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२१० संक्षिप्त जैन इतिहास। दोनों सम्प्रदायोंमें क्यों मतभेद है ? जो हो, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रथम श्रुतकेवली प्रभव हैं। वह चवालीस वर्षतक सामान्य मुनि रहे थे और उनने ग्यारह वर्षतक पट्टाधीश पदपर व्यतीत किये थे। उनने राजगृह के वत्सगोत्री यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करनेवाले शिय्यंभव नामक ब्राह्मगको प्रबुद्ध किया था और वही इनका उत्तराधिकारी हुमा था। श्री प्रभवस्वामीने ८५ वर्ष की अवस्थामै वीर नि० सं० ७५ में मुक्त पद पाया था। श्री शिव्यंभव अट्ठाइस वर्षकी उमर में जैन मुनि हुये थे । ग्यारह वर्षतक प्रभवस्वामीके शिष्य रहकर वह पट्टपर मारूढ़ हुये थे । तेईस वर्षतक युगप्रधान पद भोगकर ६२ वर्षकी अवस्थामें वीर नि० सं० ९८ में स्वर्गवासी हुये थे। इनने अपने छै वर्षके बालक पुत्रको दीक्षित किया था और उसके लिये दशवकालिकसूत्रकी रचना की थी।
इनके उत्तराधिकारी श्री यशोभद्र नी थे। यह तूंगी कायन गोत्रके थे और गृहस्थीमें बाईस वर्षतक रहकर जैन मुनि हुये थे। छत्तीस वर्षके हुये तब यह पट्टाधिकारी होकर पचास वर्षतक इस पदपर विभूषित रहे थे । वीरनिर्वाणसे एकप्तौ व्यालीस वर्षों के बाद यह तीसरे श्रुतकेवही स्वर्गवासी हुये थे। इनके उत्तराधिकारी श्री संमूतिविनयसूरि थे जिनके गुरुभाई श्री भद्रवाहु स्वामी थे। इस प्रकार श्वेताम्बर चौथे और पांचवें श्रुतकेवलियों को समकालीन प्रगट करते हैं। वह कहते हैं कि संभृतिविजयसरि तो पट्टाधीश थे और भद्रबाहुस्वामी गच्छकी सारसंभाल करनेवाले थे । संमूति
1-जेसा भा० १ वीरवं० पृ. ३ व परि० पृ. ५४... । २-सा भा० १ वीरवं० पृ० ४ व परि० पृ. ५८ ।. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com