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मौर्य साम्राज्य ।
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उपदेश जैन शास्त्रोंमें मिलता है। सब जीवोपर दया करना, दाम देना, गुरुओंकी विनय और उनकी मूर्ति बनाकर पुना करना, रुत्पापोक लिये प्रतिक्रमण करना और पर्व दिनों में उपवास करना एक श्रावकके लिये भावश्यक कर्म है।
अशोक यह भी कहते हैं कि धर्मको चाहे सर्व रूपेण पालन करो और चाहे एक देशरूप, परन्तु करो अवश्य ! और वह यह मी बतला देते हैं कि सर्वरूपेण धर्मका पालन करना महाकठिन है। यहांपर उन्होंने स्पष्टतः न शास्त्रों में बताये हुये धर्मके दो मेद-(१) अनगार धर्म और (२) मागार धर्मका उल्लेख किया है। मनगार-श्रमण धर्ममें धार्मिक नियमों पूर्ण पालन करना पड़ता है; किन्तु सागार धर्ममें वही बातें एक देश-मांशिक रूपमें पाली जाती है। इस अवस्था अशोकका पारलौकिक धर्मके लिये जो बातें मावश्यक बताई हैं, उनसे भी नैनोंको कुछ विरोध नहीं है। क्योंकि वह सम्यक्त्वमें बाधक नहीं हैं।' तिसपर जैन शास्त्रोंमें उनका विषान हुमा मिलता है । अशोक लौकिक धर्मके हो लिये कहते है कि:
(१) माता-पिताकी सेवा करना चाहिये। विद्यार्थीको भाचा१-ल्पसूत्र पृ० ३२-जराएपो० मा० १ पृ० १७२ फुटनोट । २-अध. १. १०९-सप्तम शिला• । ३-अप. पृ. २२०-शि. "। . ४-अष्टपाहुड पृ. ९४ ३ ९९
५-दो हि धो गृहस्पाना लौकिक: पारलौशिकः ।
लोडाप्रो मवेदायः परः स्यादागमाश्रयः ॥ सर्व एव हि नानां प्रमाणं लोको विधिः । यत्र सम्पकत्व हानि यत्र बतषणम ॥"
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