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मौर्य साम्राज्य। मौर्यकालकी सामानिक दशा भगवान महावीरके समयसे
_ कुछ अधिक विलक्षण नहीं थी । वह प्रायः सामाजिक दशा।
'वैसी ही थी। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूदयह चार प्रधान जातियां थीं और इनको अपना वंशगत व्यवसाय करना अनिवार्य था। किन्तु प्रत्येक प्राणीको राजाज्ञासे दुसरा अथवा एकसे अधिक व्यवसाय करनेकी स्वाधीनता प्राप्त थी।' इन वर्गों में परस्पर उदारताका व्यवहार था। जातीय कट्टरताका नामशेष नहीं था। पारस्परिक सहयोगसे रहते हुये यहांके लोग बड़े सुखसम्पन्न और सदाचारी थे। वे मनुष्य जीवन के चारों पुरु. पार्थो-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-का समुचित साधन करते थे । ब्रह्मचर्यदशामें रहकर विद्याध्ययन करनेसे उनकी बुद्धि कुशाम
और स्वास्थ्य अनुपम रहता था। वे सदा सत्यवादी थे। और शिल्प एवं कलाकौशलमें बड़े निपुण थे। सोने चांदी और जवाहरातके मामूषण बनाने के लिये देशमें सोने, चांदी, तांबे, लोहे, रत्न मादिकी खानें थीं। तब भारतीय मच्छे२ शस्त्र और बड़े जहान बनाते थे । उस समय यहांका शिल्प और वाणिज्य उन्न. तिकी चरमसीमापर पहुंचा हुमा था । सिंधुदेशके सुन्दर वस्त्र और देशकी बनी हुई अन्य वस्तुयें दूर २ विदेशोंमें बिकनेके लिये जाती थी। मेगास्थनीन लिखता है कि "भारतीय यद्यपि सरक स्वभाव और सादगीको बहुत पसंद करते हैं, परंतु रत्नों, . कारों और परिच्छेदोंका उनको खास शौक । परिच्छोंपर मुन
1-माप्रारा• मा. २ पृ. ९१ । २-लामाह• भा० १० १४९। ३-माप्रारा. भा. २ पृ. ११ ।
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