________________
२३४ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास |
उस समयकी समाज में वैदिक, जैन और बौद्ध एवं आजीविक धर्म प्रचलित थे । जैनधर्मका प्रचार खूब था; धार्मिक स्थिति । जैसे कि मुद्राराक्षस नाटकसे प्रकट है ।" प्रत्येक संप्रदाय के धर्मायतन बने हुये थे | त्यौहारों और पर्वोके अवसरों पर बड़ी धूमधामसे उत्सव मनाये जाते थे और समारोहपूर्वक बड़े २ जुलूस निकाले जाते थे; जिनमें सोने और चांदी के गहनोंसे सजे हुये विशालकाय हाथी सम्मिलित होते थे । 'चार२ घोड़ों और बहुतसे बैलोंकी जोड़ियोंवाली गाड़ियां और बल्लमबरदार होते थे । जुलूस में अतीव बहुमूल्य सोने चांदी और जवाहरातके कामके वर्तन और प्याले आदि साथ जाते थे । उत्तमोत्तम मेज, कुरसियां और अन्य सजावटकी सामिग्री साथ होती थी । सुनहले तारोंसे काढी हुई नफीस पोशाकें, जंगली जन्तु, बैल, भैंसे, चीते, पालतू सिंह, सुन्दर और सुरीले कण्ठवाले पक्षी भी साथ चलते थे ।
आजकलकी जैन रथयात्रायें प्रायः इस ही ढंगपर सुसज्जितनिकालीं जातीं हैं । पशु पक्षियोंको साथ रखने में, श्री तीर्थकर भगवान के समोशरणको प्रत्यक्षमें प्रगट करना इष्ट था । अशोकका पोता संप्रति ऐसी ही एक जैन यात्राको अपने राजमहल परसे देखते हुये सम्बोधिको प्राप्त हुआ था । इससे भी उससमय जैनधर्मकी प्रधानता स्पष्ट होजाती है। तब वह राष्ट्र-धर्म होने का गौरव. प्राप्त किये हुये था ।
१ - वीर वर्ष ५ पृ० ३८७-३९२ । २-लाभाइ० मा० १५० १५० । ३-परि० १० ९२-९६ /
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com