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संक्षिप्त जैन इतिहास । और वह इनका गोत्र प्राचीन बतलाते हैं; जो बिलकुल अश्रुतपूर्व है और उसका स्वयं उनके ग्रन्थों में अन्यत्र कहीं पता नहीं चलता है।' वराहमिहिरका मस्तित्व ई०सन्के प्रारम्भसे प्रमाणित है। इस अवस्थामें श्वेतांबरोंकी मान्यताके अनुसार भद्रबाहुका समय भी ज्यादासे ज्यादा ईस्वीके प्रारम्भमें ठहरता है; जो सर्वथा असंभव है। मालूम ऐसा होता है कि प्रथम भद्रबाहु और द्वितीय भद्रबाहु दोनोंको एक व्यक्ति मानकर द्वितीय भद्रबाहुकी जीवन घटनाओंको प्रथम भहुबाहुके जीवनमें जा घुसेड़नेकी भारी भूल करते हैं । 'कल्पसूत्र' इन्हीं भद्रबाहुका रचा कहा जाता है । आवश्यकसूत्र, उत्तराध्ययनसुत्र, आदिकी निरुक्तियां भी इन्हींकी लिखीं मानी जाती हैं; किंतु वह भी ई०के प्रारम्भमें हुए भद्रबाहुकी रचनायें प्रगट होती हैं, जैसे कि महामहोपाध्याय डा. सतीशचंद्र विद्याभूषण मानते हैं। मालूम यह होता है कि श्वेताम्बरोंको या तो भद्रबाहु श्रुतकेवलीका विशेष परिचय ज्ञात नहीं था अथवा वह जानबूझकर उनका वर्णन नहीं करना चाहते हैं। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुने उस संघमें भाग
और फिर उपदेशक रूपमें रहे होंगे। श्वे. मान्यतासे उनकी आयु १२६ वर्ष प्रगट है । यदि उन्हें ४० वर्षकी उम्नमें आचार्य पद मिला मानें तो ६५ वर्षकी आयुमें वे आचार्य पदसे अलग हुये प्रगट होते हैं। शेष आयु उनने मुनिवत विताई थी और इस कालमें वे चंद्रगुप्तकी सेवाको पा सके :
१-जैसासं० भा० १ वीर पं० पृ. ५ व परि० पृ० ५८ । २-उसू० भूमिका पृ० १३ । ३-डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषणने इस्वी प्रारम्भमे बराहमिहिरका अस्तीत्व माना है (जैहि० भा० ८ १० ५३२) किन्तु कर्न आदी छठी शताब्दीका मानते हैं । ४-हिष्टी आफ मेडिबिल इण्डीयन लाजिक, नैहि• भा० ८ पृ. ५३२ । ।
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