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संक्षिप्त जैन इतिहास |
क्रमशः साठ और चालीस वर्षकी थी । इनकी भी भगवान महावीरके निर्वाणलाभ से पहिले ही मुक्ति होगई थी ।
भगवान महावीरजीके इन प्रमुख साधु शिष्योंके अतिरिक्त और भी अनेक विद्वान् और तेजस्वी मुनिपुंगव वारिषेण मुनि । थे; जिनके पवित्र चारित्र से जैन शास्त्र अलंकृत हैं । इनमें सम्राट् श्रेणिक के पुत्र वारिषेण विशेष प्रख्यात हैं । वारिषेणनी युवावस्था से ही उदासीनवृत्ति के थे । श्रावक दशामें वह नियमितरूपसे अष्टमी व चतुर्दशीके पर्वदिनोंको उपवास किया करते थे और रात्रि के समय न्य- प्रतिमायोग में स्मशान आदि एकान्त स्थानमें ध्यान किया करते थे । इसी तरह एक रोज आप ध्यानलीन थे कि एक चोर चुराया हुआ डार इनके पैरोंमें डालकर भाग गया । पीछा करते हुये कोतवालने इनको गिरफ्तार कर लिया । राजा श्रेणिकने भी पुत्रमोहकी परवा न करके उनको प्राणदण्डका हुक्म सुना दिया; किन्तु अपने पुण्यप्रतापसे वह बच गये और संसार से वैराग्यवान् होकर झट दिगम्बर मुनि होगये । वह खूब तपश्चरण करते थे और यत्रतत्र विहार करते हुये अपने उपदेश द्वारा लोगों को धर्ममें दृढ़ करते थे । इस स्थितिकरण धर्म पालन करनेकी अपेक्षा ही इनकी प्रसिद्धि विशेष है। एकदा यह पलाशकूट नगर में पहुंचे । वहां इनके उपदेश से श्रेणिक के मंत्री का पुत्र पुष्पडाल मुनि होगया । पुष्पडाल मुनि तो होगया; किन्तु उसके हृदय में अपनी पत्नीका प्रेम बना रहा। कहते हैं, एक रोज निमित्त पाकर वह उसको देखनेके लिये चल पड़ा था; किन्तु वारिषेण मुनिने उसे धर्ममें पुनः स्थिर कर दिया था । पुष्पडालने प्रायश्चितपूर्वक घोर तपश्चरण किया
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