________________
संक्षिप्त जैन इतिहास । (५) जैनोंकी विशेषता अणुवाद (Atomic Thoery ) में है और भारतीय दर्शनमें उन्हींके यहां इसका सर्व प्राचीन रूप मिलता है । आनीविक संप्रदायको भी यह नियम प्रायः जैनधर्मके अनुसार ही स्वीकृत था।
(६) नैनोंके द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानमें 'पूर्व' नामक भी १२ ग्रंथ थे। उन्हीं में से अष्टाङ्ग महानिमित्तज्ञानको आजीविकोंने ग्रहण किया था।
(७) मक्खलिगोशालने आजीविक संप्रदायमें 'चत्तारि पाणगायं चत्तारि पाणगायं' नियम नियत किया था; जो जैनोंके सल्लेखनाव्रतके समान था।
(८) आनीविक संप्रदायने नैनोंके कतिपय खास शब्दों (Terms) को ग्रहण कर लिया था; यथा 'ब्बे सत्ता, सव्वे पाणा, सब्बे भूता, सब्बे जीवा, 'संज्ञी', 'असंज्ञो', 'अधिकम्म' इत्यादि।
(९) गोशालका छै अभिजाति सिद्धान्त नैनोंके षट्लेश्या सिद्धान्तके सदृश है।"
(१०) गोशाल अपनेको 'तीर्थकर' प्रगट करता था। तीयकर-मान्यता सिवाय जैनधर्मके और किसी संप्रदायमें नहीं है।
(११) जीवोंके एक इन्द्री, द्वेन्द्रिय मादि भेद भी नैनोंके समान मानीविकोंको स्वीकृत थे। _ इन बातोंक देखनेसे आजीविकों का निकास भगवान पार्श्व
१-दरिई. भा० २० १९९। २-आजी. भा. १ पृ. ४१ प भम० पृ० १७७-१७८ । ३-भाजी० पृ. ५१-५४ । ४-चीर भा०
३ पृ. ३१८ । ५-Js. II. Intro. ६-Js. II. Intra Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com