Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 262
________________ व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति रक्षा के लिए हुआ है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता को राज्य नियन्त्रित नहीं कर सकता । राज्य द्वारा व्यक्ति की स्वतन्त्रता का नियन्त्रण तभी होगा, जब व्यक्ति अपने कार्यों से दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करेगा । व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए राज्य केवल रक्षात्मक कार्य कर सकता है । परन्तु व्यक्तियों की विभिन्न स्वतन्त्र शक्तियों के विकास में हस्तक्षेप करने का अधिकार राज्य को नहीं है और जब यह अधिकार राज्य को नहीं है, तब समाज को कैसे हो सकता है ? राजनैतिक दृष्टि से यही व्यक्ति का व्यक्तिवाद है । मैं आपसे व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध में कुछ कह रहा था । मैंने आपको बताया, कि समाज-शास्त्र, मनोविज्ञान और राजनीति - शास्त्र की दृष्टि से समाज और राष्ट्र में व्यक्ति का क्या स्थान है ? व्यक्ति चाहे परिवार में रहे, चाहे समाज में रहे और चाहे राष्ट्र में रहे, सर्वत्र उसकी एक ही माँग है, अपनी स्वतन्त्रता और अपनी स्वाधीनता । पर सवाल यह है, कि इस स्वतन्त्रता और स्वाधीनता की कुछ सीमा भी है अथवा नहीं ? यदि उसकी सीमा का अङ्कन नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति स्वच्छन्द होकर तानाशाह बन जाता है । उस स्थिति में समाज और राष्ट्र की सुरक्षा और व्यवस्था कैसे रह सकती है ? इसका अर्थ यह नहीं है, कि मैं व्यक्ति के व्यक्तित्व पर किसी प्रकार का बन्धन लगाना चाहता हूँ । मेरा अभिप्राय इतना ही है, कि व्यक्ति की स्वाधीनता और स्वतन्त्रता रखते हुए भी यह अवश्य करना होगा, कि व्यक्ति स्वच्छन्द न बन जाए । दूसरी ओर समाज और राष्ट्र भी इतने महत्वपूर्ण हैं, कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वाधीनता के लिए उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । यदि राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो जाता है और समाज बिखर जाता है, तो फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का मूल्य भी क्या रहेगा ? राष्ट्र और समाज की रक्षा और व्यवस्था में ही व्यक्ति के जीवन की रक्षा और व्यवस्था है । इस सन्दर्भ में यह जानना भी परमावश्यक हो जाता है, कि व्यक्ति के जीवन में समाज और समाज की मर्यादाओं की क्या मूल्य है ? व्यक्ति की स्वाधीनता और स्वतन्त्रता के नाम पर समाज के कर्त्तव्यों की ओर मर्यादाओं की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती । भारतीय संस्कृति में और भारत की इतिहास - परम्परा में अधिकतर व्यक्ति और समाज में समन्वय का ही समर्थन किया गया है । भगवान महावीर ने तथा भगवान बुद्ध ने अवश्य ही व्यक्ति की अपेक्षा संघ को Jain Education International For Private & Personal Use Only २५३ www.jainelibrary.org

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