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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
होती है । भोग भोगकर कर्मों को हल्का करने की प्रक्रिया, एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका कभी अन्त नहीं हो सकता । क्योंकि आत्मा जितना अपने कर्मों को भोगता है, उससे भी कहीं अधिक वह भोग-काल में राग द्वेष में उलझकर नये कर्मो का बन्ध कर लेता है । इसलिए कर्म टूटें तो आत्मा विशुद्ध हो, यह सिद्धान्त नहीं है, बल्कि सिद्धान्त यह है, कि आत्मा का शुद्ध पुरुषार्थ जागे, तो कर्म हल्के हों ।।
शास्त्रों में दो प्रकार की मुक्ति मानी है—द्रव्य-मुक्ति और भाव-मुक्ति । द्रव्य-मुक्ति प्रतिक्षण होती रहती है, क्योंकि आत्मा प्रतिक्षण अपने पूर्व कर्मों को भोग रहा है, किन्तु भाव-मुक्ति के बिना वास्तविक विमुक्ति नहीं मिल सकती है । द्रव्य की अपेक्षा भाव का मूल्य अधिक है, क्योंकि आत्मा के प्रसुप्त पुरुषार्थ को प्रबुद्ध करने की शक्ति द्रव्य में नहीं, भाव में ही है, आत्मा का ज्ञान चेतना में ही है । आत्मा का जो स्वोन्मुखी पुरुषार्थ है और आत्मा का जो वीतराग जागरण है, वस्तुतः वही भाव-मोक्ष है । साधना के द्वारा ज्यों ही विकार मुक्तिरूप भाव-मोक्ष होता है, साथ ही जड़ कर्म पुद्गलों से विमुक्ति-स्वरूप द्रव्य-मोक्ष भी हो जाता है ।
मुख्य प्रश्न भाव-मोक्ष का है । द्रव्य-मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करने की अलग से जरूरत नहीं है । कल्पना कीजिए, घर में अँधेरा है, दीपक जलाते ही प्रकाश हो जाता है । यहाँ पर क्या हुआ ? पहले अन्धकार नष्ट हुआ, फिर प्रकाश आया अथवा पहले प्रकाश हुआ, और फिर अन्धकार नष्ट हुआ । वस्तुतः दोनों अलग-अलग कार्य नहीं हैं । प्रकाश का हो जाना ही अन्धकार का नष्ट हो जाना है और अन्धकार का नष्ट हो जाना ही प्रकाश का हो जाना है । सिद्धान्त यह है, कि प्रकाश और अन्धकार का जन्म और मरण साथ-साथ ही होता है । जिस क्षण प्रकाश जन्मता है, उसी क्षण अन्धकार मरता है । इधर प्रकाश होता है और उधर अन्धकार नष्ट हो जाता है । एक ही समय में एक का जन्म होता है और दूसरे का मरण हो जाता है । यही बात द्रव्य मोक्ष और भाव-मोक्ष के सम्बन्ध में भी है । ज्यों ही भाव-मोक्ष हो जाता है, त्यों ही द्रव्य मोक्ष भी हो जाता है । भाव-मोक्ष और द्रव्य-मोक्ष का जन्म एक साथ ही होता है, उसमें समय मात्र का भी अन्तर नहीं रह पाता । ___ मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि कर्मों से लड़ने से पहले आत्मा
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