________________
९२] संक्षिप्त जैन इतिहास । म्लेच्छ हो-धर्मप्ताधन करने देने का पाठ सीख गई ! उसे विश्वास होगया कि 'श्रेष्ठताका आधार जन्म नहीं बलिक गुण हैं, और गुणोंमें भी पवित्र जीवनकी महत्ता स्थापित करना । (२) पुरुषोंके ही समान स्त्रियों के विकास के लिये भी विद्या और चार मार्गके द्वार खुल गये थे । जनता महिला-महिमासे भली भांति परिचित होगई थी। (३) भगवान के दिव्य उपदेशका संकलन लोकभाषा अर्थात अर्धमागधी प्राकृत में हुआ था, जिससे सामान्य जनतामें तत्वज्ञानकी बढ़वारी और विश्वप्रेमकी पुण्य भावनाका उद्गम हुआ था। (४) ऐहिक और पारलौकिक सुखके लिये होनेवाले यज्ञ आदि कर्मकांडोंकी अपेक्षा संयम तथा तपस्याके स्वावलम्बी तथा पुरुषार्थप्रधान मार्गकी महत्ता स्थापित होगई थी' और जनता अहिंसाधर्मसे प्रीति करने लगी थी; (५) और 'त्याग एवं तपस्याके नामरूप शिथिलाचारके स्थानपर सच्चे त्याग और सच्ची तपस्याकी प्रतिष्ठा करके भोगकी जगह योगके महत्वका वायुमंडल चारों ओर उत्पन्न होगया था।
इस विशिष्ट वायुमंडलमें रहती हुई जनता 'अनेकान्त' और 'स्थाहाद' सिद्धान्तको पाकर साम्प्रदायिक द्वेष और मतभेदको बहुत कुछ भूल गई थी। ऐसे ही और भी अनेक सुयोग्य सुधार उससमय साधारण जनतामें होगये थे । जनता आनन्दमग्न थी!
भगवान महावीरने ज़म्भक ग्रामके निकटसे अपना दिव्योपदेश भगवानका विद्या प्रारंम किया था और फिर समग्र आर्यखंडमें और धर्मप्रचार । उनका धर्मप्रचार और विहार हुआ था। सर्व १-चंभम० पृ. १७७-१७८ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com