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मौर्य-साम्राज्य। [२६१ (१) संयम और मावशुद्धिका होना आवश्यक है। मशोक कहते हैं कि जो बहुत अधिक दान नहीं कर सक्ता उसे संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता और हद भक्तिका सम्याप्त अवश्य करना चाहिये। एक श्रावकके लिये देव और गुरुकी पूना करना और दान देना मुख्य कर्तव्य बताये गये हैं। अशोकने भी ब्राह्मण और श्रमणोंका आदर करने एवं दान देने की शिक्षा जनसाधारणको दी थी। यदि वह दान न देसकें तो संयम, भावशुद्धि और दृढ़ भक्तिका पालन करें। नैनधर्ममें इन बातोंका विधान खास तौरपर हुमा मिलता है । संयम और भावशुद्धिको उपमें मुख्यस्थान प्राप्त है।'
(६) अशोककी धर्मयात्रायें -स्व-पर कल्याणकारी यो।' उनमें श्रमण और ब्रह्मणों का दर्शन करना और उन्हें दान देना तथा ग्रामवासियों को उपदेश देना और धर्मविषयक विचार करना बावश्यक थे। जैन संघका विहार इसी उद्देश्यसे होता है । जैन संघ श्रावक-श्राविका साधुजनके दर्शन पूना करके पुण्य-बन्ध परते हैं और उन्हें बड़े भक्तिभावसे माहार दान देते हैं। साधुनन अथवा उनके साथ पंडिताचार्य सर्व साधारणको धर्मका स्वरूप
१-अप. पृ. १८९-सप्तम शिना । २-दाणं पूजा मुक्खं सावय धम्मो, ग मावगो तेण विणा ।-कुंदकुंदाचार्य। ३-अध• पृ. १९७ व २११-अष्टम व नवम् शिला-अ.पण और प्रमण' का प्रयोग पहिले गाधारणतः साधुजनको लक्ष्य कर किया जाता था। ४-'भावो कारणमृदो गुणदोषानं जिणाविति। -अष्टपाहुइ पृ. १६२। 'संघम जोगे जुतो वो तवसा चेहद भणेगविध ।
सो कम्मणिज्जाए विउलए बहरे जीवो ॥२४२०५॥-मुलाचार । ५-अप. पृ. १९६-भारमशि.।
11 अष्टम व नवम्
शिदकुंहाचाप। ३-अवसाय
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