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मौर्य-साम्राज्य । [१५९ उसकी शिक्षाओं में निम्न बातोंका उपदेश मनुष्यके पारलौकिकक धर्मको लक्ष्य करके दिया गया था, जो जैनधर्मके अनुकूल है:
(१) जीवित प्राणियोंकी हिंसा न की जावे' और इसका अमली नमूना स्वयं अशोकने अपने राजघरानेको शाभोनी बनाकर उपस्थित किया था। हम देख चुके हैं कि अशोकका अहिंसातत्व बिल्कुल जैनधर्मके समान है । वह कहता है कि सनीव तुषको नहीं जलाना चाहिये (तुसे सनीवे नो झापेतविपे) और न वनमें भाग लगाना चाहिये। यह दोनों शिक्षायें जैनधर्म में विशेष महत्व रखती हैं। वनम्मतिकाय, नलकाय आदिमें जनोंने ही जीव बतलाये हैं।'
(२) मिथ्यात्ववर्द्धक सामाजिक रीति-नीतियों को नहीं करना चाहिये -अर्थात ऐसे रीति रिवाज जो किसीके बीमार होनेपर, किसीके पुत्र-पुत्रीके विवाहोत्सवपर अथवा जन्मकी खुशी में
और विदेशयात्राके समय किये जाते हैं, न करना चाहिये। इनको वह पापवर्द्धक और निरर्थक बतलाता है और खासकर उस समय नब इनका पालन स्त्रियों द्वारा हो, कारण कि इनका परिणाम मंदिग्ध और फल नहीं के बराबर है। और उनका फल केवल इस भवमें मिलता है। इनके स्थानपर वह धार्मिक रीति रिवानों को
से गुरुओं का आदर, प्राणियोंकी नहिंसा. श्रमण और ब्राह्मणों को दान देना मादि क्रियायोंका पालन करनेका उपदेश देता है। यहाँपर अशोक प्रगटतः मोले मनुष्योंकी. देवी, भवानी, यक्ष, पिठ :
१-अष. पृ. १४.तु ग्यास शिलाम । २-अभ. पृ. १५२-१५३-4 MI-N.Pta ld II II tro. ४-अध.
पृ. २१वम शिला। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com