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संक्षिप्त जैन इतिहास |
अशोक यह अन्यत्र प्रगट कर चुके हैं कि वह प्रत्येक धर्मावलम्बीको अपने ही धर्मका पूर्ण आदर करना उचित समझते हैं । इसके अतिरिक्त उस लेखमें कोई भी ऐसी बात या उपदेश नहीं है जिससे बौद्धधर्मका प्रतिभास हो । तिसपर इस लेख के साथ ही उपरोक्त रूपनाथका शिलालेख लिखा गया था। इन दोनों शिकालेखों में पारस्परिक भेद भी दृष्टव्य है । रूपनाथ वाले शिलालेख में कुछ भी बौद्धधर्म विषयक नहीं है; यह बात मि० हेरस भी प्रकट करते हैं । '
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वह ठीक नहीं है । यहां
यह भी कहा जाता है कि अशोकने अपनी प्रथम धर्मयात्रा मे कई बौद्ध तीर्थों के दर्शन किये थे । किन्तु आठवें शिलालेख में प्रयुक्त हुये 'सम्बोधि' शब्दसे जो म० बुद्ध के 'ज्ञानप्राप्तिके स्थान '' (बोधिवृक्ष) का मतलब लिया जाता है, सम्बोधि से भाव 'सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे' है । जैन शास्त्रों में 'बोध' का पालेना ही धर्माराधनमें मुख्य माना गया है। अशोकके यह 'बोधिलाभ' उनके राज्याभिषेक के बाद दशवें वर्ष में हुआ था। हां, अपने राज्यप्राप्तिसे बीसवें वर्ष में अशोक अवश्य म० बुद्धके जन्मस्थान लुम्बिनिवनमें गये थे और वहां उनने पूजा-अर्चा की थी और उस ग्रामवासियोंसे कर लेना छोड़ दिया था । इसके 1 पहिले अपने राज्यके १४ वें वर्ष में वह बुद्धको नाकमन ( कनकमुनि)
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१ - जमीसो० भा० १७ पृ० २७४-२७५ । २ -- इंऐ०, १९१३, पृ० १५९ । ३- अघ० १० १९७ । ४- सेयं भवमय महणी बोधी गुणबित्थज मगे लढा । जदि पडिदा ण हु सुलहा तया ण समं पमादो मे ॥७५८॥ - मूळाचार• । ५-अध० पृ० ३८३- कम्मिन देई स्तम्भ लेख • १४
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