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________________ तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति। [१४९ न थे । वे साधु होकर कल्याणके कार्यमें लग जाते थे । सब लोग अपने २ वर्णके उपर्युक्त साधनों द्वारा ही आनीविकोपार्जन करते थे। किन्तु ऐमा करते हुये वे सचाई और ईमानदारीको नहीं छोड़ते थे । लाखों करोड़ों रुपयों का व्यापार दुर२के देशोंसे बिना लिखा पढ़ीके होता था। विदेह व्यापारका केन्द्र था। बनारस, गनगृह, तामृलिप्ति, विदिशा, उज्नैनी, तक्षशिला आदि नगर व्यापागके लिये प्रसिद्ध थे। रोहकनगर, सुरपारक ( सोपारा बम्बईके पाम) भृगुकच्छ (भड़ोंच) मादि नगर उस समयके प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। इन बन्दरगाह तक व्यापारी लोग अपना माल और सामान गाड़ियों में और घोड़ोंपर लाते थे और फिर नहाजों में भरकर उसे विदेशोंमें लेनाते थे । सेठ शालिभद्र और प्रीतिंकर आदिकी कथाभोंमें इसका अच्छा वर्णन मिलता है। उस समयके भारतीय व्यापारी लंका, चीन, जावा, बेबीलोनिया, मिश्र आदि देशोंमें व्यापारके लिये जाया करते थे और खूब धन कमाकर लौटते थे। उनके निनी जहान थे और वे मणि एवं मंत्रका भी प्रयोग करना जानते थे। संतानको अच्छे संस्कारोंसे संस्कृत करने का रिवाज भी चालू था। गरीब और ममीर सांपारिक कार्यो को करते हुये भगवद्भनन और जाप सामायिक करना नहीं मूलते थे। राना नेट युद्धस्थलमें मिनेन्द्र प्रतिमाके समक्ष पूना करते थे। किंतु प्रतों को पालते हुये भी लोग इष्टका १-मया• पृ. 16-४६ । २-हि. पृ. २१२ व जगएमे० १९२७ पृ.११।१.परि० भा० पृ. -४६ ४.इक्किा० मा. १ पृ. ६९३-६९६ प भा० २ पृ. ३०-४२. ५-प्र. पृ० २३० । प्र. पृ. २२८ । ७-जेप• पृ. २२८। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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