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________________ मौर्य साम्राज्य । [२७७ करके कोई भी प्राणी कृतपापके दोषसे विमुक्त होता है। उसे कायोसर्ग और उपवास विशेष रूपमें करने पड़ते हैं। जिनेन्द्र भगवानकी पूजन व दान भी यथाशक्ति करना होता है। अतएव कृत पापके दोषसे छूटनेके लिये अशोकने जो नियम निर्धारित किया था, वह नेनों के अनुसार है ! इस प्रकार स्वयं अशोकके शासन-लेखों तथापि पूर्वोल्लिखित स्वाधीन माक्षीसे यह स्पष्ट है कि मशोकका सम्बन्ध अवश्य जैन धर्मसे था। हमारे विचारसे वह प्रारम्ममें एक श्रावक (जैन गृहस्थ) था और अपने जीवन के अंतिम समय तक वह भाव अपेक्षा जैन था; यद्यपि प्रगटमें उसने उदारवृत्ति ग्रहण करली थी । ब्राह्मणों, माजीविकों और बौद्धोंका भी वह समान रीतिसे आदर करने लगा था। मालूम होता है कि बौद्ध धर्मकी ओर वह कुछ अधिक सदय हुआ था। यद्यपि उसके शासन लेखोंमें ऐसी कोई शिक्षा नहीं है नो खास बौदोंकी हो। अकबरके समान “दीन इलाही" की तरह यद्यपि अशोकने कोई स्वतंत्र मत नहीं चलाया था, तौमी उसकी अंतिम धार्मिक प्रवृत्ति अकबरके समान थी। मैन ‘अकबरको जैनधर्मानुयायी हुमा प्रकट करते हैं। यह ठीक है कि अशोकके विषयमें जैन शास्त्रोंमें सामान्य वर्णन है किन्तु इससे १-देखो प्रायश्चित्त संग्रह-माणिकचन्द प्रन्थमाला । २-अप. पू. १६१-पष्ठम स्तम्भ लेख । ३-मैबु. १.११२; सेनार्ट; इऐ• मा०२० पृ. २६. समीयो० मा. १७ पृ. २७१-२७५ । ४-अशोक साफ लिखता है कि 'मेरे मत' में भवता 'मेरा उपदेश है (१-२ कलिंग शिलान बम सप्तम स्तम्म डेस) भवः उनका निजी मत किसी सम्प्रवास विशेषसे भन्तमें भवलंबित नहीं था। ५-असू. पृ० १९.। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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