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________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [८९ उपदेश निमित्त मभागृह पहले ही बन गया था जिनमें अनेक कोट, वापी, तड़ाग, निन मंदिर, चैत्य, स्तूप, मानस्तम्भ आदिके अतिरिक्त भगवानकी मनमोहक 'गन्धकुटी' और बारह कोठे थे। इन कोठोंमें साधु-साध्वी, देव-देवांगना, नर-नारी और तिर्यंच-पशु भो समान भावसे बैठकर भगवानका अव्यावाष सुख-संदेश सुनते थे । इंद्र सभाननोंको भगवान की वाणी रूपी अमृतके लिये तृषातुर देखकर शीघ्र ही बड़ी कुशलता पूर्वक इन्द्रभूति गौतम और उनके भाई वायुभूति व अग्निमृतिको वहां ले आया। ___ वे भगवानका दिव्य उपदेश सुनकर जैनधर्ममें दीक्षित होगये और भगवानकी वाणीको ग्रहण करके उसकी अंग-पूर्वमय रचना इन्द्रमृतिने उसी रोज कर डाली थी। मनःपर्यय ज्ञानकी निघि उनको तत्क्षण मिल गई थी और वह भगवानके प्रमुख गणधर पदपर माप्तीन हुये थे । वायुमृति और अग्निमृति भी अन्य दो गणधर हुये थे। इनके अतिरिक्त भगवानके गणघर व अन्य शिष्य थे, उनका वर्णन अगाड़ीकी पंक्तियों में है । श्वे. शास्त्र कहते हैं कि भगवानका यह प्रथम समवशरण पाया नामक नगरीके बाहर रचा गया था; किन्तु दिगम्बर शास्त्र उसे रामगृहके निकट जम्भक ग्राममें बतलाते हैं। भब भगवान महावीरने उस सत्य संदेशको, मिसे उन्होंने भगवानके उपदेशका ढंग अत्यन्त कठिन तपश्श्यों के बाद प्राप्त किया मौर गपचार। था, प्राकृत रूपमें सारे विश्वको देना १-ममबु• पृ० ११०, व वीर भा. ५ पृ. २३०-२३४ । २-उ. पु. १५ । ३ नम• पृ. २१९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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