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श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य आचार्य ।
[ २०५ है कि पौण्ड्वर्डन देश में देवकोट्ट नामक ग्राम था; जिसको प्राचीन समय में 'कोटिपुर' कहते थे । यहां पद्मरथ राजा राज्य करता था । पद्मरथका पुरोहित सोमशर्मा था । उसकी सोमश्री नामक पत्नीके गर्भसे भद्रबाहु का जन्म हुआ था । एक दिन जब भद्रबाहु खेल ' रहे थे, चौथे श्रुतवली गोवर्द्धनस्वामी उबर आ निकले और यह देखकर कि भद्रबाहु पांचवें श्रुतकेवली होंगे, उन्होंने भद्रबाहुके माता-पिता की अनुमति से उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया । भद्रबाहु अनेक विद्यायों में निष्णात पंडित होगये । वे गोवर्द्धन नदीके किनारे एक बागमें ठहरे थे । उस समय उज्जैनमें जैन श्रावक चंद्रगुप्त राजा था और उसकी रानी सुप्रभा थी ।
जिस समय भद्रबाहुम्वामी वहां नगर में आहारके लिये गये, तो एक घर में एक अकेला बालक पालने में पड़ा रोरहा था, उसने भद्रबाहुनी से लौट जानेके लिये कहा । इससे उनने जान लिया कि उस देशमें बारह वर्षका अकाल पड़नेवाला है । यह जानकर उनने संघको दक्षिण देशकी ओर जानेकी आज्ञा दी और स्वयं उज्जैन के निकट भद्रपाद देश में जाकर समाधिलीन होगये । राजा चंद्रगुप्तने भी अकालकी बात सुनकर भद्रबाहुके निकट दीक्षा ग्रहण कर ली थी । उन्हीं का नाम विशाखाचार्य रक्खा गया था और वे संघावीश होकर दक्षिणकी ओर पुन्नाट देशको संघ लेगये थे । जब बारह वर्षका अकाळ पूर्ण हुआ तब वे संत्रसहित लौटकर मध्यदेश में आगये थे ।' श्री रत्ननंदिनीके ' भद्रबाहु चारित्र' में भी ऐसा ही वर्णन है, परंतु उसमें थोड़ासा अन्तर है । इसके अनुसार
१- जेहि० भा० १४ पृ० २१७६ श्रव० १० २७ ।
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