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________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । मान्यताकी पुष्टि जनसम्राट् खारवेलके हाथीगुफावाले प्राचीन शिलालेखसे भी होती है जिसमें लिखा है कि श्रुतज्ञान मौर्यकालमें लुप्त होगया था, उसका पुनरुद्धार करनेके लिये सम्राट् खारवेलने ऋषियों की एक सभा बुलाई थी और उसमें अवशेष उपलब्ध भङ्ग ग्रंथोंका संग्रह करके श्रुत विच्छेद होनेसे बचा लिया गया था। यह समय अंतिम दश पूर्वोके अंतिम जीवनकालके लगभग बैठता है और इसके बाद दिगम्बर जैनोंके भनुमार ग्यारह अंगधारी मुनियों का अस्तित्व मिलता है। यद्यपि भैनशास्त्रोंमें सम्राट खारवेल और उनके उपरोक्त प्रशस्त कार्यका उल्लेख कहीं नहीं है, किन्तु उक्त प्रकार दशपूर्वियोंके बाद ग्यारह अंगघारियोंका अस्तित्व मानकर अवश्य ही दिगम्बर जैन मान्यता इस बातका समर्थन करती है कि इस समय अंग ग्रंथोंका उद्धार किन्हीं महानुभावों हारा हुआ था । इस दशामें श्वेताम्बर संप्रदायके मतपर विश्वाप्त करना जरा कठिन हैनो दृष्टिव द अंगके अतिरिक्त शेष समूचे श्रुतज्ञानका अस्तित्व आज भी मानता है। श्वेतांबर ग्रन्थोंमें स्थूलभद्रको अंतिम नन्दराजाके मंत्री शकताम्बराचार्य डालका पुत्र लिखा है। निस समय शिक्षा पाकर, स्थूलभद्र। यह घरको लौटे तो उनके पिताने उन्हें एक वेश्याके सुपुर्द कर दिया। उसके पास रहकर स्थूलभद्र दुनियादारीके कामोंमें दक्षता पाने लगे। वेश्याके यहां रहते हुये बहुत समय व्यतीत होगया और इसमें धन भी बहुत खर्च हुमा। इनके छोटे भाई श्रीयकको अपने पिताकी यह लापरवाही पसंद न भाई। १-जविओसो, भा० १३ पृ. २३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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