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ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर ।
[ ७१ विकोंने अपने सिद्धान्त निश्चित किये थे, यह एक मान्य विषय हैं।" तथापि निम्न विशेषताओं को ध्यान में रखने से यह स्पष्ट दृष्टि पड़ता है कि आजीविक मतका विकास जैनमतसे हुआ था:
(१) आजीविक संप्रदायका नामकरण ' आजीविक ' रूपमें इसी कारण हुआ प्रतीत होना है कि आजीविक साधु, जिनकी बाह्य क्रियायें प्रायः जैन साधुओंके अनुरूप थीं, किसी प्रकारकी आजीविका करने लगे थे । जैन शास्त्रों ने साधुओं को ' आजीवो ' नामक दोष अर्थात् किसी प्रकारकी आजीविका करनेसे विलग रहनेका उपदेश है। वस्तुतः आजीविक साधुगण प्रायः ज्योतिषियोंके रूपमें उस समय आजीविका करने लगे थे, यह प्रकट है । अतः उनका नामकरण ही उनका निकास जैनघमंसे हुआ प्रगट करता है।
(२) आजीविक साधुओंका नग्नमेष और कठिन परीषह सहन करनेसे भी उनका उद्गम जैन श्रोतसे हुआ प्रतिभाषित होता है । (३) आजीविक साधु प्रायः जैन तीर्थकरोंके भी भक्त मिलते थे; जैसे उपक नामक आनीविक साधु अनंतनिन नामक चौदहवें जैन तीर्थकरका उपापक थे ।
(४) सैद्धान्तिक विषय में आजीविक जैनोंके समान ही आत्माका मस्तित्व मानते थे और उसको 'अरोगी' अर्थात् सांसारिक मलसे रहित स्वीकार करते थे तथा संसार परिभ्रमण सिद्धान्त भी उन्हें मान्य थी ।
१ केहि ०, पृ० १६२ व इरिइ० भाग १ पृ० २६१ । २–मूलाचार - 'घादीदनिमित्ते भाजोवो वणिवगेद्रयादि । ३ - आजी० पृ० ६७-६८ । ४-आजी ० ० पृ० ५५ व ६२ । ५-ठाम० पृ० ३०, आरिय-परियेसणासुक्त, इहिक्का० भा० ३ १० २४७ | ६–Js. I. Intro. XXIX. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com