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________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१५३ मुनियों की मिलती हैं। वह दातारके घर जाकर जो शुद्ध माहार विधिपूर्वक मिलता था, उसको ग्रहण कर लेते थे। यह बात नहीं थी कि वह भिक्षा मांगकर उपाश्रयमें ले आकर उसे भक्षण करते हों। भाजीविक साधु ऐसा करते थे। इसी कारण श्वेतांबरोंने उनपर माक्षेप किया है। एक बात और है कि उस समय मुनिधर्म पालन करने का द्वार प्रत्येक व्यक्तिके लिये खुला हुआ था। चोर, डाकू, व्यभिचारी, पतित इत्यादि पुरुष भी मुनि होकर मात्मकल्याण कर सके थे। अंजनचोरकी कथा प्रसिद्ध है-वह मुनि हुआ था। मूरदत्त डाकू मुनि होकर मुक्तधामका वासी हुआ था। सात्यकि व्यभिचार कर चुकने पर पुनः दीक्षित हो मुनि होगये थे। व्यभिचारजात रुद्र मुनि ग्यारह अंगका पाठी विद्वान् साधु थे। । ऐसे ही उदाहरण और भी गिनाये जातक्ते हैं, किंतु यही पर्याप्त हैं। इम उदारताके माथ२ उस समय जैन मुनियों में यह विशेषता और थी कि वह अष्टमी और चतुर्दशी इत्यादि पर्वके दिनों में बानारके चौराहों पर खड़े होकर मैनधर्मका प्रचार करते थे और मुमुक्षुओंकी शाओंका समाधान करके उनको जैनधर्म में दीक्षित करते थे। इस क्रिया द्वारा उनके अनेकों शिष्य होते थे । इन नव दीक्षित जैनोंके यहां बह माहार लेने में भी संकोच नहीं करते थे। भक्तामरचरित काव्य २१ की कथासे यह स्पष्ट है। उस समयके मुनि कड़े १-भमबु• पृ. ५४-६५ ॥२-औपपातिक सूत्र १२० । ३-भाक. मा० १ पृ. ७४ । ४.भा. मा० १ १० १५५ । ५-भाक. भा. २ पृ. १.0-1.0।-मधु १० २४.प.विवष्टिक। ७-जप, • पृ. २४. । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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