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१४८] संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवान महावीरके समयमै भारतके पुरुष ऐसे ही कला कुशल और विद्वान थे । वह लोग बालकको, जहां वह पांच वर्षका हुमा, विद्याध्ययन करने में जुटा देते थे; किन्तु उस समयकी पठन पाठन प्रणाली जसे बिल्कुल निराली थी। तब किसी एक निर्णीत ढांचे के पढ़े-लिखे लोग विद्यालयोंसे नहीं निकाले जातेथे और न मानकलकी तरह 'स्कूल' अथवा 'कालेज' ही थे । उस समयके विद्वान् ऋषि ही बालकों की शिक्षा दीक्षाका भार अपने ऊपर लेते थे। सर्व शास्त्रों और कलाओंमें निपुण इन ऋषियोंके आश्रममें जाकर विद्यार्थी युवावस्थातक शास्त्र और शस्त्रविद्यामें निष्णात हो वापिस अपने घर आते थे। तक्षशिला और नालंदाके विद्या आश्रम प्रसिद्ध थे। जैन मुनियोंके आश्रम भी देशभरमें फैले हुए थे। विदेहमें धान्य पुरके समीप शिखर भूधर पर्वतपरके जैन आश्रममें प्रीतंकर कुमार विद्याध्ययन करने गये थे। मगध देशमें ऋषि गिरिपर भी जैन मुनियों की तपोभूमि थी।
__ ऐसे ही अनेक स्थानोंपर माश्रमोंमें उपाध्याय गुरु बालकबालिकाओंको समुचित शिक्षा दिया करते थे । विद्यार्थी पूर्ण ब्रह्मचर्यसे रहते थे; जिसके कारण उनका शरीर गठन भी खूब अच्छी वाह होता था। विद्याध्ययन कर चुकनेपर युवावस्थामें योग्य कन्याके साथ विवाह होता था। किन्तु विवाहके पहिले ही युवक अर्थोपाजनके कार्य में लगा दिये जाते थे । इसके साथ यह भी था कि कई युवक आत्मकल्याण और परोपकारके भावसे गृहस्थाश्रममें आते ही
१-जेप्र० पृ. २३१ ।२-उपु० पृ. ७२०-७३५ । ३-मनि. भा. १ पृ. ९२-९३।४-अप्र० पृ० २२६-२२७ ।
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