगीत शास्त्रमें चतुर होती थीं। इस देशकी भाषा और रहन सहनसे उनका ही बिलकुल परिचय न होनेके कारण किसी षड्यन्त्रमें उनका संमिळित होना असंभव था। राजा भड़कीली पोशाक पहिनता था और उसकी सवारी भी बड़ी शान शौकत से निकलती थी । उसकी सवारीके चारों ओर सशस्त्र यवन स्त्रियां चलतीं थीं और उनके इर्द गिर्द बवाले सिपाही रहते थे । मार्गमें रस्सियों से सीमा निर्धारित कर दी जाती थी । इस सीमाको उल्घन करनेवाला मृत्युदण्ड पाता था। राजाको आबनूसके बेलनोंसे देह दबवानेका बड़ा शौक था । राज दरबार में भी उनकी इस सेवाके लिये चार परिचारक नियत रहते थे । राजाकी वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी । राजा नियमित रूपसे धार्मिक क्रियायें करते थे और मुनिजनों (भ्रमण) १-आरा० भा० २ १० ९३ । २-माप्रारा० भा० २ पृ० ८०-८२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | ર को माहार देते थे ।' उनके एकसे अधिक रानियां थीं । रानी सुप्रभा उनमें प्रधान थी। एक रानी वैश्य वर्णकी थी जिसका भाई पुष्पगुप्त गिरनार प्रांतका शासक था। उस समय राजाके निकट सम्बंधियोंको विविध प्रांतों में शासक नियत करनेका रिवाज था । तीसरी रानी विदेशी यवन राजा सिल्यूकसकी पुत्री थी । यवन लोगों को यद्यपि माज म्लेच्छ समझते हैं, किन्तु मालूम होता है, उस समय उनके साथ विवाह सम्बंध करना अनुचित नहीं समझा जाता था । इन तीन रानियों के अतिरिक्त उनके और भी कोई रानी थी, यह विदित नहीं है । सम्राट् चन्द्रगुप्तका पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसार था । 'राजाबलीकथे' में शायद इन्हींका नाम सिंहसेन लिखा है ।" इनके अतिरिक्त चन्द्रगुप्तके और कोई संतान थी, यह मालूम नहीं है । इस प्रकार गार्हस्थिक आनन्द का उपयोग करते हुये भी चंद्रगुप्त निशङ्क नहीं थे। गुप्त षड्यंत्रों के कारण उन्हें सदा ही अपने प्राणोंका भय लगा रहता था । उनके पास प्रचुर धन था और ठाठबाटका सामान भी खूब थी ! जैन शास्त्रोंसे प्रगट है कि सम्राट चंद्रगुप्त जैन धर्मानुयायी थे। वह दिगम्बर जैन मुनियों (निर्यथश्रमणों) चन्द्रगुप्त जैन थे । की वन्दना-पूजा करते थे और उनको विनयपूर्वक आहारदान देते थे । जैन ग्रन्थोंके इस वक्तव्यका समर्थन १ - जरा एसो० भा० ९ १० १७६ । २ - श्रवण० पृ० २८ । ३ - संप्रामा० पृ० १७८ | ४- भाइ० पृ० ६७ । ५-भ्रमण०, पृ० ३१ । ६- माइ० पृ०. ६६ । ७ - अवण० पृ० २५-४० । ---- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य। [९३७. मेगास्थनीनके कथन एवं 'मुद्राराक्ष नाटकके वर्णनसे होता है।' मौर्याख्यदेशमें जैनधर्मका प्रचार विशेष था। एक मौर्यपुत्र स्वयं भगवान महावीरजीके गणधर थे । और नन्दवंश भी जैनधर्म भक्त था, यह प्रगट है । इस दशामें चन्द्रगुप्तका जैन-एक श्रावक होना कुछ भी अत्योक्ति नहीं रखता। जैन शास्त्र उसे एक मादर्श और धर्मात्मा राजा प्रगट करते हैं। किन्तु उनके जैन न होने में सबसे बड़ी आपत्ति यह की जाती है कि वह शिकार खेलते थे। पर चंद्र. गुप्तके शिकार खेलने संबन्धमें भो प्रमाण दिया जाता है, वह यूनानी लेखकोंका भ्रान्त वर्णन है । क्योंकि युनानियोंने नहांपर शिकार खेलनेका वर्णन दिया है। वहां चन्द्रगुप्तका स्पष्ट नामोल्लेख नहीं है। वह कथन साधारण रूपमें है । और इधर जैनशास्त्रोंसे यह प्रगट ही है कि चंद्रगुप्तने कभी शिकार आदि कोई संकल्पी हिंसाकर्म नहीं किया था। ___ अतः मालुम यह पड़ता है कि चन्द्रगुप्त जन्मसे अविरत सम्यग्दृष्टी जैनी थे; किन्तु फिर जैन मुनियों के उपदेशको पाकर उन्होंने महिंसा मादि व्रतोंको ग्रहण करके अपना शेष जीवन धर्ममय बना लिया था। यदि उन्होंने पहिलेसे श्रावकके व्रोंका मम्बास न किया होता, तो यह सम्भव नहीं था कि वह एकदम जैन मुनि होजाते। उनका नैन मुनि होना प्राचीनतम साक्षीसे सिद्ध है। और उसे १-जराएको• भा० ९ पृ. १७६ । २-वीर वर्ष ५ पृ० ३९० । ३-ईसाकी पहिली या दूसरी शताब्दिके प्रन्य तिलोयपणति' (गा. ७)में चन्द्रगुप्त को जैन मुनि ोना लिखा है। और उसे "मुकुटधर" राजा लिखा है। 'मुकुटधर' से भाव सम्भवतः उस राजासे है जिसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । आधुनिक विद्वान भी मान्य ठहराते हैं । भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे चंद्रगुप्तने दीक्षा ग्रहण की थी और उनका दीक्षित नाम मुनि प्रभाचंद्र था। इन्होंने अपने गुरु भद्रबाहुके साथ दक्षिणको गमन किया था और श्रवणबेलगोलमें इनने समाधिपूर्वक स्वर्ग लाभ किया था। इस स्पष्ट और जोरदार मान्यताके समक्ष चंद्रगुप्तको जैन न मानकर शैव मानना, सत्यका गला घोंटना है । हिन्दु शास्त्रोंमें अवश्य उनके जैन साधु होने का प्रगट उल्लेख नहीं है; परन्तु हिंदू शास्त्र उन्हें एक शूद्राजात लिखनेका दुस्साहस करते हैं; वह किस बातका द्योतक है ? यदि चंद्रगुप्त जैन नहीं थे, तो उन्होंने एक क्षत्री रानाको अकारण वर्ण-शंकर क्यों लिखा ? इस वर्णनमें सांप्रदायिक द्वेष साफ टपक रहा है। जैसे कि विद्वान् मानते हैं और इस तरह भी चंद्रगुप्त का जैन होना प्रगट है। कोई विद्वान् उनके नृशंस दंड विधान आदिपर आपत्ति करते हैं और यह क्रिया एक जन सम्र के लिये उचित नहीं समझते । किन्तु उनका दण्डविधान कठिन होते हुये भी अनीति पूर्ण और अनाआधीन एक हजार राजा हों। चन्द्रगुत मौर्य ऐसे ही प्रतापी राजा थे। शिलालेखीय साक्षी ई० सन्के प्रारम्भिक कालकी है । (देखो. श्रवण० पृ० २५-४० व जैसिभा० भा० )। १-अहिइ० पृ० १५४; मैसूर एण्ड कुर्ग-राइस, भा० १; हिवि० भा० ७ पृ० १५६; इरिइ०-चन्द्रगुप्त; केहिइ० भा० १ पृ. ४८४ और माइजै० पृ० २०-२५, हिआइ० पृ. ५९ जैनीजम और दी अझै फेथ आव अशोक पृ० २३ व जविओसो भा० ३ ०। २-जैसिभा० भा० १ कि० २-३-४ व कैहिइ० भा०१ पृ० ४८५। ३-राइ० भा० १ पृ० ६१ । ४-लाभाह• पृ० १५३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [२३९ चारको बढ़ानेवाला नहीं था। उसका उद्देश्य जनसाधारणमें सुनी. तिका प्रचार करना था। और इस उद्देश्यमें वह सफल हुआ था; जैसे कि हम देख चुके हैं । तथापि उसमें जब पशुओं और वृक्षों तककी रक्षाका पूर्ण घ्यान था, तब उसे जैनधर्मके विरुद्ध खयाल करना मूल भरा है । चन्द्रगुप्त अवश्य ही एक बड़े नीतिज्ञ और उदारमना जैन सम्राट थे । यही कारण है कि प्रत्येक धर्मके शास्त्रोंमें उनका उल्लेख हुमा मिलता है । जैन शास्त्रोंमें उनका विशेष वर्णन है और वह उनके अंतिम जीवनका एक यथार्थ वर्णन करते हैं; वान अन्य किसी जैनेतर श्रोतसे यह पता ही नहीं चलता है कि उनका राज्य किस प्रकार पूर्ण हुआ था । जैन शास्त्र बतलाते हैं कि वह अपने पुत्रको राज्य देकर जैन मुनि होगये थे और यह कार्य उनके समान एक धर्मात्मा रानाके लिये सर्वथा उपयुक्त था । अतएव चंद्रगुप्त का न होना निःसंदेह ठीक है । मि० स्मिथ कहते हैं कि "जैनियोंने सदैव उक्त मौर्य सम्राटको विम्बसार (प्रेणिक) के सदृश जैन धर्मावलंबी माना है और उनके इस विश्वापको झूठ कहनेके लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है ।" कोई विद्वान कहते हैं कि यदि चन्द्रगुप्त जैन धर्मानुयायी थे, तो वह एक बाह्मणको अपना मंत्री नहीं रख चाणषय । ' सक्ते थे। किंतु इस मापत्तिमें कुछ तथ्य नहीं है, क्योंकि कई एक जैन राजाओंके मंत्री वंश परम्परा रीतिपर मयवा स्वाधीन रूपमें ब्राह्मण थे । और फिर जैन शास्त्रोका कहना १-प्रवण. पृ. ३७ व आहि. पृ० ७५-७६ । २-आहिइ० पृ. ०५ व जैशिमं भू. पृ० ६९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । है कि चंद्रगुप्तके ब्राह्मण मंत्री चाणक्य, जिनको विष्णुगुप्त, द्रोमिल, द्रोहिण, अंशुल, कौटिल्य आदि अनेक नामोंसे संबोधित किया जाता है, एक जैन ब्राह्मणके पुत्र थे। गोल्ल नामक ग्राममें चणक नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह पक्का श्रावक था । चणेश्वरी उसकी भार्या थी। चाणक्यका जन्म इन्हींके गृहमें हुमा था। वह भी अपने माता पिताके समान एक श्रमणोपासक श्रावक था। नन्दराजा द्वारा अपमानित होकर उसने राज्यभ्रष्ट चंद्रगुप्तका आश्रय लिया था । उसका साथ देकर वह चंद्रगुप्तके राजा होनेपर स्वयं उसका रान-मंत्री हुमा था। ____ चाणक्यने संभवतः चंद्रगुप्त के लिये राजनीतिका एक अच्छा ग्रन्थ लिखा था। उसका एक अर्वाचीन संस्करण प्राप्त है । वह 'कौटिल्यका अर्थशास्त्र' नामसे छप भी चुका है। इस ग्रन्थमें कई एक ऐसी बातें हैं जो जैनधर्मसे संबंध रखती हैं। पशुओंकी रक्षाका विधान करना, लेखकको अहिंसा धर्मप्रेमी प्रकट करनेको पर्याप्त है। एक जैन विद्वान उसमें खास नैन शब्दोंका प्रयोग हुआ बत३-परि०, पृ. ७७। चणी चाणक्य इत्याख्यां ददौ तस्यांगजन्मनः । चाणक्योऽपि श्रावकोऽभूत्सर्वविद्यब्धिपारगः ॥ २० ॥ श्रमणोपासकत्वेन स सन्तोष धनः सदा। कुलीन ब्रह्मणस्यैकामेव कन्यामुपायत ॥ २०१ ॥ इत्यादि ! दिगम्बर जैन ग्रन्थों ( हरिषेण कथाकोष व आक० भा० ३ पृ० ४६) में चाणक्यके पिताका नाम कपिल और उनकी माताका नाम देविला लिखा है। वे वेद पारङ्गत विद्वान थे। महीधर नामक जैनमुनिसे उनने जैन दीक्षा ग्रहण की थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [२४१ लाते हैं जैसे उपभेद वाची 'प्रकृति' शब्द । जैनदर्शनमें कोके १४८ मेदोंको 'प्रकृतियां' कहते हैं । कौटिल्य भी इस शब्दको इसी अर्थमें प्रयुक्त करता है, यथा “ अरि और मित्रादिक राष्ट्रोंकी सब कुल प्रकृतियां ७२ होती हैं । " उनने अपने नीतिसूत्रोंमें जैन प्रभावके कारण ही जैनाचार विषयक कई सिद्धांतों को भी लिखा है; जैसे “दया धर्मस्य जन्मभूमिः "; "अहिंसा लक्षणो धर्मः ", " मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् "; "सर्वमनित्यं भवति"; "विज्ञानदीपेन संसारभयं निवर्तते ।" इत्यादि । उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में राय दी है कि राना अपने नगरके बीचमें विनय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नामक देवता. ओंकी स्थापना करे ! ये चारों ही देवता जैन हैं ! और जैन पंडित कहते हैं कि सांसारिक दृष्टिसे नगरके बीच इनके मंदिरों के बनवानेकी यों जरूरत है कि ये चारों ही देवता उस स्थानके रहनेवाले है, नहांकी सभ्यता और नागरिकता ऐसी बढ़ी चढ़ी है कि वहांपर प्रनासत्तात्मक राज्य अथवा साम्राज्यशून्य ही संसार वसा हुमा है । ये अपनी बढ़ी-चढ़ी सभ्यताके कारण सबके सब अहमिन्द्र कहलाते हैं और इनके रहने के स्थानको ऊँचा स्वर्ग जैन शास्त्रों में माना है । लोक शिक्षाके लिये तथा राजनीतिका उत्कृष्ट ध्येय बतलाने के लिये इन देवताओं का प्रत्येक नगरके बीच होना जरूरी है। इन उल्लेखों एवं ऐसे ही अन्य उल्लेखोंसे, मो मर्थ शास्त्रका मध्ययन करनेसे प्रगट होसते हैं, चाणक्यका नैनधर्म विषयक ही श्रद्धान प्रगट है । और अन्तमें चाणिक्यने नैन शास्त्रानुसार जैन साधुकी वृत्ति ग्रहण करली थी। १-आक० भा० ३ पृ. ५१-५२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | . चाणक्य जैनाचार्य हुये थे और अपने ५०० शिष्यों सहित उनने देश विदेशों में विहार करके दक्षिणके वनवास नामक देशमें स्थित क्रौंचपुर नगरके निकट प्रायोपगमन सन्यास ले लिया था । चाणक्य के साधु होने का जिक्र जैनेतर शास्त्रोंमें भी है। इस अवस्था में चाणक्यको जैन ब्राह्मण मानना अथवा उनपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा स्वीकार करना कुछ अनुचित नहीं है । चाणक्यको अवश्य ही जैनधर्मसे प्रेम था । अतएव चन्द्रगुप्तने उनको मंत्रीपद देकर एक उचित कार्य ही किया था । चाणक्य के मंत्री होनेसे उनके जैनत्वमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है । यही बात प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री विन्सेन्ट स्मिथ स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि 'चंद्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मणकी सहायता से प्राप्त की थी, यह बात चंद्रगुप्तके जैन धर्मावलम्वी होनेके कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ती।' (आहिइ० पृ० ७२ ) इस अवस्था में सम्राट् चंद्रगुप्त और चाणक्यके जैन होनेके कारण भारतवर्ष के प्रथम उद्धारका यश जैनियों को ही प्राप्त है । कहते हैं कि चंद्रगुप्तने कुल चौवीस वर्ष राज्य किया था । धर्म-प्रभावनाके कार्य और अन्तमें वह जैन साधु होगया था । और समाधिमरण । उसने अपनी राज्यावस्था में जैनधर्म प्रभावनाके लिये क्या२ कार्य किये थे, उनका पता लगा लेना आज कठिन १- आक० भा० ३ पृ० ५१-५२ । २ - हिड्राव०, भूमिका पृ० १०२६ । ३-जबिओसो० भा० १ पृ० ११५ - ११६. मि० जायसवाल ने चन्द्रगुप्तका राज्य काल सन् ३२६ ई० पु० से सन ३०२ ई० पू०तक लिखा किन्तु श्री० नगेन्द्रनाथ वसु इससे बहुत पहिले उनका राज्यकाल निर्धारित करते हैं; उनका कहना है कि " सिकन्दरका समकालीन चन्द्रगृप्त न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२४३ है। किन्तु उनके समान एक न्यायशील और धर्मात्मा रानाने अवश्य ही धर्मके लिये कोई ठोस कार्य किये होंगे, यह मान लेना ठीक है। इतना तो कहा जाता है कि दक्षिणके जैनतीर्थ 'श्रवणबेलगोल'के पास जो गांव है उसको सम्राट चंद्रगुप्तने ही बताया था । अनैन विद्वान् भी कहते हैं कि उन्होंने दक्षिण भारत के श्री शालम् प्रांत में एक नगरको जन्म दिया था। मालूम होता है कि वह उस ओर जब अपना साम्राज्य-विस्तार करते हुए पहुंचे थे, तब उक्त जैन तीर्थकी वन्दना की थी और वहांपर एक ग्रामकी जड़ जमाई थी। उपरांत वह ग्राम जैनधर्मका मुख्य केन्द्र हुमा और अब भी है। भले ही चंद्रगुप्तके अन्य धर्म कार्यों का पता भान न चले; किन्तु नैनधर्मके इतिहाप्समें उनका नाम और उनका राज्य अवश्य ही प्रमुख स्थान प्राप्त किये रहेगा। इसका कारण है कि उनके समयमें ही जैनधर्मका पूर्णश्रुत व्यक्षिप्त हुआ था और जैन संघमें दिगम्बर एवं श्वेतांबर भेदकी जड़ भी तब ही नमी थी। अशोकके समयमें संकलित हुए बौद शास्त्रोंसे भी इसी समयके लगभग जैन संघमें मतभेद खड़ा होनेका समर्थन होता है। (भवबु. पृ. २१३) दि. नेन शास्त्र कहते हैं कि सम्राट चंद्रगुप्तने होकर अशोक था। उनका समय ३७२ ६० पू० ठीक है । हिन्दू, बौद और जैन प्रोतोसे यही प्रमाणित होता है" (देखो हिवि. भा. ११० ५८७) यदि ३७२ ई. पृ० चन्द्रगुप्तका समय माना जाय वो भद्रबाहुका समय ई. पू. ३८३ उनके समयसे रीवर भा मिलता है। किन्तु बोके रेखोंमें जिन विदेषी गजाओका उल्लेख है, उनका समय इतना प्राचीन है कि अशोको सिदा ममकालीन माना जावे। १-ममताजस्मा. पृ. २०५। २-ऐहि. मा. पृ० १९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । सोलह स्वप्न देखे थे; जिनका फल श्री भद्रबाहुनी श्रुतकेवलीने बतलाया था। इसका निष्कर्ष इस कलिकालमें जैनधर्म और आर्य मर्यादाका हास होना था; किन्तु पं० जुगलकिशोरनी मुख्तार इन स्वप्नोंको कल्पित ठहराते हैं । जो हो, इतना स्पष्ट है कि जैनधर्ममें और खासकर दिगम्बर जैनधर्ममें चंद्रगुप्त का स्थान बड़े गौरव और महत्वका है। जैनियोंने उनकी जीवन घटनाओंको पत्थरकी शिलाओंपर सुन्दर चित्रकारी में अंकित कर रक्खा है। श्रवणबेलगोलके चन्द्रगिरिवाले मंदिरों में सम्राट् चन्द्रगुप्त और उनके गुरु भद्रबाहुनीके जीवन सम्बन्धी नयनाभिराम चित्रपट अपूर्व हैं और वह आज भी सम्राट चंद्रगुप्तके जैनत्वकी स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं। चंद्रगुप्त के नामसे ही इस पर्वतका नाम 'चन्द्रगिरि' हुमा है और वहांपर एक गुफामें उनके गुरुके चरणचिन्ह भी विराजमान हैं। जैन शिलालेखोंमें सम्राट चन्द्रगुप्तकी मुनि अवस्थाका स्मरण बड़े गौरवास्पद शब्दों में हुआ मिलता है । उन्हें मुनींद्र चन्द्रगुप्त व महामुनि चन्द्रगुप्त अथवा चन्द्र प्रकाशोज्वल सान्दकीर्ति चंद्रगुप्त या मुनिपति चन्द्रगुप्त लिखा गया है। और यह विशेषण उनके समान एक महान् और तेजस्वी राजर्षिके लिये सर्वथा उचित थे। महामुनि चन्द्रगुप्तने श्रवणबेलगोलसे ही समाधिमरण द्वारा स्वर्गलाभ किया था। १-भद्रबाहु चरित्र पृ० ११-३२ । २-जैहि० भा० १३ पृ० २३६ । ३-हिवि० भा० ७ पृ० १५०, जैसि० भा० १ कि० २-३ पृ० ८५ व ममैप्राजैस्मा० पृ० २०५ । ४-जैसिभा. भा०किरण २-३ पृ०७-८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २४५ चंद्रगुप्तके वाद मौर्यवंशका दूसरा राजा बिंदुवार था । विद्वान कहते हैं कि वह भी अपने पिताके समान जैनधर्मा बिन्दुसार । नुपायी और पराक्रमी राजा था ।' जैन शास्त्रों में इसका नाम सिंहसेन लिखा है । सन् ३०० ई० पू० के लगभग । वह मगध के राज्यसिंहासन पर बैठा था । इसका विशेष इतिहास कुछ ज्ञात नहीं है । किन्तु इस राज्यका संपर्क विदेशी राजाओंसे बढ़ा था; यह प्रगट है, मेगास्थनीजके चले जानेके बाद इसके राजदरबार में सिल्युकसके पुत्र एण्टिओकम नया दृत समूह भेजा था; फिर मिस्रनरेश टोल्मी फी डोलफसने भी डेओनीसे उसकी अध्यक्षता में एक द्रुत समूह भेजा था । बिन्दुसार के राज्यकालमें विदेशोंसे व्यापार के अनेक मार्ग खुले थे और आपस में दूतोंका शब्द अदल बदल होता था । यूनानी विद्वानोंने इसका नाम कुछ ऐसे शब्दों में लिखा है जो अमित्रघात अथवा अमित्रखादका अपभ्रंश प्रसीत होता है। मशोकका राजतिलक | बिन्दुसारकी एक रानी ब्राह्मण जातिकी सुभद्रांगी नामकी थी । अशोकका जन्म इसीकी कोखसे हुआ था । कहते हैं कि अशोकका एक बड़ा भाई और था; किन्तु सब भाइयोंमें योग्यतम होनेके कारण उसके पिताने उसे ही युवराज पद प्रदान किया था । बिन्दुसार के उपशन्त वही मगधका राजा हुआ था। उसके हाथोंमें राज्यभार ७ पृ० १५७ । २- लामाइ० १० १६९ ० १ १० १३२-१३५ । ४-भाप्रारा० १- हिवि० भा० ३ - जराएसो० सन् १९२८ भा० २ पृ० ९६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] संक्षिप्त जैन इतिहास । यद्यपि ई० पृ. २७७ में आगया, परंतु उसका राज्याभिषेक इसके चार वर्ष बाद सन् २७३ ई० पू० में हुमा था।' इन चार वर्षों तक वह युवराजके रूपमें राज्य शासन करता रहा था। इस अवधि तक राजतिलक न होनेका कारण कोई विद्वान उसका बड़े भाईसे झगड़ा होना अनुमान करते हैं; परंतु यह बात ठीक नहीं है। मालूम ऐसा होता है कि उस समय अर्थात् सन् २७७ ई. पू० में अशोककी अवस्था करीब २१-२२ वर्षकी थी और प्राचीन प्रथा यह थी कि जबतक राज्यका उत्तराधिकारी २५ वर्षकी अवस्थाका न होजाय तबतक उसका राजतिलक नहीं होसक्ता था; यद्यपि वह राज्यशासन करनेका अधिकारी होता था। इसी प्रथाके अनुरूप जैनसम्राट् खारवेलका भी राज्य अभिषेक कुछ वर्ष राज्यशासन युवराजपदसे कर चुकने पर २५ वर्षको अवस्थामें हुमा था। अशोकके संबंधमें भी यही कारण उचित प्रतीत होता है। जब वह २५ वर्षके होगये तर उनका मभिषेक सन् २७३ ई. पू० में हुआ। और उनका अदभुत राज्य शासन सन् २३६ ई. पू. तक कुशलता पूर्वक चला था। बिन्दुसारके समयमें अशोक उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त और मशोक तक्षशिला व पश्चिमी भारतका सुबेदार रह चुका था। उज्जनीका सूबेदार। इन प्रदेशोंका उसने ऐसे अच्छे ढंगसे शासन-प्रबंध किया था कि इसके सुप्रबन्ध और योग्यताका सिका १-कोई विद्वान विन्दुसारकी मृत्यु सन् २०३ ई० पू० और अशोकका राज्याभिषेक सन २६९ ई०पू० मानते है। (माइ० पृ० ६७-६८) ३-लामाइ०, पृ० १७०।-बबिओसो• भा० :३ पृ. ४३८ । ४-जनिओसो. भा० १ पृ. ११६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २४७ तब ही जम गया था । उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्तका राज्य 'तक्षशिलाके राज्य' के नामसे प्रगट था और उसमें काश्मीर, नेपाळ, हिन्दुकुश पर्वत तक सारा अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पंजाब मिले हुये थे । तक्षशिला वहांकी राजधानी थी, जो अपने विश्वविद्यालय के लिये प्रख्यात् थी । बड़े २ विद्वान् वहां रहा करते थे । 1 और दूर दूरके लोग वहां विद्याध्ययन करने आते थे ।' तक्षशिलाके अतिरिक्त अशोक पश्चिमी भारतका भी शासक रहा था । उस समय वहांकी राजधानी उज्जैन थी, जो तक्षशिलासे कुछ कम प्रसिद्ध न थी । यह पश्चिमी भारतका द्वार और एक बड़ा नगर था । वहांका विद्यालय गणित और ज्योतिषके लिये विख्यात था। उज्जैन जैनों का मुख्य केन्द्र था और जैन साधु अपने प्रिय विषय ज्योतिष और गणितके लिये जगप्रसिद्ध थे । उन्होंने उस समय उज्जैनको भारतका ग्रीनिच बना दिया था । अशोकने इन दोनों स्थानों का शासन सुचारु रीतिसे किया था । जब अशोक रामसिंहासनपर आसीन होगये तो उनको भी अपने पूर्वनोंकी भांति साम्राज्य विस्तार करकलिङ्ग - विजय । नेकी सूझी। उस समय बंगाल की खाड़ीके किनारे महानदी और गोदावरी नदियोंके बीचमें स्थित देश कलिके नामसे प्रसिद्ध था और यह देश मगध साम्राज्यका शासनभार उतारकर स्वाधीन होगया था । अशोकने उसे पुनः अपने राज्यमें मिला लिया था । इस कलिङ्ग विजय में बड़ी घनघोर लड़ाई हुई · १- सामाइ ० पृ० १७० - १०१ व माप्रारा० २ –लाभाइ० पृ० १७१ । ३-केहि० भा० १ ० १६७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat भा० २ १० ९६ । www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । थी। अशोकने इस युद्ध में जो भयानक हत्याकाण्ड देखा, उसका उसके हृदयपर गहरा प्रभाव पड़ा ! उसकी आत्मा इस नृशंस नर. संहारको देखकर भयभीत हो गई। और उसके हृदयमें दया एवं प्रेमका स्रोत वह निकला। कलिङ्ग विनयने अशोकको एक कट्टर धर्मात्मा बना दिया। वह राजलोलुपी न रहा। उसने प्रण करलिया कि वह फिर कभी कोई युद्ध नहीं करेगा। इतना ही क्यों बलिक उसने अपना शेष जीवन धर्म प्रचार में व्यतीत करने का दृढ़ संकला करलिया और अपने उत्तराधिकारियोंके लिये भी आदेश किया कि 'मेरे पुत्र और प्रपौत्र इस बातको सुन लें और युद्ध विनयको बुरा समझ छोड़ दें। तीर चलाने के समय भी शांति और थोड़े दण्ड देनेको ही पसंद करें । धर्मविनयको ही असली विनय समझें ।' इस आदेशमें निस अनूठे ढंगसे प्रिय-सत्यका प्रतिबिम्ब अंकित है, वह हृदयको मोह लेता है। सम्यग्दर्शन अथवा संबोधिको प्राप्त होनेपर संसारी जीव धर्मके मर्मको समझ जाता है, यह बात अशोकके उक्त हृदयोद्गारसे स्पष्ट है ।' ___ अशोकने अपने शासनकालमें केवल एक उक्त चढ़ाई की और उसके बाद उसने धर्म-विनयके सच्चे प्रयत्न अशोकका साम्राज्य। किये थे । इतनेपर भी उसके समयमें मौर्य साम्राज्यकी वृद्धि हुई थी। उसका राज्य उत्तरमे हिमालय और हिंदुकुश पर्वततक पहुंचता था। अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान और सिन्ध उसके माधीन थे । बंगाल उसके राज्यका पूर्वीय सुबा था । कलिंग और आंध्र देश भी उसके राज्यमें सम्मिलित थे। १-भातारा० भा०.२ पृ० ९७-१८ । २-भाइ० पृ० ६८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २४९ काश्मीरमें उसने एक नई राजधानी वसाई; जिसका नाम श्रीनगर रक्खा । नेपाल में भी ललितपाटन नामक एक नई राजधानी स्थापित की थी । दक्षिण भारत में नेलोर प्रदेशसे लेकर पश्चिमी किनारे अर्थात कल्याणपुरी नदीतक उसका राज्य थे । इस प्रदेश के दक्षिमैं जो पांड्य, केरलपुत्र और सतियपुत्र तामिल राज्य थे, वे स्वतंत्र और स्वाधीन थे । इस प्रकार दक्षिणके घोड़ेसे भागके अतिरिक्त सारे भारतवर्ष में उसीका साम्राज्य था । इस बृद्दत साम्राज्यको अशोकने कई भागों में विभक्त कर रक्खा था। इनमें मध्यवर्ती भागके अतिरिक्त शेष भागों में चार राजप्रतिनिधि - संभवतः राजकुमार राज्य करते थे । एक राजप्रतिनिधि तक्षशिला में रहता था; दूसरा कलिंग प्रांतकी राजधानी तोषलीमें, तीसरा उज्जैन में और चौथा दक्षिण में रहकर सारे दक्षिणी देशपर शासन करता था । उज्जैन के राज प्रतिनिधि मालवा, काठिीयावाड़ और गुजरातका शासन प्रबंध करता था । कलिंगके शासनकी अशोकको बड़ी फिकर रहती थी । वहां पर उसके राज्यप्रतिनिधि कभी२ अच्छा शासन नहीं करते थे । इसलिये उसने वहां पर दो शिलालेख खुदवाकर राजप्रतिनिधियों को समुचित शिक्षा दी थी। * अशोक ने शासन प्रबन्ध में धर्मको प्रधान स्थान दिया था । अशोकका शासन इसी कारण उसके राज्य में राष्ट्रका रूप बदल गया था । राजनीति संबंधी कार्योंमें धार्मिक कार्य आ मिले थे । इसलिये 'राज्यका कर्तव्य न केवल देशमें शांति स्थापित रखना और प्रभाकी रक्षा करना था, बरन धर्मका प्रचार प्रबन्ध । १- लाभाइ० पृ० १७५-१०६ । २-अब.. पृ० १७०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | करना भी था । इसके लिये अशोकने भरसक प्रयत्न किया। उसके महामात्र राज्य में दौरा करते थे और जनताको धर्मका उपदेश करते थे । प्रत्येक वर्ष में कुछ दिन ऐसे नियत कर दिये गये जिनमें 1 राजकर्मचारी सर्कारी काम करनेके अलावा प्रजाको उसका कर्तव्य बतलाते थे । जनसाधारणके चाल-चलनकी निगरानीके लिये निरीक्षक नियुक्त थे । इनका काम यह देखना था कि लोग मातापिताका आदर करते हैं या नहीं, जीव हिंसा तो नहीं करते । ये लोग राजवंशकी भी खबर रखते थे । स्त्रियोंके चाल-चलनकी देखभालके लिये भी अफसर थे । राज्यका दान विभाग अलग था । यहांसे दीनों को दान मिलता था । पशुओंको मारकर यज्ञ करनेकी किसीको आज्ञा नहीं थी ।" अशोक एक बड़ा राजनीतिज्ञ, सच्चा धर्मात्मा और प्रजापालक अशोकका वैयक्तिक राजा था । इसकी अभिलाषा थी कि प्रत्येक जीवन । प्राणी अपने जीवनको सफल बनाये और परभवके लिये खुब पुण्य संचय करे। दया, सत्य, और बड़ोंका आदर करने पर वह बड़ा जोर देता था । वह प्रजाके सुखमें अपना सुख और दुःखमें दुःख समझता था ! वह एक आदर्श राजा था और उसकी प्रजा खुब सुखी और समृद्धिशाली थी । वह अपने आभिषेकके वार्षिकोत्सव पर एक एक कैदी छोड़ा करता था । 2 इससे प्रगट है कि उसके राज्यमें अपराध बहुत कम होते थे और जेलखानों में कैदियों का जमघट नहीं रहता था । उसकी एक उपाधि 'देवानां प्रिय' थी और उसे 'प्रियदर्शी' भी लिखा गया १- भाइ० पृ० ७३-७४ । २-भाप्रारा० भा० ३ पृ० १३१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२५१ है। जैन शास्त्रोंमें जैन रानाओंके लिये 'देवानां प्रिय 'का प्रयोग हुआ मिलता है । भगवान महावीरके पिता राना सिद्धार्थको भी लोग 'देवानां प्रिय' कहकर पुकारते थे और उनकी माता रानी त्रिशलाको 'प्रियकारिणी' कहते थे। अशोकपर जैनधर्मका विशेष प्रभाव पड़ा था। वह अपने पितामह और पिताके समान जैन धर्मानुयायी ही था; यद्यपि अपने धर्मप्रचारके समय उसने पूर्ण उदारतासे काम लिया था और जैन धर्मके माधारपर अपने धर्मका निरूपण किया था। बौड ग्रंथ 'महावंश' के आधारपर विद्वान उसे ब्राह्मण धर्मानुयायी बतलाते हैं; किन्तु इस ग्रन्यके कथन निरे कपोल-कल्पित प्रमाणित हुये हैं। इस कारण उसपर विश्वास करना कठिन है, तिसपर सिंहलके लोगोंके निकट ब्राह्मणसे भाव बौद्धेतर संप्रदायोंका होना उचित दृष्टि पड़ता है; क्योंकि बौड ग्रन्थों में ब्राह्मण और श्रमण रूप जो उल्लेख है; उनमें श्रमणसे भाव बौद्ध भिक्षुका है। और ब्राह्मण केवल वेदानुयायी ब्राह्मणोंका पोतक नहीं होसक्ता । उसके कुछ व्यापक अर्थ ठीक जंचते हैं। इस कारण यह संमव है कि इसी भावसे सिंहलवासियोंने अशोकको बौद्ध न पाकर उसे ब्राह्मण (बौद्ध-विरोधी) लिख दिया है। वरन् एक उस रानाके लिये निसके पितामह और पिता जेनी थे, और जिसका प्रारंभिक नीवन १-अप० द्वितीय भन्याय, व ईऐ• भा० २० पृ० २३२ । २-सः पृ. २६-३० १ ५४ ।-भोक० पृ. २३ । ४-अशोक पृ. १३ ४७, भाभो• पृ. ९६, मेनु• पृ. 11.। ५-मि... टॉम मा० भी पही ठीक समझते है। मारले. मा. पृ.११... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२1 संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनोंके दो प्रधान नगरों तक्षशिला और उज्जैनीमें व्यतीत हुमा हो, यह संभव नहीं है कि वह अकारण ही अपने वंशगत धर्मको तिलांजलि देदे । इस विषयमें अगाडीकी पंक्तियोंसे बिल्कुल स्पष्ट होजायगा 'कि वास्तवमें अशोक मूलमें जैनधर्मानुयायी था। उज्जैनमें लिप्त समय वह थे, तब उनका विवाह विदिशागिरि (बेसनगर-भिलसाके निकट) के एक श्रेष्टीकी कन्यासे हुआ था। उनकी पट्टरानी क्षत्रीयवर्णकी थी और वह पाटलिपुत्रमें थी । अशोक जब राना होकर पाटलीपुत्र पहुंचे तब उनके साथ उनके सब पुत्र-पुत्रियां भी वहां गये थे; किन्तु पट्टरानी आदिके अतिरिक्त उनकी अन्य स्त्रियां उज्जैनमें रहीं थीं। अशोकने इनका उल्लेख 'अवरोधन ' रूपमें किया है । इससे अनुमान होता है कि यह महिलाएं परदेमें रहतीं थीं। किन्तु परदेका भाव यहांपर इतना ही होसक्ता है कि वह जनसाधारणकी तरह आम तौरसे जहां-तहां मा जा नहीं सक्ती होंगी। राजमर्यादाका पालन करते हुये, उनके जाने-मानेमें रुकावट नहीं थीं। यदि यह बात न होती तो अशोककी रानियां महात्मालोगोंके दर्शन नहीं कर सक्ती थीं और न दान-दक्षिणादि देसक्तीं थीं। बौद्धशास्त्र अशोकको प्रारम्भमें एक दुष्ट व्यक्ति प्रगट करते हैं और कहते हैं कि उनने अपने ९९ भाइयोंकी हत्या करके राज्यसिंहासन पर अधिकार जमाया था; किन्तु उनके शिलालेखोंसे उनके राज्यकालमें भाइयों और बहिनोंका नीवित रहना प्रमाणित है । अतः बौद्धोंका यह कथन कोरा कल्पित है। तब १-भाअशो० पृ. १३ । २-अशोक० पृ. २३ व भाइ पृ० ६१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २५३ अशोक बौद्ध न होकर जैन थे, इसलिये बौद्धोंने उनको दुष्ट लिखा है । किन्हीं लोगों का कहना है कि पहिले अशोक मांसभोजी था । अशोक प्रारंभ में उसकी भोजनशाला में हजारों जानवर मारे जाते जैनी था । थे ।' एक जैनके लिये इस प्रकार मांसलोलुपी होना जी को नहीं लगता और इसीसे विद्वानोंने उसे शैव धर्मानुयायी प्रकट किया है । किन्तु इस उल्लेखसे कि अशोक के राज घराने की रसोई में मांस पकता था, यह नहीं कहा जासक्ता कि अशोक के मांसभोजी था । संभव यह है कि अन्य मांसभोजी राजवर्गके लिये ऐसा होता होगा | जन्मसे जैनी होनेके कारण अशोकका मांसभक्षी होना सर्वथा असंगत है । यह उल्लेख उसके अन्य सम्बंधियोंके विषय में ठीक जंचता है; जिनको भी उसने अन्तमें अपने समान कर लिया था। पहले एक ही कुटुम्बमें विभिन्न मतों के अनुयायी रहते थे, यह सर्वमान्य बात है । इसके विपरीत यदि पहले से ही हिंसातत्वका प्रभाव और खासकर जैन अहिंसाका, अशोक हृदयमें घर किये हुये न माना जाय तो उसका कलिंग - विजय में भयानक नरसंहार देखकर भयभीत होना असंभवता होजाता है । और यह भी तब संभव नहीं कि उसके रसोई घर में एकदम हजारोकी संख्या से कम होकर केवल तीन प्राणी ही मारे जाने लगते और फिर वह भी बन्द कर दिये जाते । यह ध्यान रहे कि वैदिक अहिंसा में मांसभोजनका हर हालत में निषेष नहीं है और न बौद्ध अहिंसा ही किसी व्यक्तिको पूर्ण शाकाहारी बनाती है । यह केवल १- पाप्रा० ० ७१ । २-माप्रारा० भा० २ १० १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | जैन अहिंसा है जो हर हालत में प्राणीवर्षकी विरोधी है और एक व्यक्तिको पूर्ण शाकाहारी बनाती है । उस समय वैदिक मतावलंबियों में मांसभोजनका बहुप्रचार था और बौद्धलोग भी उससे परहेज नहीं रखते थे । म० बुद्धने कई चार मांसभोजन किया था और वह मांस खास उनके लिये ही लाया गया था । अतएव अशोकका पूर्ण निरामिष भोजी होना ही उसको जैन बतलानेके लिए पर्याप्त है । इस अवस्थामें उसे जन्मसे ही जैनधर्मका श्रद्धानी मानना अनुचित नहीं है । जैन ग्रन्थोंमें उसका उल्लेख है और जैनोंकी यह भी मान्यता है कि श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरिपर उसने अपने पितामहकी पवित्रस्मृति में चंद्रवस्ती आदि जैन मंदिर बनवाये थे । 3 'राजाबली कथा' में उसका नाम भास्कर लिखा है और उसे अपने पितामह व भद्रबाहु स्वामीके समाधिस्थान की वंदना के लिये श्रवणबेलगोल आया बताया है। (जैशि सं०, भूमिका ८० ६१ ) अपने उपरान्त जीवनमें मालूम पड़ता है कि अशोकने उदारवृत्ति ग्रहण करली थी और उसने अपनी स्वाधीन शिक्षाओंका प्रचार करना प्रारंभ किया था; जो मुख्यतः जैन धर्मके अनुसार थी । यही कारण प्रतीत होता है कि जैन ग्रंथोंमें उसके शेष जीवनका हाल नहीं है। जैन दृष्टिसे वह वैनयिक रूपमें मिथ्यात्व ग्रसित हुआ कहा जाता है; परन्तु उसकी शिक्षाओं में जैनत्व कूट२ कर भरा हुआ मिलता है। उसने बौद्धों, ब्राह्मणों और भाजीविकोंके साथ १- भमबु० पृ० १७० । २ - राजावली कथा और परिशिष्ट प ( पृ० ८७) ३- हिवि० भा० ७ पृ० १५० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२५५ नेनोंको भी भुलाया नहीं था, यह बात उसके शिलालेखोंसे स्पष्ट है। प्रो. कनके समान बौद्ध धर्मके प्रखर विद्वान् अशोकका जैन होना बहुत कुछ संभव मानते हैं और मि० अजैन साक्षी। टॉमसने तो जोरोंके साथ उनको जैन धर्मानुयायी प्रगट किया है। मि. राइस और प्राच्य विद्या महार्णव पं० नागेन्द्रनाथ वसु भी अशोकको एक समय जैन प्रगट करते हैं। यह बात भी नहीं है कि केवल आधुनिक विद्वान ही अशोकको पहिले जैनधर्मका श्रद्धानी प्रगट करते हों; बलिक मानसे बहुत पहिलेके भारतीय लेखक भी उनका जैनी होना सिद्ध करते हैं। 'रानतरिग्रणी में लिखा है कि अशोकने जिन शासनका उद्धार या प्रचार काश्मीरमें किया था। 'मिनशासन' स्पष्टतः जैनधर्मका द्योतक है; किन्तु विद्वान् इसे बौद्ध धर्मके लिये प्रयुक्त हुमा बतलाते हैं। हमारी समझसे "बौदधर्म" में 'निन' शब्दका व्यवहार अवश्य मिलता है किन्तु जैनधर्ममें जैसी प्रधानता इस शब्दको मिली हुई है, वैसी बौद्ध धर्ममें नहीं। इस शब्दकी अपेक्षा हो जब जैनधर्मका नामकरण हुमा है, तब वह शब्द इसी धर्मका द्योतक माना जा सक्ता है। रानतरिङ्गणी' में अन्यत्र काशमीरके राना मेघवाहनको १-जमीयो० भा० १७ पृ. २१५ । २-ऐ० मा. २. पृ० १४३। -जगएसो. भा. ९ पृ. १५५-९१ । ४-मैसूर एण्ड कुर्ग देखो। ५-हिवि० भा० २ पृ. ३५० । -'यः धान्तवृजिनो राजा प्ररमो जिनशासनम् । शुष्पोऽत्र वितस्तात्री वस्तार तूरमाले ॥राजरिंगणी.. ७-रिक्या मा० ३ पृ. ४०५-०७६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] संक्षिप्त जैन इतिहास। जैनोंके समान हिंसासे घृणा करनेवाला लिखा है।' इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि कवि कल्हणके निकट 'जिन' शब्द नैनोंके अर्थमें महत्व रखता था। अबुरफनलने 'आइने मकबरी' में जो काश्मीरका हाल लिखा है, उससे भी इस बातका समर्थन होता है कि अशोकने वहां जैनधर्मका प्रचार किया था। अबुलफनलने 'जैन ' शब्दका प्रयोग अशोकके संबन्धमें किया है और भगाड़ी "बौद्ध" शब्दका प्रयोग बौद्धधर्मके वहांसे अवनत होनेके वर्णनमें किया है। इस दशामें अशोकका प्रारम्भमें जैनमतानुयायी होना संभव है। श्रवणबेलगोलमें जो राजा जैनमंदिर बनवा सक्ता है, वह जैनधर्मका प्रचार काश्मीरमें भी कर सक्ता है । अशोक स्वयं कहता है कि उसके पूर्वजोंने धर्मप्रचार करनेके प्रयत्न किये, पर वह पूर्ण सफल नहीं हुए। अब यदि अशोकको बौद्धधर्म अथवा ब्राह्मणमतका प्रचारक मानें तो उसका धर्म वह नहीं ठहरता है जो उसके पूर्वजोंका था । सम्राट् चंद्रगुप्तने जैन मुनि होकर धर्म प्रचार किया था। इस दशामें अशोक भी अपने पूर्वनों के धर्मप्रचारका हामी प्रतीत होता है । जिस धर्मका प्रचार करने में उसके पूर्वज असफल रहे, उसीका प्रचार अशोकने नये ढंगसे कर दिखाया और अपनी इस सफलता पर उसे गर्व और हर्ष था। वह केवल साम्प्रदायिकतामें संलग्न नहीं रहा-उदारवृत्तिसे उसने सत्यका प्रचार मानवसमाजमें किया। प्रत्येक मतवालेको १-राजतरिंगणी अ० १ इलो०७२ व अ० ३ श्लो० ७॥ २-जराएसो० भा• १ पृ. १८३ । ३-प्रप्तमस्तंभलेख-अघ० पृ० ३७।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य । [२५७ उसने उसके मतमें अच्छाई दिखा दी और वह सबका आदर करने गा। साम्प्रदायिक दृष्टिसे जैन अशोकके इन वैनयिक भावसे मंतुष्ट न हुये और उनने उसके संबन्धमें विशेष कुछ न लिखा । इतनेपा भी अशोकका शासन प्रबन्ध और उपके धर्मकी शिक्षा. ओंमें जैनत्वकी झलक विद्यमान है। डॉ. कर्न सा. लिखते हैं कि "अशोकके शासन प्रबन्ध में बौद्धभावका द्योतक कुछ भी न था । अपने राज्य के प्रारंभसे वह एक अच्छा राना था। उसकी नोवरक्षा मंबन्धी आज्ञायें बौद्धोंको अपेक्षा नोंकी मान्यताओंसे अधिक मिलती हैं।"" अपने गज्यके तेरहवें वर्षसे अशोकका राजघराना एक जैनके समान पूर्ण शाकभोनी होगया। उनने जीव-हत्या करनेवालेके लिये प्राणदंड नैमी जड़ी सना रक्खी थी । जैनराना कुमारपाल की भी ऐसी ही राजाज्ञा थी। यज्ञमें भी पशुहिंसाका निषेव अशोकने किया था । कहते हैं कि इस कार्य से उसकी वैदिक धर्मावलम्बी प्रना असंतुट थी। म बुद्धके समय में बौद्ध. लोग बानारसे मांस लेकर खाते थे; किन्तु अशोकने भोननके लिये भी पशुहिंसा बन्द करदी थी, यह कार्य सर्वथा एक नैनके ही उपयुक्त था । प्रीतिभोन और उत्सवों में भी कोई मांस नहीं परोम सक्ता था। आखेटको भी अशोकने बन्द कर दिया था। उसने बैलों, अशेककी शिक्षा जैन बकरों, घोड़ों आदिको वषिया करना भी धर्मानुसार हैं। बन्द कराया था। पशुओंकी रक्षा और चिकित्साका भी उसने पिनरापोलके ढंगपर प्रबंध किया था। कहते १-ऐ० भा० ५ पृ० २.५ । २-मेमो . पृ. ४९।३-अहिह. 4. १८५-१९० । ४-मेअशो• पृ. ४९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | हैं कि पिंजरापोल संस्थाका जन्म जैनोंद्वारा हुआ है और आज भी जैनोंकी ओर से ऐसी कई संस्थायें चल रही हैं ।' अशोकने कई वार जैनोंकी तरह 'अमारी घोष' ( अभयदानकी घोषणा ) कराई थी । सारांश यह है कि अशोकको पशुरक्षाका पूरा ध्यान था । कोई विद्वान् कहते हैं कि पशुरक्षाको उसने इतना महत्व दिया था कि उसके निकट मानवसमाजकी भलाई गौण थी । यह ठीक वैसा ही लाञ्छन है जैसा कि आज जैनोंपर वृथा ही आरोपित किया जाता है; किन्तु इसे अशोककी प्रवृत्ति जैनोंके समान थी, यह प्रकट होता है । अशोकने मानवोंकी भलाई के कार्य भी अनेक किये थे । उनकी जीवनयात्रायें धार्मिक कार्यो को करते हुए व्यतीत हों, इसलिये अशोकने उनको धर्मशिक्षा देनेका खास प्रबन्ध किया था । प्राणदण्ड पाये हुये केद्रीके जीवनको भी भविष्य में सुखी बनानेके लिये उनने उमको धर्मोपदेश मिलनेका प्रबन्ध किया था । कृतपापके लिये पश्चाताप और उपवास करनेसे मनुष्य अपनी गति सुधार सक्ता है । जैनधर्म में इन बातोंपर विशेष महत्व दिया गया है । अशोक भी इन हीकी शिक्षा देता था । उसने केवल मनुव्यके परभवका ही ध्यान नहीं रखा था । वह जानता था कि धर्म पारलौकिक और लौकिक के भेदसे दो तरहका है। एक श्रावके लिये यह उचित है कि वह दोनोंका अभ्यास सुचारु रीतिसे करे । अशोकने अपनी शिक्षाओंसे धर्मके इस भेदका पूरा ध्यान वखा । १- मैं अशो० ० पृ० ४९-५० । २-अघ० पृ० १६३-१६७ - पंचम विलालेख । ३ - अध० १० १३९ । ४-अध० १० ३१० - प्रथम स्तम्भ लेख | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य । [१५९ उसकी शिक्षाओं में निम्न बातोंका उपदेश मनुष्यके पारलौकिकक धर्मको लक्ष्य करके दिया गया था, जो जैनधर्मके अनुकूल है: (१) जीवित प्राणियोंकी हिंसा न की जावे' और इसका अमली नमूना स्वयं अशोकने अपने राजघरानेको शाभोनी बनाकर उपस्थित किया था। हम देख चुके हैं कि अशोकका अहिंसातत्व बिल्कुल जैनधर्मके समान है । वह कहता है कि सनीव तुषको नहीं जलाना चाहिये (तुसे सनीवे नो झापेतविपे) और न वनमें भाग लगाना चाहिये। यह दोनों शिक्षायें जैनधर्म में विशेष महत्व रखती हैं। वनम्मतिकाय, नलकाय आदिमें जनोंने ही जीव बतलाये हैं।' (२) मिथ्यात्ववर्द्धक सामाजिक रीति-नीतियों को नहीं करना चाहिये -अर्थात ऐसे रीति रिवाज जो किसीके बीमार होनेपर, किसीके पुत्र-पुत्रीके विवाहोत्सवपर अथवा जन्मकी खुशी में और विदेशयात्राके समय किये जाते हैं, न करना चाहिये। इनको वह पापवर्द्धक और निरर्थक बतलाता है और खासकर उस समय नब इनका पालन स्त्रियों द्वारा हो, कारण कि इनका परिणाम मंदिग्ध और फल नहीं के बराबर है। और उनका फल केवल इस भवमें मिलता है। इनके स्थानपर वह धार्मिक रीति रिवानों को से गुरुओं का आदर, प्राणियोंकी नहिंसा. श्रमण और ब्राह्मणों को दान देना मादि क्रियायोंका पालन करनेका उपदेश देता है। यहाँपर अशोक प्रगटतः मोले मनुष्योंकी. देवी, भवानी, यक्ष, पिठ : १-अष. पृ. १४.तु ग्यास शिलाम । २-अभ. पृ. १५२-१५३-4 MI-N.Pta ld II II tro. ४-अध. पृ. २१वम शिला। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] संक्षिप्त जैन इतिहास । मादिकी मान्यता मनाने भादि बौकिक पाखण्डका विरोध कर रहा है । भारतीय समाजमें यह पाखण्ड बड़े मुद्दतोंसे बढ़ रहा है। मशोकके लाख उपदेश देनेपर भी आनतक यह निरर्थक और पापवर्द्धक रीति नीति जीवित है। लोग अब भी देवी, भवानी, पीर-पैगम्बर आदिकी मान्यतायें मनाकर सांसारिक भोगोपभोगकी सामग्रीके पालनेकी लालसा पागल हो हे हैं। अशोककी यह शिक्षा भी ठीक जैनधर्मके अनुपार है । जैन शास्त्रों में मिथ्यात्वपाखण्डका घोर विरोध किया गया है और धार्मिक क्रियायोंके करने का उपदेश है।' (३) सत्य बोलना चाहिये-जैनोंके पंचाणुव्रतोंमें यह एक सत्याणुव्रत है।' (४) अल्प व्यय और अल्पभांडताका अभ्यास करना अर्थात् थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है। मशोककी इस शिक्षाका भाव जनोंके परिग्रह प्रमाण के समान है। श्रावक इस व्रतको ग्रहण वरके इच्छाओं का निरोध करता है और मल्स व्ययी एवं अल्प परिग्रही होता है।' १-उपु. पृ० ६२४ तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें लिखते हैं: आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च टोकमूढं निगद्यते ॥ १ ॥ २२ ॥ घरोपलिप्सयागवान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ १ ॥ २३॥ २-अध. पृ० ९६-ब्रह्म० द्वि० शिलालेख । ३-तत्वार्थसूत्रम अ. • सुत्र. १।४-अध० पृ. १३१-तृतीय शिला० । ५-धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिप्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥ ३॥ १५ ॥ -रत्नकरण्डश्रा०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [२६१ (१) संयम और मावशुद्धिका होना आवश्यक है। मशोक कहते हैं कि जो बहुत अधिक दान नहीं कर सक्ता उसे संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता और हद भक्तिका सम्याप्त अवश्य करना चाहिये। एक श्रावकके लिये देव और गुरुकी पूना करना और दान देना मुख्य कर्तव्य बताये गये हैं। अशोकने भी ब्राह्मण और श्रमणोंका आदर करने एवं दान देने की शिक्षा जनसाधारणको दी थी। यदि वह दान न देसकें तो संयम, भावशुद्धि और दृढ़ भक्तिका पालन करें। नैनधर्ममें इन बातोंका विधान खास तौरपर हुमा मिलता है । संयम और भावशुद्धिको उपमें मुख्यस्थान प्राप्त है।' (६) अशोककी धर्मयात्रायें -स्व-पर कल्याणकारी यो।' उनमें श्रमण और ब्रह्मणों का दर्शन करना और उन्हें दान देना तथा ग्रामवासियों को उपदेश देना और धर्मविषयक विचार करना बावश्यक थे। जैन संघका विहार इसी उद्देश्यसे होता है । जैन संघ श्रावक-श्राविका साधुजनके दर्शन पूना करके पुण्य-बन्ध परते हैं और उन्हें बड़े भक्तिभावसे माहार दान देते हैं। साधुनन अथवा उनके साथ पंडिताचार्य सर्व साधारणको धर्मका स्वरूप १-अप. पृ. १८९-सप्तम शिना । २-दाणं पूजा मुक्खं सावय धम्मो, ग मावगो तेण विणा ।-कुंदकुंदाचार्य। ३-अध• पृ. १९७ व २११-अष्टम व नवम् शिला-अ.पण और प्रमण' का प्रयोग पहिले गाधारणतः साधुजनको लक्ष्य कर किया जाता था। ४-'भावो कारणमृदो गुणदोषानं जिणाविति। -अष्टपाहुइ पृ. १६२। 'संघम जोगे जुतो वो तवसा चेहद भणेगविध । सो कम्मणिज्जाए विउलए बहरे जीवो ॥२४२०५॥-मुलाचार । ५-अप. पृ. १९६-भारमशि.। 11 अष्टम व नवम् शिदकुंहाचाप। ३-अवसाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | समझाते हैं और खूब ज्ञान गुदड़ी लगती है। मालूम होता है कि अशोक ने अपनी धर्मयात्रायोंका ढांचा जैनसंघ के आदर्शपर निर्मित किया था । (७) सर्व प्राणियोंकी रक्षा, संयम, समाचारण और मार्दव ( सवभूतानं अछति, संयम, समचरियं, मादवं च ) धर्मका पालन करने की शिक्षा अशोकने मनुष्योंको परभव सुख के लिये समुचित रीत्या दी थी ।' जैन धर्म में इन नियमोंका विधान मिलता है । समाचरण वहां विशेष महत्व रखता है । जैन मुनियोंका आचरण 'समाचार' रूप और धर्म साम्यभाव कहा गया है। सर्व प्राणियोंकी रक्षा, संयम और मार्दव नैनोंके धर्मके दश अंगोंमें मिलते हैं। (८) अशोक कहते हैं कि 'एकान्त घर्मानुराग, विशेष आत्मपरीक्षा, बड़ी सुश्रूषा, बड़े भय और महान् उत्साह के विना ऐहिक और पारलौकिक दोनों उद्देश्य दुर्लभ हैं ।" जैनोंको इस शिक्षासे कुछ भी विरोध नहीं होसक्ता । श्रावक के लिये धर्मेध्यानका अभ्यास करना उपादेय है" और आत्मपरीक्षा करना - प्रतिक्रमणका नियमित 1- अध० पृ० २५० - त्रयोदश शि० । २ - समदा सामाचारो सम्माचारी समो व आचारो । सव्वेसिंहि सम्माणं सामाचारो दु आचारो ॥ १२३ ॥४॥ मूला • । अथवा: - "चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोति णिदिहो । मोहवखोह विहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो ॥७॥ प्रवचनसार । ३ - "संतीमद्दव अज्जव लाघव तव संजमो अचिणा । तह होइ बह्मचेरं सच्चं चाओ य दस - धम्मा ॥७५२ ॥ - मुला० । ४- अध० पृ० ३१० - प्रथम स्तंभलेख । ५- अष्टपाहुड़ १० २१४ २२१ व ३४४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmar मौर्य-साम्राज्य । [२६३ विधान रखना जैनधर्ममें परमावश्यक है।' बड़ीमुश्रूषा वैयात्रत्यही द्योतक है। बड़ा भय संसारसा भय और उससे छूटने का दृढ़ अनुगग बड़ा उत्साह है।" . (९) अशोक धर्म पालन करने का उपदेश देते थे और धर्म यही बताते थे कि 'व्यक्ति पापाश्रव (अपसवः)से दूर रहे, बहुतसे अच्छे काम करे, दया, दान, सत्य और शौचका पालन करे। अशोकने ज्ञान दान दिया था, पशुओं और मनुष्योंके लिये चिकित्सालय खुलवाकर औषधिदानका यश लिया था. वृद्धों और गरीबोंके भोजनका प्रबंध करके माहारदानका पुण्यबंध उपार्जन किया था और जीवों को प्राण-दक्षिणा देकर, परमोत्कृष्ट अभयबानका अभ्याप्त किया था। जैनधर्ममें दान ठीक इसी प्रकार चार तरहका बताया गया है।" जैनधर्ममें ही कर्मवर्गणाओं के माश्रव होनेपर पापबन्ध होता लिखा है। अशोक भी पापकी व्याख्या ठीक ऐसी ही कर रहा है । पापकी व्याख्या वैदिक और बौधोके सर्वथा प्रतिकूल है; क्योंकि इन दोनों दर्शनों में कर्म १-मूला० पृ. ११ व । २-अष्टपाद पृ. २३५ । ३-जिणवयणमणुगणेता संसार महाभयंपि चितंता । गमवसदी भीदा भीदा पुण जम्ममरणेतु ॥८०५॥-मूला० । पत्थि भय मरणे समं।' -मूला। ४- उच्छंम्बमावणासं पसंससेवा सुदंसणे सवा। बहदि जिण सम्मतं कुरतो माणमग्गेण ॥४॥भष्ट. पृ० ८९। ५-६. अध० पृ. ३१७-द्वितीय स्तंभलेख । •-अप० । ८-अप. पृ. ३७१-३८०-सप्तम स्तंभलेस । ९-अप. पृ. 1विजय संमय । १०-वंत्यां० पृ. ५५। "-प्रवचनसार टीन र २ पृ. १३२ व तत्वावं. पृ. ११४। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । एक ऐसा सूक्ष्म पुद्गल पदार्थ नहीं माना गया है जिसका आश्रव होसके । दया, दान, सत्य और शौच धर्म भी जैनमतमें मान्य है। (१०) अशोकने अंकित कराया था कि आत्मपरीक्षा बड़ी कठिन है, तो भी मनुष्यको यह देखना चाहिये कि चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या यह सब पापके कारण हैं । वह इनसे दूर रहे ।' कारागारमें पड़े हुये प्राणदण्ड पुरस्कृत कैदियों के लिये भी अशोकने तीन दिनका अवकाश दिया था, जिसमें वे और उनके संबंधी उपवास, दान आदि द्वारा परभवको सुधार सकें। एक धर्मपरायणके राजाके लिये ऐसा करना नितांत स्वाभाविक था। अशोककी यह शिक्षा भी जैनधर्मके अनुकूल है। कैदियों का ध्यान समाधिमग्णकी ओर आकर्षित करना उसके लिये स्वाभाविक था। जैनका स्वभाव ही ऐसा होजाता है कि वह दूसरों को केवल जीवित ही न रहने दे, प्रत्युत उसका जीवन सुखमय हो, ऐसे उपाय करे । अशोक भी यही करता है। इस प्रकार अशोकने जो बातें पारलौकिक धर्मके लिये भावश्यक बताई हैं, वह जैनधर्म में मुख्य स्थान रखती हैं । हां, इतनी बात ध्यान रखनेकी अवश्य है कि अशोकने अपने शासन लेखोंमें लौकिक और पारिलौकिक धर्ममें ब्राह्मण-श्रमणका आदर करना, दान देना, जीवोंकी रक्षा करना, कृत पापोंसे निवृत होनेके लिये मात्म परीक्षा करना और व्रत उपवास करना मुख्य हैं। इन्हीं पांच बातोंके अन्तर्गत अवशेष बातें पानाती हैं। और इन्हीं पांच बातोंका १-अध० पृ. ३२४-तृतीय स्तंभलेख। २-अध० पृ. ३३९ । ३-भाअशो० पृ० १२६-१२७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२६५ उपदेश जैन शास्त्रोंमें मिलता है। सब जीवोपर दया करना, दाम देना, गुरुओंकी विनय और उनकी मूर्ति बनाकर पुना करना, रुत्पापोक लिये प्रतिक्रमण करना और पर्व दिनों में उपवास करना एक श्रावकके लिये भावश्यक कर्म है। अशोक यह भी कहते हैं कि धर्मको चाहे सर्व रूपेण पालन करो और चाहे एक देशरूप, परन्तु करो अवश्य ! और वह यह मी बतला देते हैं कि सर्वरूपेण धर्मका पालन करना महाकठिन है। यहांपर उन्होंने स्पष्टतः न शास्त्रों में बताये हुये धर्मके दो मेद-(१) अनगार धर्म और (२) मागार धर्मका उल्लेख किया है। मनगार-श्रमण धर्ममें धार्मिक नियमों पूर्ण पालन करना पड़ता है; किन्तु सागार धर्ममें वही बातें एक देश-मांशिक रूपमें पाली जाती है। इस अवस्था अशोकका पारलौकिक धर्मके लिये जो बातें मावश्यक बताई हैं, उनसे भी नैनोंको कुछ विरोध नहीं है। क्योंकि वह सम्यक्त्वमें बाधक नहीं हैं।' तिसपर जैन शास्त्रोंमें उनका विषान हुमा मिलता है । अशोक लौकिक धर्मके हो लिये कहते है कि: (१) माता-पिताकी सेवा करना चाहिये। विद्यार्थीको भाचा१-ल्पसूत्र पृ० ३२-जराएपो० मा० १ पृ० १७२ फुटनोट । २-अध. १. १०९-सप्तम शिला• । ३-अप. पृ. २२०-शि. "। . ४-अष्टपाहुड पृ. ९४ ३ ९९ ५-दो हि धो गृहस्पाना लौकिक: पारलौशिकः । लोडाप्रो मवेदायः परः स्यादागमाश्रयः ॥ सर्व एव हि नानां प्रमाणं लोको विधिः । यत्र सम्पकत्व हानि यत्र बतषणम ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । यकी सेवा करना चाहिये और अपने जाति भाइयों के प्रति उचित वर्ताव करना चाहिये।' (ब्रह्मगिरिका द्वि०शि०, अध०४०९६) (२) मनुष्य व पशु चिकित्साका प्रबन्ध करना चाहिये । फूल फल जहां न हों, वहां भिजवाना चाहिये और मार्गों में पशुओं व मनुष्योंके मारामके लिये वृक्ष लगवाना व कुँयें खुदवाना चाहिए।' (३) बन्धुओंका आदर और वृद्धोंकी सेवा करनी चाहिये। (चतुर्थ शि० ) वृद्धोंके दर्शन करना और उन्हें सुवर्णदान देना चाहिये । ( अष्टम शि०) (४) दास और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार और गुरुओंका आदर करना चाहिये । ( नवम शि० ) (५) और अनाथ एवं दुखियोंके प्रति दया करना चाहिये । (सप्तम स्तम्भ लेख) इन लौकिक कार्योंको अशोक महत्वकी दृष्टिसे नहीं देखते थे। वह साफ लिखते हैं कि 'यह उपकार कुछ भी नहीं है । पहिलेके राजाओंने और मैंने भी विविध प्रकारके सुखोंसे लोगोंको सुखी किया है किन्तु मैंने यह सुखकी व्यवस्था इसलिये की है कि लोग धर्मके अनुसार आचरण करें। अतः मशोकके निकट धर्मका मूल भाव पारलौकिक धर्मसे था। लौकिक धर्म सम्बन्धी कार्य मूल धर्मकी वृद्धि के लिये उनने नियत किये थे । जैनधर्ममें लौकिक १-'तिणहं हुप्पाड आरं समणाआसो वे जहा । अमपिउणो भदिदायगस्स धम्मापरियस्व ॥ २-मोमदेवः-'माता-पिनोश्च पूजक:-श्री मणानगमि । -अघ• पृ. ३७६-सप्तम स्तम्भ लेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [२६७. कार्यों को करना पारिलौकिक धर्ममें सहायक होनेके लिये बताया है। प्रवृत्ति भी निर्वृतिकी ओर ले जानेवाली है। अशोक भी इस मुख्य मेदके महत्वको स्पष्ट करके तद्रूप उपदेश देते हैं। निसप्रकार अशोककी धार्मिक शिक्षायें जैनधर्म के अनुकूल हैं, अशोकने के उसी प्रकार उनके सामन-लेखोंकी भाषामें भी पारमाषिक शब्द भनेक बातें जनधर्मकी द्योतक हैं । खास बात व्यवहृत किए थे। तो यह है कि उन्होंने अपने शासन-लेख प्रारून भ.प.ओमें लिखाये हैं। जैसे कि नैनोंके ग्रंथ इसी भाषामें लिखे गये हैं। अशोककी प्राकृत जनोंकी अपभ्रंश प्रकृतसे मिलती जुलती है।' तिमपर उन्होंने जो निम्न शब्दों का प्रयोग किया है, वह खाम जनों के भाव है और जैनधर्ममें वे शब्द पारिभाषिक रूप (Technical Term) में व्यवहृत हुये हैं; यथाः (१) श्रावक या उपासक-शब्द का प्रयोग रूपनाथ के प्रथम घु शिलालेख वैराट और सहसरामकी आवृतिमें हुआ है । जैन धर्ममें ये शब्द एक गृहस्के योतक हैं। बौर धर्ममें श्रावक उस साधुको कहते हैं मो विहारोंमें रहते हैं। अतः यह शब्द अशोबके नत्वका परिचायक है। (२) प्राण-कर ब्रह्मगिरिक दिसीय मधु शिगलेसमें अबुक मा है। अनमने संसारी भी दश पाण माने गये हैं 1-माहबाजगढी मोर मन्सासको विकलोपर खुसी हुई बोकसी प्रमस्तियोषी भाषा जैन नपशके समान। देवो 'प्राकान' by Dr.R. Hoanle, Calcutta, 1880. Introduction २ पृ. १९• मलिन, १. १। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास। और उन्हींके अनुसार कमती बढ़ती रूपमें संसारी जीवोंके विविध भेद ही हुये हैं।' (३) जीवशब्दका व्यवहार प्रथम शिलालेखमें हुआ है। जैनधर्ममें 'जीव' सात तत्वोंमें प्रथम तत्व माना गया है।' (४) श्रमण शब्द तृतीय व अन्य शिलालेखोंमें मिलता है। जैन साधु और जैन धर्म क्रमशः श्रमण और श्रमणधर्म नामसे परिचित है। (५) प्राण अनारम्भ शब्द तृतीय शिलालेख में है । जैनों में यह शब्द प्रतिरोध रूपमें "पाणारम्भ" रूपमें मिलता है। (६) भूत शब्द चतुर्थ शिलालेखमें प्रयुक्त हुआ है। जैन शास्त्रोंमें जीवके साथ इस शब्दका भी व्यवहार हुमा मिलता है। १-पंचवि इन्दियपाणा मणवचिकाया य तिणि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होति दसपाणा ॥५७॥ प्रवचनसार । २-तत्वार्थाधिगम सूत्र १।४-५०६ । ३-मूलाचार पृ. ३१८ व कल्पसूत्र पृ० ८३ । ४-सुव्वं पाणारंभ पच्चक्खामि अलीयवणं च । सबमदत्तादाणं मेहूण परिग्गहं चेव ॥ ४ ॥ मूला. ५-Js. Pt I & II Intro. और मूला. पृ. २०४ यथा:भशोकने जीव, पाण, भूत और जात शब्दोका जो व्यवहार किया है वह 'आचारागसत्र (S. B. E. P. 36 XXII ) के इस वाक्य अर्थात् पाणा-भूया-जीवा-सत्ता के बिल्कुल समान है। बेशक अशो- कने इनका व्यवहार एक साथ नहीं किया है; किन्तु इनने प्राण व भूत ( अनारंभो प्राणानां अविहिंसा भूतानां ) का व्यवहार साथ • करके स्पष्टतः इन शब्दोके पारस्परिक भेदको स्वीकार किया है; जैसे कि बैन प्रकट करते है । (भाअयो० पृ. १३७) दि. जैनोंके प्रतिक्रमणमें भी " पाणभद जीवसत्ताणं " रूपमें इसका उल्लेख है। (प्रावक प्रतिक्रमण पू०५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य । [ २६९ (७) कल्प शब्दका व्यवहार पंचम शिलालेखमें हुमा है। जनोंकी कालगणनामें कल्पकाल माना गया है।' (८) एक देश शब्द सप्तम शिलालेखमें मिलता है । जैनधर्ममें भी भांशिक धर्मको एक देश धर्म बताया गया है ।। (९) सम्बोधिका प्रयोग अष्टम शिलालेख में है। जैनशास्त्र में बोधि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिको कहा गया है। (१०) वचन गुप्तिका उपदेश बारहवें शिलालेखमें है कि अपने धर्मसे भिन्न धर्मों के प्रति वचन गुप्ति का अभ्यास करो, निमसे परस्पर ऐक्यकी बढ़वारी हो । गुप्ति नैनधर्ममें तीन मानी गई हैं(१) मनगुप्ति (२) वचनगुप्ति और (३) कायगुप्ति ।' अन्यत्र यह भेद नहीं मिलता है। (११) समबायका व्यवहार भी बारहवें शिलालेखमें है। जैन द्वादशांगमें एक अंग अन्यका नाम 'समवायांग' है।' (१२) वेदनीय शब्द त्रयोदश शिलालेखमें मशोकने दुःख प्रकाशके लिये प्रयुक्त किया है। जैनधर्म में भी वेदनीय शब्द दुःख मुखका द्योतक माना गया है और आठ कर्मों में एक कर्मका नाम है।' .. जो समो सबभुदेसु तसेसु थावांसुय । जस्स रागो य दोमो य वि िण जणेति दु ॥५२६॥ मला• । १-" पयर्यालयमाणमाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो । पावह तिहुवणपा वोही जिणसासणे जीवो ॥७॥'-अष्ट० पृ. २१५ २-पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४१७ । 3-'सेप भवमयमहणी बोधी ।'-मूठा• पृ. २७७ ४-मूत्राचार पृ० ११५ व तत्वावं. पृ. १७५-१.६।५-तत्वा विगमसूत्र, पृ. ३.। ६-तत्वाधिगमसूत्र, पृ. १६.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A २७० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । (१३) अपासिनवे (अपास्र३) शब्दका प्रयोग द्वितीय संभ लेखमें पापरूपमें हुआ है। जैनधर्ममें मानव शुभ और अशुभ ही माना गया है । अशुभ अथवा अप आसब पाप कहा गया है। (१४) आसिनव जो 'मानव' शब्दका अपभ्रंश है तृतीय स्तम्भ लेखमें व्यवहृत हुआ है । जैन शब्द 'अण्हय', और यह दोनों एक ही धातुसे बने हैं। यह और मानव शब्द समानवाची हैं। आस्रव शब्द बौडों द्वारा भी व्यवहृत हुआ है किन्तु अशोकने इस शब्दका व्यवहार उनके भावमें नहीं किया है। खास बात यहां दृष्टव्य यह है कि इस स्तंभलेखमें आस्रव (मासिनव ) के साथ२ अशोकने पापका भी उल्लेख किया है। डॉ० भांडारकर कहते हैं कि बौद्ध दर्शनमें पाप और असत्र, ऐसे दो भेद नहीं हैं। उनके निकट पाप शब्द आसवका द्योतक है । किन्तु जैनधर्ममें पाप मलग माने गये हैं और आस्रव उनसे भिन्न बताये गये हैं। कषायों के वश होकर पाप किये जाते और मानवका संचय होता है। क्रोध, मान, म.या, लोम रूप चार कषाय हैं । अशोक क्रोध और मानका उल्लेख पापासबके कारण रूपमें करता है । अशोककी ईर्ष्या जैनोंके द्वेष या ईर्ष्या के समान हैं । चंडता और निष्ठुरता जैनों की हिंसाके अन्तर्गत समिष्ट होते हैं। यह पाप और आसक्के कारण है। इस प्रकार अशोक यहां भी बौद्ध या किसी अन्य धर्मके सिद्धांतों और पारिभाषिक शब्दोंका व्यवहार न करके जैनोंके सिद्धान्त और उनके पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग कर रहा है। - तत्त्वाधिगमन:पृ. १२४ । २-पीप्रकिया इण्डिया मा २ पु. २५०। ३-मायो पृ. १२७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२७१ (१५) द्विपदचतुपदेषु पक्षिवारिचरेषु-( दुपदचतुपदेश पखिवालिचलेसु) वाक्य द्वितीय स्तम्भ लेखमें मिलता है । यहां पशुओंके भेद गिनाये हैं, जिनपर अशोकने अनुग्रह किया था और यह नोंके तीन प्रकारके बताये हुये तिर्यचोंके समान हैं । जैनोंके पंचेन्द्रिय नियंच जीव (१) जलचर (२) थलचर और (३) नमचर इस तरह तीन प्रकारके हैं। (१६) जीवनिकाय शब्द-पंचम स्तम्भ लेखमें आया है और इस रूपमें इसका व्यवहार जैनोंके शास्त्रोंमें हुआ मिलता है। (१७) प्रोषध शब्द पंचम स्तम्भलेखमें है और जैनोंमें यह प्रोषधोपवास खास तौरपर प्रतिपादित है। (१८) धर्मदृद्धि शब्द षष्टम स्तम्भलेखमें प्रयुक्त है । जैन साधुओं द्वारा इस शब्दका विशेष प्रयोग होता है और नैनोंको धर्मवृद्धिका विशेष ध्यान रहता है। हम प्रकार जनोंके उपरोक्त खास शब्दों का व्यवहार करनेसे समान भी अशोकका जैन होना प्रमाणित है। तिससिमांत जैनमता- पर उनके शान लेखोंसे जिन धार्मिक सिद्धां नुसार हैं। न्तों में उनका विश्वास प्रगट होता है, वह भी जैनधर्मके भनुकूल है। जैसे: (१) अशोक प्राणियों के अच्छे बुरे कामों के अनुसार मुखदुलरूप फल मिलना लिखने हैं। वह पापसाको एकमात्र १-"यिये प्रचलताय मया प्रमादा देकेन्द्रियप्रमुख जीनिक्लब बाधा।' इत्यादि । २-IMणमापकाचार ४-16 म०।३-चार वर्ष ५० ३९२। ४-चतुर्ष, नरम एi प्रयोदश शिलारेस-अमेसो. मा. "पृ० २५९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | विपत्ति बतलाते हैं ।' जैन दृष्टिसे यह बिल्कुल ठीक है । आसवका नाश होनेपर ही जीव परमसुख पा सक्ता है । ' अशोकने आसव शब्दको जैन भावमें प्रयुक्त किया है, यह लिखा जाचुका है । अतएव अशोकका श्रद्धान ठीक जैनों के अनुपार है कि प्राणियोंका संसार स्वयं उनके अच्छे बुरे कर्मोपर निर्भर है । कोई सर्वशक्तिशाली ईश्वर उनको सुखी बनानेवाला नहीं है । कर्मवर्गणाओंका आगमन (अ.स) रोक दिया जाय, तो आत्मा सुखी होजाय । 1 ४ (२) आत्माका अपरपना यद्यपि अशोकने स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है; किन्तु उन्होंने परभवमें आत्माको अनन्त सुख का उपभोग करने योग्य लिखा है । इससे स्पष्ट है कि वह आत्माको ममर - अविनाशी मानते हैं और यह जैन मान्यता के अनुकूल है । (३) लोकके विषय में भी अशोकका विश्वास जनों के अनुकू प्रतीत होता है । वह इहलोक और परलोकका भेद स्थापित करके आत्मा के साथ लोकका सनातन रूप स्पष्ट कर देते हैं । उनके निकट लोक अनादि है; जिसमें जीवात्मा अनंत कालतक अनंत सुखका उपभोग कर सक्ता है। किंतु अशोक 'वला - काल' की उल्लेख करके लोक व्यवहार में जो यहां परिवर्तन होते रहते हैं, उनका भी संकेत कर रहे हैं । जैन कहते हैं कि यद्यपि यह लोक अनादि 1 निधन है, पर भरतखण्डमें इसमें उलटफेर होती रहती है; जिसके १- दशम शिलालेख - अध० पृ० २२० । २ - तत्वार्थ० अ० ६-१० । ३ - जमीसो० भा० १७ पृ० २७० । ४- एको मे सासदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा ॥८॥ - कुन्दकुन्दाचायैः । ५- अध० पृ० २६८ - त्रयोदश शि० । ६ - अध० पृ० १४८ व १६३चतुर्थ व पंचम शिला० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २७३ कारण इमका आदि और अंत है । एक परिवर्तन अथवा उलटफेर 'कल्प' कहलाता है ।' (४) धर्म के सिद्धांत में अशोक जीवोंकी रक्षा अथवा अहिंसाको मुरुष मानते हैं । उनके निकट अहिंसा ही धर्म है । जैन शास्त्रों में भी घमं दयामई अथवा अहिंसामई निर्दिष्ट किया गया है । उसमें धर्म के नामपर यज्ञमें भी हिंसा करने की मनाई है । अशोध्ने भी यही किया था । ४ (५) धर्मध पालन प्रत्येक प्राणी कर सक्ता है । जैनधर्मकी शरणमे आकर क्षुद्रमे क्षुद्र जीव अपना आत्मकल्याण कर सत्ता है। ठीक इन उदाग्वृत्तका अनुमरण अशोक ने किया था । उनका प्रतिघोष था कि धर्मविषयक उद्योगके फलको केवल बड़े ही लोग पासके ऐसी बात नहीं है क्योंकि छोटे लोग भी उद्योग करें तो महान स्वर्ग का सुख पासक्ते हैं । इस प्रकार उन्होंने धर्मागघनकी स्वतंत्रता प्रत्येक प्राणी के लिये कर दी थी और इस बात का प्रयत्न किया था कि हरकोई धर्मका अभ्यास करे | उनका यह कार्य भी यज्ञ-हिंसा के प्रतिरोधकी तरह वैदिक मान्यताका लोप था । ब्राह्मण समुदायका श्रद्धान औ' व्यवहार था कि धार्मिक कार्य करनेका पूर्ण अधिकार उन्हींको प्राप्त है। अशोकने भगवान महावीरके उपदेशके अनुसार प्रत्येक प्राणीको आत्म-स्वातंत्र्य और पुण्यसंचय : १- धर्ममहिंमारूपं संयन्तोपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुंचन्तु ॥७५ - पुरुषार्थसिद्धपुराय । २ - मूलाचार पृ० १०८ व उम्० । ३-वीर वर्ष ५ १० २३०-२३४ ॥ ४- रूपनाथ और सहसराम के शिलालेख; मरडीका शि० व ब्रह्मगिरीका शिळा० । १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास। करनेका अधिकार देकर ब्राह्मणोंकी इस मान्यताको नष्टप्राय कर दिया था । उपरोक्त पांचों बातों का श्रद्धान रखने और तहत प्रयत्न करनेसे उनने यहां सत्य धर्मका सिक्का जमा दिया था। उनसे कई सौ वर्षों पहलेसे जो मनुष्य (अर्थात ब्राह्मण) यहां सच्चे माने नाते थे, वे अपने देवताओं सहित झूठे सिद्ध कर दिये गये; यह वह स्वयं बतलाते हैं।' (६) धर्मका पालन पूर्ण और आंशिकरूपमें किया जाता है। नैनशास्त्रों में यह भेद निर्दिष्ट है। अशोक भी एक देश अथवा पूर्णरूपमें धर्मका पालन करनेकी सलाह देते हैं । तथापि वह सावधानतापूर्वक कह रहे हैं कि आश्रवके फंदेसे तबही छूटा (अपरिस्रवे) जासक्ता है, जब सब परित्याग करके बड़ा पराक्रम किया नाय ! यह बड़ा पराक्रम त्यागके परमोच्चपद श्रमणके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जैनशास्त्रों का ठीक यही उपदेश है। (७) अशोकके निकट देवताओंकी मान्यता भी जैनोंके समान थी। वह कहते हैं कि देवताओंका सम्मिश्रण यहांके लोगोंके साथ बन्द होरहा था; उपको उन्होंने फिर जीवित कर दिया । जैनशास्त्रोंका कथन है, जैसे कि सम्राट चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्नोंमसे एक स्वप्नके फलरूप बतलाया गया है कि अब इम पंचम कालमें देवता लोग यहां नहीं मायेंगे; ठीक यही बात अशोक कर रहे हैं। १-अध० पृ. ७४-७५ रूपनाथका प्रथम लघु. शिला०। २-अध. पृ० १८९ सप्तमशिला। ३-अध० पृ० ०२० दशमशिला । ४-जैसू०, भा० २ १० ५७ व अपाहुइ पृ०. ३८-४० व ९९ । ५-रूपनाथक प्रथम लघु शला०-जगएपो० सन् १९११ पृ. ११४।६-जैहि. भा. १३ पृ. २३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २७५ उन्होंने इम अभावकी पूर्तिके सदप्रयत्न किये और लोगोंको देवयोनिके अस्तित्वका पता बतानेका प्रयत्न किया । देवतालोग स्वयं तो आ नहीं सक्ते थे । अतएव अशोकने उनके प्रतिबिम्ब लोगोंको दिखाये | 1 विमान दिखलाकर वैमानिक देवताओंका दिव्यरूप लोगोंको दर्शा दिया ! इन देवताओंके इन्द्रका ऐगवत हाथी जैन लोगों बहुप्रसिद्ध है । जब तीर्थंकर भगवानका जन्म होता है तब इन्द्र इमी हाथीपर चढ़कर आता है । आजकल भी जैन रथयात्राओंमें काठ वगैरह बने हुए ऐसे ही हाथी निकाले जाते हैं । अशोक ने भी ऐसे ही हाथी जलममे दिखाये थे । 'अग्नि- स्कंष' दिखलाकर अशोकने ज्योतिषी देवोंके अस्तित्वका विश्वाम लोगों को कराया प्रतीत है; क्योंकि इन देवोंका शरीर अग्नि के समान ज्योति 5 X मैय होता है । शेषमें भवनवामी देव रह गये | अशोकने इनके दर्शन भी लोगों को अन्य दिव्यरूप दिखलाकर करा दिये थे। सारांशतः अशोककी यह मान्यता भी जनोंकी देव योनिके वर्णन से टी समानता रखती है । इससे यह भी पता चलता है कि अशोकको ' मूर्तिपूजा' से परहेज नहीं था। जैनों के यहां तीर्थंकर भगवानकी मूर्तियां स्थापित करके पूजा करनेका रिवाज बहुप्राचीन है । (८) अशोक सब धार्मिक कार्यों का फल स्वर्ग-सुखका मिलना बतलाता है । उसने मोक्ष अथवा निर्वाणका नाम उल्लेख भी नहीं किया है। बौद्ध दर्शन में 'निर्वाण' ही जीवन अथवा अर्हतु पदका अंतिम फळ लिखा गया है; किन्तु अशोक उसका कहीं नाम भी १- अध० पृ० १४६ –पंचमशिला २-हरि० १० ११ । ३-अध० पृ० १४७ । ४- तत्वार्थ० ४। १ । · Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat I www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] संक्षिप्त जैन इतिहास । नहीं लेते हैं। इसी तरह जैन शास्त्रों में मोक्ष ही मनुष्य का अंतिम ध्येय बताया गया है; पर अशोक उसका भी उल्लेख नहीं करते हैं। किन्तु उनका मोक्षके विषयमें कुछ भी न कहना जन दृष्टिसे ठीक है; क्योंकि वह जानते थे कि इस जमाने में कोई भी यहांसे उत्त परम पदको नहीं पासक्ता है और वह यहांके लोगोंके लिये धर्माराधन करनेका उपदेश देरहे हैं। वह कैसे उन बातों का उपदेश दें अथवा उल्लेख करें जिसको यहांके मनुष्य इस कालमें पाही नहीं सक्ते हैं। जैन शास्त्र स्पष्ट कहते हैं कि पंचमकालमें (वर्तमान समयमें) कोई भी मनुष्य-च हे वह श्रावक हो अथवा मुनि मोक्ष लाभ नहीं कर सका। वह स्वर्गौके सुखोंको पासक्ता है। फिर एक यह बात भी विचारणीय है कि अशोक केवल धर्माराधना करनेपर जोर देरहा है और यह कार्य शुभरूप तथापि पुण्य प्रदायक है । जैन शास्त्रानुपार इस शुभ कार्यका फल स्वर्ग सुख है। इसी कारण अशोकने लोगों को स्वर्ग-प्राप्ति करनेकी ओर आकृष्ट किया है । उसके बताये हुए धर्म कार्योंसे सिवाय स्वर्ग सुखके और कुछ मिल ही नहीं सक्ता था। (९) कृत अपराधको अशोक क्षमा कर देते थे, केवल इस शर्तपर कि अपराधी स्वयं उपवास व दान करे अथवा उसके संबंधी वैसा करे। हम देख चुके हैं कि जैन शास्त्रों में प्रायश्चित्तको विशेष महत्व दिया हुआ है। गही, निन्दा, मालोचना और प्रतिक्रमण १-जमीसो० भा० १७ पृ. २७१ । २-अज्जवि तिग्यणसुद्धा अप्पा झाएबि लहइ इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआणि बुदि जंति ॥७॥-अष्ट० १० ३३८ ३-धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा जदि सुसम्पयोग जुदो। पावदि णिवाणसुई, सुहोवजुत्तो व सग्गसह ॥ ११॥-प्रवचनमार टीका भा० १ पृ. ३९ । ४-स्तम्म देख ७ व जमेसो• भा०. १५. पृ०. २७९। ,. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२७७ करके कोई भी प्राणी कृतपापके दोषसे विमुक्त होता है। उसे कायोसर्ग और उपवास विशेष रूपमें करने पड़ते हैं। जिनेन्द्र भगवानकी पूजन व दान भी यथाशक्ति करना होता है। अतएव कृत पापके दोषसे छूटनेके लिये अशोकने जो नियम निर्धारित किया था, वह नेनों के अनुसार है ! इस प्रकार स्वयं अशोकके शासन-लेखों तथापि पूर्वोल्लिखित स्वाधीन माक्षीसे यह स्पष्ट है कि मशोकका सम्बन्ध अवश्य जैन धर्मसे था। हमारे विचारसे वह प्रारम्ममें एक श्रावक (जैन गृहस्थ) था और अपने जीवन के अंतिम समय तक वह भाव अपेक्षा जैन था; यद्यपि प्रगटमें उसने उदारवृत्ति ग्रहण करली थी । ब्राह्मणों, माजीविकों और बौद्धोंका भी वह समान रीतिसे आदर करने लगा था। मालूम होता है कि बौद्ध धर्मकी ओर वह कुछ अधिक सदय हुआ था। यद्यपि उसके शासन लेखोंमें ऐसी कोई शिक्षा नहीं है नो खास बौदोंकी हो। अकबरके समान “दीन इलाही" की तरह यद्यपि अशोकने कोई स्वतंत्र मत नहीं चलाया था, तौमी उसकी अंतिम धार्मिक प्रवृत्ति अकबरके समान थी। मैन ‘अकबरको जैनधर्मानुयायी हुमा प्रकट करते हैं। यह ठीक है कि अशोकके विषयमें जैन शास्त्रोंमें सामान्य वर्णन है किन्तु इससे १-देखो प्रायश्चित्त संग्रह-माणिकचन्द प्रन्थमाला । २-अप. पू. १६१-पष्ठम स्तम्भ लेख । ३-मैबु. १.११२; सेनार्ट; इऐ• मा०२० पृ. २६. समीयो० मा. १७ पृ. २७१-२७५ । ४-अशोक साफ लिखता है कि 'मेरे मत' में भवता 'मेरा उपदेश है (१-२ कलिंग शिलान बम सप्तम स्तम्म डेस) भवः उनका निजी मत किसी सम्प्रवास विशेषसे भन्तमें भवलंबित नहीं था। ५-असू. पृ० १९.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | हमारी मान्यता में कुछ बाघा नहीं माती; अशोकका नामोल्लेख तक जैन शास्त्रोंमें न होता तो भी कोई हर्ज ही नहीं था । क्योंकि हम जानते हैं कि पहिलेके जैन लेखकोंने इतिहासकी ओर विशेष रीतिसे ध्यान नहीं दिया था । यही कारण है कि खारवेल महामेघवाहन जैसे धर्मप्रभावक जैन सम्राट्का नाम निशान तक जैन शास्त्रोंमें नहीं मिलता । अतः अशोकपर जैनधर्मका विशेष प्रभाव जन्मसे पड़ा मानना और वह एक समय श्रावक थे, यह प्रगट करना कुछ अनुचित नहीं है। उनके शासनलेखोंके स्तम्भ आदिपर जैन चिह्न मिलते हैं । सिंह और हाथीके 1 चिह्न जैनोंके निकट विशेष मान्य हैं। अशोकके स्तंभोंपर सिंहकी मूर्ति बनी हुई मिलती है और यह उस ढंगपर है, जैसे कि अन्य जैन स्तम्भों में मिलती है। यह भी उनके जैनत्वका द्योतक है । किंतु हमारी यह मान्यता आजकलके अधिकांश विद्वानोंके अशोकको बौद्ध मानना मतके विरुद्ध है । आजकल प्रायः यह ठीक नहीं है । सर्वमान्य है कि अशोक अपने राज्यके नवे वर्षसे बौद्ध उपासक हो गया था। किंतु यह मत पहिलेसे २ १- ये दोनों क्रमश: अन्तिम और दूसरे तीर्थदूरोंके चिन्ह है और इनकी मान्यता जैनोंमें विशेष है । ( वीर• भा० ३ पृ० ४६६-४६८ ) मि० टॉमॅसने भी जैन चिन्होंका महत्व स्वीकार किया है और कुहाऊंके जैन स्तंभपर सिंहकी मूर्ति और उसकी बनावट अशोक के स्तम्भों जैसी बताई है । ( जराएसो० भा० ९ पृ० १६१ व १८८ फुटनोट नं० २ ) तक्षशिला के जैन स्तूपोंके पाससे जो स्तंभ निकले है उनपर भी सिंह है। (तक्ष० पृ० ७३) श्रवणबेलगोल के एक शिलालेखके प्रारम्भमें हाथीका चिन्ह है । २ईऐ० भा० २० पृ० २३० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मौर्य-साम्राज्य । [२७९ ही अशोकके बौद्धत्वको वास्तविक मानकर विहानोंने स्वीकार किया है, वरन् ऐसा कोई स्पष्ट कारण नहीं है कि उन्हें बौद माना जावे । यह मत नया भी नहीं है। डॉ० फ्लीट, मि० मेकफैल, मि• मोनहन और मि० हेरसने अशोकको बौद्ध धर्मानुयायी प्रगट नहीं किया था । डॉ. कर्न' और डॉ० सेनार्ट व हल्श सा. भी मशोकके शासन लेखोंमें कोई बात खास बौद्धत्वकी परिचायक नहीं देखते हैं, किंतु वह बौद्धोंके सिंहलीय ग्रंथोंके आधारपर अशोकको बौड हुमा मानते हैं । और उनकी यह मान्यता विशेष महत्वशाली नहीं है क्योंकि बौद्धोंके सिंहलीय अथवा ४ थी से ६ ठी श० तकके अन्य ग्रन्थ काल्पनिक और अविश्वसनीय प्रमामित हुये हैं। तथापि रूपनाथके प्रथम लघु शिलालेखके आषारसे जो अशोकको बौद्ध उपासक हुमा माना जाता है, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि बौद्ध उपासकके लिये श्रावक शब्द व्यवहृत नहीं होसका है जैसे कि इस लेख में व्यवहृत हुआ है। बौद्धोंके निकट श्रावक शब्द विहारों में रहनेवाले भिक्षुओं का परिचायक है। और उपरोक्त लेख एवं अन्य लेखोंसे प्रकट है कि अशोक उससमय एक उपासक थे। १-जराएपो, १९०८, पृ० ४९१-४९२ । २-अशो० पृ. ४८ । ३-भी हिस्ट्रो आफ बंगाल पृ. २१४ । -जमीसो० मा० १७ पृ. २७१-२७५ । ५-मेबु० १० ११२ । ६ऐ० मा० २० पृ० २६० । U-C. J. J. I. p. XIX अमीसो. मा. १. पृ. २१। ८-शो. पृ. १९१ २३; भामचो. पृ. ९६और मैनु. पृ. ११०। ९-अप० पृ. ६९।१०-ममबु. मृमिका • १२ । "-अप. पृ. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] संक्षिप्त जैन इतिहास। मस्कीके शिलालेखमें उनका उल्लेख 'एक बुद्ध शाक्य' के नामसे अवश्य हुआ है; किंतु यह उनके ज्ञानप्राप्तिका द्योतक ही माना गया है। इससे यह प्रकट नहीं होता कि अशोरने बौद्धधर्मकी दीक्षा ली थी। हां, यह स्पष्ट है कि वह श्रावक अथवा उपासक हुआ था, जसे कि वह स्वयं कहता है । इससे भाव व्रती श्रावक होनेके हैं । किंतु अगाड़ी अशोक कहता है कि करीब एक वर्षसे कुछ अधिक समय हुआ कि जबसे मैं संघ आया हूं तबसे मैंने अच्छी तरह उद्योग किया है। बौद्धग्रन्थों में भी अशोकके बौद्धसंघमें आनेकी इस घटनाका उल्लेख है । बुल्हर, स्मिथ और टॉमस सा० ने इस परसे अशोकको बौद्धसंघमें सम्मिलित हुआ ही मान लिया था। डॉ० भाण्डारकर अशोकको बौद्ध भिक्षु हुआ नहीं मानते; बल्कि कहते हैं कि संघमें अशोक एक 'भिक्षुगतिक'के रूपमें अवश्य रहा था। किंतु मि० हेरस कहते हैं कि वह बौद्धसंघमें सम्मिलित नहीं हुआ था। अशोक बौद्ध संघमे गया अवश्य था, और भिक्षुनीवनकी तपस्याका उसपर प्रभाव भी पड़ा था; किंतु इतनेपर भी उसने बौद्धधर्मकी दीक्षा नहीं ली थी। इस घटनाके बाद अशोकने दो शासनलेख प्रगट किये थे। एक रूपनाथवाला शिलालेख है जो माधारण जनताको लक्ष्य करके लिखा गया है और दुसरा कलकत्ता वैराटवाला शिलालेख है, निसको उन्होंने बौद्धसंघको लक्ष्य करके लिखा है । रूपनाथवाला ... १-जमीसो. भा० १७ पृ. २७३ । २-अध० पृ०, ७३-७४ । -महावंश (कोलम्बो) पृ. २३ । ४-जमीसो. भा० १७ पृ. २७४ । ५-माअशो० पृ. ७९-८०। ६-जमीसो० भा० १७ पृ. २७२:२७६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य । [२८१ शिलालेख यद्यपि बौदसंघमें हो आनेके बाद लिखा गया है; परन्तु उसमें कोई भी ऐसी शिक्षा नहीं है जो बौद्ध कही जासके। दूसरे वैराटवाले शिलालेखके अनुसार तो अशोकको बौद्ध हुआ ही प्रकट किया जाता है। किन्तु वह सर्व प्रनाको लक्ष्य करके नहीं लिखा गया है। यदि वस्तुतः अशोक बौद्ध हुये थे तो वह अपने इस श्रद्धानका प्रतिघोष सर्वसधारणमें करते और उनके लेखमें बौद्धशिक्षाका होना लाजमी था। फिर उनके बौद्ध हो जानेपर यह भी संभव नहीं था कि वह उन मतवालों-जैसे ब्राह्मणों, जैनों, मानिविक मादिका सत्कार कर मके, जिनका बौडग्रन्थों में खासा विरोध किया गया है। वैराट शिलालेख केवल बौद्ध संघको लक्ष्य करके लिखा गया है और उममें अशोक संघको अभिवादन करके जो यह कहते हैं कि 'हे भदन्तगण, भापको मालूम है कि बुद्ध धर्म और संघमें हमारी कितनी भक्ति और गौरव है' वह ठीक है । यह एक सामान्य वाक्य है, इसमें किसी पार्मिक श्रद्धानको व्यक्त नहीं किया गया है। अशोकके समान उदारमना राजाके लिये यह उचित है कि वह जब एक संप्रदायविशेषके संघ अपने मतको मान्यता दिलाना चाहता है, तो वह शिष्टाचारके नाते उनका समुचित आदर करे और विश्वास दिलावे कि वह उनके मतके विरुद्ध नहीं है । अशो. कने यही किया था । उनने यह नहीं कहा था कि हमें बौदधर्मविश्वास है और हम उममें दीक्षित होते हैं। शिष्टाचारकी पूर्ति के उनने संघको बौदधर्मके उन स्वास ग्रन्थोंकि मध्ययन व प्रचार रनेत्र परामर्श दिया, में उनके मतके अनुकूल थे क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | अशोक यह अन्यत्र प्रगट कर चुके हैं कि वह प्रत्येक धर्मावलम्बीको अपने ही धर्मका पूर्ण आदर करना उचित समझते हैं । इसके अतिरिक्त उस लेखमें कोई भी ऐसी बात या उपदेश नहीं है जिससे बौद्धधर्मका प्रतिभास हो । तिसपर इस लेख के साथ ही उपरोक्त रूपनाथका शिलालेख लिखा गया था। इन दोनों शिकालेखों में पारस्परिक भेद भी दृष्टव्य है । रूपनाथ वाले शिलालेख में कुछ भी बौद्धधर्म विषयक नहीं है; यह बात मि० हेरस भी प्रकट करते हैं । ' ર वह ठीक नहीं है । यहां यह भी कहा जाता है कि अशोकने अपनी प्रथम धर्मयात्रा मे कई बौद्ध तीर्थों के दर्शन किये थे । किन्तु आठवें शिलालेख में प्रयुक्त हुये 'सम्बोधि' शब्दसे जो म० बुद्ध के 'ज्ञानप्राप्तिके स्थान '' (बोधिवृक्ष) का मतलब लिया जाता है, सम्बोधि से भाव 'सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे' है । जैन शास्त्रों में 'बोध' का पालेना ही धर्माराधनमें मुख्य माना गया है। अशोकके यह 'बोधिलाभ' उनके राज्याभिषेक के बाद दशवें वर्ष में हुआ था। हां, अपने राज्यप्राप्तिसे बीसवें वर्ष में अशोक अवश्य म० बुद्धके जन्मस्थान लुम्बिनिवनमें गये थे और वहां उनने पूजा-अर्चा की थी और उस ग्रामवासियोंसे कर लेना छोड़ दिया था । इसके 1 पहिले अपने राज्यके १४ वें वर्ष में वह बुद्धको नाकमन ( कनकमुनि) . १ - जमीसो० भा० १७ पृ० २७४-२७५ । २ -- इंऐ०, १९१३, पृ० १५९ । ३- अघ० १० १९७ । ४- सेयं भवमय महणी बोधी गुणबित्थज मगे लढा । जदि पडिदा ण हु सुलहा तया ण समं पमादो मे ॥७५८॥ - मूळाचार• । ५-अध० पृ० ३८३- कम्मिन देई स्तम्भ लेख • १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ मौर्य-साम्राज्य । [२८३ के स्तुपका पुनरुद्धार कर चुके थे।' किन्तु उनका बौद्धधर्मके प्रति यह आदरभाव कुछ अनोखा नहीं था । वह स्पष्ट कहते हैं कि मैंने मब संप्रदायोंका विविध प्रकारसे सत्कार किया है।' आजीविकोंके लिये उनने कई गुफायें बनवाई थीं। इसीप्रकार ब्राह्मण और निम्रन्थों (नैनों) का भी उन्हें ध्यान था । 'महावंश' में लिखा है कि अशोकने कई बौद्धविहार बनवाये थे, तो उधर 'राजतरिङ्गणी' से प्रगट है कि उन्होंने काश्मीरमें कई ब्राह्मण मंदिर बनवाये थे। नैनोंकी भी मान्यता है कि अशोकने श्रवणबेलगोल मादि स्थानोंपर कई जैन मंदिर निर्मित कराये थे। अतएव अशोकको किसी सम्प्रदायविशेषका अनु. यायी मान लेना कठिन है । उपरोक्त वर्णनको देखते हुये उनका बौद्ध होना अशक्य है । बौद्धमतको भी वह अन्य मतोंके समान आदरकी दृष्टिसे देखते थे और बौद्धसंघकी पवित्रता और अक्षुण्णताके इच्छुक थे । विदेशोंमें जो उन्होंने अपने धर्मका प्रचार किया था उससे भी उनके बौद्धत्वका कुछ भी पता नहीं चलता है। मिश्र, मकोडोनिया प्रभृति देशोंमें अशोकके धर्मोपदेशक गये थे; किन्तु इन देशोंमें बौद्धोक कुछ भी चिन्ह नहीं मिलते; यद्यपि मिश्र, मध्यएशिया और यूनानमें एक समय दिगम्बर जैन मुनियोंक मस्तित्व एवं इन देशोंकी धार्मिक मान्यताओं में जैनधर्मका प्रमाण १-अप० पृ. ३८६-निग्लीव स्तम्भ लेख (बुन कनक मुनि बौनमतके विरोधी देवदत्तकी संप्रदायमें विशेष मान्य है) २-अध० पृ. २६.-48 स्तम्भ लेख । ३-अध. पृ. ४.१-तीन गुहा लेख । ४-महावंश पृ. २१ । ५-राजतरंगिणी मा• 1 पृ. २०।-हिवि.. मा• • • १५.। -अमीलो. मा. १. पृ. २.२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रकट होता है। चीन आदि एशियावर्ती देशों में बौद्धधर्मका प्रचार अशोक के बाद हुआ था और इन देशोंमें अशोकने अपने कोई धर्मोपदेशक नहीं भेजे थे । अतः मध्यऐशिया, चीन आदि देशोंमें बौद्ध धर्मके चिन्ह मिलने के कारण यह नहीं कहा जासक्ता कि अशोकने उन देशोंमें बौद्धधर्मका प्रचार किया था। 'महावंश में 'लिखा है कि अशोकका पिता ब्राह्मणोंका उपासक था; किन्तु बौद्धग्रंथों के इस उल्लेख मात्रसे बिन्दुमार और अशोकको ब्राह्मण .. मान लेना भी ठीक नहीं हैनब कि हम उनकी शिक्षाओं में प्रगटतः ब्राह्मण मान्यताओं के विरुद्ध मतों की पुष्टि और उनकी अवहेलना हुई देखते हैं। इस प्रकार मालम यह होता है कि यद्यपि अशोक प्रारम्भमें अशोकका श्रद्धान अपने पितामह और पिताके समान जैनधर्मका जैन तत्वोंपर अन्त मात्र श्रद्धानी था, किन्तु जैनधर्मके संसर्गसे समय तक था। उसका हृदय कोमल और दयालु होता जारहा था । यही कारण है कि कलिंग विजयके उपरांत वह श्रावक हो गया और अब यदि वह ब्राह्मण होता तो कदापि यज्ञोंका निषेध न करता । वह स्पष्ट कहता है कि उसे 'बोधी' की प्राप्ति हुई है। नो जैनधर्ममें आत्मकल्याणमें मुख्य मानी गई है। यद्यपि अशोकने अपने शेष जीवन में उद्धारवृत्ति ग्रहण कर ली थी और समान -मावसे वह सब सम्प्रदायों का आदर और विनय करने लगा था; किन्तु उसकी शिक्षाओंमें ओरसे छोर तक जैनसिद्धांतोंका समावेश और उनका प्रचार किया हुआ मिलता है। उनका सप्तम स्तम्भ १-भया• पृ. १८६-२०२ । २-महावंश पृ० १५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [ २८५. लेख, जो उनके अंतिम जीवन में दिखा गया था, इस व्यवस्थाका पुष्ट प्रमाण है । ' | इस लेख में अशोक ने धर्म और ध्यानके मध्य जो भेद प्रगट किया है, वह जनधर्मके अनुकूल है । इसी लेखमें वह कह चुके हैं कि ' धर्म दया, दान, स्त्य, शौच, मृदुता और साधुनामें है ।' इन धर्म नियमों वह धर्मकी वृद्ध हुई मानन हैं; किन्तु ध्यानको वह विशेष महत्व देते हैं । ध्यानकी बदौलत मनुष्यों में धर्मकी वृद्धि, प्राणियों की और यज्ञ में जीवोंग अनारंभ बढ़ा, उन्होंने प्रगट किया है । जैन धर्ममे दया, दान, मत्य आदिकी गणना दश घमने की गई है और ध्यानके चार भेदों में एक धर्मध्यान बताया गया है ।" यह ध्यान शुभोपयोगरूप है, जो पुण्य और स्वर्गसुख का कारण है | श्रावकको ध्यान करनेकी आज्ञा जिन शास्त्र में मौजूद है । 3 धर्मध्यान चार प्रकारका है अर्थात् (१) आज्ञाविचय, (२) अपायविचय, (३) विपाक विचय और (४) संस्थान विचये । इनमें १-अध० पृ० ३६२ । २-धम्मं सुकं च दुवे पसत्यझाणाणि वाणि ॥ ३९४ ॥ मुटा भावं तिहिपयारं सुहासुरं सुद्धमेव णायव्वं । अमुहं च अहरु सुह धम्मं जिनवरिदेहिं ॥ ७६ ॥ अष्ट० पृ० २१४ । ३ - धम्मेण परिणदा अप्पा जदि सुद्ध५म्पयोग जुदो । पावदि निव्याप • सुदं सुहोत्रजुतो व मग्गसुहं ॥ ११ ॥ - प्रवचनसार । उवओोगो जदि हि सुडो पुष्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तथ पावं, ते समभावे ण चपमत्थि ॥ ६७ ॥ --प्रवचनसार । ४- -गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंप । तं जाणे झ इज्जइ साथय ! दुक्खक्खयः ए ॥ ८६ ॥ –अष्ट० पृ० ३४४ | ५ - सग्गेण मणं निभिऊण धम्मं चठनिहं साहू | आणापायविवाय दिवओ संठाण विचर्य च ॥ ३९० ॥ - मूळाचार | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । अपायविचय धर्मध्यानके आराधकके लिये आत्म-कल्याणको प्राप्त करनेवाले उपायों का ध्यान करना अथवा जीवोंके शुभाशुभ कर्मोका नाश और उनमें धर्मकी वृद्धि कैसे हो, ऐसा विचार करना आवश्यक होता है। अशोक इसी धर्मकी वृद्धि हुई स्वीकार करते हैं। उन्होंने इस धर्मध्यानका विशेष चितवन किया प्रतीत होता है । और उसीके बलपर वह अपनी धर्म-विजयमें सफलमनोरथ हुये थे। जिस धर्मप्रचारको उनके पूर्वन नहीं कर सके उसको उन्होंने सहज ही दिगन्तव्यापी बना दिया । अतः यह कहा जासक्ता है कि अशोक अपने अंतिम समय तक भावों की अपेक्षा बहुत करके जैन था। उसने राजनीतिका माश्रय लेकर अपने भाधीन प्रजाके विविध धर्मों की मान्यताओं का आदर किया था और उन्हें धर्मके उस रूपको माननेके लिये बाध्य कर दिया था, जिसपर वह स्वयं विश्वास रखता था। लोगोंमें धर्मवृद्धि करनेके जिन उपायों को अशोकने अपने पचारका लंग ध्यान बलसे प्रतिष्ठित किया था, उनको वह और क्रियात्मक रूप देकर शांत हुमा था । अशो. उसमें सफलता । कने अपने सब ही छोटे बड़े राज-कर्मचारियों को भाज्ञा दे रक्खी थी कि-"वे दौरा करते हुये 'धर्म' का प्रचार करें और इस बातकी कड़ी देखभाल रक्खें कि लोग सरकारी आज्ञाभोंका यथोचित पालन करते हैं या नहीं। तृतीय शिलालेख इसी विषयके सम्बंध है। उसमें लिखा है कि-देवताओंके प्रिय प्रिय. १-कल्याण पावगाओ पाओ विचिणोदि जिणमदमुविच्च । विचि. णादि वा अपाये जीवाणसुहे य असुहेय ॥४०॥-मलाचार । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [ २८७ दर्शी राना ऐसा कहते हैं:- मेरे राज्यमें सब जगह युक्त ( छोटे कर्मचारी) रज्जुक ( कमिश्नर ) और प्रादेशिक (प्रांतीय अफपर) पांच२ वर्षपर इस काम के लिये अर्थात् धर्मानुशासनके लिये तथा और काम के लिये यह कहते हुए दौरा करें कि - " माता-पिताकी -सेवा करना तथा मित्र, परिचित, स्वजातीय ब्राह्मण और श्रमणको दान देना अच्छा है । जीव हिंसा न करना अच्छा है । कम खर्च करना और कम संचय करना अच्छा है ।" अपने राज्याभिषेक के १३ वर्ष बाद अशोकने 'धर्म महामात्र ' नये कर्मचारी नियुक्त किये। ये कर्मचारी समस्त राज्यमें तथा यवन, काम्बोज, गांधार इत्यादि पश्चिमी सीमापर रहनेवाली जातियकि मध्य धर्मप्रचार करनेके लिये नियुक्त थे। यह पदवी बड़ी ऊँची थी और इस पदपर स्त्रियां भी नियत थी । धर्म महामात्र के नीचे ' धर्मयुक्त' नामक छोटे कर्मचारी भी थे जो उनको धर्मप्रचार में सहायता देते थे । · 6 मशो के १३ शिलालेखने पता चलता है कि उन्होंने इन देशोंमें अपने दून अथवा उपदेश धर्मप्रचाराथं भेजे थे । अर्थात 1 (१) मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत भिन्न भिन्न प्रदेश, (२) सामाज्यके सीमान्त प्रदेश और सीमापर रहनेवाला यवन, काम्बोज, गान्धार, राष्ट्रिक, पितनिक, भोन, आंध्र, छिन्द बादि नातियों के देश; (३) साम्राज्यकी मंगली जातियोंक प्रान्त, (४) दक्षिणी भारतके स्वाधीन राज्य जैसे केरलपुत्र, (चे), सत्य पुत्र ( तुलु कोंकण ), चोड़ ( कोरोमण्डल ), पांड्य ( मदुग व तिना ही मिले ), (५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । ताम्रपर्णी अर्थात लङ्काद्वीप; और (६) सीरिया, मिश्र, साइरीनी, मेसिडोनिया और एपिरस नामक पांच ग्रीक राजा जिनपर क्रमसे अंतियोक ( Antiochos II, 261-246 B. C.), तुरमय (Ptolomy Philadelphos; 285-247 B.C.) मक (Magas. 285-254 B. O štarafa (Antigonos; Gonatas 277239 B.C.) और अलिक सुन्दर (Alexander 272-258 B. C.) नामके राजा राज्य करते थे। ईसवी सन्के पूर्व २५८में ये पांचों गना एक साथ जीवित थे । अतः अनुमान किया जाता है कि इसी समय अशोकके धर्मोपदेशक धर्मका प्रचार करने के लिये विदेशोंमें भेजे गए थे। इस प्रकार यह प्रस्ट है कि अशोकका धर्मप्रचार केवल भारतमें ही सीमित नहीं रहा था; प्रत्युत एशिया, आफ्रिका और योरुपमें भी उपने धर्मोपदेशक भेजे थे । इप्स मुख्य कार्यकी अपेक्षा संसारभरके माधुनिक इतिहास में कोई भी सम्राट अशोककी समानता नहीं कर सक्ता । वह एक अद्वितीय राजा थे। अशोकने जिन उपरोक्त देशोंमें धर्मप्रचार किया था, उनमें किसी न किसी रूपमें जैन चिन्होंके अस्तित्वका पता चलता है। १-लंकामे जैनधर्मका प्रचार एक अत्यन्त प्राचीनकालसे था, यह जैन शास्त्रोसे प्रगट है । लंकाका राक्षसवंश, जिसमें प्रसिद्ध राजा रावण हुआ, जैनधर्मानुयायी था। (भपा० पृ० १६०-१६८) अशोकसे पहिले सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें लंका पाण्डुकभय नामक राजा राज्य करता था (३६७-३०७ ई० पू०) । इसने निर्ग्रन्थों (जैनों) के लिये अपनी राजधानी अनुरुबपुरमें मंदिर व विहार बनाये थे। (इंसेजै० पृ० ३७) । २-अध० पृ० ५४-५५ । ३-भपा० पृ. १८६-२०१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [ २८९ अशोक के पोते संप्रतिने अपने पितामहके इस प्रचार कार्यका पुनरुद्धार किया था और उन्होंने प्रगटतः जैनधर्मका प्रचार भारतेतर देशोंमें किया था । यदि मुनि कल्याण और फिर सम्राट् अशोक अपने उदाररूपमें उन धर्मसिद्धांतों का, जो सर्वथा जैन धर्मानुकूल थे, प्रचार न करते, तो संप्रतिके लिये यह सुगम न था कि वह जैन धर्मका प्रचार और जैन मुनियोंका विहार विदेशों में करा पाता । इस देशों में अशोक ने अपने धर्मप्रचार द्वारा जैनधर्मकी जो सेवा की है वह कम महत्वकी नहीं है । उन्हें उसमें बड़ी सफलता मिली थी । उसे वे बड़े गौरव के साथ 'धर्मवित्रय' कहते हैं । ' सम्राट् अशोकने अपनी धर्म शिक्षाओंको बड़ी२ शिलाओं और पाषाण स्तम्भों पर अंकित कर दिया अशोक के शिलालेख व शिल्पकार्य । था । उनके यह शिलालेख आठ प्रकारके माने गये हैं- (१) चट्टानोंके छोटे शिलालेख जो संभवतः २५७ ई० पू० से आरम्भ हुए केवल दो हैं, (२) भाबूका शिळालेख भी इसी समयका है, (३) चौदह पहाड़ी शिलालेख संभवतः १३ वें या १४ वें वर्षके हैं; (४) कलिङ्गके दो शिलालेख संभवतः २५६ ई० पू० में अंकित कराये गये; (१) तीन गुफा लेख; (६) दोतराईके शिलालेख (२४९ ई० पू०), (७) सात स्तम्भोंके लेख है पाठोंमें हैं (२४३ व २४२ ई० पू० ) और (८) छोटे स्तम्भोंके लेख (२४० ई० पू०)। इन लेखों में से शाहबाज और मानसहराके लेख तो खरोष्टी में और बाकी के उस समयकी प्रचलित ब्राह्मी १- परि० ० पृ० ९४ व सं० प्रार्थमा० पृ० १७९ । २ - अघ० पृ० २६२ - त्रयोदश्च शिलालेख । ३- लाभाइ • १० १७३ । १९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०] संक्षिप्त जैन इतिहास । लिपिमें हैं । भारतवर्षके प्राप्त लेखोंमें यह लेख सर्व प्राचीन समझे जाते हैं और इनसे उस समयके भारतकी दशाका सच्चा २ हाल प्रकट होता है । एक बड़े गौरव और महत्वकी बात यह मालम होती है कि 'उस समय पाश्चात्य लोग भी हमारे ही पूर्वनोंसे धर्मका उपदेश सुना करते थे।'' इन लेखोंके अतिरिक्त अशोकने स्तूप भादि भी बनवाये थे। उसके समय वास्तुविद्या और चित्रणकलाकी खूब उन्नति हुई थी। तबकी पत्थरपर पालिश करनेकी दस्तकारी विशेष प्रख्यात है । कहते हैं कि ऐसी पालिश उसके बाद आज तक किसी अन्य पत्थरंपर देखने में नहीं मिली है। अतएव कहना होगा कि अशोकके समय धर्मवृद्धि के साथ साथ लोगोंमें सुख-सम्पत्तिकी समृद्धि भी काफी हुई थी, क्योंकि विद्या और ललितकलाकी उन्नति किसी देशमें उसी समय होती है; जब वह देश सब तरह भरपूर और समृद्धिशाली होता है। सम्राट अशोकने करीब ४० वर्ष तक अपने विस्तृत साम्राज्य अशोकका अन्तिम पर सुशासन किया था । और अन्तमें लगभग जीवन । सन् २३६ ई. पू. वह इस असार संप्तारको छोड़ गये थे । बौद्धशास्त्रों में जो इनके अंतिम जीवनका परिचय मिलता है, उससे प्रकट है कि उस समय राज्यका अधिकार उनके पौत्र सम्प्रतिके हाथों में पहुंच गया था और वह मनमाने तरीकेसे धर्मकार्यमें रुपया खर्च नहीं कर मक्ते थे । कह नहीं सक्ते कि बौद्धोंके १-भाप्रारा• भा० २ पृ० १२८-१२९ । २-भामारा०, भा० २ पृ० १३० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । इस कथनमें कहांतक सच्चाई है ? उनके ग्रन्थोंसे यह भी पता चलता है कि उनका एक भाई वीतशोक नामक तित्थियों' (नैनों) का भक्त था। वह बौद्ध भिक्षुओंको वासनासक्त कहकर चिढ़ाया करता था। अशोकने प्राणमय द्वारा उसे बौद्ध बनाया था। बौद्ध शास्त्रोंमें यह भी लिखा है कि अशोकने एक जैन द्वारा बुद्धमूर्तिकी अविनय किये जाने के कारण हनारों जैनोंको पुण्ड्वद्धन मादि स्थानोपर मरवा दिया था। पाटलिपुत्रमें एक जैन मुनिको वौड होनेके लिये उनने बाध्य किया था; किन्तु बौद्ध होनेकी अपेक्षा उन मुनि महाराजने प्राणों की बलि चढ़ा देना उचित समझा थ।। किन्तु बौद्धोंकी इन कथाओं में सत्यताका अंश विजकुछ नहीं प्रतीत होता है। सांचीके बौद्ध पुरातत्वसे प्रगट है कि ई० पू० प्रथम शता. न्दितक अविनयके भयसे म० बुद्धकी मूर्ति पाषाण में अकित भी नहीं की जाती थी। फिर भला यह तो असंभव ही ठहरता है कि अशोकके ममय म० बुद्धकी मूर्तियां मिलती हों। तिसपर अशोककी शिक्षायें उनको एक महान उदारमना राना प्रमाणित करती हैं। उनके द्वारा उक्त प्रकार हत्याकांड रचने की समावना स्वप्नमें भी नहीं की नासक्ती । बौद्धोंडी उक्त कथायें उसी प्रकार असत्य -अशोक० पृ. २५४ । २-दिव्यावदान ४२७-मंत्रु० पृ० ११४। ३-जैग• भा० १४ पृ० ५९। ४-जमीसो• भा० १७ पृ. २७२-पाणिनिसूत्रके पातअलि भाष्य (Goldstucker's Panini. p. 28) में मोर्चाको सुवर्ण मूर्तियां बनवाते और वेचते लिखा है। भाष्यने लिखा है कि क्षिक, स्कन्ध, विशाखकी मूर्तियां नहीं बेची जाती थी। और बौद्ध मतियां भी उस समय नहीं थी। मत: मोपा द्वाग बनाई गई मूर्तियां जैन होना चाहिये। इस तरह पातजलिभाधसे मी मोयों का न होना प्रकट है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | हैं, जिसप्रकार उनका यह कहना कि अशोक अपने भाई-बहिनों के निरपराध खुनसे हाथ रङ्गकर सिंहासन पर बैठा था । किन्तु इनसे भी इतना पता चलता है कि अशोक के घरानेमे जैनधर्मकी मान्यता अवश्य थी । किन्हीं विद्वानों का मत है कि जैनधर्म और बौडमतका प्रचार धर्म-प्रचार भारतीय होजानेसे एवं सम्राट अशोक द्वारा इन वेद विरोधी मतका विशेष आदर होनेके कारण । । भारतीय जनता में सांप्रदायिक विद्वेषकी जड़ जम गई; जिसने भारतकी स्वाधीनताको नष्ट करके छोड़ा। उनके खयाल से बौद्धकाल के पहिले भारत में सांप्रदायिकताका नाम नहीं था और वैदिक मत अक्षुण्ण रीतिसे प्रचलित थे किन्तु यह मान्यता ऐतिहासिक सत्यपर हरताल फेरनेवाली है भारतमें एक बहु प्राचीनकाल से जैन और जैनेतर संप्रदाय साथ २ चले आ रहे हैं। वैदिक धर्मावलंबियोंमें भी अनेक संप्रदाय पुराने जमाने में थे । * किन्तु इन सबमें सांप्रदायिक कट्टरता नहीं थी; जैसी कि उपरांत कालमें होगई थी । भगवान महावीर तक एवं मौर्यकालके उपरांत कालमें भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं; जिनसे एक ही कुटुम्बमें विविध मतोंके माननेवाले लोग मौजूद थे। यदि पिता बौद्ध है, तो पुत्र जैन है। स्त्री वैष्णव है तो पति जैनधर्मका श्रद्धानी है। अतः यह नहीं कहा जाता कि मौर्यकालसे ही सांप्रदायिक विद्वेषकी ज्वाला मारतीय जनता घघकने लगी थी । यह नाशकारिणी भाग तो मध्य 3 पतनका कारण नहीं है । १ - इंऐ०, भा० ९ पृ० १३८ । २ - देखो हिस्ट्री ऑफ प्री० बुद्धिस्टिक इंडियन फिल्सफी । ३ - इंहिका० भा० ४ १० १४८ - १४९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य | [ २९३ काळसे और खासकर श्री शङ्कराचार्यजीके समय से ही खूब घघकी थी । साम्प्रदायिकता का उद्गम यद्यपि भारतमें बहुत पहले हो चुका था, परन्तु उसमें कट्टरता बादमें हो आई थी। अशोक के नामसे जो लेख मौजूद हैं, वे उसके धर्म और पवित्रताके भावसे लबालब भरे हुए हैं। उनसे स्पष्ट है कि अशोक एक बड़ा परिश्रमी उद्योगो और प्रजाहितैषी राजा था। यही कारण है कि उसके इतने दीर्घकालीन शासन - कालमें एक भी विद्रोह नहीं हुआ था । प्रजाकी शिक्षा-दीक्षाका उसे पूरा ध्यान था । वस्तुतः इतने विशाल साम्राज्यका एक दीर्घकाल तक बिना किसी विद्रोहके रहना इस बातका पर्याप्त प्रमाण है कि अशोक के समय में सारी प्रजा बहुत सुखी और समृद्धिशाली थी । वह साम्प्रदायिकता को बहुत कुछ भुला चुको थी । अशोक के उस बड़े साम्राज्यके सार-संभालके योग्य उनका कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था। इसी कारण उनके साम्राज्यका पतन हुआ था। धर्मप्रचार उपमें मुख्य कारण नहीं था । प्रत्युत जिस राजाने राजनीतिमै धर्मको प्रधानता दी राज्य होगया और इतिहास में उसका उल्लेख बड़े गौरवसे हुआ । सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, हर्षवर्द्धन, कुमारपाळ, अमोघवर्ष, अ बर इत्यादि ऐसे ही आदर्श सम्राट थे । उसका राज्य राम - मन् २३६ ई० पू० के लगभग अशोककी मृत्यु हुई थी । यह निश्वम रूपमें नहीं कहा जासक्ता कि उसकी जीवनलीला किस स्थानपर अशोक के उत्तराधिकारी । -समाप्त हुई थी। उसके बाद उसका बेटा कुणाल ई० पू० २१६ १- जैग ० ० म० १४ पृ० ४५... । २-जविओसो० भा० १ ० १६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] संक्षिप्त जैन इतिहास । से २२८ तक राज्य करता रहा । कुणालका उत्तराधिकारी उसका भाई दशरथ हुआ। दशरथने सन् २२८-२२० ई.पु. तक शासनभार ग्रहण किया। उपरांत अशोकका पोता सम्प्रति राज्यसिंहासन पर बैठा । यह जैनधर्मानुयायी था और इसने जैनधर्म प्रचार दुरर देशोंमें किया था। श्वेतांबर शास्त्रोंका कथन है कि स्थूलभद्रस्वामीके उत्तराधिकारी श्री आर्य महागिरि थे। इनके गुरु भाई श्री आर्य मुहस्तिमूरि थे । सम्प्रतिकी राजधानी उज्जयनि थी। श्री आर्य सुहस्तिसुरिने यहां चातुर्मास किया था। चातुर्मासके पूर्ण होनेपर श्री जिनेन्द्रदेवका रथयात्रा महोत्सव होरहा था। संप्रति राना भी अपने राजप्रासादमें बैठा हुमा उत्सव : देख रहा था। भाग्यवशात् उसकी नजर श्री आर्य मुहस्तिसुरिपर जा पड़ी। संप्रतिने गुरुके चरणों में जाकर प्रणाम किया और उनसे धर्मोपदेश सुनकर ब्रत ग्रहण किया। व्रती श्रावक होचुकनेपर संप्रतिने धर्म प्रभावनाकी भोर बड़ी दिलचस्पीसे ध्यान दिया। पहिले वह दिग्विजय पर निकला और उसने अफगानिस्तान, तुर्क, ईरान मादि देश जीते। मपनी दिग्विजयसे लौटनेपर संपतिने नैनधर्म प्रभावक भनेक कार्य किये । कहते हैं कि उसने सवालाख नवीन जैन मंदिर बनवाये, दो हजार धर्मशालायें निर्माण कराई, सवा करोड़ जिनबिम्बोंकी स्थापना कराई, ग्यारह हजार वापिका और कुण्ड खुदवाये तथा छत्तीस हजार स्थानोंमें जीर्णोद्धार करावा १-परि• पृ. १४ व जैसासं• मा.१ पृ. ८-९ वीर वंशयहां संप्रतिको कौरवकुल मोरियवंशका लिया है। २-गुखापरिन. - ३। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य साम्राज्य । [२९५ था। मालूम नहीं इस गणनामें कहांतक तथ्य है ! किंतु वर्तमान जैन मंदिरों में बहुत ही कम ऐसे मिलते हैं, जिनको लोग संपतिका बनवाया हुमा मानते हों। राजपूताना और गुजरातमें इन मंदिरोंकी संख्या अधिक बताई जाती है। परन्तु अभीतक कोई भी ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं मिला है, जिससे इन मंदिरोंको संप्रति द्वारा निर्मित स्वीकार किया जासके । यह सब मंदिर संप्रतिसे बहुत पीछेके बने हुये प्रगट होते हैं । (राइ. भा. १ पृ. ९१) जो हो, यह स्पष्ट है कि संपतिने जैनधर्म प्रभावनाका स्वास उद्योग किया था और उन्होंने जैन उपदेशक देश विदेशमें भेजे थे। वहांके निवासियोंको ननधर्ममें दीक्षित कराया था। 'तीर्थकल्प' से प्रकट है कि उन्होंने बनार्य देशोंमें भी बिहार (मंदिर) बनवाये थे । ( राइ• मा. १ ए. ९१) दुःख है कि अशोककी तरह संप्रतिके कोई भी लेख बादि नहीं मिलते हैं, जिससे उनके धर्मप्रभावक मुरुल्योंका पता चल सके। तो भी जैनधर्मके लिये संप्रति दुसरे कान्सटिन्टायन थे । उनने सौ वर्षकी बायु तक नैनधर्म और राज्यसेवन करके स्वर्गमुख गम किया था। दिगम्बर जैन मॅथोंने राना संपतिका कोई उल्लेख देखनेको संप्रति मोर उसके नहीं मिलता है। संप्रतिके परपितामह समयका जैन संघ। सम्राट चंद्रगुप्तका उल्लेख दोनों ही संप. १-सासं• मा• १ बोरवंश पृ. ८ । २-परि० पृ. ९४, जैसासं. मा. बोरवंश पृ. १ पाटलीपुत्र पत्पन्ध, यथा:-"कुणालमहानि हमरताविषः परमाईतो, बनार्वदेवपि प्रतितः अमनविहारः सम्पतिमहाराबोडमवत ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] संक्षिप्त जैन इतिहास । दायोंके शास्त्रों में है। किंतु संप्रति का उल्लेख केवल एक संप्रदायके शास्त्रों में होना, संभवतः संघभेदका द्योतक है । वि० सं० १३९में दिगंबर और श्वेताम्बर भेद जैनसंघमें प्रगट हुआ था; तबतक दिग. म्बर जैन दृष्टिके अनुसार अर्घफालक नामक संप्रदाय का अस्तित्व जैनसंघमें रहा था। मथुराकी मूर्तियोंसे इस संप्रदायका होना सिद्ध है। अतएव यह उचित जंचता है कि श्वेतांबरोंके इस पूर्वरूप 'अर्धफालक' संप्रदायके नेता आर्य सुहस्तिसूरि थे और संप्रतिको भी उन्होंने इसी संप्रदायमें मुक्त किया था। यही कारण है कि मुहस्तिसूरि और संप्रतिके नाम तकका पता दिगम्बर जैन शास्त्रों में नहीं चलता । सम्राट चन्द्रगुप्त का जितना विशद वर्णन और उनका आदर दिगंबर जैन शास्त्रों में है, उतना ही वर्णन और भादर श्वेतांवरीय ग्रन्थों में संप्रतिका है। हिंदुओंके वायु पुराणादिकी तरह बौद्धोंने भी संप्रतिका उल्लेख 'संपदी' नामसे किया है और अशोकके अंतिम जीवन में उसके द्वारा ही राज्य प्रबंध होते लिखा है। किंतु ऊपर जिस संघभेदका उल्लेख किया जाचुका है, उसके होते हुये भी मालूम होता है. कि मूल जैन मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं पड़ा था। श्री आर्य मुहस्तिमूरिके गुरुभाई श्री मार्य महागिरिने जिनकल्प ( दिगम्बर भेष )का आचरण किया था । जैनमूर्तियां ईसवीकी प्रथम शताब्दि तक और संभवतः उपरांत भी बिल्कुल नग्न (दिगम्बर भेष ) में बनाई जाती थीं। दिगम्बर जैनोंके मतानुसार भद्रबाहुनीके चाद वि. १-जैहि. भा. १३ १० २६५ । २-भद्रबाहुचरित्र . ६६। ३-वीर वर्ष ४ पृ. ३०७-३०९। ४-अशोक, पृ० २६५। ५-परि० पृ० १२! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [२९७ शाखाचार्य, प्रोष्ठिळ, क्षत्रिय, जय मादि दस पूर्वधारी मुनि हुये थे। संप्रटिके समयमें संभवतः क्षत्रिय अथवा जयाचार्य विद्यमान होंगे। श्वेताम्बरोंका कथन है कि महावीरजीसे २२८ वर्ष बाद जैन . संघमें गंग नामक पांचवां निहन्व उत्पन्न हुमा सेठ सुकुमाल । ' था; किंतु वह भी निष्फल गया था। उज्जनीके प्रसिद्ध सेठ सुकुमालको भी वह इसीसमय हुये अनुमान करते हैं, परंतु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि इससमय मोक्षमार्ग बन्द था । ___ मंप्रतिके बाद मौर्यवंशमें पांच राजा और हुये थे । परन्तु अन्तिम मौर्य राजा और उनके विषयमें कुछ भी विशेष वृतान्त मौर्य साम्राज्यका अन्त । मालूम नहीं होता । इनमें सर्व अंतिम राजा वृहद्रथ नामक थे। सन् १८४ ई० पृ०में यह अपने सेनापति पुष्पमित्रके हाथसे मारा गया था। और इनके साथ ही मौर्य वंशकी समाप्ति होगई ! अशोकके बाद ही मौर्य साम्राज्यका पतन होना प्रारम्भ होगया था, यह हम पहिले लिख चुके हैं। अशोकके उत्तराधिकारियों में कोई इस योग्य नहीं था जो समूचे साम्राज्यकी वाग्डोर अपने सुदृढ़ हाथों में ग्रहण करता । मालूम होता है कि पूर्वीय भागमें अशोकका पोता दशरथ राज्याधिकारी रहा था, और पश्चिमकी ओर संप्रति मुयोग्य रीतिसे शासन करता रहा था। हिन्दु पुराणोंसे विदित है कि इसी समय शुद्ध-वंशने रानविद्रोह किया था। मौर्य साम्राज्यके पतनका यह भी एक कारण था। कट्टर ब्राह्मण अवश्य ही संप्रतिके जनधर्म प्रचारके कारण उनसे असंतान ये। इनके अतिरिक्त और भी कारण थे, जिनके परिणामहप मौर्य : इऐ० भा० २१ पृ. ३३५। २-जैसासं० मा०१ वीर वैश. पृ. .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] संक्षिप्त जैन इतिहास । साम्राज्य छिन्नभिन्न होगया ! मध्य भारत, गंगाप्रदेश, आंध्र और कलिङ्गदेश पुनः अपनी स्वाधीनता प्राप्त करनेकी चेष्टा करने लगे थे । सीमांत प्रदेशोंका यथोचित प्रबन्ध न होनेके कारण विदेशीय आक्रमणकारियोंको भी अपना अभीष्ट सिद्ध करनेका अवसर मिला था। मौर्यवंशकी प्रधान शाखाका यद्यपि उपरोक्त प्रकार अंत हो उपरांत कालके गया था, किन्तु इस शाखाके वंशज जो मन्यत्र मौर्य वंशज । प्रांतोंमें शासनाधिकारी थे, वह सामन्तोंकी तरह मगध और उसके भासपासके प्रदेशोंमें ई. सातवीं शताब्दि तक विद्यमान थे। ई० ७वीं शताब्दिमें एक पुराणवर्मा नामक मौयवंशी राजाका उल्लेख मिलता है। किन्हीं अन्य लेखोंसे मौर्योका राज्य ईसाकी छठी, सातवीं और माठवीं शताब्दितक कोकण और पश्रिमी भारतमें रहा प्रगट है। ई० सन् ७३८ का एक शिलालेख कोय (राजपूताना)के कंसवा ग्राममें धवल नामक मौर्यवंशी राजाका मिन्म है। इससे ईसाकी माठवीं शताब्दिमें राजपूतानेमें मौर्यवंशके सामंत रानाभोंका राज्य होना प्रगट है।' चितौड़का किला मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) का बनाया हुमा है।' चित्रांग तालाव भी इन्हींका बनाया हुमा वहां मौजूद है। कहते हैं कि मेवाड़के गुहिक बंशीय राजा बापा (कालभोन)ने मानमोरीसे चित्तौड़गढ़ लिया था। मामकल राजपूतानेमें कोई भी मौर्यवंशी नहीं है। हा, बम्बईके खानदेशमें बिन मौर्य राजाओंका राज्य था, उनके वंशन अबतक दक्षिणमें पाये जाते हैं और मोरे कहलाते हैं। १-भाइ. पृ• ०५।२-माप्रारा., भा. २. १९९१-कुमार पाल प्रवन्ध, पब -- . --...st Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य-साम्राज्य। [ २९९ मौर्योके सेनापतिने बृहद्रथ मौर्यकी हत्या करके मगधर्म अपना राज्य जमा लिया। इसका वंश 'शुङ्गवंश के नामसे शुङ्ग वंश। - प्रसिद्ध हुमा। कहते हैं कि इस वंशका राज्य ११२ वर्ष तक रहा। पुष्पमित्रके समयमें यूनानी राना मैनेन्डरने भारतपर माक्रमण किया, परन्तु उसे पीछे लौट जाना पड़ा था।' नैन सम्राट् खारवेलने पुष्पमित्र पर आक्रमण किया था, जिसके कारण पुष्पमित्रको मगध छोड़कर मथुरा भाग जाना पड़ा था। नैन धर्मके प्रभावक मौर्य रानवंशका असमयमें ही पन्त करनेवाले राजद्रोही व्यक्तिको एक नैन राना मानन्दसे कैसे रहने देता ! पुङ्गवंशके बाद सन् ७३ ई० पृ०में वसुदेव काण्वसे काण्ववंश' का जन्म हुमा था। काण्ववंशके मन्तिम राजाको सन् २.ई.. पृ.के लगभग एक मान्ध्रवंशीय रानाने मार डाला था। मञ्चोककी मुत्यु के बाद ही मात्र राज्य स्वाधीन होगया था और इस समय उसका विस्तार बहुत क्दगया था। किन्तु उत्तरी भारतमें वह मषिक दिन तक न टिक सके। यूनानी और सिथियन शासकोंने उन्हें जीव निकाल बाहर कर दिया था। बाद. ..१२-चा. . .. -माह. ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ____२) & gmmmmmmmmmmmmommmmg है बाबू कामताप्रसादजी रचित ग्रंथ-है Samamimom mmmmm.manand है भगवान महावीर २) है भगवान महावीर व महात्मा बुद्ध १॥) है । संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग) महारानी चेलनी है भगवान पार्श्वनाथ सत्य मार्ग हैं नवरत्न पंचरत्न तैयार होरहा है। विशाल जैन संघ ।) है जैन जातिका हास, उन्नतिके उपाय।)है है जैनधर्म सिद्धान्त है भगवान महावीर व उनका उपदेश ।) है । जैन मुनिकी नग्नता है rammmmmmmomsomain मिलनेका पता। मैनेजर, दिगंबरजैन पुस्तकालय-सूरत ।। ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmo mmmmwwwwwwwwwwwwwwwwmmmn Kle 78 AFT prwww Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Els Phile 1 boilers “दिगंबर जैन" सारे जैनसमाजमें 25 वर्षसे सुप्रसिद्ध, हिन्दीगुजराती भाषाका मासिकपत्र / वर्षारम्भमें सचित्र खास अङ्क और बड़े 2 उपाहर प्रन्थ देनेवाला यही सबसे सस्ता मासिकपत्र है। वार्षिक मूल्य उपहारी पोस्टेज सहित ) नमूना मुक्त। मैनेजर, दिगम्बर जैन-मूरत। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com