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संक्षिप्त जैन इतिहास |
थी ।' दक्षिण भारत के इन देशोंका व्यापार एक अतीव प्राचीन कालसे जैनधर्मकी व्यापकता भी यहां
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देश - विदेशों से होता रहा है। भगवान पार्श्वनाथजी से पहले की थी ! अतएव उत्तर भारतसे जैन संघका दक्षिणकी ओर जाना एक निश्चित और अभ्रांत घटना है । उपरोक्त चरित्रों में यद्यपि किंचित् परस्पर विरोध है; किंतु
जैन संघका दक्षिण के उन सबसे यह प्रमाणित है कि भद्रबाहुके प्रस्थान इत्यादि । समय में जैन संघ दक्षिणको गया था और बारह वर्षका भीषण अकाल पड़ा था । इस बातपर भी वे करीब २ सहमत हैं कि जिन भद्रबाहुका उल्लेख है, वह अंतिम श्रुतवली हैं और उनके शिष्य एक राजा चन्द्रगुप्त अवश्य थे, जो उज्जैनी और पाटलिपुत्र के अधिकारी थे अर्थात् उनके यह दो राजकेन्द्र थे । यह चंद्रगुप्त इसी नामके प्रख्यात् मौर्य सम्राट हैं । हां, इस बात से हरिषेणजी, जो अन्य कथाकारों में सर्व प्राचीन हैं, सहमत नहीं हैं कि भद्रबाहुजी संघके साथ दक्षिणको गये थे । श्वेतांबर मान्यता के अनुसार भी उनका दक्षिण में जाना प्रकट नहीं है । उसके अनुसार भद्रबाहुजीका अंतिम जीवन नेपाल में पूर्ण हुआ था; किंतु यह संशयात्मक है कि यह वही भद्रबाहु हैं जिन भद्रबाहुको वह नेपाल में गया लिखते हैं ।
जो हो, उपरोक्त दोनों मतों से प्राचीन श्रृंगापटम्के दो शिलालेख इस बातके साक्षी हैं कि भद्रबाहुस्वामी चन्द्रगुप्त के साथ श्रव
१ - कात्यायन ( ई० पू० ४०० ) को चोल, माहिष्मत और नाविक्यका ज्ञान था । पातजंलि ( ई० पू० १५० ) समप्र भारतको जानता था । २ - जमेसो ० ० भा० १८/५० ३०८-३२० । ३-भपा० पृ० २३४-२३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com