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संक्षिप्त जैन इतिहास |
जैन अहिंसा है जो हर हालत में प्राणीवर्षकी विरोधी है और एक व्यक्तिको पूर्ण शाकाहारी बनाती है ।
उस समय वैदिक मतावलंबियों में मांसभोजनका बहुप्रचार था और बौद्धलोग भी उससे परहेज नहीं रखते थे । म० बुद्धने कई चार मांसभोजन किया था और वह मांस खास उनके लिये ही लाया गया था । अतएव अशोकका पूर्ण निरामिष भोजी होना ही उसको जैन बतलानेके लिए पर्याप्त है । इस अवस्थामें उसे जन्मसे ही जैनधर्मका श्रद्धानी मानना अनुचित नहीं है । जैन ग्रन्थोंमें उसका उल्लेख है और जैनोंकी यह भी मान्यता है कि श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरिपर उसने अपने पितामहकी पवित्रस्मृति में चंद्रवस्ती आदि जैन मंदिर बनवाये थे ।
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'राजाबली कथा' में उसका नाम भास्कर लिखा है और उसे अपने पितामह व भद्रबाहु स्वामीके समाधिस्थान की वंदना के लिये श्रवणबेलगोल आया बताया है। (जैशि सं०, भूमिका ८० ६१ ) अपने उपरान्त जीवनमें मालूम पड़ता है कि अशोकने उदारवृत्ति ग्रहण करली थी और उसने अपनी स्वाधीन शिक्षाओंका प्रचार करना प्रारंभ किया था; जो मुख्यतः जैन धर्मके अनुसार थी । यही कारण प्रतीत होता है कि जैन ग्रंथोंमें उसके शेष जीवनका हाल नहीं है। जैन दृष्टिसे वह वैनयिक रूपमें मिथ्यात्व ग्रसित हुआ कहा जाता है; परन्तु उसकी शिक्षाओं में जैनत्व कूट२ कर भरा हुआ मिलता है। उसने बौद्धों, ब्राह्मणों और भाजीविकोंके साथ
१- भमबु० पृ० १७० । २ - राजावली कथा और परिशिष्ट प ( पृ० ८७) ३- हिवि० भा० ७ पृ० १५० ।
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