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________________ ॥ ॐ श्रीमहावीराय नमः ॥ संक्षिप्त जैन इतिहास । दूसरा भाग । ई० सन् पूर्व ६०० से ई० सन १३०० तक । प्राक्कथन । जनधर्म मनातन है । उसका प्राकृत रूप सरल सत्य है । जैन धर्मका उसका नामकरण ही यह प्रगट करता है । 'जिन्' प्राकृत रूप । शब्दसे उसका निकास है; जिसका अर्थ होता है 'जीतनेवाला' अथवा 'विजयी' । दूसरे शब्दों में विजयी वीरोंका धर्म ही जन धर्म है और यह व्याख्या प्राकृत सुमंगत है । प्रकृति में यह बात पर्गिक रीतिमे दृष्टि पड़ रही है कि प्रत्येक प्राणी विनयाकांक्षा रखता है । वह जो वस्तु उसके सम्मुख आती है, उसपर अधिकार जमाना चाहता है और अपनी विजयपर आनन्द, नृत्य करने को उत्सुक है । अबोध बालक भयानक से भयानक वस्तुको अपने काबू में लाना चाहता है। निरीह वनस्पतिको ले लीजिये। एक घास अपने पासवाली घामको नष्ट करनेपर तुली हुई मिलती है । इस वनस्पति में भी अवश्य नीव है; परन्तु वह उस उत्कृष्ट दशा में नहीं है, जिसमें मनुष्य है । किंतु इतना होते हुये भी वह प्रकृतिके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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