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संक्षिप्त जैन इतिहास |
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को माहार देते थे ।' उनके एकसे अधिक रानियां थीं । रानी सुप्रभा उनमें प्रधान थी। एक रानी वैश्य वर्णकी थी जिसका भाई पुष्पगुप्त गिरनार प्रांतका शासक था। उस समय राजाके निकट सम्बंधियोंको विविध प्रांतों में शासक नियत करनेका रिवाज था । तीसरी रानी विदेशी यवन राजा सिल्यूकसकी पुत्री थी । यवन लोगों को यद्यपि माज म्लेच्छ समझते हैं, किन्तु मालूम होता है, उस समय उनके साथ विवाह सम्बंध करना अनुचित नहीं
समझा जाता था ।
इन तीन रानियों के अतिरिक्त उनके और भी कोई रानी थी, यह विदित नहीं है । सम्राट् चन्द्रगुप्तका पुत्र और उत्तराधिकारी बिन्दुसार था । 'राजाबलीकथे' में शायद इन्हींका नाम सिंहसेन लिखा है ।" इनके अतिरिक्त चन्द्रगुप्तके और कोई संतान थी, यह मालूम नहीं है । इस प्रकार गार्हस्थिक आनन्द का उपयोग करते हुये भी चंद्रगुप्त निशङ्क नहीं थे। गुप्त षड्यंत्रों के कारण उन्हें सदा ही अपने प्राणोंका भय लगा रहता था । उनके पास प्रचुर धन था और ठाठबाटका सामान भी खूब थी !
जैन शास्त्रोंसे प्रगट है कि सम्राट चंद्रगुप्त जैन धर्मानुयायी थे। वह दिगम्बर जैन मुनियों (निर्यथश्रमणों) चन्द्रगुप्त जैन थे । की वन्दना-पूजा करते थे और उनको विनयपूर्वक आहारदान देते थे । जैन ग्रन्थोंके इस वक्तव्यका समर्थन
१ - जरा एसो० भा० ९ १० १७६ । २ - श्रवण० पृ० २८ । ३ - संप्रामा० पृ० १७८ | ४- भाइ० पृ० ६७ । ५-भ्रमण०, पृ० ३१ । ६- माइ० पृ०. ६६ । ७ - अवण० पृ० २५-४० ।
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