Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 229
________________ समाज और संस्कृति हम एक-दूसरे से मिल-जुल कर सामाजिक आनन्द का उपभोग करते हैं । होलिका-पर्व पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब परस्पर मिलकर, आनन्द और उल्लास मनाते हैं । होलिका के पर्व के अन्दर किसी प्रकार का भेद-भाव न रहता था । यह हमारी मूल संस्कृति का पावन प्रतीक है । यह पर्व हर इन्सान को प्रेम का पाठ पढ़ाकर, मानव समाज में परिकल्पित ऊँच-नीच के भाव को दूर करता है । वर्तमान समय में इसमें कुछ विकृति अवश्य आ गई है । गन्दी गाली देना और गन्दी हरकत करना, इस पर्व के आवश्यक अंग मान लिए गए हैं । परन्तु यथार्थ में यह ठीक नहीं है । हम स्वयं हँसें और दूसरों को हँसायें, यह तो ठीक है, पर हम दूसरों के साथ ऐसा मजाक करें, जो हमारी मूल संस्कृति और मूल परम्परा के विरुद्ध हो, उसका परित्याग करना ही आवश्यक है । जीवन में विनोद अवश्य होना चाहिए, पर किसी प्रकार का विरोध नहीं । पर्व हम आज भी मनाते हैं, किन्तु आज हम केवल उसके शरीर की आराधना करते हैं, उसकी मूल आत्मा को आज हम भूल चुके हैं । आवश्यकता इस बात की है, कि हम पर्व के शरीर को नहीं, उसकी मूल आत्मा को पकड़ने का प्रयत्न करें, तभी सच्चे अर्थों में जन-जीवन में उल्लास और आनन्द प्रकट हो सकेगा । होली के पर्व की सार्थकता इसी में है, कि हम सब मिल-जुल कर आनन्द और उल्लास प्राप्त कर सकें । दीपावली पर्व भी भारत का एक प्रसिद्ध पर्व है । होलिका के समान दीपावली पर्व भी हमारा एक सामाजिक एवं राष्ट्रीय पर्व है । क्योंकि दीपावली पर्व के मनाने वाले व्यक्तियों में, किसी भी प्रकार का वर्ग-भेद और वर्ण-भेद नहीं माना जाता । दीपावली पर्व को मनाने में हमारा मूल उद्देश्य क्या है ? यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न है, जो मुझसे पूछा गया है । प्रत्येक पर्व का जब विश्लेषण किया जाता है, तो उसका मूल स्वरूप उसमें से ही निकल आता है । दीपावली पर्व की पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी इस पर विचार करना चाहिए । बात यह है, कि वर्षाकाल में अनेक प्रकार के विषैले प्राणी पैदा हो जाते हैं । वर्षाकाल में प्रकृति में जो नमी और सीलन रहती है, उससे जीवों की उत्पत्ति में अभिवृद्धि हो जाती है । काले - कजरारे बादलों से आकाश घिरा रहता है, जिससे कि सब ओर अन्धकार - सा छाया रहता है । वर्षा-काल में घर में बहुत-सा कूड़ा कचड़ा भी इकट्ठा हो जाता है । अतः घर की स्वच्छता और उज्ज्वलता नष्ट हो जाती है और हमारे चारों २२० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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