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संक्षिप्त जैन इतिहास |
हैं, जिसप्रकार उनका यह कहना कि अशोक अपने भाई-बहिनों के निरपराध खुनसे हाथ रङ्गकर सिंहासन पर बैठा था । किन्तु इनसे भी इतना पता चलता है कि अशोक के घरानेमे जैनधर्मकी मान्यता अवश्य थी ।
किन्हीं विद्वानों का मत है कि जैनधर्म और बौडमतका प्रचार धर्म-प्रचार भारतीय होजानेसे एवं सम्राट अशोक द्वारा इन वेद विरोधी मतका विशेष आदर होनेके कारण
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भारतीय जनता में सांप्रदायिक विद्वेषकी जड़ जम गई; जिसने भारतकी स्वाधीनताको नष्ट करके छोड़ा। उनके खयाल से बौद्धकाल के पहिले भारत में सांप्रदायिकताका नाम नहीं था और वैदिक मत अक्षुण्ण रीतिसे प्रचलित थे किन्तु यह मान्यता ऐतिहासिक सत्यपर हरताल फेरनेवाली है भारतमें एक बहु प्राचीनकाल से जैन और जैनेतर संप्रदाय साथ २ चले आ रहे हैं। वैदिक धर्मावलंबियोंमें भी अनेक संप्रदाय पुराने जमाने में थे । * किन्तु इन सबमें सांप्रदायिक कट्टरता नहीं थी; जैसी कि उपरांत कालमें होगई थी । भगवान महावीर तक एवं मौर्यकालके उपरांत कालमें भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं; जिनसे एक ही कुटुम्बमें विविध मतोंके माननेवाले लोग मौजूद थे। यदि पिता बौद्ध है, तो पुत्र जैन है। स्त्री वैष्णव है तो पति जैनधर्मका श्रद्धानी है। अतः यह नहीं कहा जाता कि मौर्यकालसे ही सांप्रदायिक विद्वेषकी ज्वाला मारतीय जनता घघकने लगी थी । यह नाशकारिणी भाग तो मध्य
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पतनका कारण
नहीं है ।
१ - इंऐ०, भा० ९ पृ० १३८ । २ - देखो हिस्ट्री ऑफ प्री० बुद्धिस्टिक इंडियन फिल्सफी । ३ - इंहिका० भा० ४ १० १४८ - १४९ ।
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