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समाज और संस्कृति
ऐसा नहीं करने दिया । खेद है, आज उन मृत आत्माओं के ऊपर होने वाले अत्याचारों की कहानी सुना-सुनाकर अपना पेट पाल रहे हो । अब भी शरीर का मोह छोड़ो और अपने अन्तः पुरुषार्थ को जागृत करो ।”
मैं आपसे कह रहा था कि जीवन का मोह सबसे भयंकर होता है । जीवन के व्यामोह में से ही हजारों-हजार पाप फूट पड़ते हैं । आखिर, जीवन का व्यामोह करके हम इससे क्या लाभ उठाएँगे ? यदि हमने जीवन मोह से मुक्त हो, इसे परमार्थ के मार्ग पर न लगाया तो ? जीवन की सार्थकता जीवित रहने में नहीं है, उसकी सार्थकता है— अध्यात्म साधना में, परोपकार में और दूसरों की सहायता करने में । यदि आप अपने जीवन में किसी दु:खी के आँसुओं को न पोंछ सके, तो आपके जीवन की कोई उपयोगिता नहीं है । इन्सान की इन्सानियत इसी में है, कि वह इन्सान के काम आए ।
जीवन का मोह मनुष्य को गलत रास्ते पर ले जा सकता है । जीवन से प्रेम करना अलग वस्तु है और जीवन से मोह करना अलग बात । जब व्यक्ति अपने जीवन के प्रति मोह करने लगता है, तब वह अपने कर्त्तव्य को भूल जाता है । कर्त्तव्य का बोध तभी होता है, जबकि वह भय रहित हो, उसके मानस में किसी प्रकार का भय न हो । भयाकुल व्यक्ति किसी भी प्रकार का सत्कर्म नहीं कर सकता । शास्त्रकारों ने बताया है, कि भय मन का एक रोग है, जब तक यह मन में रहता है, तब तक व्यक्ति किसी भी प्रकार का सत्कर्म करने में समर्थ नहीं हो पाता । भय, वह चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो, हमारी साधना में एक प्रकार का विघ्न ही है । प्रत्येक साधक को भय से विमुक्त होने का ही प्रयत्न करना चाहिए । महाकवि गेटे ने एक बहुत सुन्दर बात कही है “Do the thing you fear and the death of fear is certain.” गेटे कहता है कि अपने मन के भय को जीतने के लिए इससे सुन्दर अन्य कुछ भी उपाय नहीं हो सकता, कि तुम वही कार्य करो, जिससे तुम भयभीत होते हो । यह निश्चित है, कि निर्भयता के सतत अभ्यास एवं भावना से एक दिन तुम्हारे मन का भय अवश्य ही नष्ट हो जाएगा । जीवन - विनाश का भय अथवा मरण का भय संसार में सबसे बड़ा भय माना जाता है । भगवान् महावीर की वाणी, बुद्ध की वाणी और उपनिषदों का अध्यात्म संगीत हमें यही सिखाता है, कि हम जीवन और मरण से तटस्थ एवं निर्भय होकर रहें । यदि जीवन में निर्भयता नहीं आई, तो
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