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________________ ६२] संक्षिप्त जैन इतिहास । श्वेताम्बर शास्त्रोंमें इसके अतिरिक्त भगवानपर अन्य बहु तसे उपसर्ग होने का वर्णन मिलता है; किन्तु अन्य उपसर्ग। - उनमें ऐतिहासिक तत्त्व बहुत कम होने और उनमें मात्र भगवानके कठोर तपश्चरण और महान् सहनशीलताको प्रगट करने का मूल उद्देश्य रहने के कारण उनको यहांपर लिखना अनावश्यक है । सचमुच भगवान् महावीरके जीवन का महत्व उनकी इस कष्टसहिष्णुतामें नहीं है, प्रत्युत उस आत्मबल और देह विरक्तिमें है, जहांसे इस गुणका और इसके साथ २ और भी कई गुणोंका उद्गम हुआ था । एकवार अपने अनुपम सौन्दर्यसे विश्वको विमोहित करनेवाली अनेक सुन्दर सलोनी देवरमणियां महावीरजीके यास आकर रास रचने लगी और नानाप्रकारके हावभाव, कटाक्ष और मोहक अंग विशेषसे वे अपनी केलि-कामना प्रगट करने लगी, कि जिसे देखकर किसी साधारण युवा तपस्वीका स्खलित होजाना बहुत सम्भव था; किन्तु भगवान् महावीरपर इस कामसन्यका भी कुछ असर न हुआ। महावीर भजेय थे । फलतः देव. रमणियां अपनाता मुँह लेकर चली गई। यह घटना उनके आत्मबल और इंद्रिय निग्रहकी पूर्णताकी द्योतक है। श्वेताम्बरोंके 'भगवतीसूत्र' में कथन है कि गृह त्यागकर दुसरे वर्ष जब भगवान् छद्मस्थ दशामें राजगृह के मक्खलि गोशाल। निकट नालन्दा नामक गांवमें विराजमान थे; तब मक्खलिपुत्र गोशाल नामक एक भिक्षु भी भगवानके अतिशयको और राजगृहके श्रेष्ठी विनय द्वारा उनका विशेष भादर होता १-चमम० पृ. १५४-१५५ । ६-भगवती १५-उद० Appendix. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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