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________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । [४१ सेठानीके गृहकार्यमें पूरी सहायता देती थी; किंतु उसके अपूर्व झप लावण्यने सेठानीके हृदय में डाह उत्पन्न कर दिया और वह चन्दनाको मनमाने कष्ट देने लगी। उधर चन्दनाके भी कष्टोंका अन्त आगया । भगवान महावीरका शुभागमन कौशाम्बी में हुआ । दुखिया चन्दनाने उनको आहारदान देने की हिम्मत की। पतितपावन प्रमूका आहार चन्दनाके यहां होगया । लोग बड़े माश्चर्यमें पड़ गये । चन्दनाका नाम चारों ओर प्रसिद्ध होगया । कौशाम्बी नरेशकी पट्टरानीने जब यह समाचार सुने तो वह अपनी छोटी बहिनको बड़े मादर और प्रेमसे राजमहल में ले गई; किन्तु वह वहां अधिक दिन न ठहर सकी । भगवान महावीरके दिव्य एवं पवित्र चारित्रका प्रभाव उसके हृदयपर अंकित होगया। वैराग्यकी अटूट धारामें वह गोते लगाने लगी और शीघ्र ही वीरनाथके पास पहुंचकर उनने निनदीक्षा ले ली। आर्यिका चंदना खूब ही दुद्धर तप तपती थीं और उनका ज्ञान भी बड़ा चढ़ा था । उस समय उनके समान अन्य कोई साध्वी नहीं थी। मात्मज्ञानका पावन प्रकाश वह चहुंओर फैलाने लगी। फलतः शीघ्र ही उनको भगवानके आर्यिकासंघमें प्रमुखपद प्राप्त होगया था। वह ३६००० विदुषी साध्वीयोंक चारित्रकी देखभाल और उनको ज्ञानवान बनाने में संलग्न रहती थी। इसपकार स्वयं अपना भात्मकल्याण करते हुये एवं अन्योंको सन्मार्ग पर लगाते हुये, वह आयुके अंतमें स्वर्गसुखकी अधिकारी हुई थी। 1-3. पु., पृ. ६३७-६४.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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