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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [११५ नेको पर्याप्त हैं । अतः उसकी स्थापना आजसे केवल ढाईहजार वर्ष पहले भगवान महावीरजी द्वारा हुई मानना बिलकुल निराधार है। यही बात उसे वैदिक धर्मके विरोधरूप प्रगट हुआ बताने में है। किसी भी वैदिकग्रंथमें यह लिखा हुआ नहीं मिलता कि जैनधर्मका निकास वैदिक धर्मसे हुआ था । प्रत्युत दोनों धर्मोके सिद्धान्तोंकी परस्पर तुलना करनेसे जैनधर्मकी प्राचीनता वैदिक धर्मसे अधिक प्रमाणित होती है। हिन्दुओंके 'भागवत' में ऋषभदेवनीको माठवां अवतार माना है और बारहवें अवतार वामन का उल्लेख वेदों में है।
अतः ऋषभदेवनी, नोकि नैनों के प्रथम तीर्थकर हैं, का समय वेदोंसे भी पहले ठहरता है । ऋषभदेवनीको वृषभ और आदिनाथ भी कहते हैं। ऋग्वेद आदि में वृषभ अथवा ऋषभ नामक महापुरुषका उल्लेख आया है। यह ऋषभ अवश्य ही जैन तीर्थकर होना चाहिये, क्योंकि हिन्दु पुगणकारोंके वर्णनसे यह स्पष्ट है कि हिन्दुओंको निन ऋषभदेवका परिचय था, वह जैन तीर्थकर थे। अतएव नैनधर्मको वैदिक धमकी शाखा कहना कुछ ठीक नहीं नंचता । कतिपय हिन्दू विद्वानोंका भी यही मत है।
इस प्रकार भगवान महावीर का सम्बन्ध अन्य तीर्थकरी और भगवान महावीरका धर्मोसे देखकर हम अपने प्रकन विषयपर
निर्वाण । आनाते हैं । पहिले लिखा नाचुका है कि भगवान महावीरका विहार ममम आयखंड में होगया था। भगवा
१-विशेषके लिये · भगवान पार्श्वनाथ ' नामक हमारी पुस्तककी भूमिका देखिये । २-सजे० पृ० ७-८७. ३-भागवत ५। ४-५-६. १०; हिवि. मा० ३ पृ. ४४४. (-हिग्ली• पृ. ७५ व मपा• प्रस्तावना १.२०२१. ५-वीरप५पृ. २३५५० भपा• प्रत्तापमा पृ० २२० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com