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________________ २०६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । सम्राट् चंद्रगुप्तने भद्रबाहुस्वामीसे सोलह स्वप्नोंका फल पूछा था; जिसे सुनकर वह मुनि होगये थे । बारह वर्षका अकाल जानकर सब दक्षिणको चले गये थे । इस चारित्र में भद्रबाहुजीको भी संघके सहित दक्षिणकी ओर गया लिखा है परंतु मार्ग में अपना अन्तसमय सन्निकट जानकर उनने संघको चोलदेशकी ओर भेज दिया था और स्वयं चंद्रगुप्ति मुनिके साथ वहीं रह गये थे । वहींपर उनका स्वर्गवास हुआ था | चंद्र1 गुप्ति मुनि कान्यकुब्जको चला आया था । कनड़ी भाषा के दो ग्रंथ 'मुनिवंशाभ्युदय' ( १६८० ई० ) और " राजाबलीकथे " (१८३८ ई०) में भी भद्रबाहु का वर्णन मिलता है । पहिले ग्रन्थ से यह स्पष्ट है कि केवली भद्रबाहु श्रमणबेलगोला तक आये थे और वहां चिक्कवेट्ट (पर्वत) पर रहे थे । एक व्याघ के आक्रमण से उनका शरीरान्त हुआ था । जैनाचार्य अईहलिकी आज्ञा से दक्षिणाचार्य भी यहां दर्शन करने आये थे । उनका समागम चन्द्रगुप्तसे हुआ था, जो यहां यात्रा के लिये आया था । इस ग्रन्थके अनुसार चंद्रगुप्त ने दक्षिण आचार्य से दीक्षा ग्रहण की थी । मालुम ऐसा होता है कि इस ग्रन्थके रचयिताने द्वितीय भद्रबाहुको चन्द्रगुप्तका समकालीन समझा है। यही कारण है कि वह अईहूलि आचार्यका नाम ले रहा है। किंतु चंद्रगुप्त के समकालीन द्वितीय भद्रबाहु नहीं होते | उनके समय में किसी भी चन्द्रगुप्त नामक राजाका अस्तित्व भारतीय इतिहास में नहीं मिलता । 'राजावली थे' में यह विशेषता है कि उसमें चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र का राजा प्रगट किया गया है। &... १- भरबाहु चरित्र पृ० ३१-३५ व ४९... · Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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