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नन्द-वंश |
[ १८१ विद्वान् लोग जैनोंकी इस गणनासे सहमत नहीं हैं ।' वह पालक राजाके राज्यकाल सम्बन्धी ६० वर्ष भी इन्हीं ११५ वर्षों में सम्मिलित करते हैं । और जैनोंकी यह गणना भारतीय इतिहासमै नितान्त विलक्षण बतलाते हैं ।
यद्यपि नन्दवंशकी प्राचीन शाखा के दोनों राजाओं का वर्णन
पहिले किंचित् लिखा जाचुका है; किन्तु वह पर्याप्त नन्दिवर्द्धन । नहीं है । नन्दवर्द्धनका नाम 'नन्द' था और 'वर्द्धन' उसकी उपाधि थी; जिससे वह महानंदसे पृथक् प्रगट होता है । उसका सम्बन्ध शिशुनाग और लिच्छवि, दोनों ही वंशोंसे था । उसकी माता संभवतः लिच्छवि कुलकी थी । मि० जायसवालने उसको चालीस वर्षतक राज्य करते लिखा है । नन्दवर्द्धन के समय में ही बौद्धों का दूसरा संघसम्मेलन हुआ था । इसी कारण बौद्धों के द्वारा व्यवहृन इनका अपरनाम ' कालाशोक ' अनुमान किया गया है । नन्द प्रथम अथवा नन्दवर्द्धन ने अपने राज्यका विस्तार खूब फैलाया था । यही वजह है कि वह 'वर्द्धन्' की सम्मानसूचक विरुदसे विभूषित हुये थे । नन्दवर्द्धन ने अपने राज्यके दशवें वर्ष में प्रपोतराजाको जीतकर अवन्तीपर अधिकार जमा लिया था । मालूम होता है कि उसने एक भारतव्यापी 'दिग्विनय' की घी । इस दिग्विजय में उसने दक्षिण-पूर्वी और पश्चिमीय समुद्रतटवर्ती देशों को अपने राज्य में मिला लिया था । उत्तर में हिमालय पर्वतके तराईके देश जीत लिये थे । काश्मीर और कलिङ्गको भी १- अहिर पृ० ४२, व १रि० भूमिका पृ० १२ । २ - जवि मोखो,
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