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________________ - ~ ११०] संक्षिप्त जैन इतिहास । उसको संभाले और काममें ले । बम, आनंद ही आनंद है। ___ यह स्वावलम्बी जीवन का संदेश भगवान महावीरने उस सम. यके लोगोंको बताया था और इसको सुनकर उनमें नवस्फूर्ति और नवजीवन का संचार हुआ था । यही विजयमार्ग जैनधर्म है । इसमें कायरता और भीरुताको तनिक भी स्थान नहीं है । भगवानने स्पष्ट कहा था कि यदि तुम मेरे धर्ममें श्रद्धा लाना चाहते हो तो पहले निशङ्क होने का अभ्यास करलो। यदि तुम निशङ्क नहीं हो, तो विजयमार्गपर तुम नहीं चल सक्ते । जैनधर्म तुम्हारे लिये नहीं है । वह निशङ्क वीरों का ही धर्म है। भगवान महावीरका यह उपदेश जैनधर्मके पुरातन रूपरेखासे भगवान महावीर और कुछ भी विरोध नहीं रखता था। ऐसा ही अवशेष तीर्थङ्कर । उपदेश महावीरजीसे पहले हुये तेईस तीर्थकर एक दूसरेसे बिलकुल स्वाधीनरूप वैज्ञानिक ढंगपर अपने समयकी आवश्यक्तानुपार करते हैं। तीर्थकर स्वयंबुद्ध होते हैं और वह सर्वज्ञ दशामें सत्य धर्ममा प्ररूपण करते हैं । इसलिये उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म में परस्पर कुछ भी विरोध नहीं होता । वह मूलमें सर्वथा एक समान होता है और उनका विवेचित सैद्धांतिक अंश तो पूर्णतः कुछ भी पर पर बिपरीतता नहीं रखता है । व्यवहार कारिग्बन्धी नियमों में वह अवश्य है कि प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने ममनुका उसको निर्दिष्ट करता है। इसी कारण जैन शास्त्रोंमें कहा गया कि- "अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थकरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने 'छेदोपस्थापना संयमका उपदेश दिया है।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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