Book Title: Samaj aur Sanskruti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 235
________________ समाज और संस्कृति असत्य बोलने में हिंसा होती है, चोरी करने में हिंसा होती है, व्यभिचार करने में हिंसा होती है, परिग्रह रखने में हिंसा होती है, इसीलिए इन सबका परित्याग आवश्यक है । हिंसा के परित्याग के लिए और अहिंसा के संरक्षण के लिए ही अन्य व्रतों की परिकल्पना की गई है । मुख्य व्रत अहिंसा ही है । यही कारण है, कि जैन-आचार शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा है । इसी प्रकार जैन-दर्शन का मुख्य विचार अनेकान्त है । आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त, यह जैन संस्कृति का मूल स्वरूप है । अहिंसा और अनेकान्त का अर्थ है-जैन-धर्म और जैन-दर्शन । अहिंसा धर्म है और अनेकान्त का अर्थ है-जैन-धर्म और जैन-दर्शन । अहिंसा धर्म है और अनेकान्त दर्शन है । श्रद्धा धर्म है और तर्क दर्शन है । क्रिया धर्म है और ज्ञान दर्शन है । बौद्ध दर्शन के भी दो पक्ष प्रचलित हैं—हीनयान और महायान । मुख्यरूप से हीनयान आचार-पक्ष है और महायान विचार-पक्ष । हीनयान मुख्य रूप में धर्म है और महायान मुख्य रूप में दर्शन एवं तर्क है । सांख्य और योग को लें, तो उसमें भी हमें यही तथ्य मिलता है, कि सांख्य दर्शनशास्त्र है और योग उसका आचार-पक्ष है । यही बात पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा के सम्बन्ध में समझ लीजिए । पूर्व मीमांसा का अर्थ है-कर्म-काण्ड और उत्तर मीमांसा का अर्थ है—ज्ञान-काण्ड । पूर्व मीमांसा आचार का प्रतिपादन करती है और उत्तर मीमांसा दर्शन और तर्क का आधार लेकर चलती है । मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि प्रत्येक परम्परा का अपना एक दर्शन होता है और प्रत्येक परम्परा का अपना एक आचार भी होता है । इस धरती पर एक भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें विचार के अनुरूप आचार का और आचार के अनुरूप विचार का प्रतिपादन न किया गया हो । भारतीय परम्परा ही नहीं, बाहर की परम्पराओं में भी हमें यही सत्य उपलब्ध होता है । मुस्लिम संस्कृति के उन्नायक मोहम्मद ने भी जीवन के इन्हीं दोनों पक्षों को स्वीकार किया है । बाइबिल में ईसा ने भी विचार के साथ आचार को स्वीकार किया है । चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूसियस और लाओत्से ने भी अल्पाधिक. रूप में विचार के साथ आचार को मान्यता प्रदान की है । मैं आपसे यह कह रहा था, कि मानव-जीवन की परिपूर्णता विचार और आचार के समन्वय से ही होती है और आचार के बिना विचार का कुछ भी मूल्य नहीं है । इसी प्रकार विचार-विहीन आचार का भी २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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