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मौर्य-साम्राज्य। [२४१ लाते हैं जैसे उपभेद वाची 'प्रकृति' शब्द । जैनदर्शनमें कोके १४८ मेदोंको 'प्रकृतियां' कहते हैं । कौटिल्य भी इस शब्दको इसी अर्थमें प्रयुक्त करता है, यथा “ अरि और मित्रादिक राष्ट्रोंकी सब कुल प्रकृतियां ७२ होती हैं । " उनने अपने नीतिसूत्रोंमें जैन प्रभावके कारण ही जैनाचार विषयक कई सिद्धांतों को भी लिखा है; जैसे “दया धर्मस्य जन्मभूमिः "; "अहिंसा लक्षणो धर्मः ", " मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् "; "सर्वमनित्यं भवति"; "विज्ञानदीपेन संसारभयं निवर्तते ।" इत्यादि ।
उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में राय दी है कि राना अपने नगरके बीचमें विनय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नामक देवता.
ओंकी स्थापना करे ! ये चारों ही देवता जैन हैं ! और जैन पंडित कहते हैं कि सांसारिक दृष्टिसे नगरके बीच इनके मंदिरों के बनवानेकी यों जरूरत है कि ये चारों ही देवता उस स्थानके रहनेवाले है, नहांकी सभ्यता और नागरिकता ऐसी बढ़ी चढ़ी है कि वहांपर प्रनासत्तात्मक राज्य अथवा साम्राज्यशून्य ही संसार वसा हुमा है । ये अपनी बढ़ी-चढ़ी सभ्यताके कारण सबके सब अहमिन्द्र कहलाते हैं और इनके रहने के स्थानको ऊँचा स्वर्ग जैन शास्त्रों में माना है । लोक शिक्षाके लिये तथा राजनीतिका उत्कृष्ट ध्येय बतलाने के लिये इन देवताओं का प्रत्येक नगरके बीच होना जरूरी है। इन उल्लेखों एवं ऐसे ही अन्य उल्लेखोंसे, मो मर्थ शास्त्रका मध्ययन करनेसे प्रगट होसते हैं, चाणक्यका नैनधर्म विषयक ही श्रद्धान प्रगट है । और अन्तमें चाणिक्यने नैन शास्त्रानुसार जैन साधुकी वृत्ति ग्रहण करली थी।
१-आक० भा० ३ पृ. ५१-५२ ।
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