SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर । [९७ भी नैनों की प्राचीन कीर्तियां विशेष मिलती हैं। बौद्ध और जेनों में इस स्थानकी मालिकी पर पहिले झगड़ा भी हुआ था* | उप्त समयके लगभग कांपिल्यके राजा हिमुख अथवा जय प्रख्यात् थे । उनके पास एक ऐसा त न था कि उसको सिरपर धारण करनेसे राजाके दो मुख दृष्टि पड़ते थे ! इस तानको उनके राजा प्रद्योतने मांगा था । जयने इसके बदले में प्रद्योतसे नलगिरि हाथी, स्थ, व रानी और लोहनंघ लेखक चाहा था । हठात् दोनों राजाओंमें युद्ध छिड़ा; जिसका अन्त पारस्परिक प्रेममें हुआ था । प्रद्योतने मदनमंजरी नामक एक कन्या जय राजासे ग्रहण की थी और वह उनको वापस चला गया था । राजा जय जैन मुनि हुये थे। श्वेताम्बर शास्त्रों में उनको प्रत्येकबुद्ध लिखा है । कांपिल्यसे अगाडी बढ़कर भगवान का समोशरण उस समयको उत्तरमथरामें भगवानका एक प्रख्यात नगरी सौरदेशकी राजधानी शुभागमन । उत्तर मथुरामें पहुंचा था। उस समय भी वहांपर जैनधर्मकी गति थी। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ नीके समय का बना हुआ एक सुन्दर स्तूप और चैत्यमंदिर वहां मौजूद था । भगवान के धर्मोपदेशसे वहां ' सत्य ' ग्यच प्रकाशमान हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि उस समय मथुरा पमोदय रानाके पुत्र उदितोदय राज्यःविकारी थे । बौडशास्त्रों में यहांक नृपको "अवन्तिपुत्र" लिखा है। संभव है कि दोनों रानकुलोंमें परस्पर सम्बंध हो । उदितोदयका रानसेठ अईदास अपने सम्यक्त्वके लिये ____* वीर वर्ष 1 १० ३३६ । १-हिटे० पृ० १४० । २-पकौ• पृ० ।। ३-हिइ०, पृ० १८५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035243
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1932
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy