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१२६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । जिसमें लगभग ४५ वर्षतक वह मुनिदशामें रहे थे। वीर संघके प्रमुख गणाधीश रूपमें इनके द्वारा जैनधर्मका विशेष विकाश हुआ था। जिससमय भगवान महावीरको निर्वाण लाभ हुआ था, उस समय इन्हें केवलज्ञान लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई थी। इसी कारण दिवालीके रोज गणेश पूजाका रिवाज चला है । वीर प्रभूके उपरान्त यही संघके नायक रहे थे और वीरनिर्वाणसे बारहवर्ष बाद भग. वानके अनुगामी हुये थे । ई० पूर्व ५३३ में इनको विपुलाचल पर्वतपर (राजगृही)से मोक्ष सुख प्राप्त हुआ था। चीन यात्री हुइनत्सांगने भी इनका उल्लेख भगवानके गणधर रूपमें किया है। अग्निभूति और वायुभूति भी द्वादशांगके वेत्ता थे और इनकी भायु क्रमशः २४ और ७० वर्षकी थी। यह भी केवली थे और इन्हें भगवानके जीवन में ही मोक्षसुख मिला था । इसप्रकार भगवानके प्रारंभिक शिष्य अथवा अनुयायी जन्मके जैनी नहीं थे; प्रत्युत वे वदिकधर्मसे जैनधर्ममें दीक्षित हुये थे।
चौथे गणधर व्यक्त थे । इनको भव्यक्त और शुचिदत्त भी नौर मर कहते थे । यह भारद्वाज गोत्री ब्रह्मण थे और
व्यक्त । जैनधर्ममें दीक्षित हुये थे। कुण्डग्रामके पार्श्वमें स्थित कोल्लाग सन्निवेशमें एक धनमित्र नामक ब्राह्मग था। उसकी बाहणी नामक स्त्रीकी कोखसे इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु ८० वर्षकी थी और इन्होंने भगवान महावीरजीके जीवनकालमें ही निर्वाणपद पाया था।
१-वृजैश० पृ. ७ । २-उपु० पृ. ७४४ । ३-भम० पृ० ११५ । ४-वृजैश. पृ० ६१। ५-वृजेश• पृ. ७।
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