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________________ लिच्छिवि आदि गणराज्य । [३१ ~~~~~~~~~~~~~~~~~ उसपर विचार करके सब सहमत होते थे, तो वह पास होनाता था; किन्तु विरोधके होनेपर वोट लेकर निर्णय किया जाता था । अनुपस्थित सदस्यका वोट भी गिना जाता था। इन दरवारोंकी कारवाई चार-चार सदस्य (राना) अंकित करते जाते थे। इनमें नायक अथवा चीफ मजिस्ट्रेट होते थे, जो राज्यसत्ता सम्पन्न कुलोंद्वारा चुने जाते थे। इन्हीं के द्वारा दरबार में निश्चित हुए प्रस्तावों को कार्यरूपमें परिणत किया जाता था। इनमें मुख्य राना (सभापति), उपराना, भण्डारी, सेनापति आदि भी थे । इनका न्यायालय भी विनकुल भादर्श ढंगका था; नहां दृघका दुध और पानी का पानी करने के लिये कुछ उठा न रक्खा जाता था। वृजि संघमें सर्व प्रमुख लिच्छिविक्षत्री थे। यह वशिष्ट गोत्रके लिच्छिविक्षत्रियोंका इक्ष्वाकुवंशी क्षत्री थे । इनका लिच्छिवि सामान्य परिचय। नाम कहांसे और कैसे किस काल में पड़ा, इसके जानने के लिये विश्वास योग्य साधन प्राप्त नहीं हैं; किंतु इतना स्पष्ट है कि निससमय भगवान महावीर इस संसारमें विद्यमान थे और धर्मका प्रचार कर रहे थे, उस समय वे एक उच्चवंशीय क्षत्री माने जाते थे। अन्यान्य क्षत्री उनसे विवाहसम्बन्ध करने में अपना बड़ा गौरव समझने थे। भगवान महावीरके पिता भी इन्हींके गणराज्य अर्थात 'वनिरानसंघ' में सम्मिलित थे। लिच्छिवि एक परिश्रमी, पराक्रमी और समृदिशाली नाति होने के साथ ही साथ पार्मिक रुचि और मावको रखनेवाली थी। यह लोग बड़े दयालु और परोपकारी थे । इनकी शग भाकृति मी सुडौल और सुन्दर १-मम०, पृ. ५०-६३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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