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________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । गणराज्य 'वृज अथवा वन्जि' नामसे भी प्रसिद्ध था। इस राज्यमें सम्मिलित हुई सब जातियां आपसमें बड़े प्रेम और स्नेहसे रहती थी, जिसके कारण उनकी आर्थिक दशा समुन्नत होनेके साथ २ एकता ऐसी थी कि जिसने उन्हें एक बड़ा प्रभावशाली राज्य बना दिया था। मगधके बलवान राना इनपर बहुत दिनोंसे आंख लगाये हुये बैठे थे; किन्तु इनकी एकताको देखकर उनकी हिम्मत पस्त होजाती थी। अंतमें मगधके राना अजातशत्रुने इन लोगोंमें आपसी फूट पैदा करा दी थी और तब वह इनको सहज ही परास्त कर सका था । ऐक्य अवस्थामें उनका राज्य अवश्य ही एक आदर्श राज्य था वह प्रायः आनकलके प्रजातंत्र ( Republic) राज्योंके समान था। जहांवर लिच्छिवि-गण दरबार करते थे, वहांपर उनने 'टाउनहाल' बना लिये थे; जिन्हें वे 'सान्यागार' कहते थे । वृजि-रानसंघ जो जातियां सम्मिलित थीं, उनमें से सदस्य चुने जाकर वहां भेजे जाते थे और वहां बहुमतसे प्रत्येक आवश्यक कार्यका निर्णय होता था । बौद्ध ग्रन्थ इस विषयमें बतलाते हैं कि पहिले उनमें एक ‘ासन पञ्चाप' (मासन-प्रज्ञापक) नामक अधिकारी चुना जाता था, जो अवस्थानुपार आगन्तुकोंको आसन बतलाता था। उपस्थिति पर्याप्त हो जानेपर कोई भी आव. श्यक प्रस्ताव संघके सम्मुख लाया जाता था। इस क्रियाको 'नात्ति' (ज्ञाप्ति ) कहते थे। नात्तिके पश्चात प्रस्तावकी मंजूरों लीनाती थी, अर्थात उसपर विचार किया जावे या नहीं। यह प्रश्न एक दफेसे तीन दफें तो पुछा माता था। यदि १-मांद० पृ० ५९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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