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समाज और संस्कृति
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उत्थान नहीं है, ह्रास और पतन ही लिखा होता है । शक्तिहीन शव सड़ने के लिए होता है और अन्त में जला डालने के लिए होता है । संसार के प्रत्येक पदार्थ की सही स्थिति है, उसके अन्दर रहने वाली शक्ति जब विलुप्त हो जाती है, तब वह पदार्थ, पदार्थ ही नहीं रह पाता । कल्पना कीजिए आपके घर के प्रांगण में एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा है, उसमें सुन्दर किसलय लगते हैं, महकते फूल खिलते हैं, और रसीले फल लगते हैं, परन्तु यह कब तक, जब तक कि उस वृक्ष की जड़ में, जो धरती में नीचे गहरी पहुँची हुई है, जीवन-शक्ति विद्यमान है । जब उसकी जीवन-शक्ति सूख अथवा नष्ट हो जाती है, तब उसमें न पत्ते रह पाते हैं, न फूल रह पाते हैं और न फल ही रह पाते हैं । तब वह वृक्ष न रहकर केवल सूखा लूंठ हो जाता है और दूंठ का उपयोग वृक्ष के रूप में न होकर, काटकर लकड़ी की चीजों के लिए, या जला डालने के लिए होता है, और कुछ नहीं । जो सिद्धान्त वृक्ष के सम्बन्ध में कहा गया है, वही सिद्धान्त संसार के समस्त पदार्थों पर लागू होता है । मानव-जीवन के सम्बन्ध में भी यही सत्य है, कि शक्ति रहते ही अथवा यों कहिए कि शक्ति के अनुकूल रहते ही वह अपना विकास कर पाता है, बिना शक्ति एवं उसकी अनुकूलता के न अपना कल्याण होता है और न दूसरे का ही । जो शिव है, उसे शक्ति से अर्थात् शुद्ध शक्ति युक्त होना ही चाहिए । तभी वह अपना और दूसरे का कल्याण कर सकता
जब हम आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हैं, तब हम यह समझ पाते हैं, कि आत्मा में अनन्त गुण हैं । प्रत्येक गुण अपने आप में एक शक्ति है । जब प्रत्येक गुण शक्ति है, तब आत्मा में एक ही शक्ति नहीं, बल्कि अनन्त शक्ति हो जाती हैं । इसी आधार पर आत्मा को अनन्त शक्ति-पुंज कहा जाता है । जैन-दर्शन की दृष्टि से केवल आत्मा में ही नहीं; संसार के प्रत्येक पदार्थ में अनन्तगुण माने गये हैं । इसलिए संसार का प्रत्येक पदार्थ अनन्त शक्ति-सम्पन्न और अनन्त गुण-सम्पन्न होता है । जैन-दर्शन का यह चिन्तन केवल कल्पनामूलक नहीं है, बल्कि उसका यह यथार्थवादी दृष्टिकोण है । जबकि मनुष्य अनन्त शक्ति-सम्पन्न है और उसकी आत्मा में अनन्तशक्ति विद्यमान है, तब समझ में नहीं आता, कि वह अपने जीवन में हताश और निराश क्यों होता है ? अपने आपको दीन-हीन क्यों समझता है ? मेरे विचार में इसका यही कारण हो सकता है, कि उसे अपनी अनन्त शक्ति-सम्पन्नता पर विश्वास नहीं
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