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मौर्य साम्राज्य ।
[२७१ (१५) द्विपदचतुपदेषु पक्षिवारिचरेषु-( दुपदचतुपदेश पखिवालिचलेसु) वाक्य द्वितीय स्तम्भ लेखमें मिलता है । यहां पशुओंके भेद गिनाये हैं, जिनपर अशोकने अनुग्रह किया था और यह नोंके तीन प्रकारके बताये हुये तिर्यचोंके समान हैं । जैनोंके पंचेन्द्रिय नियंच जीव (१) जलचर (२) थलचर और (३) नमचर इस तरह तीन प्रकारके हैं।
(१६) जीवनिकाय शब्द-पंचम स्तम्भ लेखमें आया है और इस रूपमें इसका व्यवहार जैनोंके शास्त्रोंमें हुआ मिलता है।
(१७) प्रोषध शब्द पंचम स्तम्भलेखमें है और जैनोंमें यह प्रोषधोपवास खास तौरपर प्रतिपादित है।
(१८) धर्मदृद्धि शब्द षष्टम स्तम्भलेखमें प्रयुक्त है । जैन साधुओं द्वारा इस शब्दका विशेष प्रयोग होता है और नैनोंको धर्मवृद्धिका विशेष ध्यान रहता है।
हम प्रकार जनोंके उपरोक्त खास शब्दों का व्यवहार करनेसे समान भी अशोकका जैन होना प्रमाणित है। तिससिमांत जैनमता- पर उनके शान लेखोंसे जिन धार्मिक सिद्धां
नुसार हैं। न्तों में उनका विश्वास प्रगट होता है, वह भी जैनधर्मके भनुकूल है। जैसे:
(१) अशोक प्राणियों के अच्छे बुरे कामों के अनुसार मुखदुलरूप फल मिलना लिखने हैं। वह पापसाको एकमात्र १-"यिये प्रचलताय मया प्रमादा
देकेन्द्रियप्रमुख जीनिक्लब बाधा।' इत्यादि । २-IMणमापकाचार ४-16 म०।३-चार वर्ष ५० ३९२। ४-चतुर्ष, नरम एi प्रयोदश शिलारेस-अमेसो. मा. "पृ० २५९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com