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संक्षिप्त जैन इतिहास |
नामक वैदिक ग्रन्थके आधारसे जैनोंका उल्लेख किया है । उसमें भगवान पार्श्वनाथ और महावीरजी इन अंतिम दो तीर्थकरों का उल्लेख ''जिन' 'अईन् ' अथवा 'महिमन् ' ( महामान्य ) रूपमें हुआ है। उक्त सा०ने लिखा है कि 'अर्हन' ने चारों ओर विहार किया था और उनके चरणचिह्न दूर दूर देशों में मिलते हैं । लंका, श्याम, आदिमें इन चरणचिन्होंकी पूजा भी होती है । पारस्य सिरिया (Syria) और ऐशिया मध्य में 'महिमन् ' ( महामान्य = महावीरजी ) के स्मारक मिलते हैं। मिश्र में 'मेमनन' ( Memnon) की प्रसिद्ध मूर्ति 'महिमन् ' ( महामान्य ) की पवित्र स्मृति और आदर के लिये निर्मित हुई थी। अतः इन उल्लेखों से भी भगवान महावीरका भाग्नेवर देशों में बिहार और धर्म प्रचार करना सिद्ध है। जैन
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शास्त्रों में कितने ही विदेशी पुरुषों का वर्णन मिलता है, जिन्होंने जैनधर्म धारण किया था। आर्द्रक नामक यवन अथवा पारस्यदेशवासी राजकुमारका उल्लेख ऊपर होचुका है । उसी तरह यूनानी लोगों (यङ्काओं का भगवान महावीरजीका भक्त होना प्रकट है । फणिक अथवा पणिक (Phonecia ) देशके प्रसिद्ध व्यापारियोंमें जैनधर्म की प्रवृत्ति होनेके चिह्न मिलते हैं। * भगवानका समोशरण जिस समय वहां पहुंचा था, उस समय एक 'पणिक ' व्यापारी उनके दर्शनों को गया था । भगवानका उपदेश सुनकर वह प्रतिबुद्ध हुआ था और जैन मुनि होकर वीर संघके साथ भारत माया था । जिस समय वह गंगानदीको नावपर बैठे हुये पार कर रहा
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१ - ऐरि० भा० ३, पृ० १९३-१९४ । २-भपा० पृ० ९७-९९० ३- ऐरि० भा० ३, १९६-१९९ । ४ - भपा० पृ० २०१ - २०२ ।
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