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१८२] संक्षिप्त जैन इतिहास । उसने अपने आधीन कर लिया था। ई० पूर्व ४४९-४०९ में पारस्थ-साम्राज्य नष्ट होने लगा था । इसी अवसरपर नन्दवईन्ने काश्मीरसे लौटते हुये तक्षशिलावाले पारस्थ राज्यका अन्त कर दिया था। उनकी यह दिग्विजय उनके विशेष पराक्रम, शौर्य और रणचातुर्यका प्रमाण है ।' नन्दवर्द्धनने अपने राज्यारोहण कालसे एक संवत् भी प्रचलित किया था, जो ई० पू० ४५८से प्रारम्भ हुआ था और अलबरूनीके समय तक उसका प्रचार मथुरा व कन्नौजमे था।* उन्हें जनधर्मसे प्रेम था, यह पहिले ही लिखा जाचुका है। सर जान ग्रीयेर्सन सा० कहते हैं कि नन्दराजाओंका ब्राह्मणोंसे द्वेष था । नन्द द्वितीय अथवा 'महा' नन्दके विषयमें कुछ अधिक
परिचय प्रायः नहीं मिलता है । हां, इतना स्पष्ट महा नन्द ।
है कि उनके समयमें तक्षशिला तक नन्दराज्य निष्कण्टक होगया था। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि महा नन्दके मित्र थे और वह तक्षशिलासे पाटलिपुत्र पहुंचे थे। यह भी सच है कि महा नन्दकी एक रानी शूदा थी और उसके गर्भसे महा-पद्मनन्दका जन्म हुआ था। इसका राज्यकाल ई०पूर्व.४०९.३७४ मानाजाता है। महानंदकी शूद्रा रानीके गर्भसे महापद्मका जन्म हुआ था।
इसने नन्द राज्यके वास्तविक उत्तराधिकारी अपने महां पद्मनन्द ।
'सौतेले भाईको धोखेसे मार डाला था और स्वयं
१-जबिओसो. भा० १ १० ७७-८१ । *:जबिभोसो० भा० १३ पृ. २०' । + अहिइ० पृ० ४५ । २-जबिओसोमा पृ० ८२।
आई भा० १ पृ० ५८-५९ व. अहिर पृ० ४१ । कुछ लोग कहते है कि सांप्रदायिक द्वेषसे ऐसा लिखा गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com