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________________ २००] संक्षिप्त जैन इतिहास । पुर तक बिना रोक्टोकके जातक्ते हैं । भाचार्य मन्दनीसने सिकन्दरके लिये यह भी उपदेश दिया था कि वह इन सांसारिक सुखोंकी भाशामें पड़कर चारों तरफ क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? उसके इस परिभ्रमणका कभी अन्त होनेवाला नहीं। वह इप्त पृथ्वीपर अपना कितना ही अधिकार जमाले, किन्तु मरती बार उसके शरीरके लिये साढेतीन हाथ नमीन ही बप्त होगी।' इन महात्माके मार्मिक उपदेश और जैन श्रमणों की विद्याका प्रभाव सिकन्दर पर बेढब पड़ा था। उसने अपने साथ एक साधुको भेननेकी प्रार्थना संघनायकसे की थी; किन्तु संघनायकने यह बात अस्वीकार की थी। उन्होंने इन जैनाचार हीन विदेशियोंके साथ रहकर मुनिधर्मका पालन अक्षुण्ण रीतिसे होना अशक्य समझा था। यही कारण है कि उनने किसी भी साधुको यूनानियों के साथ जानेकी माज्ञा नहीं दी। किन्तु इसपर भी मुनि कल्याण (कलॉनस) धर्मप्रचारकी अपनी उलट लगनको न रोक सके और वह सिकन्दरके साथ हो लिये थे। उनकी यह क्रिया संघनायकको पसंद न आई और मुनि कल्याणकको उनने तिरस्कार दृष्टिसे देखा था। भारतसे लौटते हुये, जिससमय सिकन्दर पारस्यदेशमें पहुंचा; कलोनसको विदेशमें तो वहकि सुप्ता (Susa) नामक स्थानमें समाधिमरण । इन महात्मा कलानसको एक प्रकारकी व्याधि जो अपने देशमें कभी नहीं होती थी होगई। इस समय ग्रहण करते है। उसके बदले में वह उसे कुछ भी नहीं देते। भोजनके नियममें वे भक्तजनका कोई भी उपकार नहीं करते। १-ऐइ. पृ० ७३ । २-सि भा०, मा० १ कि० ४ पृ० ५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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