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श्री वीर संघ और अन्य गजा ।
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तत्कालीन श्रावकाचार ।
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थीं, पृथ्वीपर मोतीं थीं और मूर्यास्त होनेके पश्चत् भोजनपान नहीं करतीं थीं । इस तरहका आर्थिध धर्म उस जमाने का था । भगवान महावीरजी के समयका श्रावकाचार उन्नत और विशाल था । उसमें पाखण्ड और मिथ्यात्वको स्थान प्राप्त नहीं था । श्रावक और श्राविका नियमित रूपसे देवपूजन, गुरु उपासना और दान कर्म किया करते थे । वे नियमसे मद्य मांपादिका त्याग करके मूल गुणोंको धारण करते थे। व्रत और उपवासोंमें दत्तचित्त रहते थे । अष्टमी और चतुर्दशोको मुनिवत् नग्न होकर प्रतिमायोग धारण करके स्मशान आदि एकांत स्थानमें आत्मध्यानका अभ्यास किया करते थे । * किंतु त्यागी होते हुये भी आरंभी हिंमासे विलग नहीं रहते थे । वे कृषि कार्य भी करते थे।" तथा प बड़े चतुर और ज्ञानवान होते थे । अनेकोंसे शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार रहते थे | आजकल के श्रावकों की तरह घर्मके विषय में परमुखापेक्षी नहीं रहते थे । उस समय मुद्रा व दुपट्टा रखकर श्रावक लोग शास्त्रार्थ करनेका आम चैलेंज देते थे। कांपिल्य के कुन्द कोलिय जनने मुद्रा और दुपट्टा रखकर शास्त्रार्थ किया थी । जैन स्तूपों I आदिकी खुदाई होनेपर ऐसी मुद्रायें निकली हैं। श्राविकायें भी इन शास्त्र में भाग लेती थीं। इस क्रिया द्वारा धर्मका बहुप्रचार होता था और श्रावकों की संख्या बढ़ती थी । जीवंधर कुमारने एक
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१-ममबु० पृ० २५८-२६० । २-जैप्र० पृ० २३४ । ३-जेप्र०
पृ. २३२ । ४-भमवु० पृ० २०६ - २०७ । ५-जैप्र० पृ० ६-उस्० व्या० ६ । ७- दिजै० भा० २१ अंक १-२ ८-ममबु० पृ० २५८ ।
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२३४ पृ० ४० ।
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