________________
१५४ ]
संक्षिप्त जैन इतिहास ।
विद्वान् और सर्वथा अरण्यमें रहकर ज्ञान ध्यानमें लीन रहते थे । इस प्रकार उस समयका मुनिधर्म था ।
मुनियोंकी तरह आर्यिकाओंकी भी उस समय बाहुल्यता थी; उस समयको आर्थि. यह आर्यिकायें भी जैनधर्म प्रचार में बड़ी काओंका धर्म । सहायक थीं । गरीब और अमीर - सराय और महल सबमें इनकी पहुंच थी । बनारसके राजा जितारिकी राजकन्या मुण्डिकाको वृषभश्री आर्यिकाने श्राविका बनाया थी । राजगृहके कोठारी की पुत्री भद्राकुन्दलकेशाने अपना विवाह विप्र पुत्र सत्थुक के साथ किया था; जिसे डकैती के लिये राजदंड मिल चुका था । सत्थूक भद्रासे इतना प्रेम नहीं करता था जितना कि वह उसके गहनों को चाहता था, भद्रा उसके इस व्यवहारसे बड़ी दुखी हुई । एक रोज उसने उसे घोकेसे एक गढ़ेमें ढकेल दिया और वह भयभीत होकर जैन संघमें आकर आर्यिका होगई । एक हत्यारी और विषयलम्पट स्त्री भी संबोधिको पाकर जैन साध्वी हो गई। उसके मार्ग में कोई बाघा नहीं आई। इससे भगवान महावीर के आर्यासंघका विशालरूप स्पष्ट है । जिस समय यह भद्रा जैनसंघमें पहुंची तो उस समय इससे पूछा गया था कि वह किस कक्षाकी दीक्षा ग्रहण करना चाहती है ? उत्तर में उसने सर्वोत्कृष्ट प्रकार अर्थात् आर्थिके व्रत लेना स्वीकार किये थे । इसपर उसने केशकोंच करके जैन आर्यिकाका भेष धारण किया था । वह एक वस्त्र धारण किये रहती थी । मैले-कुचैले रहने का उसे कुछ ध्यान न 1 था। इसके विपरीत उदासीन व्रती श्राविका वालोंको मुण्डाये रहतीं
·
१ - सकौ ० ० ९० । २-ममबु पृ० २५९-२६० ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com